बुधवार, 11 जून 2014

पाकिस्तान में आतंकवाद

पाकिस्तान  के कराची हवाई अड्डे पर हमलों का  सिलसिला लगातार जारी  है। तहरीके तालिबान पाकिस्तान ने  हमलों की जि़म्मेदारी ली है।  इन हमलों  के बाद आतंकवाद की राजनीति में एक नया अध्याय जुड़ गया है।  जब पाकिस्तान के तत्कालीन फौजी तानाशाह जनरल जिय़ा उल हक़ ने आतंकवाद को विदेशनीति का बुनियादी आधार बनाने का खतरनाक खेल खेलना  शुरू किया तो दुनिया के शान्तिप्रिय लोगों ने उनको आगाह किया था कि आतंकवाद को कभी भी राजनीति का हथियार नहीं बनाना चाहिए।  लेकिन जनरल  जिया  अपनी जि़द पर अड़े रहे।  भारत के कश्मीर और पंजाब में उन्होंने फ़ौज़ की मदद से आतंकवादियों को झोंकना शुरू कर दिया।  अफगानिस्तान में भी अमरीकी मदद से उन्होंने आतंकवादियों  की बड़े पैमाने पर तैनाती की।  इस इलाक़े की मौजूदा तबाही का कारण यही है कि  जनरल  जिया का आतंकवाद अपनी जड़ें  जमा चुका है।
पाकिस्तानी आतंकवाद की सबसे नई बात यह है कि  पहली बार पाकिस्तानी फ़ौज़ और आई एस आई के खिलाफ इस बार उनके द्वारा पैदा किया गया आतंकवाद ही मैदान में है।  पहली बार पाकिस्तानी इस्टैब्लिशमेंट के खिलाफ तालिबान के लड़ाकू हमला कर रहे हैं।  इसलिए जो आतंकवाद भारत को नुकसान पंहुचाने के लिए पाकिस्तानी फ़ौज़ ने तैयार किया था वह अब उनके ही सर की मुसीबत बन चुका है।  भारत में भस्मासुर की जो अवधारणा बताई जाती है, वह पाकिस्तान में सफल होती नजऱ रही है।  अस्सी  के दशक में पाकिस्तान अमरीका की कठपुतली के रूप में भारत के खिलाफ आतंकवाद फैलाने का काम करता था।  यह  बात हमेशा से ही मालूम थी कि  अमरीका तब से भारत का विरोधी हो गया था जब से अमरीका की मंजूरी के खिलाफ जवाहरलाल  नेहरू ने निर्गुट आन्दोलन  की स्थापना की थी।  कऱीब तीन साल पहले अमरीका की जे एफ के लाइब्रेरी में नेहरू-केनेडी पत्रव्यवहार को सार्वजनिक किये जाने के बाद कुछ ऐसे तथ्य सामने आये हैं जिनसे पता चलता है कि अमरीका ने भारत की मुसीबत  के वक्त कोई मदद नहीं की थी।  भारत के  ऊपर जब 1962 में चीन का हमला हुआ था तो वह नवस्वतंत्र भारत के लिए सबसे बड़ी मुसीबत थी उस वक्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अमरीका से मदद माँगी भी थी लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति जॉन केनेडी ने कोई भी सहारा नहीं दिया  और नेहरू की चिठिठयों का जवाब तक नहीं दिया था।  इसके बाद इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद लिंडन जॉनसन  ने भारत का अमरीकी कूटनीति के हित में इस्तेमाल करने की कोशिश की थी लेकिन इंदिरा गाँधी ने अपने राष्ट्रहित को महत्व दिया और अमरीका के हित से ज्यादा महत्व अपने हित को दिया और गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की नेता के रूप में भारत की इज़्ज़त बढ़ाई। हालांकि अमरीका की यह हमेशा से कोशिश रही है कि वह एशिया की  राजनीति में भारत का अमरीकी हित में इस्तेमाल करे लेकिन भारतीय विदेशनीति के नियामक अमरीकी राष्ट्रहित के प्रोजेक्ट में अपने आप को पुर्जा बनाने को तैयार नहीं थे

पिछले साठ वर्षों के इतिहास पर नजऱ डालें तो समझ में जाएगा कि अमरीका ने भारत को हमेशा  ही नीचा दिखाने की कोशिश की है। 1948 में जब कश्मीर मामला संयुक्तराष्ट्र में गया था तो तेज़ी से सुपर पावर बन रहे अमरीका ने भारत के खिलाफ काम किया था।  1965 में जब कश्मीर में घुसपैठ हुआ उस वक्त के पाकिस्तानी तानाशाह जनरल अय्यूब  ने भारत पर हमला किया था तो उनकी सेना के पास जो भी हथियार थे सब अमरीका ने ही उपलब्ध करवाया था। उस लड़ाई में जिन पैटन टैंकों को भारतीय सेना ने रौंदा था, वे सभी अमरीका की खैरात के रूप में पाकिस्तान  की झोली में आये थे। पाकिस्तानी सेना के हार जाने के बाद अमरीका ने भारत पर दबाव बनाया था कि वह अपने कब्जे वाले पाकिस्तानी इलाकों को छोड़ दे। 1971 की बंगलादेश की मुक्ति की लड़ाई में भी अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन ने  तानाशाह याहया खां के बड़े भाई के रूप में काम किया था और भारत  को धमकाने के लिए अमरीकी सेना के सातवें बेडे को बंगाल की खाड़ी में तैनात कर दिया था उस वक्त के अमरीकी विदेशमंत्री हेनरी कीसिंजर ने उस दौर में पाकिस्तान की तरफ से पूरी दुनिया  में पैरवी की थी। संयुक्तराष्ट्र में भी भारत के खिलाफ काम किया था। जब भी भारत ने परमाणु परीक्षण किया अमरीका को तकलीफ हुई भारत ने बार -बार पूरी दुनिया से अपील की कि बिजली पैदा करने के लिए उसे परमाणु शक्ति का विकास करने दिया जाए, लेकिन अमरीका ने शान्तिपूर्ण परमाणु के प्रयोग की कोशिश के बाद भारत के ऊपर तरह-तरह की पाबंदियां लगाईं। उसकी हमेशा कोशिश रही कि वह भारत और पाकिस्तान को बराबर की हैसियत वाला मुल्क बना कर रखे लेकिन ऐसा करने में वह सफल नहीं रहा। आज भारत के जिन इलाकों में भी अशांति है,वह सब अमरीका की कृपा से की गयी पाकिस्तानी  दखलंदाजी की वजह से ही है। कश्मीर में जो कुछ भी पाकिस्तान कर रहा है उसके पीछे पूरी तरह से अमरीका का पैसा लगा है पंजाब में भी आतंकवाद पाकिस्तान की फौज की कृपा से ही शुरू हुआ था


आज हम देखते हैं कि अमरीका ने जिस पाकिस्तानी आतंकवाद के ज़रिये भारत की एकता पर प्राक्सी हमला किया था  पाकिस्तान  ही मुसीबत बन गया है। पाकिस्तानी  फ़ौज़ और राजनेताओं को चाहिए कि वे अपने देश की सुरक्षा को सबसे ऊपर  रखें और भारत की मदद से आतंकवाद के खात्मे के लिए योजना बनाएं वरना एक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान  का अस्तित्व खतरे में पड़  जाएगा।  

मंगलवार, 10 जून 2014

भारतीय उद्योगों के लिए सबक

एम्बेसडर कारें भारत की कई पीढिय़ों की यादों का हिस्सा रहीं। 1960-70 के दशकों में भारत के ज्यादातर हिस्सों में नजर आने वाली अकेली कार एम्बेसडर ही थी। 1980 के दशक में मारुति-800 ने इसे सड़कों से धकेला। धीरे-धीरे यह सिर्फ मंत्रियों, सरकारी अफसरों और दफ्तरों के उपयोग की कार बन गई। 1990 के दशक में भारतीय बाजार विदेशी कारों के लिए खुला। इस दौर में एम्बेसडर अधिकांशत: टैक्सियों में तब्दील हो गई। धीरे-धीरे इस क्षेत्र में भी इसका वर्चस्व टूट गया। 1980 के दशक में सालाना तकरीबन 24,000 एम्बेसडर कारें बिकती थीं। अब यह संख्या महज 5000 रह गई थी।

अब इसे बनाने वाली कंपनी हिंदुस्तान मोटर्स (एचएम) ने पश्चिम बंगाल स्थित उत्तरपाड़ा कारखाने को फिलहाल बंद करने का एलान किया है। इससे वहां के लगभग 2,600 कर्मचारियों का भविष्य अधर में लटक गया है। बंद की अवधि में उन्हें वेतन नहीं मिलेगा। कारखाना दोबारा चालू होने की संभावना  बहुत कम है।

कंपनी के मुताबिक अप्रैल 2012 से दिसंबर 2013 तक उसे 120 करोड़ रुपए का घाटा हुआ। मगर यह प्रश्न प्रासंगिक है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है? एम्बेसडर का जो बना-बनाया बाजार था, एचएम उसे उस दौर में आगे क्यों नहीं बढ़ा पाई, जब भारत में कारों का बाजार तेजी से फैला। आज हर महीने देश में डेढ़ लाख से ऊपर कारें बिकती हैं। नई और बाहरी कंपनियां बाद में आकर इस बाजार में जम गईं।

क्या यह कहना गलत होगा कि एचएम प्रतिस्पर्धा में टिकने के लिए आवश्यक कल्पनाशीलता और क्षमता दिखाने में विफल रही? एम्बेसडर का डिजाइन पुराने जमाने जैसा बना रहा। उसके बारे में धारणा कायम रही कि ये अत्यधिक ईंधन खाती है और कम रफ्तार देती है, जबकि वक्त और उपभोक्ताओं की पसंद तेजी से आगे बढ़ी। स्पष्टत: एम्बेसडर एक ऐसी मिसाल बन कर विदा हो रही है, जिससे भारतीय उद्योग जगत को सबक लेने की जरूरत है। वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था के दौर में प्रतिस्पर्धा कड़ी है।


इसमें वही उत्पाद टिक सकता है, जो उपभोक्ताओं की बदलती मांग के मुताबिक परिवर्तित हो, निरंतर नई खूबियों के साथ सामने आए और नई पीढ़ी को रोमांचित करने की क्षमता रखता हो। एम्बेसडर के साथ ऐसा क्यों नहीं हुआ, एचएम को इसकी पड़ताल जरूर करनी चाहिए।

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