गुरुवार, 7 अगस्त 2014

डब्लूटीओ में भारत की जीत

गत वर्ष विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) की इंडोनेशिया में वार्ता हुई थी। दो महत्वपूर्ण मुद्दों पर सहमति बनी थी। पहला मुद्दा गरीब को दिए जाने वाले सस्ते खाद्यान्न का था। सरकार द्वारा किसान से महंगा खाद्यान्न खरीदकर गरीब को सस्ते दाम पर मुहैया कराया जा रहा है जैसे 15 रुपये किलो में गेहूं खरीदकर बीपीएल परिवार को 1 रुपये में बेचा जा रहा है। डब्लूटीओ के वर्तमान नियमों के अंतर्गत इस सब्सिडी की अधिकतम सीमा निर्धारित है। उपरोक्त सब्सिडी इस सीमा से अधिक है। पूरी सम्भावना थी कि आस्ट्रेलिया जैसे निर्यातक देशों द्वारा डब्लूटीओ की अदालत में भारत के खिलाफ वाद दायर किया जाता। अत: डब्लूटीओ के नियमों में बदलाव करना जरूरी थी। इंडोनेशिया में सहमति बनी थी कि विकासशील देशों के द्वारा यह सब्सिडी अगले चार वर्षों तक दी जा सकेगी। इन चार वर्षों में समस्या का स्थायी समाधान खोज लिया जायेगा।

इस निर्णय में महत्वपूर्ण सिद्धान्त छुपा हुआ था। तब तक मान्यता थी कि भोजन में भी खुले व्यापार को अपनाना चाहिए। जो देश गेहूं महंगा पैदा करते हैं उन्हें उन्हें आयात करके अपने नागरिकों का पेट भरना चाहिए। अपनी जरूरत के भोजन का स्वयं उत्पादन करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। अपने किसानों की जीविका बचाने के लिये उन्हें सस्ते आयातों से संरक्षण नहीं देना चाहिए।  पिछले दशक में इस सिद्धान्त के कारण कई विकासशील देशों को भारी परेशानी हुई है। हुआ यूं कि कुछ समय पहले तक विश्व बाजार में खाद्यान्न सस्ते थे। इन देशों ने अपनी अर्थव्यवस्था को सस्ते खाद्यान्न के आयात के लिए खोल दिया। इनकी घरेलू उत्पादन व्यवस्था जर्जर हो गई जैसे नहर का रखरखाव नहीं हुआ। समयक्रम में विश्व बाजार में खाद्यान्न के मूल्यों में एकाएक उछाल गया। अब इन देशों को महंगे खाद्यान्न को खरीदना पड़ा। चूंकि घरेलू उत्पादन व्यवस्था चौपट हो चुकी थी। खाद्यान्न के मूल्यों में वृद्धि के कारण कई देशों में आन्दोलन और उत्पात हुए।  डब्लूटीओ के इस मौलिक सिद्धान्त में अब परिवर्तन हो गया है। नया सिद्धान्त है कि हर देश को अपने देश को, अपने नागरिकों को सस्ता अनाज मुहैया कराने का अधिकार है। ऊंचे मूल्यों पर खाद्यान्न खरीदने का भी अधिकार है। एक प्रकार से कृषि को डब्लूटीओ से बाहर कर दिया गया है जो कि ठीक ही है।

इंडोनेशिया में दूसरी सहमति व्यापार के सरलीकरण पर हुई थी। वर्तमान में हर देश अपनी सुविधा के अनुसार आयातित माल की जांच के नियम बनाता है। जैसे एक देश गेहूं में आधा प्रतिशत मिट्टी हो तो उसे साफ मान सकता है जबकि दूसरा देश उसी गेहूं को अस्वीकार कर सकता है। माल के इनवायस में कितनी डिटेल लिखी होनी चाहिए  इत्यादि तमाम नियम हर देश द्वारा अलग-अलग बनाए जाते हैं। इससे निर्यातकों को खासी परेशानी होती है। उन्हें माल भेजते समय अलग-अलग देशों के नियमों के अनुसार अलग-अलग कागजाद बनाने पड़ते हैं और अलग-अलग क्वालिटी का ध्यान रखना पड़ता है। इसके अतिरिक्त बंदरगाह अथवा हवाईअड्डे से माल को बाजार तक पहुंचाने की सड़क आदि की समुचित व्यवस्था हर देश में नहीं थी। इस मुद्दे पर इंडोनेशिया में सहमति बनी थी कि आयात एवं निर्यात के समान नियम बनाये जायेंगे और हर देश को सड़क एवं कन्टेनर टर्मिनल जैसी न्यूनतम सुविधाएं उपलब्ध करानी होगी।  अमेरिका समेत अमीर देश इस समझौते पर दबाव दे रहे थे। उनका आकलन था कि व्यापार के सरलीकरण से उनकी कम्पनियों के लिये निर्यात करना आसान हो जायेगा।

सही है कि इस समझौते से माल की ढुलाई का खर्च कम होगा और विश्व व्यापार में वृद्धि होगी। परन्तु मुझे संशय है कि यह अमीर देशों के लिए विशेष लाभकारी होगा। कारण कि ढुलाई खर्च कम होने का हमारे निर्यातों पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। माल की क्वालिटी आदि के समान मानदण्डों के लागू होने से हमारे निर्यातकों की राह भी आसान हो जायेगी। बंदरगाह से बाजार तक पहुंचाने के लिए आयातित माल के लिए जो सड़क बनाई जायेगी उसी सड़क पर निर्यात की ढुलाई करने वाली ट्रक भी दौड़ेगी। अत: व्यापार के सरलीकरण से दो तरफा लाभ होगा जैसे सड़क के एक तरफ लगे अवरोध को हटाने से दूसरे तरफ की ट्रैफिक भी चल निकलती है।

सच यह है कि वैश्विक प्रतिस्पर्धा में अमीर देश पीछे पड़ रहे हैं। 1995 में डब्लूटीओ समझौता सम्पन्न हुआ था। उस समय अमेरिका का व्यापार घाटा 166 बिलियन डालर था। 2012 में अमेरिका का व्यापार घाटा बढ़कर 741 बिलियन डालर हो गया है। 1995 के पहले विश्व व्यापार ज्यादा जटिल था। डब्लूटीओ संधि के बाद यह तुलना में सरल हुआ है। परन्तु अमेरिका का व्यापार घाटा घटने के स्थान पर बढ़ा है चूंकि डब्लूटीओ से विकासशील देशों के निर्यातों का रास्ता खुला है और अमीर देश हमारे सस्ते मालों से स्पर्धा नहीं कर पा रहे हैं।
अमीर देशों की चाहत है कि व्यापार के सरलीकरण का समझौता तत्काल लागू कर दिया जाए।  इंडोनेशिया में सहमति बनी थी कि इस समझौते को 31 जुलाई 2014 तक लागू कर दिया जायेगा। इस माह के अंत में इस उद्देश्य से डब्लूटीओ की वार्ता सम्पन्न हो रही है। समस्या है कि व्यापार सरलीकरण के समझौते पर दस्तखत करने पर खाद्य सब्सिडी का मामला लटका रह जायेगा। चूंकि वर्तमान छूट केवल चार वर्षों के लिये दी गई है। चार वर्षों में स्थायी समझौता नहीं हो पाने की स्थिति में हम दोनों तरह से मारे जायेंगे। व्यापार सरलीकरण समझौते से हम बंध चुके होंगे और खाद्य सब्सिडी को मिली छूट चार वर्षों के बाद समाप्त हो जायेगी।

दूसरी तरफ  भी संकट है। यदि हम इंडोनेशिया में हुए समझौते को तोड़ते हुए खाद्य सब्सिडी का स्थायी हल तत्काल मांगेंगे तो औद्योगिक देश भी इंडोनेशिया के समझौते को तोडऩे को स्वतंत्र होंगे। ऐसी स्थिति में उन्हें व्यापार सरलीकरण के लाभ नहीं मिलेंगे परन्तु हमारे द्वारा दी जा रही खाद्य सब्सिडी डब्लूटीओ कानून के अन्तर्गत अवैध हो जायेगी और औद्योगिक देश हमारे निर्यातों पर प्रतिक्रिया के रूप में प्रतिबंध लगाने को स्वतंत्र होंगे। इस घटनाक्रम के शुरू होने पर डब्लूटीओ की मूल संधि पर भी आंच सकती है।

फिलहाल भारत सरकार ने निर्णय लिया है कि व्यापार सरलीकरण समझौते पर तब तक दस्तखत नहीं किए जायेंगे जब तक खाद्य सब्सिडी का स्थायी हल नहीं ढूंढ़ लिया जाता है। भारत सरकार को अपने इस मन्तव्य पर टिके रहना चाहिये। डब्लूटीओ से औद्योगिक देशों को लाभ ज्यादा और विकासशील देशों को लाभ कम हुआ है। यह संधि निरस्त हो जाए तो घबराना नहीं चाहिए। संयुक्त परिवार के टूटने से अकसर छोटे परिवार तेजी से प्रगति करते हैं। इसी प्रकार डब्लूटीओ के टूटने से भारत तेजी से प्रगति कर सकता है।


परन्तु सुस्ताने की जरूरत नहीं है। डब्लूटीओ संधि लागू होने के बाद गरीब देशों की स्थिति में मामूली सुधार ही आया है। गरीब और अमीर देशों के बीच फासला ज्यों का त्यों बना हुआ है। इस दुरूह स्थिति का पहला कारण है कि डब्लूटीओ में देशों के बीच माल के आवागमन को आसान बनाया गया है लेकिन मनुष्य के आवागमन पर प्रतिबन्ध लगाने को हर देश स्वतंत्र है। दूसरा कारण पेटेंट कानून है जिसके बल पर अमीर देश भारी लाभ कमा रहे हैं। इन मुद्दों को अगली मंत्री स्तरीय मीटिंग में उठाने की हमें तैयारी करनी चाहिए।

बुधवार, 6 अगस्त 2014

भारत-अमेरिका: रणनीतिक साझेदारी की दरकार

अमेरिकी विदेशी मंत्री जॉन केरी ने जब नई दिल्ली पहुंचकर अपना लम्बा-चौड़ा भाषण पढ़ा जिसमें कई बार भारत-अमेरिका सम्बंधों के महत्व का उल्लेख किया गया था, तभी यह लग गया कि केरी किस उद्देश्य से भारत आए हैं। सामान्यतया तो वे भारत के साथ पांचवीं वार्षिक 'रणनीतिक साझेदार' साझेदारी की बैठक में हिस्सा लेने वाले प्रतिनिधि मंडल के मुखिया के रूप में आए हैं लेकिन वास्तव में इसके पीछे मकसद दूसरा है। इस मकसद का एक पक्ष तो फ्रेंक स्नूकर, जो कि बिल क्लिंटन के समय नई दिल्ली में अमेरिकी राजदूत रह चुके हैं, के इन शब्दों में दिखाई देता है कि 'हमें बुद्धिमत्ता का प्रयोग करते हुए सोचना चाहिए कि यह सरकार भारत में 10 साल रह सकती है और इस लिहाज से हमारे पास राजनीतिक और सुरक्षा रिश्तों को नया मोड़ देने का वक्त है। दूसरा पक्ष विशुद्ध कारोबारी है। अब देखना यह है कि अमेरिका भारत में विशुद्ध कारोबारी उद्देश्य पूरे करना चाहता है या फिर वास्तव में वह भारत के साथ स्वाभाविक रणनीतिक साझेदारी चाहता है? यह सवाल तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, जब सही अर्थों में भारत और अमेरिका के बीच रणनीतिक साझेदारी दिशाहीन हो चुकी हो।

भारत के अमेरिका के साथ रिश्ते हमेशा से उतार-चढ़ाव वाले ही रहे हैं। उनमें एक विशेष बात यह दिखी कि अमेरिका को जब भारत की जरूरत पड़ी तो वह तत्काल भारत के करीब गया और जब उसे लगा कि भारत अपने बनाए रास्ते पर चलकर आगे बढ़ रहा है तो उसने किसी किसी प्रकार से भारत के मार्ग में अवरोध पैदा करने की कोशिश की। हालांकि अब केरी कह रहे हैं कि भारत-अमेरिका सम्बंधों में उतार-चढ़ाव इतिहास की बात हो चुकी है और अब भारत और अमेरिका 21वीं सदी के संभावित सहयोगी हैं। केरी का संभावित सहयोगी वाला शब्द नया नहीं है, बल्कि 2007 से लगभग 2011 तक यह कई बार प्रयुक्त हुआ, लेकिन सम्बंधों की इस नई छतरी के नीचे कोई प्रगति नहीं हो सकी। हालांकि इसके कई कारण भी रहे हैं। एक कारण तो भारत का कानून है जो अमेरिका की कई प्रकार की कमोडिटीज और सेवाओं को मुक्त मार्ग उपलब्ध कराने में बाधक बन रहा है। अमेरिकी प्रशासन कई बार इस प्रकार के नियमों को अमेरिकी व्यापार के विरुद्ध बताता रहा है और बदले में भारत के खिलाफ कुछ इसी तरह की कार्रवाइयां भी करता रहा है। यदि अमेरिकी वस्तुओं और सेवाओं का निर्यात निर्बाध रूप से तीव्रगति से भारत की ओर होता रहता तो शायद दोनों के मध्य स्थापित रिश्तों पर भी प्रभाव नहीं पड़ता। लेकिन भारत की विकासदर लगातार घटती गई और तत्कालीन सरकार सुधारों के पैमाने पर लगातार पिछड़ती चली गई। जिससे अमेरिकी कम्पनियों को भारत से ज्यादा कमाई करने का अवसर हाथ नहीं लग सका। इसके साथ ही कुछ मसलों में भारत उसके साथ मिलकर नहीं चल पाता, बल्कि उसे विरुद्ध चला जाता है, फिर चाहे वह विश्व व्यापार संगठन में ट्रेड फैलिसिटेशन एग्रीमेंट (टीएफए) का मामला हो या यूएनएचआरसी में इजराइल के खिलाफ वोटिंग हो... पिछले एक दशक में जिस तरह से क्षेत्रीय वैश्विक परिस्थितियां परिवर्तित हुई हैं, उससे नये रणनीतिक-सामरिक समीकरणों का निर्माण हुआ है जिससे नई जटिलताएं उपजी हैं और नई चुनौतियों का जन्म भी हुआ है। अमेरिका को इनके समाधान निकालने में भारत का साथ प्रत्येक स्थिति में चाहिए है, लेकिन भारत कई मोर्चों पर अमेरिका के साथ होता है और बहुत से मोर्चों पर नहीं भी, फिर चाहे वह यूक्रेन का मसला हो अथवा ईरान का, सीरिया का, इजराइल-हमास अथवा एशिया-प्रशांत का। 

हालांकि भारत के सामने भी कुछ ऐसी चुनौतियां हैं जिन पर अमेरिका का सहयोग जरूरी है, लेकिन इसके लिए भारत को वरीयताएं तय करनी होंगी और यह देखना होगा कि उसे तुलनात्मक तौर कहां से ज्यादा लाभ मिल सकता है, विशेषकर पाकिस्तान, अफगानिस्तान, चीन और आतंकवाद के मसले पर। अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी के बाद स्थितियां अनियंत्रित हो सकती हैं जिनका फायदा तालिबान उठाएगा। यह भी संभव है कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान तालिबान आपस में मिलकर ताकत को और बढ़ाएं। चूंकि यह आईएसआई के बिना संभव नहीं हो सकता और आईएसआई इसका प्रयोग भारत के खिलाफ करना चाहेगी। पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद पर सार्थक सफलता प्राप्त करने के लिए अमेरिकी सहयोग की जरूरत होगी।  हालांकि कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जहां अमेरिकी प्रभाव बढऩे से अस्थिरता बढऩे की संभावना बढ़ेगी, विशेषकर एशिया-प्रशांत क्षेत्र में, लेकिन इसके बावजूद भी चीन की आक्रामकता को रोकने के लिए अमेरिकी सैन्य प्रभाव का बढऩा जरूरी है।

भारत-अमेरिकी रिश्तों पर गौर करें तो पता चलेगा कि शीतयुद्ध के समय से ही भारत और अमेरिका के बीच वैमनस्यता का रिश्ता रहा। इस वजह से दोनों के बीच गतिरोध के अतिरिक्त और कोई गुंजाइश ही नहीं थी। लेकिन सोवियत संघ के पतन के बाद भारत ने अपना ट्रैक बदल दिया जो आर्थिक और वैदेशिक दोनों ही क्षेत्रों में दिख रहा था। ऐसे में यह संभव था कि दोनों देश एक-दूसरे के निकट आएं लेकिन पोखरण दो के बाद यह संभावना भी समाप्त हो गई। अमेरिका ने 1994 के 'परमाणु प्रसार निषेध कानूनÓ के अन्तर्गत 13 मई 1998 को भारत पर तमाम प्रतिबंध लगा दिए। चूंकि भारत इसके बावजूद भी झुका और ही रुका, अत: वर्ष 2000 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भारत आने पर विवश हो गए। इसके बाद जॉर्ज बुश ने नई दिल्ली के साथ अमेरिकी सहयोग की संरचना पर पुन: विचार किया और अनेक प्रतिबंधों को हटाने की घोषणा की। साथ ही उन्होंने भारत के साथ निकटता स्थापित करके उच्च तकनीकी सहयोग के लिए दरवाजे खोल दिए, आतंकवाद के खिलाफ भारत की अपनी लड़ाई के लिए राजनीतिक समर्थन प्रदान किया, कश्मीर के मामले पर पाकिस्तान के साथ ऐतिहासिक नीति का अंत कर दिया तथा चीनी-भारतीय समीकरण के प्रति अमेरिकी नीति में परिवर्तन करने की कोशिश की। यही नहीं, अब कुछ भारत-अमेरिका सम्बंधों में कुछ ऐसे विषय जुड़े, जैसे-अन्तरराष्ट्रीय आतंकवाद, परमाणु अस्त्र-शस्त्रों तथा व्यापक विनाश के शस्त्रों के प्रसार पर रोक, वैश्विक लोकतंत्र का बढ़ावा, नए ऊर्जा संसाधन और जीवाश्म ईंधन के नए विकल्पों की खोज तथा चीन का आर्थिक शक्ति के रूप में उदय... आदि, जिसके चलते भारत-अमेरिका सम्बंध रणनीतिक स्तर तक पहुंच गए। इन रिश्तों ने एक तरफ भारत के प्रति वैश्विक नजरिया बदल दिया और दूसरी तरफ भारत को अमेरिका का रणनीतिक सहभागी (स्ट्रैटेजिक पार्टनर) बना दिया। इस दिशा में 'भारत-अमेरिका असैनिक परमाणु समझौताÓ बेहद महत्वपूर्ण रहा। लेकिन इसके बाद कुछ दोनों तरफ से ऐसे कदम उठाए गए कि दोनों देशों के मध्य खास बढ़ती गई, उदाहरण के तौर पर अमेरिका ने परमाणु समझौते के साथ एग्रीमेंट 123, हाइड एक्ट और 'एंड यूज मॉनिटरिंग एग्रीमेंटÓ (इयूएमए) जैसे कुछ नकारात्मक कानून जोड़ दिए तो भारत ने 'सिविल न्यूक्लियर लिएबिलिटी बिलÓ जैसे कानून बनाकर अमेरिकी प्रोवाइडर्स की स्वच्छंदता को समाप्त कर दिया। चूंकि 2011 से भारत की अर्थव्यवस्था में गिरावट आनी शुरू हो इसलिए इसलिए अमेरिकी कम्पनियां मायूस होने लगीं। जैसे-जैसे ये परिवर्तन आते गए दोनों देशों के बीच सम्बंधों में खटास भी आती गई।
 

बहरहाल अब अमेरिका को लगता है कि वह मोदी सरकार के साथ बेहतर कारोबारी साझेदारी कायम कर सकते हैं  जिससे आर्थिक और रणनीतिक, दोनों ही मोर्चों पर बेहतर प्रभाव पड़ेगा।  ऐसा इसलिए है क्योंकि अमेरिकी अर्थशास्त्रियों और एजेंसियों को यह भरोसा है कि मोदीकाल में भारतीय अर्थव्यवस्था तेजी से ग्रोथ करेगी फलत: अमेरिकी कम्पनियों की लाभ की संभावनाएं बढ़ेंगी। अभी जब प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका जाएंगे तो अमेरिकी रक्षामंत्री चेक हेगल से बातचीत होगी जिससे अमेरिकी मिलिट्री-इण्डस्ट्री के लिए भी रास्ते खुल सकते हैं। लेकिन क्या अमेरिका उस दर्द को बर्दाश्त करेगा जिसकी चुभन प्राय: व्यक्त हो जाती है। इनमें एक है भारत का डब्ल्यूटीओ के प्रति रुख जो पिछले कई वर्षों से उसकी खाद्यान्न उत्पादन और सब्सिडी को लेकर शर्तों का विरोध कर रहा है। दूसरा है, भारत की ब्रिक्स में सक्रियता जिसे चीन और रूस अमेरिकी अर्थव्यवस्था के विरुद्ध एक रणनीतिक मंच की तरफ प्रयुक्त करना चाहते हैं और तीसरी है मध्य-पूर्व में भारत का अमेरिका से भिन्न रुख... आदि। फिलहाल चाहे वह कारोबार का क्षेत्र हो, चाहे रणनीति का हो अथवा प्रौद्योगिकीय विकास का भारत में पर्याप्त पोटेंशियल (संभावित क्षमता) है, इसलिए अमेरिका प्रत्येक स्थिति में भारत के साथ सम्बंधों में बहुआयामी विकास चाहेगा, लेकिन आगे बढऩे से पहले भारत को अपनी वरीयताएं सुनिश्चित करनी होंगी।

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