मंगलवार, 25 जून 2013

शहरीकरण की चुनौतियां

वैश्विक पटल पर भारत समेत एशियाई देश शहरीकरण में कदम रखने वाले अपेक्षाकृत नए खिलाड़ी हैं। लैटिन अमेरिका सहित पाश्चात्य देशों का एशिया से काफी पहले ही शहरीकरण हो चुका है। 1901 में भारत में कुल 10.8 फीसद आबादी ही शहरों में रहती थी। 1991 तक यह आंकड़ा 26 प्रतिशत पर पहुंच गया था और 2011 में 31 प्रतिशत तक। इसके विपरीत चीन का शहरीकरण पहले ही हो चुका है। 1991 में एक-तिहाई चीनी शहरों में रहते थे। 2011 तक वहां आधी आबादी शहरों में बस चुकी थी। हालांकि भारत ने अतीत में जो कुछ गंवाया था उसकी पूर्ति अब बड़ी तेजी से कर रहा है। पिछले दशक के दौरान 2800 नए कस्बों (टाउन) का निर्माण हुआ।

भारत में टाउन उन शहरों को कहा जाता है जिनकी आबादी पांच हजार से अधिक है और जहां आबादी का न्यूनतम घनत्व प्रति वर्ग किलोमीटर 400 व्यक्ति है। तमाम विकासशील देशों में शहरीकरण तेजी से हो रहा है। सन 2050 तक शहरीकरण की यही गति बरकरार रहने की उम्मीद है। यद्यपि अलग-अलग देशों में इसकी दर अलग-अलग रहेगी। उदाहरण के लिए 2011 से 2030 तक वैश्विक शहरी आबादी में 140 करोड़ की वृद्धि का अनुमान है, जिसमें 27.6 करोड़ वृद्धि चीन में और 21.8 करोड़ भारत में होगी। ये दोनों देश नई शहरी आबादी में 37 प्रतिशत का योगदान देंगे। 2030 से 2050 तक हालात बदल जाएंगे। तब विश्व की शहरी आबादी में 130 करोड़ की वृद्धि होगी, जो 2011-30 कालखंड में होने वाली वृद्धि से कम है। इसमें सबसे बड़ी 27 करोड़ की हिस्सेदारी भारत की होगी। इसके बाद नाइजीरिया रहेगा। वहां 12.1 करोड़ लोग शहरों में बस जाएंगे। ये दोनों देश विश्व की नई शहरी आबादी में 31 फीसदी का अंशदान देंगे। इस बीच चीन में नई शहरी आबादी में महज 4.4 करोड़ की वृद्धि होगी। वैश्विक दृष्टिकोण से भारत के शहरीकरण की प्रक्रिया बहुत तेज और बेहद महत्वपूर्ण होगी। 2030 तक भारत में दस लाख से अधिक आबादी वाले करीब 70 शहर होंगे।

मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, बेंगलूर और पुणे में एक करोड़ से अधिक आबादी होगी। मुंबई और दिल्ली विश्व के सबसे बड़े पांच शहरों में शामिल होंगे। शहरीकरण की बहुत सी चुनौतियां हैं। भारत में शहरीकरण की प्रक्रिया का प्रबंधन बेहद खराब तरीके से हुआ है, खासतौर पर चीन की तुलना में। अगर इसमें सुधार नहीं हुआ तो इससे आम आदमी का जीवन नारकीय हो जाएगा। दुर्भाग्य से भारतीय शहरों के विकास में निवेश बहुत ही कम हुआ है। संयुक्त राष्ट्र के आकलन के मुताबिक भारत के शहरी क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति निवेश मात्र 17 डॉलर है। यह चीन में निवेश का सातवां हिस्सा और न्यूयॉर्क का 17वां हिस्सा है। यही नहीं, भ्रष्टाचार, गलत संसाधन आवंटन और खराब क्रियान्यन के कारण जो राशि इस मद में खर्च की भी गई है, उसके भी अपेक्षित परिणाम नहीं आए हैं। भारत के शहरी जीवन के स्तर को उठाने के लिए शहरों में होने वाले खर्च में सात से दस गुना की वृद्धि करनी पड़ेगी। साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि शहरी विकास पर होने वाले खर्च का सही ढंग से प्रबंधन किया जाए और भ्रष्टाचार का स्तर नीचे लाया जाए। यह एक मुश्किल काम जरूर है, पर असंभव नहीं।


हम शहरों में तीन बुनियादी जरूरतों-पानी की आपूर्ति, जल एवं मल प्रबंधन और बिजली की उपलब्धता पर नजर डालें तो भारत के शहरों की बदहाली स्पष्ट हो जाएगी। अफसोस की बात है कि भारत में एक भी शहरी क्षेत्र नहीं है, जहां स्वास्थ्य को खतरे में डाले बिना सरकारी नल में आने वाले पानी को पिया जा सके और जहां सीवर की गंदगी को उचित ढंग से शोधन के बाद ही नदी-नालों में बहाया जाता हो, ताकि पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा न हो। हालिया वर्षो में कई शहरों में पानी की गुणवत्ता और आपूर्ति में सुधार होने के बजाय और गिरावट देखने को मिल रही है। भारत के अधिकांश शहरों में आमतौर पर 40 से 60 फीसदी पानी बर्बाद हो जाता है। देश की राजधानी दिल्ली में बिना शोधन के ही गंदगी को यमुना नदी में बहा दिया जाता है। थर्ड व‌र्ल्ड सेंटर फॉर वाटर मैनेजमेंट का आकलन है कि भारत में कुल गंदे पानी के 10 प्रतिशत से भी कम को उचित रूप में शोधन करके नदी-नालों-झीलों में डाला जाता है। दिसंबर में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया कि सीवर की गंदगी के शोधन के जिम्मेदार दिल्ली जल बोर्ड के अधिकारियों को जल शोधन के काम की जरा भी जानकारी और समझ नहीं है। इससे पहले अदालत को बताया गया था कि 1994 के बाद से यमुना की साफ-सफाई के लिए पांच हजार करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं, फिर भी यह खुला नाला बनी हुई है और कई स्थानों में इसमें ऑक्सीजन का स्तर शून्य पर आ गया है। इससे पता चलता है कि केवल पैसा नहीं, बल्कि उसका किस तरह इस्तेमाल होता है, यह अधिक महत्वपूर्ण है।

2005 में केंद्र सरकार ने एक योजना तैयार की थी, जिसके तहत 2012 तक पूरे देश में बिजली की आपूर्ति सुनिश्चित करने का लक्ष्य रखा गया था। अफसोस है कि इस योजना के क्रियान्वयन की गति बेहद धीमी है। आज भी तीन में से एक भारतीय तक बिजली की पहुंच नहीं है। जिन इलाकों में बिजली पहुंच भी गई है, वहां इसकी आपूर्ति बहुत कम है। वर्तमान में देश में प्रति व्यक्ति बिजली उपभोग विश्व के औसत का एक-तिहाई है। यह चीन के औसत उपभोग का 35 फीसदी और ब्राजील का 28 फीसदी है। बिजली की इस अंधेरगर्दी के कारण ही देश का शहरीकरण और विकास बाधित हो रहा है। अगर बुनियादी सुविधाओं के ये अस्वीकार्य स्तर कायम रहे तो एक दशक में ही शहरी क्षेत्रों को उन नारकीय हालात से गुजरना होगा जिनका सामना आज तक किसी भी पीढ़ी ने नहीं किया है। बिजली, पानी, सीवर, आवास और परिवहन समस्याओं से ही नहीं, बल्कि स्वास्थ्य, आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरण के अभूतपूर्व संकट से भी जूझना होगा। अफसोस की बात है कि भारत के एक भी शहर में 2030 तक भूउपयोग, आवास, बिजली, परिवहन, पानी और अपशिष्ट प्रबंधन को शामिल करते हुए कोई मास्टर प्लान मौजूद नहीं है। संतोष की बात है कि भारत के पास इन समस्याओं से निपटने का प्रबंधन, प्रौद्योगिकी और निवेश क्षमता है। कमी है तो राजनेताओं और नौकरशाहों की इच्छाशक्ति की। यह कब होगा इसी पर देश का भविष्य निर्भर करता है।


सोमवार, 24 जून 2013

Green National Accounting System In India



Government in 2011 had constituted an expert group under the chairmanship of Pratha Dasgupta from the Cambridge University to develop a framework for green national accounts, identification of data gaps and preparation of a road map for its implementation. The system of green national accounting would take into account the environmental costs of development and reflect the use of precious depletable natural resources in the process of generating national income. The need for green national accounts emerged as there was a growing recognition that contemporary national accounts were becoming unsatisfactory basis for economic evaluation. “The qualifier ‘green’ signals that we should be especially concerned about the absence of information on society’s use of the natural environment.” Double-digit GDP fixation is threatening India’s biodiversity and its long-term growth and security. Green accounting methods have estimated the loss of ecological wealth in India. GDP measures the value of output produced within a country over a certain time period. However, any depreciation measurements used, will account only for manmade capital and not the negative impact of growth on valuable natural capital, such as water, land, forests, biodiversity and the resulting negative effects on human health and welfare. Over the course of the last fifty years, India has lost over half its forests, 40 per cent of its mangroves and a significant part of its wetlands. At least 40 species of plants and animals have become extinct with several hundred more endangered.

In “green accounting” approach national accounts are adjusted to include the value of nature´s goods and services. Mr Jairam Ramesh, the former environment minister, advocated greening India’s national accounts by 2015 and encouraged policy makers to recognise the trade-off between pursuing high growth economic policies against the extensive impact they could have on India’s natural capital. The Green Indian States Trust (GIST) which, in 2003 unleashed a series of environmentally adjusted accounts under the Green Accounting for Indian States Project. According to their results, the loss of forest ecological services (i.e.soil erosion prevention, flood control and ground water augmentation) over three years (2001-03) due to declining dense forests was estimated at an astounding 1.1 per cent of GDP. According to GIST´s latest results, the North-Eastern states continue to be most affected, particularly Arunachal Pradesh and Mizoram where the loss of forest ecological services is more than 12 per cent of their NSDP.

India expects to put in place in five years a system of green national accounting that would take into account the environmental costs of development and reflect the use of precious depletable natural resources in the process of generating national income. “In the last few months, I have tried to set the ball rolling so that by 2015 at least we can have a system of green national accounting,” Union Minister of State for Environment and Forests Jairam Ramesh said here. Economists estimate gross domestic product (GDP) as a broad measure of national income, while net domestic product (NDP) accounts for the use of physical capital. “But as yet, we have no generally accepted system to convert gross domestic product into green domestic product that would reflect the use up of precious depletable natural resources in the process of generating national income”, he said. Economists all over the world have been at work for quite some time on developing a robust system of green national accounting but “we are not there as yet”. “Ideally, if we can report both gross domestic product and green domestic product, we will get a better picture of the trade-offs involved in the process of economic growth”, the Minister added. India expects to put in place in five years a system of green national accounting that would take into account the environmental costs of development and reflect the use of precious depletable natural resources in the process of generating national income.

A new global partnership to help developing countries integrate the economics of ecosystems into national accounting systems has been launched by the World Bank. The alarming loss of biological diversity around the world is attributable to the lack of proper valuation of the ecosystems and the services they provide. The valuation and its integration into national accounts are expected to lead to better management of natural environments. According to Mr Robert B. Zoellick, President, World Bank Group, the natural wealth of nations should be a capital asset valued in combination with its financial capital, manufactured capital and human capital. The national accounts should reflect the vital carbon storage services that forests provide and the coastal protection values that come from coral reefs and mangroves.

The first phase of the partnership to ‘green’ national accounts has been launched starting with India and Colombia, which will be in a group of six to 10 countries. A forthcoming World Bank Publication, titled ‘The Changing Wealth of Nations’, states that the commercial value of farmlands, forests, minerals and energy worldwide is more than $44 trillion, of which, the developing countries account for $29 trillion. But, there is more value in the services provided by ecosystems such as forests, like hydrology regulation, soil retention and pollination. The partnership initiative builds on ‘The Economics of Ecosystems and Biodiversity’ (TEEB) project of the United Nations Environment Programme (UNEP). It will include developing and developed countries, nongovernmental organisations and the global organisation for legislators. During the initial five-year pilot period, the programme will focus on how countries can quantify the ecosystems and their services in terms of income and asset values; developing ways to incorporate these values into policies on wealth and economic growth; and evolve guidelines for implementation of the valuations worldwide, according to a World Bank report. The feasibility studies to identify priority ecosystems will start soon in India and Colombia, while many other countries in Africa, Asia, Latin America and Central Europe have evinced interest to become partners in the pilot programme. India and Brazil lead the number of countries who are willing to draw on findings from the three-year study project The Economics of Ecosystems and Biodiversity (TEEB) to make their economies more environmentfriendly and effectively use the services of nature. The Brazilian and Indian governments are among those keen to use findings from The Economics of Ecosystems and Biodiversity (Teeb) project. Final results from the three-year study were unveiled here at the UN Convention on Biological Diversity meeting.Nature’s services must be counted if they are to be valued, its leader said.


Gyanesh Pandey


Corruption- Role of State and Civil Society

The recent bribery scandal in the defence helicopter deal of 3600 crore rupees has once again brought the issue of corruption on forefront in India. Interestingly, the Union Cabinet has accepted 14 out of 16 recommendation of the select committee for passing the Lokpal bill, meant to tackle corruption in the country.

It’s an irony that even a prolonged campaign against corruption last year could not throw any tangible solution. The matter is bursting at its seams but there is little hardly any respite to the common man hit hard by such unethical practices.  

India like many other countries of South and Southeast Asia is grappling with the problem of corruption. This evil has seeped into every segments of the country, be it administration, judiciary, legislature, education, health defence or developmental projects.
Corruption is mostly attributed to the government functionaries who demand a hefty sum for getting a simple job being done. The most popular adage is, one has to pay bribe for getting a birth or death certificate in India.  

 In 2012 India was ranked 94th out of 176 countries in the corruption list. The Transparency International Corruption Perceptions Index has found that more than 62% of Indians have first-hand experience of corruption in getting jobs or work done in public offices.

The causes of corruption in India include excessive regulations, complicated taxes and licensing systems, numerous government departments each with opaque bureaucracy and discretionary powers, monopoly by government controlled institutions on certain goods and services, delivery, and above all lack of transparency of laws and processes.

Indian corruption scenario could be divided into two phases, one before the economic liberalization in 1990 and second post liberalization.

In the first phase government nationalized many sectors of the Indian economy to protect the growth of its nascent industries. Thus began an era of license permit raj and corruption flourished with impunity. The business -government nexus developed. Only those who can afford to pay the officials were able to procure license for doing businesses.

With the opening up of the economy in 1990 the post liberalization era begun. In this phase the quantum of corruption multiplied manifold and continues to increase at an alarming pace.            
In the name of de -regularization and inviting private players, some government officials indulged in corrupt practices as many players scrambled for favors through greasing their palms.

The politicians, the bureaucrats, the middlemen nexus became all pervasive and all were seen hand in glove to provide fodder to corruption.

 As a result, every institution of the government was infested with the menace of corruption. Even in the private sector corruption started making its inroads.

Even though there are many laws and regulations to handle corruption, none seem to provide any relief to the people. They are all under the control of the government that’s seen as the engine of corruption.

When corruption hit the roof as scam after scam started surfacing every now and then and newspapers littered with corruption stories, common man became restless what to do, it’s  at this point of time some members of the civil society came forward to launch  campaign against corruption.

Anna Hazare, a prominent Gandhian along with other members of the civil society in 2011, launched a campaign to fight corruption in India. This campaign against corruption drew huge response and some even called it as second freedom struggle in the country.

The anti corruption campaign was essentially to bring a Lokpal bill that would constitute a separate body comprising prominent members of the civil society to monitor the corruption cases in the country. 

When the intricacies of this extra constitutional body was discussed and debated in the backdrop of Parliamentary democracy, the civil society’s campaign against corruption started receiving a lukewarm response from the masses, which initially whole heartedly supported the initiative taken by the civil society.

Anna Hazare ultimately had to withdraw his movement and disband his team that was in the forefront of this electrifying movement. Later, he made some attempts to kick start the movement holding a public rally but hardly any enthusiasm was seen among the general public.

Arvind Kejrewal, a member of team Anna and Right to Information activist took up the fight forward and launched a political outfit called ‘Aam Aadmi Party.’ It remains to be seen how this party fares in the general elections and fulfills the aspiration of the people. 

Meanwhile, the Union Cabinet has approved amendments to the official version of the Lokpal and Lokayuktas Bill that it brought in 2011 in wake of Anna Hazare’s agitation. The government has accepted 14out of 16 suggestions made by the Select Committee comprising of the members of the Rajya Sabha represented by all major political parties.

The bill accepted by the government rejected the core demand of the civil society making Lokpal appointment free from government control and providing autonomy to the Central Bureau of Investigation (CBI).

No wonder the members of the civil society have rejected the government’s move to control corruption as it has failed to address their key demand. 

So in the current situation, neither the government nor the civil society is able to come up with a plan of action to tackle corruption. The general feeling among the masses is both have failed to provide concrete solution to address the core issue. As a result the problem corruption continues to remain as it is in the country.


Syed Ali Mujtaba

शनिवार, 22 जून 2013

पर्यावरण असंतुलन और भारत की इदन्नमम् परंपरा

एक आंकलन के अनुसार अगले 50 वर्षों में ओजोन परत में हो रहे निरंतर क्षरण के कारण विश्व में त्वचा कैंसर के फैलने की प्रबल आशंका है। पर्यावरणविदों ने इस कैंसर के फैलने की आशंका शीतोष्ण जलवायु के उन क्षेत्रों में सबसे अधिक मानी है, जहां ओजोन की परत पतली है, स्पष्ट है यूरोपीय देश इसकी चपेट में है। परंतु इसका अभिप्राय यह नही कि खतरा हमसे दूर है और हम आराम से रह सकते हैं। पूरी धरती गरमा रही है और उससे पूरे भूमण्डल को ही खतरा है। गर्माती धरती के कारण अधिक प्रचण्ड और अनिश्चित मौसम अपना प्रभाव दिखाएगा जिससे अकाल, बाढ़, तूफान आदि में वृद्घि होगी और इसके परिणाम स्वरूप मृत्यु दर चोट ग्रस्त होने की दर तथा कीटों के विस्तार के साथ संक्रामक रोगों के फैलने की दर में वृद्घि दर्ज होगी। एक से तीन डिग्री सेल्सियस की वैश्विक तापवृद्घि संभवत: शीतोष्ण क्षेत्रों में अत्यधिक गर्म दिवसों की संख्या में वृद्घि करेगी। जिसके परिणाम स्वरूप तापघात के कारण कई हजार अतिरिक्त मौतें प्रतिवर्ष हो सकती हैं। गर्मियों की बढ़ती तपिश से बचने के लिए वातानुकूलित विधियों को प्रयोग करने में सक्षम लोग इसका अधिकाधिक उपयोग करेंगे जिससे विद्युत ग्रहों के द्वारा वायु प्रदूषण में वृद्घि होगी। विद्युत संयंत्रों से निकलने वाले सूक्ष्म कण सीधे तौर पर सांस एवं हृदय रोगों में वृद्घि कर रहे हैं। इससे अस्पतालों में रोगियों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। वर्तमान चिकित्सा विज्ञान यद्यपि अपनी सफलता पर इतरा रहा है और अपनी पीठ अपने आप ही थपथपा रहा है, परंतु वास्तव में यह विज्ञान अब सफलता के नही अपितु अपनी असफलता के सर्वाधिक निकट है, क्योंकि किसी भी प्रकार की महामारी के फैलने पर सिवाय लाशों को जल्दी जल्दी अस्पतालों से बाहर फेंकने और हटाने के इसके पास कोई उपाय नही होगा। बिगड़ते पर्यावरण का घातक प्रभाव भारत पर भी पड़ रहा है। वैश्विक तापवृद्घि के कारण भारत में चिकनगुनिया व डेंगू जैसे बुखारों ने भयानक स्तर पर अपनी दस्तक दी है। अक्टूबर 2000 में भारत के आठ प्रांतों के 151 जिले चिकनगुनिया की चपेट में आये थे। इन राज्यों में आंध्र प्रदेश, अण्डमान और निकोबार द्वीप समूह, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश केरल और दिल्ली थे। देश भर में चिकनगुनिया के 12 लाख 50 हजार से अधिक रोगी पाए गये, जिनमें से 52,245 रोगी कर्नाटक में तथा 2,58,998 रोगी महाराष्ट्र में थे। जबकि डेंगू 1996 में पहली बार गंभीर रूप में भारत की राजधानी दिल्ली में आया था। इस महामारी के कुल मिलाकर दस हजार मामले उस समय प्रकाश में आये थे और उनमें से चार सौ की मौतें हो गयीं थीं। दिल्ली आज भी ऐसी महामारियों के लिए सबसे अधिक संवेदनशील क्षेत्रों में से एक है। 1996 में ही इस बीमारी की उपस्थिति लुधियाना में भी दर्ज की गयी थी, जबकि 1974 में इसे जम्मू क्षेत्र में भी देखा और महसूस किया गया था।
वैश्विक तापवृद्घि के कारण लू के थपेड़ों से मरने वालों की संख्या भी प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है। 1990 में जहां लू केवल छह दिन चली थी वहीं 1995 में 29 दिन और 1998 में 27 दिन चली। 1990 में राजस्थान में ही लू देखी गयी थी, और उससे भी कोई मौत नही हुई। लेकिन 1998 में पंजाब राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, दक्षिण तमिलनाडु में लू का प्रकोप रहा और इससे 1300 मौतें हुईं। ऐसा नही कि लू 1990 से पहले चलती नही थी लू तो चलती थी, लेकिन उस समय मौसम में अचानक उतार चढ़ाव नही आता था। वैश्विक तापवृद्घि ने मौसम में अप्रत्याशित उतार चढ़ाव की समस्या को उत्पन्न किया है। जिससे लू के थपेड़ों में और चक्रवातों से होने वाली भारी वर्षा में वृद्घि हुई है। जिस प्रकार धरती गरमाती जा रही है, उससे विश्व के हिम क्षेत्रों के पिघलने और समुद्रों के जल स्तर में भारी वृद्घि होने की आशंका व्यक्त की जा रही है। इससे बहुत से समुद्री द्वीपों और समुद्र के पास रहने वाले देशों के जलमग्न हो जाने की भी आशंका है। प्रचण्ड मौसम के कारण मानव स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है और दस्त, हैजा व पानी में जैविक एवं रासायनिक प्रदूषकों द्वारा होने वाली विषाक्तता बढ़ती जा रही है। चक्रवात/बाढ़ के कारण जनस्वास्थ्य संबंधी मूलभूत ढांचे की क्षति हो रही है। वैश्विक तापवृद्घि के कारण हिमालय में मौजूद ग्लेशियर 15 मीटर प्रतिवर्ष की दर से पीछे हट रहे हैं। 1970 से यह स्थिति निरंतर बनी हुई है, याद रहे 1970 में ही पहली बार वैश्विक तापवृद्घि की समस्या की ओर लोगों का ध्यान गया था। गंगोत्री ग्लेशियर 30 मीटर प्रतिवर्ष पीछे हट रहा है। वैज्ञानिकों का मत है कि इस दर से पिघलने पर समस्त मध्य और पूर्वी हिमालयी ग्लेशियर 2035 तक समाप्त हो जाएंगे।

पेंटागन की रिपोर्ट है कि भविष्य के युद्घ धर्म, विचार या राष्ट्रीय गौरव के स्थान पर जीवित रहने के मुद्दे पर लड़े जाएंगे। अमेरिका में फैलिफोर्निया में सैक्रामेंन्टो नदी क्षेत्र में, डेल्टा द्वीप का तटबंध टूट सकता है, जिससे उत्तर से दक्षिण को पानी पहुंचाने वाली कृत्रिम जल प्रणाली भंग हो जाएगी। अगले बीस वर्षों में धरती द्वारा अपनी वर्तमान जनसंख्या को कायम रखने की क्षमता में महत्वपूर्ण कमी साफ नजर आने लगेगी। बढ़ते समुद्री जलस्तर के कारण बांग्लादेश लगभग पूरी तरह से वीरान हो जाएगा, क्योंकि समुद्री पानी आंतरिक जलापूर्ति को दूषित कर देगा। अप्रैल 2007 में आयी एक रिपोर्ट में चेताया गया है कि बढ़ते तापमान के परिणाम स्वरूप कुछ संक्रामक रोगवाहकों के स्थानिक विस्तार में परिवर्तन हो सकता है, और इनका प्रभाव मिश्रित होगा, जैसे कि अफ्रीका में मलेरिया के क्षेत्र और संचरण क्षमता में कमी या वृद्घि। आई.सी.सी.सी. वैज्ञानिक जो तथ्य पेश करना चाहते थे उसका विश्लेषण है कि जैसे जैसे गर्म तापमान उष्ण कटिबंध से उत्तर दक्षिण की ओर विस्तारित होगा और अधिक ऊंचाईयों की ओर बढ़ेगा, रोगवाहक मच्छर उसके साथ साथ फैलेंगे। इसलिए ग्लोबल वार्मिंग की बदौलत दुनिया भर में लाखों और लोग मलेरिया से संक्रमित हो जाएंगे। मस्तिष्कशोथ की महामारियों में वृद्घि होने की आशंका है, क्योंकि यह भी एक मच्छर जनित रोग है और गर्म तापमान से सीधे संबंधित है, कीटों और चिचड़ी आदि रोगवाहक परजीवियों द्वारा फैलाए जाने वाले रोगों के पर्यावरणीय परिवर्तनों से प्रभावित होने की संभावना है। क्योंकि ये जीव स्वयं ही वनस्पति के प्रकार तापमान आर्द्रता आदि के लिए अति संवेदनशील हैं। आज के पर्यावरण असुंलन के लिए या वैश्विक तापमान में वृद्घि के लिए पश्चिमी देशों का दर्शन और उनकी भौतिक उन्नति सबसे अधिक उत्तरदायी है। इन क्षेत्रों ने विश्व को विकास के नाम पर विनाश भेंट में दिया है। अब जैसे जैसे विश्व की आंखेें खुल रही हैं तो ज्ञात हो रहा है कि सोच और दर्शन तो भारत के ही ठीक है। परंतु अब लगता है कि देर काफी हो चुकी है। भारत में जब पहली बार मौहम्मद बिन कासिम आया तो इतिहासकार लिखता है कि वह यहां के सामाजिक ताने बाने को देखकर दंग रह गया था। हर व्यक्ति अपने आप में एक कुशल शिल्पकार था, कारीगर था, हाथ का दस्तकार था। बड़ी ईमानदारी से सब अपने अपने काम में लगे हुए थे। इसलिए देश के पर्यावरण को कोई खतरा नही था। पूरा देश समृद्घ था, हर शिल्पकार को, हर कारीगर को और हर दस्तकार को अपने शिल्प का या कारीगरी का पूरा पारिश्रमिक मिलता था। बीच में कोई बिचौलिया नही था। जुलाहे से आप सीधे कपड़ा लें-बीच में कोई मुनाफा खाने वाली कंपनी नही थी। इसलिए हर जुलाहा समृद्घ था। कहीं शिल्प विद्या को सिखाने के लिए विद्यालयों की व्यवस्था नही थी, कहीं से किसी डिग्री के लेने की आवश्यकता नही थी। परंपरागत रूप से हर व्यक्ति अभ्यास से अपनी जीविकापार्जन की कला को सीख लेता था। इसलिए कहीं भारी उद्योगों के लगाने की आवश्यकता नही थी, क्योंकि उद्योग पति पूंजीपति होता है और उसकी पूंजी श्रम पर शासन करती है। भारतीय सामाजिक तानेबाने के निर्माताओं ने युगों पूर्व इस बात को समझ लिया था। इसलिए उन्होंने हर व्यक्ति को ही चलती फिरती एक कंपनी या फैक्टरी बनाने का अदभुत और प्रशंसनीय कार्य किया। भारतीय सामाजिक संरचना की इस अदभुत और प्रशंसनीय व्यवस्था को भारी उद्योगों की वर्तमान व्यवस्था ने जर्जरित किया। इसे नष्ट किया और हमेशा हमेशा के लिए दफन कर दिया। भारी उद्योगों ने और पश्चिम की वर्तमान आर्थिक आपाधापी ने विश्व में और विशेषत: भारत में गरीबी फैलाई। परंपरागत शिल्पविद्या को बंद कर दिया और शिल्पविद्या में पारंगत होने के लिए डिग्री लेने की व्यवस्था कायम की, जो कि बड़ी धनराशि खर्च करके मिलती है, फिर भरती करने के लिए एक कठोर प्रक्रिया से गुजरना आवश्यक बनाया गया और अंत में उचित पारिश्रमिक न देकर उल्टे पारिश्रमिक में कंपनी का शेयर नियत किया गया। इससे समाज में गरीबी की बीमारी भयंकर रूप में फैली। मुस्लिम काल में भारत की परंपरागत व्यवस्था जैसे तैसे कायम रही परंतु अंग्रेजों के काल में इसे क्षतिग्रस्त किया गया और अब काले अंग्रेजोंने अपने कमीशन के लिए इसे कतई ही नष्ट कर दिया है। इसमें सुधार की आवश्यकता थी ना कि इसे नष्ट करने की आवश्यकता थी। अब अपनी व्यवस्था को छिन्न भिन्न कर दिया है तो भारी उद्योग स्थापित कर दिये हैं। फलस्वरूप देश में बेरोजगारी तो बढ़ी ही है, साथ ही महंगाई और भ्रष्टाचार भी बढ़ा है। इसके अतिरिक्त पर्यावरण असंतुलन भी बढ़ा है। अभी उद्योग धुंआ फेंक रहे हैं। विद्युत संयंत्रों से निकलने वाली गैसें हमारा जीवन गटक रही है और हम शांत बैठे हैं। ऐसे में आवश्यक है भारत की प्राचीन सामाजिक व्यवस्था की पुनर्स्थापना की। यज्ञ, हवन से निकलने वाली सुगंध और उसमें प्रयुक्त होने वाली विशेष सामग्री से यदि आज भी बड़े-2 सामूहिक यज्ञों को करने की परंपरा का शुभारंभ किया जाए तो अब भी विश्व की डूबती नैया को बचाया जा सकता है। लेकिन यह विश्व गरीबों के लिए नही जीता और ना ही सदपरंपराओं के लिए जीता हुआ लगता है, यह तो अमीरों के लिए जीता है और अमीर सदपरंपराओं के खिलाफ लामबंद होकर एक ऐसा घेरा बनाते हैं जिसे तोड़ना अति कठिन होता है। अब ऐसे स्वार्थी लोग अपने अपने औद्योगिक संस्थानों और पर्यावरण असंतुलन में सहायक फैक्ट्रियों को बंद करने के लिए सामने नही आएंगे-यानि स्वयं तो डूबेंगे ही औरों को भी लेकर डूबेंगे। क्या विश्व भारत की इदन्नमम् परंपरा का अर्थ समझ सकता है? यदि हां तो समझ ले कि वर्तमान वैश्विक तापवृद्घि का समाधान इसी व्यवस्था में है।

प्राकृतिक कहर का सबक

उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में बाढ़ की त्रासदी के रूप में देश के सामने जैसा अचंभित कर देने वाला संकट खड़ा हो गया है वह सिर्फ एक दैवीय आपदा भर नहीं है। प्रकृति का यह रौद्र रूप चेतावनी देने के साथ-साथ हमें अपनी जिम्मेदारी का अहसास कराने वाला है कि अगर चेता नहीं गया तो आगे भी ऐसी ही विषम परिस्थितियों से जूझना पड़ सकता है। हजारों लोगों की जान पर संकट खड़ा कर देने वाली उत्तराखंड की इस विभीषिका के साथ-साथ हाल के वर्षो में सामने आई अन्य अनेक प्राकृतिक आपदाएं यह संकेत दे रही हैं कि खतरा लगातार गंभीर होता जा रहा है। बाढ़, बादल का फटना, नदियों का प्रवाह बदलना, कम समय में बहुतायत बारिश, लगातार कई दिनों तक बारिश होना जैसी घटनाएं आपदाओं को नए-नए स्वरूप में हमारे सामने लाकर खड़ा कर रही हैं। आपदाओं का यह बदलता स्वरूप और मौसम की अनिश्चितता ने खतरे को और अधिक बढ़ा दिया है और केवल आपदा प्रबंधन के भरोसे रहकर इस खतरे का सामना नहीं किया जा सकता।

भारत एकमात्र ऐसा देश नहीं है जो इस तरह के खतरों से घिरा हुआ है। दक्षिण एशिया के अन्य देशों के साथ-साथ एशिया, लैटिन अमेरिका, यूरोप और अफ्रीका भी इन खतरों से जूझ रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की ग्लोबल एसेसमेंट रिपोर्ट 2013 में इसकी पुष्टि की है कि भविष्य में ऐसी आपदाओं में न केवल वृद्धि होगी, बल्कि इसका असर विकास की प्रक्रिया पर भी पड़ेगा। विकासशील और निम्न आय वाले देश इससे सबसे अधिक प्रभावित हो सकते हैं।हमारे समक्ष मूल सवाल यह है कि क्या हम इन घटनाओं को महज एक प्राकृतिक गतिविधि मानते रहेंगे या फिर इस चुनौती के मद्देनजर अपनी रणनीति मजबूत करेंगे। केवल सरकारें इस चुनौती का सामना नहीं कर सकतीं। यह एक साझा संघर्ष है जिसमें उन लोगों की भी भागीदारी होनी चाहिए जो इससे प्रभावित हो सकते हैं। उत्तराखंड जैसी घटना एक व्यापक मुद्दा है, जिसका संबंध विकास बेतरतीब विकास से है। हमें इस पर चिंतित होना चाहिए कि हमारे सकल घरेलू उत्पाद का एक हिस्सा ऐसी आपदाओं की भेंट चढ़ जाता है। संयुक्त राष्ट्र की रपट के अनुसार पिछले 30 वर्षो में 40 देशों में प्राकृतिक आपदाओं से होने वाला प्रत्यक्ष नुकसान 305 अरब डालर तक पहुंच गया है। गरीब और असहाय आबादी इस नुकसान का बोझ कैसे उठाएगी? उत्तराखंड की ही बात लें तो इसके जैसा छोटा राज्य आपदाओं से होने वाले नुकसान को कैसे सहन कर सकता है? स्पष्ट है कि आपदा प्रबंधन पर खास तैयारी करने की जरूरत है। विकास और आपदा को अलग-अलग कर देखने का समय अब बीत चुका है।

विकास को सुरक्षित और टिकाऊ बनाने की आवश्यकता है जिसमें आपदा प्रबंधन भी एक जरूरी अंग हो। समस्त पहाड़ी राज्यों के लिए विकास का एक नया मॉडल खोजना होगा। भूकंप, भूस्खलन, अतिवृष्टि और बादल फटने जैसी घटनाओं से जूझते इलाकों की भौगोलिक एवं प्राकृतिक परिस्थितियों की अनदेखी नहीं की जा सकती। यह सुनिश्चित करना बेहद आवश्यक है कि विकास के जितने भी आयाम पहाड़ों में लाए जाएं वे इन इलाकों के भौगोलिक एवं प्राकृतिक परिवेश से सीधा संबंध रखते हों। त्रासदी किसी भी तरह की हो, आपदा प्रबंधन की अपनी एक भूमिका होती है, लेकिन इससे भी अधिक जरूरी यह है कि पहले ही कुछ ऐसे उपाय कर लिए जाएं जिससे जोखिम को न्यूनतम स्तर पर लाया जा सके। इसके लिए केवल आपदा प्रबंधन विभाग को ही नहीं, बल्कि अन्य अनेक विभागों को भी आगे आने की जरूरत है। आपदा प्रबंधन को विकास की मुख्यधारा में जोड़ना एक पहला और आवश्यक कदम होगा। सरकार अथवा निजी क्षेत्र को विकास से जुड़े हुए कार्यो को आगे बढ़ाते हुए इस पर सर्वाधिक ध्यान देना होगा कि हम प्रकृति और पारिस्थितिकीय तंत्र के लिए कहीं जोखिम बढ़ा तो नहीं रहे हैं। वैसे तो आपदा प्रबंधन बुनियादी रूप से राज्यों का विषय है, लेकिन केंद्र सरकार खतरे की गंभीरता को देखते हुए राज्यों के क्षमता विकास में विशेष भूमिका निभा सकती है। यह राज्यों की भी जिम्मेदारी है कि वे अपने यहां आपदा प्रबंधन के ढांचे को मजबूत करें।

उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के हालात हमें यह बता रहे हैं कि समाज को भी अपने स्तर पर ऐसे प्रयास करने चाहिए जो प्राकृतिक आपदाओं का खतरा घटाने वाले हों। यह तभी संभव होगा जब स्थानीय पंचायत एवं निकाय इस खतरे के प्रति जागरूक होंगे। ऐसे विकास का कोई मूल्य नहीं जो पर्यावरण के लिए खतरा उत्पन्न करने वाला हो। इस सच्चाई से मुंह मोड़ने से अब काम नहीं चलने वाला कि देश में हर स्तर पर पर्यावरण की अनदेखी हो रही है। इस अनदेखी के लिए जितनी जिम्मेदार सरकारें हैं उतना ही समाज भी। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ को हर हाल में रोका जाना चाहिए। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में जो स्थितियां उत्पन्न हुईं उनकी तह में जाने की जरूरत है। केवल आपदा प्रबंधन के भरोसे रहकर इस तरह के हालात का सामना नहीं किया जा सकता। यदि अभी भी समस्या की जड़ में जाने से इन्कार किया गया और यह नहीं समझा गया कि विकास के मौजूदा मॉडल को बदले जाने की जरूरत है तो इसका अर्थ है कि हम अभी भी खतरे की गंभीरता नहीं समझ रहे हैं।

भारत में नक्सलवाद की समस्या और उसका समाधान

शोषण और भ्रष्टाचार में लिप्त हमारी पतित व्यवस्थाओं के विरोधस्वरूप उत्पन्न विद्रोहपूर्ण विचारधारा से प्रारम्भ होकर एक जन-आन्दोलन के रूप में विकसित होते हुये आतंक के पर्याय बने नक्सलवाद ने बंगाल से लेकर सम्पूर्ण भारत में आज अपने पैर पसार लिये हैं। इस लम्बी यात्रा के बीच इस विदोह के जनक कनु सान्याल ने विकृतावस्था को प्राप्त हुयी अपनी विचारधारा के हश्र से निराश होकर आत्महत्या भी कर ली। यह कटु सत्य है कि भ्रष्टव्यवस्था और पतित नैतिकमूल्यों के प्रतिकार से अस्तित्व में आये नक्सलवाद को आज भी वास्तविक पोषण हमारी व्यवस्था द्वारा ही मिल रहा है। व्यवस्था, जिसमें हम सबकी भागीदारी है ...सरकार की भी और समाज की भी। कई बार तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि हमारी व्यवस्था की रुचि नक्सलवाद को समाप्त करने के स्थान पर उसे बनाये रखने में ही अधिक है। यही कारण है कि किसी भी स्तर पर जन असंतोष और बढ़ती विषमताओं पर अंकुश लगाने के लिये कोई सार्थक प्रयास नहीं किये जा रहे हैं।

व्यवस्थायें आंकड़ों से चल रही हैं और आंकड़े कागज पर होते हैं, ज़ाहिर है कि हक़ीक़त भी ज़मीन पर नहीं कागज पर है। लूटमार के निर्लज्ज आखेट में हम सबने अपना-अपना नक्सलवाद विकसित कर लिया है। पूरे राष्ट्र की व्यवस्था में भ्रष्टाचार का वायरस एड्स का रूप ले चुका है। भ्रष्टाचार की खुली प्रतियोगिता में एक भृत्य से लेकर हमारा सम्पूर्ण नीतिनिर्धारक तंत्र और विधानसभा एवं संसद के माननीय महोदय तक सभी अपनी-अपनी सक्रिय भागीदारी पूरी ईमानदारी से निभा रहे हैं। जब थैलियों के मुंह खुलते हैं तो बाकी सबके मुंह बन्द हो जाते हैं। थैलियों से सम्पन्न लोग अच्छी-खासी प्रतिभाओं को पीछे छोड़कर मेडिकल कॉलेज में दाख़िले से लेकर लोकसेवा आयोग की प्रतिष्ठापूर्ण प्रतियोगिताओं में भी अपना वर्चस्व बना लेते हैं ...वह भी सारी व्यवस्था को अंगूठा दिखाते हुये। सड़कें बनती हैं तो पहली वर्षा में बह जाती हैं, भवन बनते हैं तो अधिग्रहण के पहले ही खण्डहर होने की सूचना देने लगते हैं। खनिज और वनसम्पदा से भरपूर बस्तर जैसे क्षेत्र सरकारी अधिकारियों और व्यापारियों की चारागाह बन चुके हैं। सम्पन्न बस्तर आज भी लंगोटी लगाये खड़ा है। आतंकपूर्ण नक्सलवाद पनपने के लिये इतने कारण पर्याप्त नहीं हैं क्या?

बस्तर में नक्सलियों की समानांतर सरकार चल रही है, कश्मीर में उग्रवादियों की ..., प्रदेशों में बाहुबलियों की और देश में अंतर्राष्ट्रीय माफ़ियाओं की समानांतर अंतर्सरकारें चल रही हैं। ये अंतर्सरकारें कबीलाई व्यवस्था का रूपांतरण हैं।

अमेरिका कहीं भी आक्रमण करके अपनी सरकार चलाने लगता है। भारत के विभिन्न प्रांतों में चीन द्वारा प्रायोजित आज के नक्सली जो भी कर रहे हैं उसे उन्होंने सामाजिक विद्रोह का छद्म नाम दिया है जबकि यह विद्रोह नहीं है अपितु स्पष्टतः सत्ता प्राप्ति के लिये किया जा रहा गुरिल्ला युद्ध है। सत्ता के मूल में हिंसा है, इसे नकारा नहीं जा सकता। विश्व के सभी युद्धों का सत्य यही है। कहीं तो यह हिंसा दिखायी दे जाती है और कहीं पर नहीं। जहाँ दिखायी नहीं पड़ती वहाँ भी सत्ता के मूल में हिंसा ही है। केवल हत्या ही तो हिंसा नहीं है, कई रूप हैं उसके, हत्या से भी अधिक निर्मम और वीभत्स।

नक्सलियों ने अब माओवाद का नक़ाब ओढ़ लिया है, उन्हें सत्ता चाहिए, वह भी हिंसा से। पर विचारणीय यह भी है कि लोकतंत्र का नक़ाब ओढ़कर देश में होने वाले चुनाव भी तो हिंसा से ही जीते जा रहे हैं। कहीं मतदान स्थल पर आक्रमण करके, कहीं मतदान दल को नज़रबन्द करके, कहीं मतदाता को डरा-धमका कर, तो कहीं उसे शराब और पैसे बाँटकर। भ्रष्टाचार के आरोपी नेताओं को दिखावे के लिये टिकट नहीं दी जाती किंतु उनकी पत्नियों को टिकट देकर पति के अपराध का पुरस्कार प्रदान कर दिया जाता है। शातिर अपराधी पत्नियों की आड़ में राज चला रहे हैं। कोई सज्जन व्यक्ति आज सत्ता में क्यों नहीं आना चाहता, यह देश के समक्ष एक विराट प्रश्न है। नक्सलवाद केवल कुछ क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि पूरे देश में फैल चुका है। किसी भी प्रकार की हिंसा करके या दूसरों के अधिकार के अपहरण से कुछ भी पाने का प्रयास करने वाला हर व्यक्ति मानसिक रूप से नक्सलीआतंकवादी है क्योंकि ऐसे ही लोग उग्रवाद के अघोषित जनक होते हैं।

नक्सलियों से भी अधिक हिंसक और निर्मम तो हमारा तंत्र है जिसमें बैठा हर व्यक्ति जनता को जीने न देने की कसम खाये बैठा है। इस तंत्र द्वारा की गयी हिंसायें बहुआयामी होती हैं, प्राण भर नहीं जाते इसलिये दिखायी नहीं पड़तीं। निर्मम और अमानवीय शोषण की अनवरत श्रंखला पर चढ़कर वैभव एवं सत्ता पाने वाले भी तो हिंसा ही करते हैं। हमारे ही बीच का कोई साधारण सा या कोई ग़रीब किंतु तिकड़मी व्यक्ति चुनाव में अनाप-शनाप पैसा खर्च करके चुनाव जीतता है, जीतने के कुछ ही वर्षों बाद कई नगरों और महानगरों में फैली करोड़ों की सम्पत्ति का मालिक बन जाता है। यह सर्वविदित होकर भी रहस्य ही बना रहता है कि उस ग़रीब के पास चुनाव में पानी की तरह बहाने के लिये इतना धन आख़िर आता कहाँ से है? जब उंगली उठती है तो निर्धन से अनायास ही सम्पन्न बना वह व्यक्ति चीखने-चिल्लाने लगता है कि सवर्णों को एक ग़रीब और दलित का सत्ता में आना बर्दाश्त नहीं हो पा रहा है। क्या यह ग़ुस्ताख़ी भी दोहरी हिंसा नहीं? निर्लज्जता की सारी सीमायें तो तब टूट जाती हैं जब वह करोड़पति-अरबपति बनने के बाद भी स्वयं को ग़रीब, दलित और आदिवासी ही घोषित करता रहता है।

भारत में सभी समर्थों की केवल एक ही जाति और एक ही धर्म है, इसे भी समझने की आवश्यकता है। यह एक ऐसा नक्सलवाद है जिससे होने वाली हिंसा से मृत्यु एक बारगी न होकर तिल-तिल कर अंतहीन दुःखों को सहते हुये होती है। पूरे देश में व्याप्त इन अत्याचारों का समुचित निदान किये बिना नक्सलवाद के उन्मूलन की कल्पना भी बेमानी है।

श्रीलंका में गृहयुद्ध, म्यांमार में दमन चक्र, नेपाल में माओवादी हिंसा, भारत में नक्सलवाद एवं पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवाद के पीछे भी केवल सत्ता की ही आदिम भूख ही छिपी हुयी है। मानव समाज विकास की किसी भी स्थिति में क्यों न रहा हो वह अपने प्रभुत्व और सत्ता के लिये हिंसायें करता रहा है। किंतु इस सबके बाद भी सत्ता के लिये हिंसाको किसी मान्य सिद्धांत का प्रशस्तिपत्र नहीं दिया जा सकता। सत्ताधारियों की अरक्त हिंसा ही नक्सलियों की रक्तहिंसा को जन्म देती है। हमारी राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक नीतियाँ इन्हें पोषण देती हैं। यदि हमारी व्यवस्थायें सबको जीने एवं विकास करने का समान अवसर प्रदान कर दें तो नक्सली या किसी भी उग्रवादी हिंसा को पोषण मिलना बन्द हो जायेगा और ये विचारधारायें दम तोड़ देंगी।

सभ्यमानव समाज तो आत्मशासित होना चाहिये, जहाँ किसी शासन की आवश्यकता ही न हो। हो पायेगा ऐसा? सम्भवतः अभी तो नहीं। आरक्षण के बटते कटोरों, राजनीतिक भ्रष्टाचार, बौद्धिक विकास हेतु अनुर्वरक स्थितियाँ, सरकारी नौकरियों तथा पदोन्नतियों की खुलेआम निर्लज्ज ख़रीद-फ़रोख़्त, त्रुटिपूर्ण कृषिनीतियाँ, कुटीर उद्योगों की हत्या एवं असंतुलित आर्थिक उदारीकरण आदि ऐसे पोषक तत्व हैं जो नक्सलवाद को मरने नहीं देंगे, कम से कम अभी तो नहीं।

तमाम सरकारी व्यवस्थाओं, भारी भरकम बजट, पुलिस और सेना के जवानों की मौत, रेल संचालन पर नक्सली नियंत्रण से उत्पन्न आर्थिक क्षति, स्थानीय बाज़ारों एवं आवागमन पर यदा-कदा लगने वाले नक्सली कर्फ़्यू से आम जनता को होने वाली अनेक प्रकार की क्षतियों और बड़े-बड़े रणनीतिकारों की मंहगी बैठकों के बाद भी नक्सली समस्या में निरंतर होती जा रही वृद्धि एक राष्ट्रीय चिंता का विषय है।

भारत में नक्सलवाद के कारण :-

1-   अनधिकृत भौतिक महत्वाकांक्षाओं के अनियंत्रित ज्वार:- महत्वाकांक्षी होने में कोई दोष नहीं पर बिना श्रम के या कम से कम श्रम में अधिकतम लाभ लेने की प्रवृत्ति ही सारी विषमताओं का कारण है। सारा उद्योग जगत इसी विषमता की प्राणवायु से फलफूल रहा है। आर्थिक विषमता से उत्पन्न विपन्नता की पीड़ा वर्गसंघर्ष की जनक है।

2-   मौलिक अधिकारों के हनन पर नियंत्रण का अभाव :- अनियंत्रित महत्वाकाक्षाओं के ज्वार ने आम नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर डाका डालने की प्रवृत्ति में असीमित वृद्धि की है। नक्सलियों द्वारा जिस वर्गसंघर्ष की बात की जा रही है उसमें समर्थ और असमर्थ ही मुख्य घटक हैं, दलित या आदिवासी जैसे शब्द तो केवल भोले-भाले लोगों को बरगलाने के लिये हैं। समर्थ होने की होड़ में हर कोई शामिल है। मनुष्य की इस आदिम लोलुपता पर अंकुश लगाने के लिये वर्तमान में हमारे पास कोई वैधानिक उपाय नहीं है। मौलिक अधिकारों के हनन में नक्सलवादी भी अब पीछे नहीं रहे, शायद इसी कारण कनु सान्याल को आत्महत्या करनी पड़ी।

3-   शोषण की पराकाष्ठायें:- सामान्यतः आम मनुष्य सहनशील प्रवृत्ति का होता है, वह हिंसक तभी होता है जब शोषण की सारी सीमायें पार हो चुकी होती हैं। नक्सलियों के लिये शोषण की पराकाष्ठायें पोषण का काम करती हैं। शोषितों को एकजुट करने और व्यवस्था के विरुद्ध हिंसक विद्रोह करने के लिये अपने समर्थक बनाना नक्सलियों के लिये बहुत आसान हो जाता है।

4-   सामाजिक विषमता:- सामाजिक विषमता ही वर्गसंघर्ष की जननी है। आज़ादी के बाद भी इस विषमता में कोई कमी नहीं आयी। नक्सलियों के लिये यह एक बड़ा मानसिक हथियार है।

5-   जनहित की योजनाओं की मृगमरीचिका:- शासन की जनहित के लिए बनने वाली योजनाओं के निर्माण एवं उनके क्रियान्वयन में गंभीरता, निष्ठा व पारदर्शिता का अभाव रहता है जिससे वंचितों को भड़काने और नक्सलियों की नयी पौध तैयार करने के लिये इन माओवादियों को अच्छ बहाना मिल जाता है।

6-   राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव:- आमजनता को अब यह समझ में आने लगा है कि सत्ताधीशों में न तो सामाजिक विषमतायें समाप्त करने, न भ्रष्टाचार को प्रश्रय देना बन्द करने और न ही नक्सली समस्या के उन्मूलन के प्रति लेश भी राजनीतिक इच्छाशक्ति है। आर्थिक घोटालों के ज्वार ने नक्सलियों को देश में कुछ भी करने की मानसिक स्वतंत्रता प्रदान कर दी है।

7-   लचीली कानून व्यवस्था, विलम्बित न्याय एवं कड़े कानून का अभाव:- अपराधियों के प्रति कड़े कानून के अभाव, विलम्ब से प्राप्त होने वाले न्याय से उत्पन्न जनअसंतोष एवं हमारी लचीली कानून व्यवस्था ने नक्सलियों के हौसले बुलन्द किये हैं।

8-   आजीविकापरक शिक्षा का अभाव एवं महंगी शिक्षा:- रोजगारोन्मुखी शिक्षा के अभाव, उद्योग में परिवर्तित होती जा रही शिक्षा के कारण आमजनता के लिये महंगी और दुर्लभ हुयी शिक्षा, अनियंत्रित मशीनीकरण और कुटीर उद्योंगो के अभाव में आजीविका के दुर्लभ होते जा रहे साधनों से नक्सली बनने की प्रेरणा इस समस्या का एक बड़ा नया कारण है।

9-   स्थानीय लोगों में प्रतिकार की असमर्थता:- निर्धनता, शैक्षणिक पिछड़ेपन, राष्ट्रीयभावना के अभाव, नैतिक उत्तरदायित्व के प्रति उदासीनता और पुलिस संरक्षण के अभाव में स्थानीय लोग नक्सली हिंसाओं का सशक्त विरोध नहीं कर पाते जिसके कारण नक्सली और भी निरंकुश होते जा रहे हैं।

10- पर्वतीय दुर्गमता का भौगोलिक संरक्षण:- देश के जिन भी राज्यों में भौगोलिक दुर्गमता के कारण आवागमन के साधन विकसित नहीं हो सके वहाँ की स्थिति का लाभ उठाते हुये नक्सलियों ने अपना आतंक स्थापित करने में सफलता प्राप्त कर ली है और अब वे इस अनुकूलन को बनाये रखने के लिये आवागमन के साधनों के विकास में बाधा उत्पन्न कर रहे हैं। यद्यपि, अब तो उनका बौद्धिक तंत्र नगरों और महानगरों में भी अपनी पैठ बना चुका है।

11- पड़ोसी देशों के उग्रवाद को भारत में प्रवेश की सुगमता:- विदेशों से आयातित उग्रविचारधारा को भारत में प्रवेश करने से रोकने के लिये सरकार के पास राजनैतिक और कूटनीतिक उपायों का अभाव है जिसके कारण विचार और हथियार दोनो ही भारत में सुगमता से प्रवेश पाने में सफल रहते हैं।                                   

 नक्सलवाद की समस्या का समाधान :-

जन असंतोष के कारणों पर नियंत्रण और विकास के समान अवसरों की उपलब्धता की सुनिश्चितता के साथ-साथ कड़ी दण्ड प्रक्रिया नक्सली समस्या के उन्मूलन का मूल है। अधोलिखित उपायों पर ईमानदारी से किये गये प्रयास नक्सलवाद की समस्या के स्थायी उन्मूलन का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

·         नक्सली समस्या के उन्मूलन के प्रति दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति का विकास क्योंकि बिना दृढ़ संकल्प के किसी भी उपलब्धि की आशा नहीं की जा सकती।

·         आम नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के उपायों से विकास के समान अवसरों की उपलब्धता की सुनिश्चितता।

·         शासकीय योजनाओं का समुचित क्रियान्वयन एवं उनमें पारदर्शिता की सुनिश्चितता जिससे भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सके।

·         समुचित एवं सहयोगपूर्ण कानून व्यवस्था- जिससे स्थानीय लोग नक्सलवादियों का प्रतिकार कर सकें और उन्हें जीवनोपयोगी आवश्यक चीजें उपलब्ध न कराने के लिये साहस जुटा सकें।

·         कानून व न्याय व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता पर बल जिससे लोगों को सहज और समय पर न्याय मिलने की सुनिश्चितता हो सके।

·         आजीविकापरक एवं सर्वोपलब्ध शिक्षा की व्यवस्था जिससे सामाजिक विषमताओं पर अंकुश लग सके।

·         कुटीर उद्योगों को पुनर्जीवित करने के समुचित प्रयास जिससे वर्गभेद की सीमायें नियंत्रित की जा सकें।

·         राष्ट्र के विकास की मुख्यधारा में नक्सलियों को लाने और उनके पुनर्व्यवस्थापन के लिये रोजगारपरक विशेष पैकेज की व्यवस्था।


·         चीन और पाकिस्तान से नक्सलियों को प्राप्त होने वाले हर प्रकार के सहयोग को रोकने के लिये दृढ़ राजनीतिक और सफल कूटनीतिक उपायों पर गम्भीरतापूर्वक चिंतन और तद्विषयक प्रयासों का वास्तविक क्रियान्वयन।   

Violence against women: a problem of epidemic proportions

Physical or sexual violence is a public health problem that affects more than one third of all women globally, according to a new report released by WHO in partnership with the London School of Hygiene & Tropical Medicine and the South African Medical Research Council.

The report, Global and regional estimates of violence against women: Prevalence and health effects of intimate partner violence and non-partner sexual violence, represents the first systematic study of global data on the prevalence of violence against women – both by partners and non-partners. Some 35% of all women will experience either intimate partner or non-partner violence. The study finds that intimate partner violence is the most common type of violence against women, affecting 30% of women worldwide.

The study highlights the need for all sectors to engage in eliminating tolerance for violence against women and better support for women who experience it. New WHO guidelines, launched with the report, aim to help countries improve their health sector’s capacity to respond to violence against women.

Impact on physical and mental health
The report details the impact of violence on the physical and mental health of women and girls. This can range from broken bones to pregnancy-related complications, mental problems and impaired social functioning.

“These findings send a powerful message that violence against women is a global health problem of epidemic proportions,” said Dr Margaret Chan, Director-General, WHO. “We also see that the world’s health systems can and must do more for women who experience violence.”

The report’s key findings on the health impacts of violence by an intimate partner were:

Death and injury – The study found that globally, 38% of all women who were murdered were murdered by their intimate partners, and 42% of women who have experienced physical or sexual violence at the hands of a partner had experienced injuries as a result.

Depression – Partner violence is a major contributor to women’s mental health problems, with women who have experienced partner violence being almost twice as likely to experience depression compared to women who have not experienced any violence.

Alcohol use problems – Women experiencing intimate partner violence are almost twice as likely as other women to have alcohol-use problems.

Sexually transmitted infections – Women who experience physical and/or sexual partner violence are 1.5 times more likely to acquire syphilis infection, chlamydia, or gonorrhoea. In some regions (including sub-Saharan Africa), they are 1.5 times more likely to acquire HIV.

Unwanted pregnancy and abortion – Both partner violence and non-partner sexual violence are associated with unwanted pregnancy; the report found that women experiencing physical and/or sexual partner violence are twice as likely to have an abortion than women who do not experience this violence.

Low birth-weight babies – Women who experience partner violence have a 16% greater chance of having a low birth-weight baby.

“This new data shows that violence against women is extremely common. We urgently need to invest in prevention to address the underlying causes of this global women’s health problem.” said Professor Charlotte Watts, from the London School of Hygiene & Tropical Medicine.

Need for better reporting and more attention to prevention
Fear of stigma prevents many women from reporting non-partner sexual violence. Other barriers to data collection include the fact that fewer countries collect this data than information about intimate partner violence, and that many surveys of this type of violence employ less sophisticated measurement approaches than those used in monitoring intimate partner violence.

“The review brings to light the lack of data on sexual violence by perpetrators other than partners, including in conflict-affected settings,” said Dr Naeemah Abrahams from the SAMRC. “We need more countries to measure sexual violence and to use the best survey instruments available.”

In spite of these obstacles, the review found that 7.2% of women globally had reported non-partner sexual violence. As a result of this violence, they were 2.3 times more likely to have alcohol disorders and 2.6 times more likely to suffer depression or anxiety – slightly more than women experiencing intimate partner violence.

The report calls for a major scaling up of global efforts to prevent all kinds of violence against women by addressing the social and cultural factors behind it.

Recommendations to the health sector
The report also emphasizes the urgent need for better care for women who have experienced violence. These women often seek health-care, without necessarily disclosing the cause of their injuries or ill-health.

“The report findings show that violence greatly increases women’s vulnerability to a range of short- and long-term health problems; it highlights the need for the health sector to take violence against women more seriously,” said Dr Claudia Garcia-Moreno of WHO. “In many cases this is because health workers simply do not know how to respond.”

New WHO clinical and policy guidelines released today aim to address this lack of knowledge. They stress the importance of training all levels of health workers to recognize when women may be at risk of partner violence and to know how to provide an appropriate response.

They also point out that some health-care settings, such as antenatal services and HIV testing, may provide opportunities to support survivors of violence, provided certain minimum requirements are met.

·         Health providers have been trained how to ask about violence.
·         Standard operating procedures are in place.
·         Consultation takes place in a private setting.
·         Confidentiality is guaranteed.
·         A referral system is in place to ensure that women can access related services.
·    In the case of sexual assault, health care settings must be equipped to provide the comprehensive response women need – to address both physical and mental health consequences.




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