बुधवार, 18 जून 2014

दुनिया पर लंबे युद्ध का साया

उत्तरी इराक में इन दिनों जो चल रहा है उसे समझना हो तो पहले उस इलाके का नक्शा देखना होगा। इसके बिना क्षेत्र में उभर रही ताकतों के गहरे अर्थ समझना आसान नहीं है। फिर यहां हमें कुछ बातें ध्यान में रखने की जरूरत भी है। पहली बात तो यह है कि किसी क्षेत्र पर कब्जा जमाने की यह किसी वार लॉर्ड की कोशिश नहीं है। यह दो पंथों के बीच का गतिरोध भी नहीं है। यह राजनीतिक इस्लाम की महत्वाकांक्षा का प्रकटीकरण है।

दूसरी बात यह है कि न्यूयॉर्क में वल्र्ड ट्रैड सेंटर पर हमले के बाद अमेरिकी फौज पाक-अफगान क्षेत्र और इराक में उतरी तो अमेरिकी फौजी प्रतिष्ठान कहने लगे कि अमेरिकी जनता पॉलिटिकल इस्लाम के साथ लंबे युद्ध के लिए तैयार रहे। किंतु 10-12 वर्षों के युद्ध की थकावट ने इस तथ्य को पृष्ठभूमि में डाल दिया और अपनी फौजों को वापस बुलाने का औचित्य ठहराने की कोशिश में लंबे युद्ध को भुला दिया गया। अब ऐसा लग रहा है कि लंबा युद्ध फिर लौट आया है और दुनिया को याद दिला रहा है कि इस्लाम के भीतर बहुत कुछ होना बाकी है। विश्लेषक ध्यान दिला रहे हैं कि यह इस्लाम में सुधार होने के पूर्व का मंथन है। ज्यादातर प्रमुख धर्मों में यही हुआ है। उत्क्रांति (एवॉल्यूशन) की प्रक्रिया में जब सभ्यतागत परिवर्तन और आधुनिकता जब अपनी राह बनाते हैं तो यही होता है। तीसरी बात यह है कि इस्लाम भी अपनी विभिन्न शाखाओं की प्रतिद्वंद्विता से परेशान है, जिसमें कई सदियों से हिंसक छटा नजर आती रही है। जब तक कि एक या दूसरे पंथ की जीत, प्रभुत्व अथवा हार से यह प्रतिद्वंद्विता शांत नहीं होती तब तक आधुनिकता की कोई संभावना नहीं है।

हम इराक-सीरिया में जो देख रहे हैं वह इस्लाम के भीतर का ही हिंसक संघर्ष है। अमेरिकी फौजों के जाने के बाद इसकी आशंका व्यक्त की ही जा रही थी। इसके लक्षण कई माह पहले ही मिलने लगे थे जब अल कायदा की मौजूदगी के कारण रामादी और फालुजा जैसे शहरों में हिंसा भड़क उठी। इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड ग्रेटर सीरिया (आईएसआईएस) या इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड लेवेंट (आईएसआईएल) अल कायदा से ही निकला गुट है। यह परदे के पीछे घात  लगाकर मौके का इंतजार कर रहा था। कई देशों की सीमा वाले क्षेत्र में 10 हजार लड़ाकों (भाड़े के लोगों सहित) को तैयार करना कोई आसान काम नहीं है। इसमें करीब दो साल का वक्त लगा है। बेशक सीरिया में चल रहे गृह युद्ध से इराक से लगी सीमा के आर-पार उपद्रवी शक्तियों के निर्माण में मदद मिली, लेकिन इसमें भिन्न उद्देश्यों भिन्न छटा वाली अतिवादी ताकतों के कई गुट मौजूद हैं। फिर वहां किसी स्थापित राष्ट्र की मजबूत सुरक्षा के अभाव में यह एक ही भौगोलिक युद्ध क्षेत्र में तब्दील हो गया है। जाहिर है आईएसआईएस को बाहर से मदद मिल रही है और सब जानते हैं कि यह मदद कहां से रही है। ऐसी किसी फौज को कायम रखने के लिए आपको पैसा, हथियार और गोला-बारूद की जरूरत होती है। वास्तव में सीरिया, लेबनान और इराक युद्धों का एक ही युद्ध में विलय हो गया है। ठीक कुछ साल पहले के अफ-पाक युद्ध की तरह। इस स्थिति में कुछ बहुत ही अहम जटिलताएं हैं। इराक में अमेरिकी मौजूदगी ने वहां सुन्नी सत्ता को ध्वस्त कर आबादी के मुताबिक शिया हुकूमत स्थापित कर दी जबकि इससे ईरान के प्रभाव में इजाफा और सऊदी अरब के प्रभाव में गिरावट अपरिहार्य थी। सऊदी  कभी इस स्थिति से या सीरिया में सत्ता बदलने में उलझने के प्रति अमेरिकी उदासीनता से कभी खुश नहीं थे। इसी उदासीनता के कारण सीरिया के वृहद् संघर्ष में अलावाइट-शिया पंथ को मजबूती मिली।

ईरान-हिजबुल्ला-अलावाइट-इराक (सारे शिया या शिया छटा वाले) धुरी ने पश्चिमी अफगानिस्तान से लेकर मध्यपूर्व के पूर्वी हिस्से तक शिया पंथ की पकड़ मजबूत की है। अब उत्तरी इराक में सुन्नी ताकतों के उदय से इस प्रभुत्व को खतरा पैदा हुआ है। अमेरिका द्वारा प्रशिक्षित इराकी फौज पस्त हो गई है और इस तरह इराक फिर गृह युद्ध की ओर लौटता दिखाई दे रहा है। इसका मतलब है कि दक्षिण इराक तक के इलाकों में उथलपुथल। इस जटिल स्थिति में विभिन्न वैचारिक छटाओं वाले कई खिलाड़ी पैदा हो गए हैं और इसके कारण संयुक्त अरब अमीरात, तुर्की, सऊदी अरब और खुद अमेरिका अलग-अलग गुटों को समर्थन दे रहे हैं। हालांकि अल कायदा से जुड़े आईएसआईएस के ताकतवर फौजी गुट के रूप में उभरने से अब इन देशों को अपने समर्थन पर फिर विचार करना होगा। इसका सीरिया इराक की स्थिति पर गहरा प्रभाव पड़ेगा।

इस सबका पश्चिम एशिया की सुरक्षा पर क्या प्रभाव पड़ेगा? पहला तो यह कि सीरिया में अनिश्चितता बढ़ेगी जहां हाल के चुनाव में बशर असद की जीत ने उन्हें नई ताकत देकर उनका आत्मविश्वास बढ़ाया है। आईएसआईएस सीरिया में सऊदी समर्थन प्राप्त विभिन्न सुन्नी गुटों के खिलाफ है। दूसरी बात यह होगी कि सुन्नी ताकतों के लगातार हमलों से कमजोर पड़ चुकी इराकी फौज के एकजुट रहने की संभावना नहीं है। तीसरा तथ्य यह कि तेल संपदा वाले पट्टे में हिंसा बढ़ती ही जा रही है तथा हालत और खराब हुई तो तेल गैस की ढुलाई प्रभावित होगी। चौथी बात यह है कि ईरान-हिजबुल्ला गठजोड़ बहुत मजबूती से उभर रहा था, लेकिन अब उसे धक्का पहुंचा है। अब ईरान अपने फायदे बरकरार रखने के लिए कहां तक इसमें उलझेगा यह इस बात पर निर्भर है कि क्षेत्र में हिंसा कितनी बढ़ती है। ऊंट किसी भी करवट बैठे पश्चिम एशिया में इस्लाम के राजनीतिक भविष्य पर निर्णायक प्रभाव पडऩे वाला है।

यह सही है कि राजनीतिक इस्लाम से जुड़ा आंदोलन सुदूर नाईजीरिया (बोको हरम), सोमाालिया (अल शबाब), सिनाई और यमन में भी सक्रिय है पर अब स्पष्ट है कि दो ही क्षेत्रों में राजनीतिक इस्लाम प्रभुत्व के लिए कड़ा संघर्ष कर रहा है। ये दो क्षेत्र हैं सीरिया-इराक-लेबनान और आंतरिक रूप से पाकिस्तान। इन दो स्थितियों में प्रत्यक्ष संबंध हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। पर इसमें समान तथ्य है ईरान के दोनों तरफ सलाफी गुटों का उदय। अब  जब उसकी विचारधारा को खतरा पैदा हो गया है तो ईरान कैसी प्रतिक्रिया करेगा इसका अनुमान लगाना वाकई मुश्किल है।


अंतिम मुद्दा यह है कि यह हिंसा अफगानिस्तान से अंतरराष्ट्रीय फौजों की अंतिम वापसी के छह माह पहले हो रही है। तो क्या यह पाक-अफगान में अल-कायदा की वापसी की तैयारी है, क्योंकि अफगान पाक तालिबान से इसके रिश्ते हैं। 14 साल पहले इसे जिस इलाके से निकाल दिया गया था वहां जाने के पहले क्या यह पश्चिम एशिया में अपना एजेंडा पूरा करना चाहता है? जो भी हो  स्थिति ठीक वैसी होगी जैसी अफगानिस्तान से सोवियत फौजों के जाने के बाद हुई थी। अब इसका दुनिया की सुरक्षा पर क्या प्रभाव पड़ेगा, अभी कहना मुश्किल है। मगर यह तय है कि यह लंबा युद्ध है।

विरोध की आïवाज पर संदेह

पिछले दो दशकों में भारत में तेजी से गैरसरकारी संगठन यानी एनजीओ का फैलाव हुआ। पर्यावरण, स्वास्थ्य, शिक्षा, श्रमिकों के हित, महिला बाल कल्याण ऐसे तमाम क्षेत्रों में एनजीओ ने कार्य करना प्रारंभ किया और उसके काफी सकारात्मक परिणाम देखने मिले। जनहित के व्यापक दायित्व, जिन्हें पूरा करना प्राथमिक रूप से सरकार की जिम्मेदारी है, उसे एनजीओ ने साझा करना प्रारंभ किया। कहींझुग्गी-झोपड़ी या जगह-जगह घूम कर काम करने मजदूरों के बच्चों को शिक्षित किया, कहींस्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराईं। बेसहारा और जरूरतमंद महिलाओं को अपने पैरों पर खड़े होने में मदद की, उन्हें उनके हुनर से आजीविका कमाना सिखाया, अनाथ या विकलांग बच्चों के लिए आश्रयघर बनाए। कई शालाओं में मध्याह्नï भोजन की व्यवस्था किसी एनजीओ ने कराई, तो कई जगह बच्चों के टीकाकरण का जिम्मा एनजीओ ने उठाया। कहींनदियों को बचाने की मुहिम छेड़ी तो कहींजंगल काटने का विरोध किया। एड्स और कैैंसर जैसी घातक बीमारियों के निदान, इलाज रोकथाम के लिए भी एनजीओ खासे सक्रिय रहे। दंगे, प्राकृतिक आपदा या अन्य किसी आपात स्थिति में भी एनजीओ सक्रिय भूमिका निभाते देखे गए हैं। देश में गठित छोटे-बड़े एनजीओ के अलावा कई विदेशी एनजीओ भी भारत में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कार्यरत हैं। कई एनजीओ विदेशों से वित्तीय सहायता प्राप्त करते हैं, कुछ बड़े औद्योगिक घरानों की मदद से संचालित होते हैं। समाजसेवा के क्षेत्र में डिग्री हासिल कर, किसी गैरसरकारी संगठन के जरिए अपना भविष्य बनाने वाले युवाओं की अच्छी-खासी तादाद देश में हो गई है। बहुत से उच्चशिक्षित लोगों ने बड़े पद या नौकरियां छोड़ कर एनजीओ के माध्यम से समाजसेवा का बीड़ा उठाया। देश के गरीब, पिछड़े, सुविधाहीन, शोषित तबके के बड़े हिस्से को एनजीओ के कारण काफी राहत पहुंची। ऐसा कहा जाने लगा कि समाज के इस वर्ग में अभावों से उपजे गुस्से को उफान लेने से रोकने और सत्ता तंत्र तक उसकी आंच पहुंचे इसलिए एनजीओ को बढ़ावा दिया गया। एनजीओ के फैलाव से समाज में बहुत से लोगों की भृकुटियां भी तनींकि आखिर देखते-देखते इस वर्ग की ताकत इतनी बढ़ कैसे गई। विदेशों से मिलने वाली वित्तीय सहायता और उसके इस्तेमाल पर भी सवाल उठे। अब खुफिया ब्यूरो की एक रिपोर्ट में भी ऐसे ही कुछ सवाल उठाए गए हैं बल्कि यहां तक कहा गया है कि इनसे भारत को आर्थिक नुकसान हो रहा है।


आइबी ने विकास पर एनजीओ के प्रभाव नाम की अपनी रिपोर्ट में कहा कि देश में कई विकास परियोजनाओं का अच्छी खासी संख्या में गैर सरकारी संगठनों के विरोध का दो से तीन प्रतिशत तक आर्थिक वृद्धि पर नकारात्मक असर पड़ेगा। इसमें यह भी दावा किया गया कि कुछ एनजीओ और उनके अंतरराष्ट्रीय दानदाता गुजरात सहित कई नई आर्थिक विकास परियोजनाओं को निशाना बनाने की योजना बना रहे हैं। इस रिपोर्ट में पर्यावरण बचाव के लिए कार्य कर रही अंतरराष्ट्रीय संस्था ग्रीनपीस का नाम प्रमुखता से लिया गया है। यह सही है कि देश में कार्यरत सभी एनजीओ एकदम निस्वार्थ भाव से सेवा नहींकर रहे हैं और कईयों की कार्यप्रणाली वित्तीय प्रबंधन पर सवाल भी उठे हैं। कुछेक मामलों में यह भी देखा गया है कि स्थिति का गलत ब्यौरा देकर विदेशों से धन की भारी सहायता ली गई और जरूरतमंदों तक उसे पहुंचाने की जगह अपनी जेबें गर्म की गईं। इसके बावजूद आईबी की रिपोर्ट को आंख मूंदकर सही नहींमाना जा सकता। जीडीपी में दो-तीन प्रतिशत की कमी एनजीओ के कारण हो रही है, इसका आकलन आईबी ने किस आधार पर किया है, इसका कोई पुख्ता प्रमाण अब तक नहींदिया गया है। आर्थिक विकास परियोजनाओं का विरोध होने से देश को नुकसान होगा, यह एक तात्कालिक अनुमान हो सकता है, किंतु इन विकास परियोजनाओं से जो दीर्घकालिक हानि होगी, उसका आकलन भी किया जाना जरूरी है। रिपोर्ट में क्या है, इसका विश्लेषण होने के साथ-साथ यह जानना भी जरूरी है कि रिपोर्ट का मकसद क्या है। एनजीओ के द्वारा गरीब या शोषित तबके को अगर विरोध की आवाज उठाने की शक्ति मिली है, तो इसका नुकसान किस वर्ग को उठाना पड़ेगा, यह देखना जरूरी है। यह माना जा रहा है कि कार्पोरेट घराने अपनी तथाकथित विकास परियोजनाएं बिना किसी विघ्न-बाधा के संपन्न करना चाहते हैं और इसमें किसी भी किस्म का विरोध उन्हें रास नहींआता। इसलिए वे एनजीओ पर अंकुश लगाना चाहते हैं। अगर सरकार आईबी की इस रिपोर्ट को स्वीकार कर उस आधार पर कार्रवाई करती है तो मात्र एनजीओ पर ही लगाम नहींकसेगी, लोकतंत्र में विरोध की आवाज उठाने की बहुतेरी संभावनाएं भी कुंठित होगी। सफल लोकतंत्र के लिए यह घातक होगा। एनजीओ को आंख मूंद कर बढ़ावा देने या उन पर रोक लगाने से बेहतर यह है कि इसमें एक संतुलित भाव अपना कर निष्पक्ष तरीके से निर्णय लिया जाए। नयी सरकार से उम्मीद है कि वह बिना किसी पूर्वाग्रह के फैसला लेगी।

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