गुरुवार, 12 जून 2014

भारत के संवैधानिक ढांचे के अंतर्गत पर्यावरण संरक्षण


भारत का संविधान निष्क्रीय नहीं बल्कि जीवंत एवं सक्रिय दस्तावेज है जो समय के साथ विकसित होता रहा है।पर्यावरण संरक्षण को लेकर संविधान में विशेष प्रावधान संविधान की सदा विकसित होने वाली प्रवृति और जमीन संबंधी मौलिक कानून के बढ़ने की संभावनाओं का ही परिणाम है। हमारे संविधान की प्रस्तावना समाज के सामाजवादी तरीके और प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा सुनिश्चि करती है।जीने के बेहतर मानक और प्रदूषणरहित वातावरण संविधान के भीतर अंतर्निहित है। पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के अनुसार पर्यावरण में जल, हवा और जमीन और अंतरसंबंध जिसमें हवा समाहित हो, जल-जमीन और मानव, अन्य जीवित चीजें, पेड़-पौधे, सूक्ष्म जीवजंतु और संपत्ति आदि समाहित हैं।

भारतीय संविधान में मौलिक कर्तव्यों के तहत हर नागरिक से अपेक्षा की जाती है कि वे पर्यावरण को सुरक्षित रखने में योगदान देंगे। अनुच्छेद 51 A (g) कहता है कि जंगल, तालाब, नदियां, वन्यजीव सहित सभी तरह की प्राकृतिक पर्यावरण संबंधित चीजों की रक्षा करना उनको बढ़ावा देना हर भारतीय का कर्तव्य होगा। साथ ही प्रत्येक नागरिक को सभी सजीवों के प्रित करुणा रखनी होगी।

भारतीय संविधान के अंतर्गत मूल सिद्धांतों एक कल्याणकारी राज्य निर्माण के लिए काम करते हैं। स्वस्थ पर्यावरण भी कल्याणकारी राज्य का ही एक तत्व है। अनुच्छेद 47 कहता है कि लोगों के जीवन स्तर को सुधारना, उन्हें भरपूर पोषण मुहैया कराना और सार्वजनिक स्वास्थ्य की वृद्धि के लिए काम करना राज्य के प्राथमिक कर्तव्यों में शामिल हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार के तहत पर्यावरण संरक्षण और उसमें सुधार भी शामिल हैं क्योंकि इसके बगैर सार्वजनिक स्वास्थ्य को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है। अनुच्छेद 48 कृषि एवं जीव संगठनों के संरक्षण की बात करता है। यह अनुच्छेद राज्यों को निर्देश देता है कि वे कृषि जीवों से जुड़ों धंधों को आधुनिक वैज्ञानिक तरीके से संगठित करने के लिए जरूरी कदम उठाएं। विशेषतौर पर, राज्यों को जीव-जन्तुओं की प्रजातियों को संरक्षित करना चाहिए और गाय, बछड़ों, भेड़-बकरी अन्य जानवरों की हत्या पर रोक लगानी चाहिए। संविधान का अनुच्छेद 48-A कहता है कि राज्य पर्यावरण संरक्षण उसको बढ़ावा देने का काम करेंगे और देशभर में जंगलों वन्य जीवों को को की सुरक्षा के लिए काम करेंगे।

प्रत्येक व्यक्ति के विकास के लिए सबसे जरूरी मौलिक अधिकारों की गारंटी भारत का संविधान भाग-3 के तहत देता है। पर्यावरण के अधिकार के बिना व्यक्ति का विकास भी संभव नहीं है। अनुच्छेद 21, 14 और 19 को पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रयोग में लाया जा चुका है।

संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार कानून द्वारा स्थापित बाध्यताओं को छोड़कर किसी भी व्यक्ति को जीवन जीने और व्यक्तिगत आजादी से वंचित नहीं रखा जाएगा। मेनका गांधी बनाम भारत सरकार (AIR 1978 SC 597) संबंधी मुकद्दमें में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद अनुच्छेद 21 की समय समय पर उदारवादी तरीके से व्याख्या की जा चुकी है। अनुच्छेद 21 जीवन जीने का मौलिक अधिकार भी देता है, इसमें पर्यावरण का अधिकार, बीमारियों संक्रमण के खतरे से मुक्ति का अधिकार अंतर्निहित हैं। स्वस्थ वातावरण का अधिकार प्रतिष्ठा से मानव जीवन जीने के अधिकार की महत्वपूर्ण विशेषता है। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत स्वस्थ वातावरण में जीवन जीने के अधिकार को पहली बार उस समय मान्यता दी गई थी, जब रूरल लिटिगेसन एंड एंटाइटलमेंट केंद्र बनाम राज्य, AIR 1988 SC 2187 (देहरादून खदान केस के रूप में प्रसिद्ध) केस सामने आया था।  यह भारत में अपनी तरह का पहला मामला था, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के तहत पर्यावरण पर्यावरण संतुलन संबंधी मुद्दों को ध्यान में रखते हुए इस मामले में खनन (गैरकानूनी खनन ) को रोकने के निर्देश दिए थे। वहीं एमसी मेहता बनाम भारतीय संघ, AIR 1987 SC 1086 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रदूषण रहित वातावरण में जीवन जीने के अधिकार को भारतीय संविधान के अनु्छेद 21 के अंतर्गत जीवन जीने के मौलिक अधिकार के अंग के रूप में माना था।

बहुत अधिक शोर-शराबा भी समाज में प्रदूषण पैदा करता है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 (1) a अनुच्छेद 21 प्रत्येक नागरिक को बेहतर वातावरण और शांतिपूर्ण जीवन जीने का अधिकार देता है। पीए जैकब बनाम कोट्टायम पुलिस अधीक्षक, AIR 1993 ker 1, के मामले में केरला उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि भारतीय संविधान में अनु्च्छेद 19 (1) (a) के तहत दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी भी नागरिक को तेज आवाज में लाउड स्पीकर अन्य शोर-शराबा करने वाले उपकरण आदि बजाने की इजाजत नहीं देता है। इस प्रकार अब शोर-शराबे, लाउड स्पीकर आदि से होने वाले ध्वनि प्रदूषण को अनु्च्छेद 19 (1) (a) के तहत नियंत्रित किया जा सकता है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 (1) (g) प्रत्येक नागरिक को अपनी पसंद के अनुसार किसी भी तरह का व्यवसाय, काम-धंधा आदि करने का अधिकार देता है। लेकिन इसमें कुछ प्रतिबंध भी हैं। अर्थात् कोई भी नागरिक ऐसा कोई भी काम नहीं कर सकता, जिससे समाज लोगों के स्वास्थ्य पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़े। पर्यावरण संरक्षण संविधान के इस अनुच्छेद में अंतर्निहित है। कोवरजी बी भरुचा बनाम आबकारी आयुक्त, अजमेर (1954, SC 220) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि जहां कहीं भी पर्यावरण संरक्षण व्यवसाय करने के अधिकार के बीच कोई विरोध होगा तो कोर्ट को पर्यावरण संबंधी हितों और व्यवसाय काम धंधा चुनने संबंधी अधिकार के बीच संतुलन बनाकर किसी निर्णय पर पहुंचना होगा।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 और  226 के अंतर्गत जनहित याचिका पर्यावरण संबंधी याचिकाओं की धारा का ही परिणाम है देहरादून में लाइमस्टोन खदान को बंद कराना (देहरादून खदान केस AIR 1985 SC 652), दिल्ली में क्लोरिन प्लांट में रक्षकों को लगवाना (एमसी मेहता बनाम भारतीय संघ, AIR 1988 SC 1037) आदि वो प्रमुख पर्यावरण संबंधी मामले हैं, जिनमें सर्वोच्च न्यायालय ने अभूतपूर्व और जनहित में निर्णय सुनाएं हैं। वेल्लोर नागरिक कल्याण फोरम बनाम भारतीय संघ (1996) 5 एससीसी 647 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि पर्यावरण संरक्षण वातावरण को शुद्ध रखने के लिए पूर्व सावधानियां रखकर ही विकास की राह पर आगे बढ़ पाना संभव है।

स्थानीय ग्रामीण स्तर पर मृदा संरक्षण, जल प्रबंधन, जंगलों की सुरक्षा और पर्यावरण की रक्षा इसको बढ़ावा देने के लिए पंचायतों को भी मजबूत बनाया जा चुका है।


पर्यावरण की रक्षा हमारे सांस्कृतिक मूल्यों परंपराओं का ही अंग है। अथर्ववेद में कहा भी गया है कि मनुष्य का स्वर्ग यहीं पृथ्वी पर है। यह जीवित संसार ही सभी मनुष्यों के लिए सबसे प्यारा स्थान है। यह प्रकृति की उदारता का ही आशीर्वाद है कि हम पृथ्वी पर बेहतर सोच और जज्बे के साथ जी रहे हैं। पृथ्वी ही हमारा स्वर्ग है और इसकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। भारत के संविधान में भी प्रकृति के संरक्षण और रक्षा का ढांचा समाहित है, जिसके बिना जीवन का आनंद नहीं उठाया जा सकता है। पर्यावरण संरक्षण के प्रति लोगों की सहभागिता बढ़ाने, पर्यावरण जागरूकता, पर्यावरण संबंधी शिक्षा का विकास करने लोगों को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए पर्यावरण की रक्षा से जुड़े संवैधानिक प्रावधानों का ज्ञान लोगों को होना बेहद जरूरी है। यह आज की जरूरत भी है।

बुधवार, 11 जून 2014

जलवायु परिवर्तन के खतरनाक संकेत

जलवायु परिवर्तन पर सरकार की चिंता स्वाभाविक है। पूरी दुनिया इससे चिंतित है और इसे रोकने के कारगर प्रयासों पर अभी से गौर नहीं किया गया तो धरती पर जीवन के लिए गंभीर संकट पैदा हो सकता है। जलवायु परिवर्तन को अक्सर पड़ रहे सूखे और लगातार गर्म होते धरती के तापमान से समझा जा सकता है। इस गर्मी में पूरे छत्तीसगढ़ में भीषण लू के कारण लोगों का घरों से निकलना मुश्किल हो गया। राजधानी रायपुर में चार लोग मौत के शिकार हो गए। करीब एक पखवाड़े तक तापमान 45 से ऊपर बना रहा। ऐसा पहले संभवत: कभी नहीं हुआ। तापमान इस स्तर तक पहुंचने पर बदली छा जाती थी और तपती गर्मी से राहत के रूप में बादल बरस जाते थे। इस बार मौसम ने प्रतिकूलता का अनुभव कराया है और यह परिवर्तन बड़ी चिंता का सबब है। राज्य सरकार ने इसकी गंभीरता को समझा है और जलवायु परिवर्तन से निपटने की कार्ययोजना के लिए 10 हजार करोड़ रूपए का प्रावधान किया है। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि सरकार की कार्ययोजना की प्राथमिकताएं क्या होगी फिर भी जल संवर्धन, पर्यावरण संरक्षण के उपायों पर नि:संदेह विशेष तौर से गौर किया जाएगा। बढ़ता अनियोजित शहरीकरण भी जलवायु परिवर्तन का बड़ा कारण है। क्रांकीट के सड़क बढ़ते ही जा रहे हैं। अब तो सड़कें भी क्रांकीट की बन रही है और पक्की नालियों से वर्षा जल की भी निकासी हो रही है। वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम के जरिए वर्षा जल को संचित करने की योजना पर भी गंभीरता से काम नहीं हो पा रहा है। वनों के विकास की योजनाएं तो बनाई जा रही हंै पर विकास से कहीं ज्यादा तेजी से वनों का विनाश हो रहा है, जिसे रोकने के प्रभावी तरीकों को गंभीरता से लेने की कोशिश नहीं हो रही है। वन क्षेत्रों की आबादी अभी भी घरेलू जरूरतों के लिए वनों पर निर्भर है। उन्हें चूल्हा जलाने के लिए जलाऊ से लेकर इमारती उपयोग के लिए लकड़ी चाहिए। इसकी आपूर्ति कहां से हो, इसका कोई इंतजाम नहीं है। ऐसे ग्रामीणों को रसोई गैस उपलब्ध करने की योजना बनाई गई थी, लेकिन यह अभी भी कागजों पर ही है। ग्रामीणों से कहा जाता है कि वे वनों से जलाऊ की जरूरत वनों में गिरी पड़ी सूखी लकडिय़ों से करें। यह देखने की कोशिश नहीं की जाती कि वनों में क्या इतनी सूखी लकडिय़ां हैं भी, जिनसे उनकी जरूरत पूरी हो सकती है। वनों के सिमटते क्षेत्रफल का यह भी एक बड़ा कारण है। वनों को बचाना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए और इसके लिए जरूरी है कि लोगों की वनों पर निर्भरता को कम से कम किया जाए। वर्षा जल के नदी-नालों से होकर बह जाने से रोकने के लिए छोटे-छोटे बांध बनाए जाएं और किसानों के खेतों तक पानी पहुंचाने की व्यवस्था की जाए। वातावरण में बढ़ते कार्बन उत्सर्जन को वातावरण गर्म होने का सबसे बड़ा कारण माना गया है। इसमें कमी लाने के  उपायों पर भी काम शुरू करना होगा ताकि धरती पर जीवन को खतरे से बचाया जा सके।

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