बुधवार, 16 अप्रैल 2014

चुनाव : बढ़ता खर्च, घटता अर्थ

लोकसभा चुनाव में कितना पैसा खर्च होने जा रहा है? सच पूछिए तो इसका कोई विश्वसनीय अनुमान लगा पाना तक मुश्किल है। फिर भी, एक चौंकाऊ अनुमान ने जरूर लोगों का ध्यान खींचा है। इसे चुनाव की तारीखें आने से पहले ही पेश किया जा चुका था। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज द्वारा पेश किए गए इस अनुमान के अनुसार, 2014 के चुनाव का खर्च, 30,000 करोड़ रुपए तक पहुंच सकता है। यानी एक मतदाता पर औसतन करीब 325 रुपए खर्च हो रहे होंगे। इसी अनुमान के हिस्से  के तौर पर यह ध्यान दिलाया गया कि यह खर्च, अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव से ही थोड़ा कम है। 2012 के अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव पर कुल मिलाकर 42,000 रुपए के करीब खर्च हुए थे। दूसरी ओर, यह इशारा किया जा रहा था कि 2014 के चुनाव का यह खर्चा, 2009 में हुए पिछले आम चुनाव के खर्चे से पूरे तीन गुना ज्यादा होगा।
अमरीका में राष्ट्रपति चुनाव के कुल खर्चे से तुलना, अपने सारे चौंकाऊपन के बावजूद, ज्यादा चौंकाती नहीं है। इसका संबंध जितना अनुमान की विश्वसनीयता से है, उससे ज्यादा हमारे चुनाव प्रचार के ज्यादा से ज्यादा अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव प्रचार जैसा नजर आने लगने में है, जिसकी पड़ताल हम जरा बाद में करेंगे। वैसे अमरीका के चुनाव खर्चे से तुलना के संदर्भ में यह भी याद रखना अनुपयोगी नहीं होगा कि भारत में आम चुनाव का आकार यूरोप, अमरीका, कनाडा और आस्ट्रेलिया के चुनाव के संयुक्त आकार से भी बड़ा ही बैठेगा कम नहीं। खैर! खुद चुनाव आयोग ने इस चुनाव पर सरकारी खजाने से कुल मिलाकर 3,500 करोड़ रुपए का खर्चा होने का अनुमान लगाया है। खर्च का यह अनुमान, 2009 के आम चुनाव के खर्च से करीब ढाई गुना ज्यादा है। 2009 में चुनाव पर सरकार का 1,400 करोड़ रुपया खर्च हुआ था। अगर चुनाव पर सरकार का खर्चा पिछले चुनाव के मुकाबले ढाई गुना हो सकता है, तो पार्टियों-उम्मीदवारों आदि का खर्चा मिलाकर, कुल चुनावी खर्चा पिछले चुनाव के मुकाबले तीन गुना होना क्या मुश्किल है?
इस सिलसिले में एक और इशारा महत्वपूर्ण है। आम चुनाव की पूर्व-संध्या में खुद चुनाव आयोग ने उम्मीदवारों के लिए खर्च की अधिकतम सीमा में, साठ फीसद से ज्यादा की बढ़ोतरी की है। देश के बड़े राज्यों में, जहां चुनाव खर्चा अपेक्षाकृत ज्यादा माना जाता है, संसदीय क्षेत्र के लिए खर्च की वैध सीमा 40 लाख रुपए से बढ़ाकर 70 लाख रुपए कर दी गई है। इस बढ़ोतरी का अर्थ यह है कि अगर एक चुनाव क्षेत्र पर औसतन चार उम्मीदवारों के ही इस सीमा तक पूरा खर्च कर रहे होने की बात मानें, तब भी सिर्फ उम्मीदवारों का ही खर्चा 1500 करोड़ रुपए से ऊपर ही बैठेगा। राजनीतिक पार्टियों का खर्चा अलग होता है। याद रहे कि उक्त अनुमान का सच मानकर चलने का अर्थ, इस जानी-मानी सच्चाई की ओर से आंखें मूंदना है कि वास्तव में उम्मीदवार, निर्धारित कानूनी सीमा से कई-कई गुना खर्च करते हैं।
इसीलिए, बहुत गंभीरता से भी हो, फिर भी लोग कई बार यह कहते भी सुने जाते हैं कि चुनाव खर्च की सीमा तय करने का फायदा ही क्या है, जब इसका पालन किसी का करना ही नहीं है। चुनाव आयोग ने चुनाव खर्चों पर निगरानी रखने के लिए पिछले चुनाव के समय से अनेक कड़े कदम उठाए हैं। इनमें चुनाव के समय नकदी के लाए-ले जाए जाने पर अंकुश लगाने के कदम खास हैं। इसके बावजूद, चुनाव खर्च की सीमा कितनी कारगर है, इसका अंदाजा एक दुहरी विडंबना से लगाया जा सकता है। इसका पहला पक्ष यह है कि मीडिया के अनुसार, चुनाव आयोग के खर्च की सीमा में 60 फीसद की बढ़ोतरी करने के बावजूद, ज्यादातर सांसदों का यही कहना था कि इतने खर्चे में चुनाव नहीं लड़ा जा सकता है। दूसरी ओर, पिछले चुनाव में 437 सांसदों द्वारा दिए गए चुनाव खर्च के ब्यौरे के एक अध्ययन के अनुसार, 129 सांसदों ने चुनाव में निर्धारित सीमा से वास्तव में आधा या उससे भी कम खर्चा दिखाया था। साफ है कि इस चुनाव खर्च की सीमा का पालन कराना लगभग असंभव है। महाराष्ट्र के एक मुखर सांसद ने तो एक बार सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार भी किया था कि 2009 के चुनाव में उसे 8 करोड़ रुपए खर्च करने पड़े थे। यह दूसरी बात है कि चुनाव आयोग का नोटिस मिलने के बाद, उसे अपनी सदस्यता बचाने के लिए अपनी ही कही बात पर लीपा-पोती करनी पड़ी थी।
एक और परोक्ष इशारा यह है कि चुनाव आयोग को दिए गए विवरण के अनुसार, पांच साल में : राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों ने कुल 4,400 करोड़ रुपए एकत्र किए थे। चूंकि आम चुनाव ही पांच साल की अवधि में सबसे बड़ा तथा सबसे महत्वपूर्ण खर्चा होता है, इसलिए यह मानना निराधार नहीं होगा कि इन पार्टियों ने इस राशि का बड़ा हिस्सा, आम चुनाव पर ही खर्च किया होगा। एक और परोक्ष इशारा है। पैसे के मामले में अपनी शुचिता को सबसे ऊपर रखने का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी ने भी घोषित रूप से 2014 के आम चुनाव में लगभग 300 उम्मीदवार लड़ाने के लिए, 300 करोड़ रुपए के ही चंदे का लक्ष्य घोषित किया था। इससे कम से कम यह अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है कि संसदीय चुनाव में पर्याप्त रूप से उपस्थिति दर्ज कराने के लिए भी कम से कम एक करोड़ रुपए का खर्चा आना, एक आमतौर पर स्वीकृत सच्चाई है।
चुनाव खर्च के इस तरह बेतहाशा बढ़ने के नतीजे स्वत: स्पष्ट हैं, हालांकि उनकी चर्चा कम ही होती है। यह समझने के लिए किसी विशेषज्ञता की जरूरत नहीं है कि बढ़ता चुनावी खर्चा, शासन के राजनीतिक नेतृत्व से साधनहीनों तथा उनके प्रतिनिधियों को बाहर ही रखने वाली छन्नी का काम करता है। यह कोई संयोग ही नहीं है कि उदारीकरण के बाद के दो दशकों में हमारे देश में संसद और विधानसभाएं, ज्यादा से ज्यादा 'करोड़पति क्लब' जैसी होती चली गई हैं।  इन कानून बनाने वाले निकायों में बड़े उद्यमियों की संख्या तो बढ़ी ही है, खुद मंत्रिमंडलों में ऐसे लोगों की संख्या में भी उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई है, जो राजनीतिज्ञ बाद में हैं, उद्यमी पहले। यह दूसरी बात है कि इसके बावजूद हमारे देश में अब तक यह सुनिश्चित करने के लिए कोई भरोसेमंद नियम-कानून नहीं बनाए जा सके हैं कि सरकार में या संसद-विधानसभा आदि में बैठकर लोग, ऐसे निर्णय नहीं ले सकेंगे, जिनसे उनके निजी आर्थिक फायदे जुड़े हों। जाहिर है कि इससे सत्ता को संभालने वाली पूरी व्यवस्था की वर्गीय संरचना भी बदल रही है।
सांसदों-विधायकों द्वारा घोषित परिसंपत्तियों के एक अध्ययन के अनुसार, सिर्फ इन निर्वाचित निकायों में देश भर में करोड़पतियों का बोलबाला कायम हो चुका है बल्कि सांसद-विधायक की संपत्ति का औसत आंकड़ा पहले ही, 3.83 करोड़ पर पहुंच चुका है। अप्रत्याशित होते हुए भी यह एक दिलचस्प तथ्य है कि देश भर की बीस प्रमुख राष्ट्रीय क्षेत्रीय पार्टियों में सिर्फ और सिर्फ तीन पार्टियों के सांसद-विधायक लखपति होने पर ही अटके हुए थे। इनमें भी सीपीआई (एम) 21 लाख पर और सीपीआई 29 लाख पर ही अटकी हुई थी। तीसरा नाम असम गण परिषद का है, जो 77 लाख पर अटकी हुई थी। याद रहे कि यह उस जनता के प्रतिनिधियों की स्थिति है, जिसका प्रचंड बहुमत 20 रुपए रोज या उससे भी कम में गुजारा करने पर मजबूर है!

आखिर में यह कि चुनावों के इस कदर बेहिसाब महंगे होने की वजह क्या है? बेशक, चुनाव इसलिए महंगे हो रहे हैं कि चुनाव खर्चे बढ़े हैं। टीवी-अखबार विज्ञापनों की बेतहाशा बारिश से लेकर हैलीकाप्टरों-निजी विमानों से दौरों की आंधी तक की वजह से और कुछ राज्यों में तो मतदाताओं तक सीधे पांच सौ लेकर एक हजार रुपए तक के नोट पहुंचाए जाने की वजह से, चुनाव महंगे हो रहे हैं। और यह सब इसलिए हो रहा है कि नवउदारवादी नीतियों के बोलबाले के इस जमाने में, कम से कम आर्थिक नीतियों को राजनीति तथा बहुत हद तक राजनीतिक पार्टियों से भी स्वतंत्र करा दिया गया है। संक्षेप में यह कि चूंकि मुख्य पार्टियां तथा उनके उम्मीदवार, जनता को उसकी जिंदगी में सुधार लाने का कोई भरोसा दिलाने की स्थिति में ही नहीं रह गए हैं, चुनाव ज्यादा से ज्यादा विचार या आचार नहीं, शुद्ध प्रचार की लड़ाई बनता जा रहा है। इसीलिए, चुनाव जितना महंगा होता जा रहा है और जनता की जिंदगी के लिए उसका अर्थ उतना ही घटता जा रहा है। एक तरफ अगर हर चुनाव में जनता द्वारा बदल दिए जाने वाले प्रतिनिधियों का अनुपात लगातार बढ़ता जा रहा है, तो दूसरी ओर हमारे देश में भी चुनाव ज्यादा से ज्यादा अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव जैसे बनते जा रहे हैं। वहां भी चुनाव में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों को बेचा खूब जाता है, जबकि पेट्रोल के दो ब्रांडों की तरह, वास्तव में जनता के लिए उनके बीच चुनने के लिए कुछ होता ही नहीं है।

सोमवार, 14 अप्रैल 2014

लोकतंत्र को बचाने दूरगामी रणनीति की जरूरत

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के एक और महापर्व अर्थात् आम चुनाव की शुरुआत हो चुकी है। 62 साल पूर्व 1952 में संपन्न हुए पहले लोकसभा चुनाव के मुकाबले सोलहवीं लोकसभा चुनाव तक की यात्रा का सिंहावलोकन करने पर कोई भी भारतीय अपने संसदीय लोकतंत्र के इतिहास पर सुखद आश्चर्य व्यक्त करेगा। 1952 में देश में कुल 401 सीटें थीं जो आज बढ़कर 543 हो गयी हैं। तब पूरे देश में कुल 2 लाख, 24 हजार मतदान केंद्र बनाए गए थे जबकि सोलहवीं लोकसभा चुनाव के लिए 9 लाख, 30 हजार मतदान केंद्र बने हैं। 1952 में कुल 17.3 करोड़ मतदाताओं को अपने लोकतांत्रिक अधिकार का सदुपयोग करवाने के लिए 10 लाख सरकारी कर्मचारी तैनात किये गए थे जबकि 2014 में 81 करोड़ से कुछ ज्यादा  मतदाताओं के लिए 1.10 करोड़ कर्मियों को डयूटी पर लगाए जाने का इंतजाम है। सोलहवीं लोकसभा चुनाव की एक बड़ी खासियत यह भी है कि पहली बार मतदाताओं को लोकसभा चुनाव में नोटा (नान ऑफ एभब) के अधिकार का इस्तेमाल करने का अवसर मिल रहा है। सोलहवीं लोकसभा चुनाव की पूरी प्रक्रिया विश्व के लोकतांत्रिक इतिहास की एक दुर्लभ घटना साबित होने जा रही है जिसका साक्षी बनने के लिए भारी संख्या में विदेशी पर्यटक भारत भी पहुंच चुके हैं।

इन पंक्तियों के लिखे जाने दौरान चार चरणों के चुनाव हो चुके हैं। अब तक हुए चुनाव में मतदान का भारी प्रतिशत संकेत करता है कि लोगों में चुनावी महापर्व को लेकर भारी उत्साह हैं। चुनावी महापर्व का यह तामझाम देख कर किसी को भी लग सकता है कि भारत का लोकतंत्र उत्कर्ष पर है, इसका भविष्य उजवल है। किन्तु आगामी 14 अप्रैल को हम जिस महापुरुष की जयंती मनाने जा रहे हैं, यदि उनकी 25 नवम्बर,1949 वाली खास हिदायत को ध्यान में रखें तो मौजूदा चुनाव को हम लोकतंत्र के बड़े खतरे के रूप में देखने के लिए विवश हो जायेंगे। उस दिन संसद के केन्द्रीय कक्ष में डॉ. आंबेडकर ने कहा था-''26 जनवरी,1950 को हमलोग एक विपरीत जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति के क्षेत्र में हम लोग समानता का भोग करेंगे, किन्तु सामाजिक और आर्थिक जीवन में हमें मिलेगी भीषण असमानता। राजनीति के क्षेत्र में हम लोग एक वोट एवं प्रत्येक वोट के एक ही मूल्य की नीति को स्वीकृति देने जा रहे हैं... हम लोगों को निकट भविष्य में अवश्य ही इस विपरीतता को दूर कर लेना होगा। अन्यथा यह असंगति यदि कायम रही तो विषमता से पीड़ित जनता इस राजनैतिक गणतंत्र की व्यवस्था को विस्फोटित कर सकती है।''

  तो डॉ. आंबेडकर ने भारत के लोकतंत्र की सलामती के लिए सबसे अनिवार्य शर्त आर्थिक और सामाजिक विषमता का खात्मा बताया था। चूंकि शासकों द्वारा सर्वत्र ही शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-धार्मिक) का लोगों के विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य असमान बंटवारा कराकर ही मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या की सृष्टि की जाती रही है इसलिए इसके निवारण के लिए विभिन्न सामाजिक समूहों और उनकी महिलाओं के  संख्यानुपात शक्ति के स्रोतों के बंटवारे से भिन्न कोई उपाय ही नहीं रहा। इस बात को दृष्टिगत रखकर लोकतांत्रिक रूप से परिपक्व देशों ने शक्ति-वितरण के इस सिध्दांत का अनुसरण किया। इसके फलस्वरूप वहां वंचित विभिन्न नस्लीय समूहों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं इत्यादि को शासन-प्रशासन सहित समस्त आर्थिक गतिविधियों में हिस्सेदारी मिली। इससे वहां आर्थिक और सामाजिक विषमताजन्य विच्छिन्नता-विद्वेष,अशिक्षा-गरीबी-कुपोषण इत्यादि का खात्मा और लोकतंत्र का सुदृढ़ीकरण हुआ। किन्तु हमारे शासकों ने वैसा नहीं किया।

शासक और उसके समर्थक बुध्दजीवी वर्ग ने स्वाधीन भारत में आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी को सबसे बड़ा मुद्दा बनने ही नहीं दिया। ऐसे में विषमता का खात्मा उपेक्षित रह गया। इसका भयावह परिणाम 15वीं लोकसभा चुनाव तक सामने लगा जब लगभग 200 जिले माओवाद की चपेट में गए। यही नहीं, उस समय तक 'विश्व आर्थिक मंच' की रिपोर्ट से यह स्पष्ट हो चुका था कि महिला सशक्तिकरण के मामले में भारत श्रीलंका, पाकिस्तान, बंगलादेश जैसे पिछड़े राष्ट्रों से पीछे है। उस समय तक सच्चर रिपोर्ट में उभरी मुसलमानों की बदहाली की तस्वीर राष्ट्र को सकते में डाल चुकी थी। उस समय तक तेज् ाी से बढ़ती लखपतियों-करोड़पतियों की तादाद के बीच 84 करोड़ लोगों को 20 रुपये  रोजाना पर गुजर-बसर करते देख जहां अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री देश के अर्थशास्त्रियों के समक्ष रचनात्मक सोच की अपील कर चुके थे, वहीं राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल बदलाव की एक क्रांति की अपील कर चुकी थीं। मतलब साफ है 2009 के पूर्व लोकतंत्र के विस्फोटित होने की काफी सामग्री जमा हो चुकी थी। बावजूद इसके देश के राजनीतिक दल और बुध्दिजीवी 15 वीं लोकसभा चुनाव को आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे पर केन्द्रित करने की दिशा में आगे नहीं बढ़े। उस चुनाव में भी अतीत की भांति मनरेगा, 2-3 रुपया किलो चावल-गेहूं, मुफ्त का तेल-कुकिंग गैस-रेडियो जैसी राहत और भीखनुमा घोषणाएं आर्थिक और सामाजिक विषमता के  खात्मे पर हावी रहीं।

  2009 के मई महीने में सत्ता परिवर्तन के लगभग दस महीने बाद उस  स्थिति की झलक  दिख गयी जिससे बचने के लिए बाबा साहेब ने निकटतम समय के मध्य आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी के खात्मे का आह्वान किया था। 6मार्च, 2010 को माओवादी नेता कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी ने एलान कर दिया-'हम 2050 के बहुत पहले ही भारत में तख्ता पलटकर रख देंगे। हमारे पास यह लक्ष्य हासिल करने के लिए पूरी फौज है।' जाहिर है जिस फौज के बूते उन्होंने तख्ता पलट का एलान किया था वह फौज और कोई नहीं शक्ति के स्रोतों से वंचित लोगों की जमात थी। उनकी उस चेतावनी के बाद उम्मीद थी कि बारूद के ढेर पर खड़े विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की सलामती को ध्यान में रखकर देश के राजनीतिज्ञ  बुध्दिजीवी अंतत: सोलहवीं लोकसभा चुनाव को आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे पर केन्द्रित करने का उपक्रम चलाएंगे। पर अफसोस वे इस विस्फोटक स्थिति से पूरी तरह आंखें मूंदे हुए हैं।


इन पंक्तियों के लिखे जाने तक देश के तमाम राजनीतिक दलों के घोषणापत्र सामने चुके हैं। किसी भी दल के घोषणापत्र में आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे का कोई ठोस नक्शा नहीं है। कुछ दलों ने बेशक निजी क्षेत्र में आरक्षण की हिमायत की है। लेकिन इससे विषमता का खात्मा नहीं हो सकता। सबसे शोचनीय स्थिति तो सत्ता की प्रबल दावेदार भाजपा की है। उसने विषमता के खात्मे के लिए अन्य दलों की भांति निजी क्षेत्र में आरक्षण जैसी तुच्छ घोषणा की भी जहमत नहीं उठाया है। एकमात्र अपवाद नव-गठित 'संख्यानुपाती भागीदारी' और 'बीएमपी' जैसी पार्टियां हैं। जहां तक बुध्दिजीवी वर्ग का सवाल है उसके एजेंडे में अतीत की भांति मुद्रा स्फीति और महंगाई, भ्रष्टाचारमुक्त प्रशासन, राजनेताओं से मुक्त पुलिस व्यवस्था, धर्मनिरपेक्षता और भाईचारा, शिक्षा और कृषि सुधार, स्वास्थ्य सुविधाएं, बेरोजगारी इत्यादि जैसे घिसे-पिटे मुद्दे तो हैं, पर भीषणतम रूप में फैली आर्थिक और सामाजिक विषमता का मुद्दा नदारद है। कुल मिलाकर यह साफ दिख रहा है कि निरीह मतदाताओं को छोड़कर इस महापर्व के शेष घटक प्रकारांतर में लोकतंत्र के मंदिर को ही विस्फोटित करने के काम में प्रवृत हैं। ऐसे में जिस शक्तिहीन बहुजन की मुक्ति लोकतंत्र में निहित है उसे तो  इसे बचाने के लिए एक दूरगामी रणनीति अख्तियार करनी चाहिए। फिलहाल तो लोकतंत्र विरोधियों के खिलाफ 'नोटा' को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने पर विचार करना चाहिए।

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