सोमवार, 7 अप्रैल 2014

सोशल मीडिया पर आयोग की नजर

निर्वाचन आयोग ने अब अंतर्जाल, मसलन इंटरनेट पर वर्चस्व बनाए रखने वाले समाचार माध्यमों पर नजर रखने की कवायद शुरू कर दी है। जाहिर है, आदर्श आचार संहिता के दायरे में फेसबुक, टि्वटर, यू-टयूब और एप्स ; वर्चुअल गेम्स वर्ल्डबध्द ब्लॉग ब्लॉगर भी आएंगे। आयोग ने सभी वेबसाइटों को पत्र लिखकर हिदायतें दी हैं कि पेड न्यूज की समस्या पर लगाम लगाने के लिए ये उपाय किए जा रहे हैं, क्योंकि दिल्ली विधानसभा चुनाव में सोशल साइटों से जुडे पेड न्यूज के 54 मामले सामने आए थे।

जगजाहिर है कि सोशल वेबसाइटों का इस्तेमाल करने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। दल और उम्मीदवार भी साइटों पर अपने खाते खोलकर बढ़-चढ़कर भागीदारी करने में लगे हैं। यही नहीं, टीवी समाचार चैनल और एफएम रेडियो दलीय आधार पर जनमत सर्वेक्षण कर उनका प्रसारण भी कर रहे हैं। ये स्थितियां दल या उम्मीदवार विशेष के पक्ष में जीत का अप्रत्क्ष माहौल बनाने का काम करती हैं। यह निगरानी इसलिए भी जरूरी है, जिससे चुनाव खर्च में तय धन राशि से यादा राशि खर्च हो। लिहाजा मतदाता निष्पक्ष बना रहे, इसके लिए जरूरी था कि सोशल मीडिया पर पाबंदी लगे। इस लिहाज से आयोग का निर्णय स्वागतयोग्य है। हालांकि चंद लोग आयोग द्वारा की जा रही निगरानी की इस कार्रवाई को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश मानकर चल रहे हैं। ऐसे लोगों के संज्ञान में यह बात आनी चाहिए कि समाचार के ये मायावी माध्यम व्यक्तियों के चरित्र हनन के साथ, बेहूदी टिप्पणियां और अफवाह फैलाने का काम भी करते हैं, इसीलिए इन्हें आदर्श आचार संहिता के दायरे में लेना कोई अनहोनी या असंगत बात नहीं है। गोया, आयोग की इस पहल को प्रासंगिक ही माना जाना चाहिए।

आयोग ने यह जरूरी पहल जनप्रतिनिधित्व कानून और आदर्श आचार संहिता के तहत की है। पेड न्यूज के बाद विद्युत समाचार माध्यमों पर अंकुश की यह निर्वाचन आयोग की दूसरी बड़ी पहल है। अब दल उम्मीदवारों को सोशल मीडिया पर प्रसारित प्रचार के खर्चे का ब्यौरा नियमानुसार आयोग को देना होगा। चुनाव में प्रत्यक्ष भागीदारी करने वाले जो दल प्रत्याशी इस आचार संहिता का उल्लंघन करेंगे, उसे संहिता की विसंगति के रूप में संज्ञान में लिया जाएगा। इसलिए आयोग के नए निर्देशों के तहत उम्मीदवार जब नामांकन दाखिल करेंगे, तब फॉर्म-26 के तहत दिए जाने वाले शपथ-पत्र में अपने फोन नंबर, -मेल आईडी के साथ सोशल मीडिया से जुड़े खातों की भी पूरी जानकारी देनी होगी। इसके अलावा प्रत्याशियों को इन माध्यमों के जरिए किए जाने वाले प्रचार का खर्च भी आयोग को देना होगा। कंपनियों को किए गए या किए जाने वाले भुगतान के साथ उन लोगों के भी नाम देने होंगे, जो इन खातों को संचालित करेंगे। यह खर्च प्रत्याशी के खाते में शामिल होगा। हालांकि एक अनुमान के मुताबिक अभी भी सभी प्रकार के समाचार माध्यमों पर खर्च, कुल खर्च का महज 15-20 प्रतिशत ही होता है।

हालांकि इस परिप्रेक्ष्य में यहां यह सवाल जरूर खड़े होते हैं कि कोई व्यक्ति नितांत स्वेच्छा से दल या उम्मीदवार के पक्ष में प्रचार अभियान में शिरकत करता है, तो क्या उसके इस श्रमदान की कीमत विज्ञापन-दर के हिसाब से लगाई जाना उचित है? क्योंकि तमाम सामान्य लोग निष्पक्ष स्वप्रेरणा से भी चुनाव में अपनी सामर्थ्य के अनुसार भागीदारी करते हैं।  और यही वह मतदाता होता है, जो वर्तमान सरकारों को बदलता है। ग्रामीण क्षेत्रों में जहां मीडिया और सोशल मीडिया की पहुंच सीमित है, वहां यह मीडिया बेअसर है। इन क्षेत्रों में प्रत्याशी मतदाताओं को लुभाने के लिए शराब और नकद राशि बांटते हैं।

इस संदर्भ में एक अन्य सवाल यह भी उठता है कि यदि कोई व्यक्ति या प्रवासी भारतीय दूसरे देशों में रहते हुए, सोशल मीडिया से जुड़े खातों को विदेशी धरती से ही संचालित करता है, तो वह आचार संहिता की अवज्ञा के दायरे में कैसे आएगा? उसे नियंत्रित कैसे किया जाएगा? यह एक बड़ी चुनौती है, जिसे काबू में लेना मुश्किल होगा। आजकल दूसरे देशों से इन माध्यमों का इस्तेमाल खूब हो रहा है। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाए जाने का सबसे यादा समर्थन प्रवासी भारतीयों ने ही किया है। इस परिप्रेक्ष्य में एक सवाल तकनीकी व्यावहारिकता या उसकी अपनी तरह की बाध्यताओं का भी उठता है। क्योंकि इंटरनेट के संजाल में छद्म या फर्जी नामों से खाते खोलना बेहद आसान है। व्यक्तिगत चिट्ठे भी सरलता से बनाए जा सकते हैं। हमारे यहां तो देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के नामों से खाते खोले जाना -मेल आईडी बनाना सहज है, तो फिर हजारों की तादाद में खड़े होने वाले प्रत्याशियों के खाते खोलने में तो कोई कठिनाई ही पेश नहीं आनी चाहिए? कुछ साल पहले गुजरात की एक अदालत से बतौर प्रयोग एक पत्रकार ने  तत्कालीन प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के नामों से वारंट जारी करा लिए थे। जबकि अदालती काम में चंद लोगों की भागीदारी होती है, और संवैधानिक गरिमा देश की संप्रभुता से जुडे ये नाम देशव्यापी होते हैं। तय है, हमारे यहां प्रशासनिक सुस्ती और लापरवाही इतनी है कि आप किसी भी किस्म की हरकत को अंजाम दे सकते हैं। फिर आचार संहिता के दायरे में तो रुपये, शराब और अन्य उपहारों का बांटना भी आता है। बावजूद क्या इनका बांटा जाना रुक गया? जवाब है नहीं? लेकिन अंकुश जरूर लगा है, इस तथ्य से नहीं मुकरा जा सकता।  तय है, इन व्यावहारिक कठिनाईयों पर पाबंदी के कानूनी विकल्प तलाशे जाना जरूरी है, कि तात्कालिक स्थितियों में इनसे निपटने के कोई कायदे-कानून होने के बहाने इन्हें नजरअंदाज कर देना?


निर्वाचन आयोग द्वारा सोशल मीडिया को आदर्श संहिता के दायरे में लाने पर कार्मिक, लोक-शिकायत कानून एवं न्यायिक मामलों से संबंधित संसदीय स्थायी समिति के अध्यक्ष शांताराम नाइक ने आयोग के इस फैसले पर आपत्ति दर्ज कराई है। उनका मानना है कि ऐसे उपायों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित होगी। साथ ही सोशल मीडिया को नियंत्रित करने का देश में कोई कारगर कानून भी नहीं है? लेकिन आयोग ने इंटरनेट माध्यमों को मर्यादित बने रहने के जो दिशानिर्देश दिए हैं, वे मौजूदा कानून और आचार संहिता के परिप्रेक्ष्य में ही हैं। इन्हीं कानूनों को आधार बनाकर राजनीतिक दलों के आचरण और समाचार माध्यमों में अपनाए जाने वाली पेड न्यूज पर अंकुश लगाया गया है। इन कार्रवाईयों के कारगर नतीजे भी देखने में आए हैं। इसलिए यदि इस दायरे का विस्तार सोशल मीडिया तक किया गया है, तो इस पर आपत्ति क्यों? सोशल साइट पर कोई विज्ञापन अथवा प्रचार सामग्री डालने से पहले इन विषयों की विषयवस्तु के उचित होने का प्रमाण मीडिया सत्यापन एवं मूल्यांकन समिति से लेना होगा। गौरतलब है कि कथ्य पर निगरानी जिन कानूनों के तहत प्रिंट और इलेक्ट्रानिक माध्यमों पर अब तक की जा रही है, तो फिर सोशल मीडिया को छूट कैसे दी जा सकती है? वस्तुत: चुनाव सुधार की दिशा में आयोग द्वारा सोशल मीडिया पर निगरानी की इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए।

रविवार, 6 अप्रैल 2014

सामाजिक वर्गों की राजनीति को एक नई दिशा देने की कोशिश

लोकसभा चुनाव 2014 अभियान जोरों पर है। इस चुनाव में सूचना क्रान्ति के दमदार असर को साफ देखा जा सकता है।  लोकसभा चुनाव 2009 में भी इंटरनेट का इस्तेमाल हुआ था लेकिन हर हाथ में इंटरनेट नहीं था। उन दिनों यह बहस चल रही थी कि कम्प्यूटर, टेलीविजन सेट और सेल फोन को एक ही इंस्ट्रूमेंट में रहना है, देखें कौन जीतता है। अब यह बहस तय हो चुकी है, सेल फोन ने बाजी मार ली है। अब कंप्यूटर और टेलीविजन का काम भी सेल फोन के जरिये हो रहा है। जाहिर है एक बहुत बड़े वर्ग के पास हर तरह की सूचना पहुंच रही है। और उसके हिसाब से फैसले हो रहे  हैं।  सूचना क्रान्ति का अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने वालों में बीजेपी का नंबर सबसे आगे है।  प्रधानमंत्री पद के उसके दावेदार नरेंद्र मोदी की निजी वालंटियरों की सेना भी इंटरनेट का बड़े पैमाने पर प्रयोग कर रही हैं।  हालांकि उनसे भी बेहतर प्रयोग आम आदमी पार्टी ने किया और दिल्ली विधानसभा के चुनावों में नरेंद्र मोदी के निजी प्रयास के बावजूद उनकी पार्टी को सत्ता से बाहर रखा।
इस चुनाव की सबसे बड़ी खासियत यही मानी जायेगी कि इस बार अधिकतम लोगों  तक अधिकतम सूचना पंहुच रही है। यह भी सच है कि बहुत सारी गलत सूचनाएं भी सच में बदल रही हैं। सबसे महत्वपूर्ण तो गुजरात राय का तथाकथित विकास है जिसको एक माडल के रूप में पेश कर दिया गया है और उसका पेटेंट नरेंद्र मोदी के नाम पर फिक्स करने की कोशिश की गई है। सच्चाई यह  है कि पहले से ही विकसित गुजरात राय नरेंद्र मोदी के राज में  विकास के बहुत सारे पैमानों पर चला गया है लेकिन नरेंद्र मोदी की प्रचार शैली की वजह से देश में लोग उसी तरह का विकास मांगने लगे हैं।  कांग्रेस ने नरेंद्र मोदी के विकास के दावों की पोल खोलने की कोशिश भी की लेकिन सूचना तंत्र की कुशलता के अभाव में कोई फर्क नहीं पड़ा था। हां, आम आदमी पार्टी वाले अरविन्द केजरीवाल ने यह काम बहुत ही तरीके से कर दिखाया और अब बीजेपी वाले दिल्ली जैसे उन इलाकों में गुजरात माडल के विकास की बात नहीं करते जहां आम आदमी पार्टी का भारी प्रभाव है। इसमें दो राय नहीं है कि इस बार का चुनाव सूचनातंत्र की प्रमुखता के लिए अवश्य याद किया जाएगा।

इस चुनाव की दूसरी जो सबसे अहम् बात है वह यह कि भारतीय जनता पार्टी ने एक नई तरह की सोशल इंजीनियरिंग को अपनी पार्टी स्थायी भाव बनाया है। बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी ने जब बिहार की एक सार्वजनिक सभा  में कहा कि आने वाला समय पिछड़ी और दलित जातियों की राजनीतिक प्रभुता देखेगें तो  शुरू में लगा था कि बिहार में पिछड़ी जातियों के राजनीतिक महत्व को भांपकर नरेंद्र मोदी ने स्थानीय राजनीति के चक्कर में यह बात कह दी लेकिन बाद की नरेंद्र मोदी की राजनीति को बारीकी से देखें पर बात समझ में आने लगती है। बीजेपी के नए नेतृत्व ने शुध्द रूप से जातियों की नई प्राथमिकताएं निर्धारित की हैं। ब्राह्मणों के प्रभुत्व वाली पार्टी ने अब उनको दरकिनार करने की योजना पर काम शुरू कर दिया है। ऐतिहासिक रूप से ब्राह्मण जाति के लोग कांग्रेस के सहयोगी हुआ करते थे। 1977 के पहले तक पूरे देश में  कांग्रेस का स्थायी समर्थन तंत्र ब्राह्मण, मुसलमान और दलित हुआ करते थे। जब 1977 में यह समीकरण टूटा तो कांग्रेस की सरकार चली गई, जनता पार्टी का राज आया। जनता पार्टी का राजनीतिक प्रयोग सत्ता में बने रहने के लिहाज से बहुत ही बेकार साबित हुआ लेकिन जनता पार्टी के प्रादुर्भाव से यह साबित हो गया कि अगर जातीय समीकरणों को बदल दिया जाए तो सत्ता हासिल करने के लिए कांग्रेस के प्रभुत्व को नकारा जा सकता है। 1977 में  कांग्रेस से अलग होने वाला प्रमुख वर्ग मुस्लिम ही था लेकिन 1978 में ही बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक, कांशीराम ने दलितों को कांग्रेस से अलग पहचान तलाशने की प्रेरणा देना शुरू कर दिया था।  1989 आते-आते यह काम भी पूरा हो गया और दलितों ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस से अलग और  कई बार तो कांग्रेस के खिलाफ बहुजन समाज पार्टी में अपनी पहचान तलाश ली थी। कांग्रेस के तब तक लगभग स्थायी मतदाता के रूप में पहचाने जाने वाले ब्राह्मण समुदाय ने उसके बाद से नई जमीन तलाशनी शुरू कर दी और जब लालकृष्ण आडवानी का रथ सोमनाथ से अयोध्या तक दौड़ा तो ब्राह्मणों को एक नया पता मिल गया था। उत्तर भारत में  बड़े पैमाने पर वर्ण व्यवस्था के शिखर पर मौजूद सबसे उच्च सामाजिक वर्ग बीजेपी का कोर वोटर बन चुका था। वह व्यवस्था अब तक चालू है।  2007 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के दौरान मायावती ने ब्राह्मणों को साथ लेने की रणनीति अपनाई और दलित ब्राह्मण एकता के बल पर सत्ता पर काबिज होने में सफलता पाई। उसके बाद बीजेपी और कांग्रेस उत्तर प्रदेश में बहुत पिछड़ गए। तीसरे और चौथे स्थान की पार्टियों के रूप में संतुष्ट रहने को मजबूर हो गए।  लेकिन बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही ब्राह्मण प्रभुत्व वाली पार्टियां बनी रहीं।  कांग्रेस में आज भी  ब्राह्मणों का ऐसा  दबदबा है कि किसी अन्य जाति के लोगों का अस्तित्व ब्राह्मणों की कृपा से ही चलता है। नेहरूजी के समय में तो सभी बड़े नेता ब्राह्मण ही हुआ करते थे। बाद में डीपी मिश्र, उमाशंकर दीक्षित और कमलापति  त्रिपाठी का जमाना आया। आजकल भी कांग्रेस के वोट बैंक के रूप में किसी भी राय में ब्राह्मण नहीं हैं लेकिन कांग्रेस में सबसे बड़े नेता ब्राह्मण ही हैं और अन्य जातियों के नेताओं को ऊपर नहीं आने देते।


बीजेपी में भी वही हाल है। अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवानी की पार्टी के रूप में पहचान बना चुकी बीजेपी में ब्राह्मण प्रभुत्व चौतरफा देखा जा सकता है लेकिन अब यह बदल रहा है। नरेंद्र मोदी ने इसको बदल देने का काम शुरू कर दिया है। अटल बिहारी वाजपेयी की भांजी करुणा शुक्ला को जब पार्टी से अलग करने की योजना बन रही थी तो रायपुर में मौजूद इन रिपोर्टर को साफ  नज् ार रहा था कि कहीं कुछ बड़े बदलाव की तैयारी हो रही थी। अब एक बात और नज् ार रही है कि उन लोगों को भी हाशिये पर ला दिया जाएगा जो  अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवानी के करीबी माने जाते हैं। नरेंद्र मोदी की नई सोशल इंजीनियरिंग में ब्राह्मणों के खिलाफ अभियान सा चल  रहा है। मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज, केशरीनाथ त्रिपाठी, कलराज मिश्र सभी हाशिये पर हैं। नरेंद्र मोदी के नए राजनीतिक समीकरणों की प्रयोगशाला में गुजरात में यह प्रयोग जांचा परखा जा चुका है। वहां यह काम बहुत समय से चल रहा है। सुषमा स्वराज  ने खुद स्वीकार किया है कि उनकी कुछ नहीं चल रही है।  उनकी मर्जी के खिलाफ, उनके ऐलानियां  विरोध के बाद ऐसे लोगों को टिकट दिया जा रहा है जिनसे पार्टी को नुकसान हो सकता है लेकिन नरेंद्र मोदी की नई जातीय राजनीति में उन लोगों का इस्तेमाल किया जा रहा है जिनका सुषमा स्वराज विरोध करती हैं। ब्राह्मणों को हाशिये पर लाने की नई रणनीति के तहत उत्तर प्रदेश में मुरली मनोहर जोशी के अलावा केशरीनाथ त्रिपाठी और कलराज मिश्र को भी औकात बताने की कोशिश की गई है। गुजरात में हरेन पाठक का टिकट काटना भी एक बड़े बदलाव का संकेत है।
ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी को मालूम है कि ब्राह्मणों को दरकिनार करके ही अन्य सामाजिक वर्गों को साथ लिय जा सकता है।  शायद इसीलिए गुजरात कैडर के जिन सिविल सर्विस अफसरों को परेशान किया गया उनमें अधिकतर ब्राह्मण ही हैं। साफ नज् ार रहा है कि बड़े पैमाने पर सामाजिक वर्गों की राजनीति को एक नई दिशा देने की कोशिश हो रही है। अभी अन्य जातियों के लोगों के बीजेपी की तरफ आने की पक्की खबर तो नहीं है लेकिन इतना तय है कि लोकसभा 2014 में ब्राह्मण नेताओं का एक वर्ग बीजेपी के नए नेताओं से नाराज हैं... यह देखना दिलचस्प होगा कि चुनाव में यह किस तरह से असर डालता है। जानकार बताते हैं कि जिन नये वर्गों को, खासकर पिछड़े वर्गों और राजपूतों को अपने करीब खींचने में नरेंद्र मोदी अपनी तरफ खींचने की कोशिश कर रहे हैं, वे पहले से  ही किसी अन्य राजनीतिक पार्टी के साथ हैं। अभी यह किसी को पता नहीं है कि वे इस काम में कितना सफल होंगें लेकिन यह तय है अब ब्राह्मण नरेंद्र मोदी की बीजेपी से दूर जाने की तैयारी में हैं। यह भी लग रहा है कि इन चुनावों में उसक असर भी स्पष्ट दिखेगा।

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