बुधवार, 26 मार्च 2014

मानव विकास सूचकांक से उभरती तस्वीर

नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर अमर्त्य सेन ने कुछ समय पहले सामाजिक न्याय के विचार को किस तरह देखा जाना चाहिए इस पर रौशनी डाली थी। उन्होंने न्याय की प्रणाली केन्द्रित अवधारणा और कार्यान्वयन केन्द्रित समझदारी के बीच फर्क करने की बात कही थी। इस प्रक्रिया पर निगाह डालते हुए जहां न्याय को चन्द सांगठनिक प्रणालियां - कुछ संस्थाएं, कुछ नियमन, कुछ आचार सम्बन्धी नियम - जिनकी सक्रिय उपस्थिति यह दर्शाती है कि न्याय को अंजाम दिया जा रहा है, उन्होंने कहा कि यहां सवाल यह पूछे जाने का है कि क्या न्याय का तकाज़ा महज इसी बात तक सीमित है कि संस्थाएं और नियम दोनों सही हों?

मानवविकास सूचकांक के ताजे आंकड़े प्रणाली एवं कार्यान्वयन के बीच मौजूद अन्तराल पर नए सिरे से निगाह डालने के लिए प्रेरित करते हैं। योजना आयोग के अन्तर्गत कार्यरत इंस्टीटयूट आफ एप्लाइड मैनपॉवर रिसर्च की तरफ से पिछले दिनों इन आंकड़ों को जारी किया गया है। इन आंकड़ों के मुताबिक ऐसे गरीब कहलाने वाले राय जहां हाशिये पर पड़े तबकों की तादाद अधिक है, वहां मानवविकास सूचकांक अब तेजी से राष्ट्रीय औसत के करीब पहुंच रहे हैं। एक तथ्य यह भी है कि अगर अनुसूचित जाति और जनजाति तथा मुस्लिम समुदाय के सूचकांकों की तुलना की जाए तो यह दिखता है कि अन्य हाशियाकृत समुदायों की तुलना में उनकी स्थिति बेहतर हो रही है।

मालूम हो कि आठ गरीब रायों - बिहार, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, मध्यप्रदेश, ओड़िशा राजस्थान, उत्तरप्रदेश और उत्तराखण्ड - में भारत की कुल अनुसूचित जातियों का 48 फीसदी, अनुसूचित जनजातियों का 52 फीसदी और मुसलमानों की 44 फीसदी आबादी रहती है। रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली, केरल, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और पंजाब को मानव विकास सूचकांकों के मामले में सर्वोत्तम परफार्मर कहा जा सकता है तो छत्तीसगढ़, बिहार, मध्यप्रदेश, झारखण्ड और ओड़िशा को सबसे खराब परफार्मर कहा जा सकता है।

रिपोर्ट बेहतर प्रशासन और रायों द्वारा व्यापक सामाजिक लामबन्दी की अहमियत को भी रेखांकित करती है, जो एक तरह से सभी सामाजिक समूहों के परफार्मन्स में प्रतिबिम्बित होती है। उदाहरण के लिए, विभिन्न स्वास्थ्य सूचकांकों के मामले में दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु और केरल के अनुसूचित जाति समूह और अन्य पिछड़ी जातियों की स्थिति बिहार, छत्तीसगढ़ और उत्तरप्रदेश से बेहतर दिखती है। एक तरह से देखें तो यह रिपोर्ट एक तरह से इसके पहले प्रकाशित इंडिया हयूमन डेवलपमेण्ट रिपोर्ट 2011 - टूवर्डस सोशल एक्स्लुजन के विस्तार के तौर पर देखी जा सकती है जिसने इस हक़ीकत को उजागर किया था कि विगत एक दशक के दरम्यिान भारत के मानव विकास सूचकांक में सुधार हुआ है लेकिन कुपोषण का स्तर, कुछ रायों में आज भी अधिक बना हुआ है। यह समीचीन होगा कि हम इस पर निगाह डालें।

2011 की उपरोक्त रिपोर्ट के मुताबिक अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ी जाति जैसे सामाजिक समूहों के हिसाब से सोचें तो भारत का जनसंख्यात्मक नक्शाप्रोफाइल एक दिलचस्प चित्र पेश करता है। आंकड़ों के मुताबिक आबादी का 71 फीसदी हिस्सा इन्हीं श्रेणियों में शुमार है। मानवविकास के आधार पर रायों का बंटवारा परिस्थिति में अन्तर्निहित सामाजिक आयाम को सामने लाता है। गरीब राय, जो मानवविकास सूचकांकों के हिसाब से भी सबसे नीचे स्थित हैं, वहां अनुसूचित जातियों और अन्य जैसे हाशियाकृत समूहों का बड़ा हिस्सा रहता है। सेवा अवरचना (सर्विस इन्फ्रास्ट्रक्चर) तथा संसाधनों तक पहुंच में सुगमता की कमी, एक तरह से इन समुदायों की वंचना को बढ़ाता है, जो विकास प्रक्रिया से बहिष्कृत ही रहते हैं। तमिलनाडु और केरल का उदाहरण, जहां सामाजिक समूहों का वितरण बिहार और यूपी की तरह है, एक विपरीत स्थिति को दर्शाता है। वे मानवविकास सूचकांक और उसके घटक सूचकांक में बेहतर दिखते हैं।

इस फर्क को कैसे समझा जा सकता है? वे बेहतर शासन और निम्न जातियों की जबरदस्त लामबन्दी का उदाहरण हैं। इन दक्षिणी रायों के सामाजिक आन्दोलनों ने वहां के समाज को इतने व्यापक स्तर पर प्रभावित किया है कि हम पाते हैं कि उत्तरप्रदेश और बिहार की उंची जातियां भी तमिलनाडु के अनुसूचित जातियों और अन्य पिछड़ी जातियों से बदतर दिखती हैं। इस राय में अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़ी जाति के बच्चों की उच्च दाखिला दर भी सामाजिक आन्दोलन के इतिहास से जुड़ी है। स्वास्थ्य, शिक्षा और पोषण की स्थिति के मामले में औसत से बेहतर स्थिति दरअसल सामाजिक आन्दोलनों और राय सरकार के हस्तक्षेप का संमिश्र नतीजा है। दिल्ली जैसा राय जहां की अनुसूचित जातियां और अन्य पिछड़ी जातियां उत्तर प्रदेश और बिहार की उंची जातियों से बेहतर करती दिखती हैं, वह दरअसल बेहतर शासन की ही भूमिका को रेखांकित करता है। दरअसल, बेहतर शासित रायों में सभी के सूचकांक बेहतर होते हैं जिसका लाभ पिछड़ी जातियों को भी मिलता है।

2011 की उपरोक्त रिपोर्ट ने उत्तरप्रदेश में सामने रही सच्ची दलित क्रांति से जुड़े तथ्य भी उजागर किए थे। कपूर आदि के अध्ययन को उध्दृत करते हुए उसमें बताया गया था कि अत्यधिक गरीबी के बावजूद वहां आर्थिक और सामाजिक सूचकांकों में जैसे पालन पोषण या समारोह के अवसर पर खाने पीने में जबरदस्त सुधार देखने को मिलता है। वह दलितों की बेहतर सामाजिक स्थिति तथा इसी से जुड़ी बेहतर उपभोग पैटर्न को भी दिखाता है। उच्च सकल घरेलू उत्पाद और प्रति व्यक्ति वृध्दि दर की उच्च दर ने इस नयी समृध्दि में दलितों को साझेदार बनने का मौका दिया है। जहां बेहतर शासन एवं निम्न तबकों की गोलबन्दी वंचित तबकों या क्षेत्रों के विकास के द्वार खोलती दिखती है, वहीं हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि समग्रता में देखें तो भारत आज भी भूख सूचकांकों के मामले में सबसहारन अफ्रीका - जो इलाका दुनिया भर में अपने लोगों की निरन्तर भूख के लिए जाना जाता है - को मात देता है।


अगर सबसहारन अफ्रीका के 26 देशों में पांच साल से छोटे कुपोषित बच्चों का औसत प्रतिशत पचीस फीसदी है, जबकि भारत में यही आंकड़ा 46 फीसदी है। केरल, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, सिक्किम, मणिपुर और मिजोरम के अलावा, भारत के बाकी सभी राय सबसहारन अफ्रीकी देशों की औसत के समकक्ष हैं या उससे खराब स्थिति में हैं। ( नेशनल फेमिली एण्ड हेल्थ सर्वे 3 की वर्ष 2009 की न्यूट्रिशन रिपोर्ट) नेशनल सैम्पल सर्वे द्वारा संग्रहित आंकड़ों के मुताबिक प्रति व्यक्ति कैलोरी के उपभोग में कमी आयी है जो लगभग पचीस साल पहले ही ग्रामीण इलाकों की न्यूनतम पोषण स्तर (2,400 कैलोरी) और शहरी इलाकों में न्यूनतम पोषण स्तर (2,100 कैलोरी) से कम था। आज़ादी के साठ साल बाद भारत के तीन साल के  बच्चों का लगभग आधा कुपोषित है। भारत की वयस्क आबादी का एक तिहाई का बाडी मास इण्डेक्स 18.5 से कम हैं ( अगर यह सूचकांक इससे नीचे जाता है तो लोगों को कुपोषित घोषित किया जाता है।) बाल मृत्यु दर की संख्या में हाल के वर्षों में नज़र आयी कमी के बावजूद, पांच साल के अन्दर के बच्चों की मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर वहीं बनी हुई है। कहने का तात्पर्य कि अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है ताकि एक समृध्द एवं समतामूलक समाज निर्माण की दिशा में आगे बढ़ा जा सके।

मंगलवार, 25 मार्च 2014

श्रीलंका के प्रस्ताव पर होने वाले मतदान का समर्थन करें

मार्च  संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद से यह स्पष्ट करने को कहा जाएगा कि वह श्रीलंका के प्रस्ताव पर क्या रुख रखता है। वह प्रस्ताव श्रीलंका युध्द के दौरान दोनों पक्षों द्वारा अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकारों और मानवीय कानूनों के तथाकथित उल्लंघन की जांच के लिए एक अंतरराष्ट्रीय प्रणाली की स्थापना हेतु संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त की अपील का समर्थन करता है। इस प्रस्ताव से श्रीलंका सरकार को मानवाधिकार से जुड़े सरोकारों, एक राजनैतिक निपटारे की दिशा में प्रगति तथा सभी श्रीलंकाई नागरिकों के लिए सहायता के बारे में प्रश्न पूछे जाने की उम्मीद है।

सबसे पहले, बिना जिम्मेदारी सुनिश्चित किए श्रीलंका के लिए दीर्घकालिक शांति स्थापना कठिन होगा। सच्चाई तथा न्याय का पालन करते हुए ये देश समझौता के सही मार्ग पर बढ़ेंगे। सिएरा लिओन इसका अच्छा उदाहरण है।  स्पेशल कोर्ट के अभियोजन ने सिएरा लियोन के इतिहास में उथल-पुथल वाले दौर में एक निश्चित रेखा खींची, तथा उपचार को प्रोत्साहित करने के संदर्भ में पीड़ित की आवश्यकता के प्रत्युत्तर में दंडमुक्ति का समाधान किया। श्रीलंका के लोग यह समझना चाह रहे हैं कि रक्तपात के दौरान जो कुछ हुआ उसका उत्तर उन्हें जरूर मिलना चाहिए और दीर्घकालीन तथा दु:खद युध्द के घावों को भरने के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा मिलनी चाहिए।

दूसरे, स्वतंत्र और निष्पक्ष घरेलू जांच की दो बार की मांगों और हाई कमीशन फॉर ह्यूमन राइट के कार्यालय से तकनीकी सहायता देने के प्रस्तावों के बावजूद श्रीलंका सरकार कोई भी कार्रवाई करने में विफल रही। 2010 में स्थापित श्रीलंका का अपना घरेलू लेसंस लर्नड एंड और रिफॉन्सिलेशन कमीशन इस मामले को प्रभावी रूप से सुलझाने में नाकाम रही। यदि ऐसा होता और यदि श्रीलंका कोई ठोस प्रगति कर रहा होता तो हम वहां नहीं होते जहां आज हैं। अंतरराष्ट्रीय कार्रवाई की मांग के बदले, हम अतीत में नियमों के उल्लंघन के समाधान के लिए श्रीलंका के अपने प्रयासों के लिए उसे बधाई देते।

तीसरे, एक अंतरराष्ट्रीय क्रियाविधि की स्थापना के लिए ह्यूमन राइट्स के यूएन हाई कमीश्नर द्वारा अंतरराष्ट्रीय समुदाय का आह्वान किया जा रहा है। उन्हें समर्थन में शांति के प्रभावशाली अग्रदूत आर्कविशप डेसमंड टुटु तथा श्रीलंकाई समाज और मुख्य तमिल पार्टी, तमिल नेशनल अलायंस सहित कई सारे स्वतंत्र स्वर उठे हैं। इस मांग के समर्थन में विभिन्न एनजीओ और पत्रकारों के जरिए एकत्रित बाध्यकारी प्रमाण भी उपलब्ध हैं।

चौथे, इस बात में कोई संदेह नहीं कि युध्द के दौरान नियमों के उल्लंघन और अपराध से दंडमुक्ति की सिथति को बदलकर श्रीलंका में कानून-व्यवस्था को सबल बनाया जा सकता है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा यह जोरदार संदेश स्पष्ट रूप से दिया जाना चाहिए कि सुरक्षित महसूस करना हर व्यक्ति का अधिकार है और कानून से ऊपर कोई व्यक्ति नहीं।

जो लोग इस प्रस्ताव के विरोध में तर्क देते हैं वे कहते हैं कि- श्रीलंका की घरेलू प्रक्रियाओं को समय चाहिए, कि सर्वोत्तम समाधान श्रीलंका के अंदर ही ढूंढा जाना चाहिए, कि हमें श्रीलंका की आलोचना करने की बजाय उसे वार्ता में शामिल करना चाहिए और यह कि श्रीलंकाई सरकार को तमिल टाइगर (लिट्टे) के आतंकवाद को वापस आने से रोकने के लिए कदम उठाने का पूरा-पूरा अधिकार है।
     
बेशक, इन बातों में यादातर सही हैं। युध्द के घावों को भरने के लिए पर्याप्त समय चाहिए। समग्र, स्वतंत्र और पारदर्शी घरेलू समाधान अत्यंत प्रभावी हो सकते हैं। ह्यूमन राइट काउंसिल के जरिए की जाने वाली रचनात्मक वार्ता जरूरी है। और कोई नहीं चाहता कि आतंकवाद दुबारा सिर उठाए।    लेकिन इसके लिए अधिक समय की जरूरत नहीं है, बल्कि यह श्रीलंकाई सरकार है जो सत्य जानने को इच्छुक लोगों को एक पारदर्शी, समग्र और विश्वसनीय प्रक्रिया के जरिए सत्य प्रस्तुत करने को लेकर राजनैतिक इच्छाशक्ति नहीं दर्शाती। श्रीलंका जिम्मेदारी तय करने के अपने उस वायदे को पूरा करने में असफल रहा है जो उसके 2009 में सं.रा. महासचिव के साथ एक संयुक्त बयान में किया था।

अंतरराष्ट्रीय समुदाय की जिम्मेदारी है कि वह श्रीलंका को एक राष्ट्र के रूप में मजबूत करने वाले मुद्दों को सुलझाने की दिशा में आगे बढ़ने में मदद करे। पुनर्निर्माण महत्वपूर्ण है लेकिन श्रीलंका के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए केवल यही काफी नहीं। आवश्यकता है राजनैतिक समाधान, जवाबदेही, मानव अधिकार और सुलह की दिशा में सार्थक प्रयास करने की।
  
आतंकवाद के खिलाफ होने वाली लड़ाई में एक सजग संतुलन की जरूरत होती है ब्रिटेन में हम इस बात को समझते हैं और श्रीलंका के उन सभी लोगों के प्रति सहानुभूति रखते हैं जिन्होंने निर्दयी तमिल टाइगर्स के अत्याचारों को झेला है। उनकी हार का किसी को खेद नहीं। किंतु, किसी भी यकीनी आतंकवादी खतरे के प्रति अनुक्रिया को अतिवाद की वाला को भड़काने से रोकने के प्रयासों का समानुपाती होनी चाहिए। इसका अर्थ है समावेशी सरकार, अल्पसंख्यक अधिकारों, यौन एवं अन्य दर्ुव्यवहारों पर प्रतिबंध का सुनिश्चयन तथा सबसे लिए न्याय सुनिश्चित करना और यही कारण है कि हमें श्रीलंका को इस हेतु प्रोत्साहित करना चाहिए कि वह सभी श्रीलंकाई नागरिकों में इन मूल्यों का समावेश करे।
    
ब्रिटिश सरकार ने इनमें से कई मुद्दे पिछले साल श्रीलंका में आयोजित राष्ट्रमंडल देशों के प्रमुखों की बैठक में श्रीलंका सरकार के साथ वार्ता में उठाए हैं जिसमें राष्ट्रपति राजपक्षे भी शामिल थे।
  

मानवाधिकार (ह्यूमन राइट) काउंसिल के देशों के लिए अब वह समय गया है कि वे एकजुट हों और इस महीने जिनेवा में श्रीलंका प्रस्ताव पर होने वाले मतदान का मजबूती से समर्थन करें। इससे केवल अंतरराष्ट्रीय नियमों के अतीत में हुए उल्लंघन पर कार्रवाई करने के एक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था कायम की जा सकेगी, बल्कि श्रीलंका के सभी निवासियों के बेहतर भविष्य के लिए भी प्रयास किया जाएगा।  हमें श्रीलंका के लिए हर संभव सही प्रयास करने होंगे।

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