शनिवार, 29 जून 2013

रिश्तों पर छिड़ी एक बहस

मद्रास हाईकोर्ट के लिव-इन रिलेशन में त्यागने के बाद पीडिता को गुजारा भत्ता देने के आदेश पर चल रही बहस "सिक्स मैन एंड एलीफेंट" विश्लेषण से भी बढ़कर है। मौजूदा बहस में जो अहम पहलू भुला दिया गया, वह यह है कि जब एक कोर्ट अपना फैसला देता है, तो यह लिव-इन रिलेशन में अलग होने के सभी तरह के मामलों के लिए कानूनी मिसाल स्थापित करता है।
यही वो वजह है, जो न्यायालय को पंचायत के कानून से अलग करती है, जो कि एक समान गांव या समुदाय के लिए "केस-टू-केस जस्टिस" करती है। भारत न तो एक समान गांव की तरह है और न ही एक जैसा समुदाय कहीं है। यहां हिंदू, मुस्लिम, क्रिश्चन, पारसियों के लिए शादी, तलाक और गुजारे भत्ते के अलग-अलग कानून हैं। इसके अलावा खासतौर पर "क्रॉस रिलीजन" और सम्प्रदायों के विवाहों के लिए एक विशेष कानून भी है।
जब विवाह न होने पर (नॉन-मैरिजेज) ही गुजारा-भत्ता के आदेश दिए जा रहे हैं, तो यह फैसला सभी धार्मिक कानूनों और विशेष कानून में कारक होना चाहिए। न्यायालय कड़ाई से कानून की अनुपालना करते हुए न्याय करता है। पर कानून कई दफा अन्यायपूर्ण भी होता है। यदि कानून केवल वैधानिक विवाह टूटने पर ही गुजारा भत्ता की अनुमति देता है, तो न्यायालय को लिव-इन के पीडित के लिए न्याय करने के लिए उच्च न्यायिक विवेक को अपनाना चाहिए और वैवाहिक कानून को नुकसान पहुंचाए बिना न्याय करना चाहिए, जो कि परिवारों को बनाए रखने का कार्य करते हैं।
इसके लिए किसी महान कानूनी विद्वान की जरूरत नहीं है कि लिव-इन रिलेशन क्यों वैधानिक विवाह के बराबर नहीं हैं। एक कानूनन विवाह दाम्पत्य अधिकारों को मानते हुए बना रह सकता है। यह किसी भी एक पक्ष के चाहने पर नहीं टूट सकता (इस्लामिक शरीयत कानून को छोड़कर, जहां पति छोड़ सकता है)। लेकिन लिव-इन रिश्ता स्वेच्छा से आपसी आकर्षण से होता है, आपसी सहमति पर नहीं होता।
इसमें कोई भी पार्टनर लिव-इन रिश्ते को लागू नहीं कर सकता, पर दोनों में से कोई भी आसानी से छोड़ सकते हैं। सोचिए, अगर पुरूष की बजाय एक महिला लिव-इन छोड़कर किसी दूसरे पुरूष के पास चली जाती, तो उसके लिव-इन पुरूष सहयोगी के पास वैधानिक विवाह की तरह कोई समाधान था, मसलन दाम्पत्य अधिकारों की पुनस्र्थापन जैसा कोई समाधान। क्या इसमें कोई शक है कि विवाह आपसी सहमति का एक जुड़ाव होता है, जबकि लिव-इन में कोई भी किसी को छोड़कर जा सकता है?
तो ऎसे में यौन सम्बंध बनाना और संतानोत्पत्ति अकेले लिव-इन अफेयर्स को विवाह के बराबर कैसे बना सकता है? फिर भी जाहिर तौर पर जस्टिस करनान, परित्यक्त महिला की विपत्ति पर जाते हुए, उसे गुजारा भत्ता दिलाने की दिशा में कई कानूनी त्रुटियों में चले गए।
उन्होंने उसे गुजारा भत्ता सुनिश्चित करने के लिए नॉन-बाइंडिंग लिव-इन रिलेशन को गलती से वैधानिक विवाह के बराबर ला खड़ा किया। लिव-इन रिलेशन को वैधानिक विवाह के दर्जे के बराबर लाते हुए, जज ने असल में दोनों स्थितियों के बीच कानूनी भेद को मिटाते हुए, वैधानिक विवाहों को लिव-इन संसर्ग की दिशा में नीचे ला खड़ा किया।
इस प्रक्रिया में उन्होंने विवाह के तमाम कानूनों को न्याय करने के लिए गैर-कानूनी ठहरा दिया। इस मामले में परित्यक्त लिव-इन महिला एक हिंदू है और परित्यागी एक मुस्लिम है। यह क्रॉस लिव-इन रिलेशन है। क्या उन्होंने हिंदू या शरीयत कानून के तहत विवाह किया था या क्या उन्होंने विशेष कानून के तहत विवाह पंजीयन कराया था।
कुछ लोगों का मानना है कि क्यों न लिव-इन रिलेशन को गंधर्व विवाह की तरह देखा जाए। पहली बात तो यह कि गंधर्व विवाह हिंदू अवधारणा है और हिंदू महिला और मुस्लिम पुरूष के बीच लागू नहीं होगी। खैर, इस मसले पर निष्पक्ष विश्लेषण की जरूरत है। गुजारा भत्ता, जैसा कि कानून में है की बात तब आती है, जब एक वैधानिक विवाह टूटता है। लेकिन इस मामले में जो वैवाहिक गुजारा भत्ते के आदेश दिए गए हैं, जहां न तो विवाह हुआ और न ही अलगाव हुआ। जज ने इस बात को भी अनदेखा किया कि भारत में विवाह के कानून एक समान नहीं हैं, बल्कि विभिन्न धर्म, सम्प्रदाय के लिए अलग-अलग हैं।
हिंदू विवाह कानून (1954) हिंदुओं के अलावा सिक्ख, बौद्ध, जैन पर भी लागू होता है, मुस्लिम, क्रिश्चन और पारसियों के सिवाय। पारसी विवाह कानून 1936 केवल उन्हीं पर लागू होता है। क्रिश्चियन विवाह कानून 1872 भी केवल क्रिश्चियन पर लागू होता है। ये सब कानून उसी धर्म के जोड़ों पर लागू होते हैं, दूसरों पर नहीं। हिंदू विवाह कानून हिंदू परम्पराओं के तहत हुए विवाहों को ही मान्यता देता है। ऎसा ही मुसलमानों में है, क्रिश्चियन, पारसियों में है। लेकिन विशेष विवाह कानून के तहत पंजीयन क्रॉस-रिलीजन विवाहों को मान्यता देता है। मतलब कि विशेष विवाह को छोड़कर, बाकी विवाह सम्बंधित धर्म की परम्पराओं के तहत होने पर ही मान्य होते हैं। फिर भी जस्टिस करनान का फैसला विवाह के लिए जरूरी परम्पराओं, रीति-रिवाजों को खारिज करता है। विवाह की तरह ही विभिन्न धमोंü में तलाक और गुजारे भत्ते में भी भिन्नता है।

वे यह नहीं पूछते कि इस जोड़े ने विशेष विवाह कानून के तहत पंजीकरण क्यों नहीं कराया। सवाल है कि क्या एक लिव-इन महिला मुस्लिम पुरूष से वैधानिक पत्नी से बेहतर गुजारा भत्ता प्राप्त कर सकती है? और क्या यह गुजारा भत्ता तब भी जारी रहेगा, जब वह किसी दूसरे लिव-इन और विवाह में बंध जाएगी। इस फैसले में, जो कि कानूनी मिसाल है, इस तरह की सभी स्थितियों पर गौर करना चाहिए, वरना यह सिर्फ एक पंचायती निर्णय बनकर रह जाएगा।

शुक्रवार, 28 जून 2013

साम्प्रदायिक सद्भाव

भारत एक विशाल देश है, जहां सदियों से विभिन्न धर्मों के लोग मिल-जुल कर रहते आ रहे हैं। सहिष्णुता, बहु-समाजवाद और मेल-मिलाप से रहने की समृद्ध परम्पराओं ने देश की पहचान को कायम रखा है और सभ्यता ने तरक्की की है।
  
संविधान में भारत को एक धर्म निरपेक्ष देश घोषित किया गया है और अल्पसंख्यक समुदायों के संरक्षण के लिए कई प्रावधान हैं। राज्य प्रशासन किसी विशेष धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करता। सभी के लिए समान अवसरों के संबंध में संवैधानिक व्यवस्थाएं हैं। कोई अपने आपको अलग महसूस न करे, इसके लिए संविधान में सभी प्रकार के सकारात्मक और एहतियाती उपायों के बावजूद भी बार-बार साम्प्रदायिक गड़बड़ियां होती रहती हैं। सरकार ने देश में साम्प्रदायिक सद्भाव बनाए रखने के प्रति अकसर अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की है और संविधिक, कानूनी, प्रशासनिक, आर्थिक और अन्य उपाय किए हैं।

साम्प्रदायिक सद्भाव पुरस्कार समारोह, 2009 में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने साम्प्रदायिक् सद्भाव और राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता पर जोर दिया। समारोह में उन्होंने कहा, "भारत विश्व के सभी महान धर्मों का देश रहा है। कई धर्म भारत में शुरू हुए और कई यहां आकर पनपे। इस उप-महाद्वीप में सदियों तक ऐसा अद्भुत सामाजिक और बौद्धिक वातावरण रहा है, जिसमें न केवल अलग-अलग धर्म शांतिपूर्वक साथ-साथ विकसित हुए हैं, बल्कि उन्होंने एक-दूसरे को समृद्ध भी किया है। यह हमारा पुनीत कर्तव्य है कि हम इस महान परम्परा को आगे बढ़ाएं। मैं समझता हूं कि सरकार और सभ्य समाज की संस्थाओं को निरंतर इस पर नजर रखनी चाहिए और धर्म के नाम पर हिंसा करने वालों के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए। कोई भी धर्म हिंसा की इजाजत नहीं देता। कोई भी धर्म नफरत का प्रचार नहीं करता और न ही दूसरों से वैरभाव रखने की बात कहता है। जो लोग धार्मिक चिन्हों और मंचों का इस्तेमाल हिंसा, धार्मिक द्वेष और विवादों के लिए करते हैं वे अपने धर्म के सच्चे प्रवक्ता नहीं हैं। लेकिन हम यह भी जानते हैं कि हमारे समाज सहित सभी समाजों में असामन्जस्य फैलाने वाले लोग होते हैं। इसलिए यह और भी महत्वपूर्ण है कि जो लोग आज पुरस्कार प्राप्त कर रहे हैं, हम ऐसे लोगों को मान्यता दें और उनकी प्रशंसा करें, जो साम्प्रदायिक सद्भाव और राष्ट्रीय एकता के लिए नि:स्वार्थ भाव से कार्य करते हैं। यह हमारा कर्तव्य है कि हम ऐसे विवेकशील लोगों को प्रोत्साहन दें"।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था, "सम्प्रदायवाद हाल के दिनों में उग्र रूप लेने लगा है। अराजकता एक दैत्य है, जिसके कई रूप हैं। अंतत: यह सभी के लिए दुखदायी है, उनके लिए भी, जो शुरू में इसके लिए जिम्मेदार होते हैं।"

सरकार ने साम्प्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए कई कदम उठाए हैं। इनके अंतर्गत राष्ट्रीय एकता परिषद (1960 के दशक में) की स्थापना और राष्ट्रीय साम्प्रदायिक सद्भाव फाउंडेशन (1992) की स्थापना शामिल है तथा समय-समय पर साम्प्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने से संबंधित दिशा निर्देश भी जारी किए गए हैं।

राष्ट्रीय एकता परिषद में कई केन्द्रीय मंत्रियों और राज्यों के मुख्यमंत्रियों के अलावा समाज के विभिन्न वर्गों के प्रतिष्ठित व्यक्ति सदस्य हैं और विवादों पर विचार करने तथा उन्हें सुलझाने के लिए समय-समय पर परिषद की बैठकें होती रहती हैं। क्योंकि केन्द्र और राज्यों में निर्णय लेने वाले महत्वपूर्ण लोग इस परिषद के सदस्य हैं, इसलिए समाज के विभिन्न वर्गों की शिकायतों को धीरज से सुना जाता है।

राष्ट्रीय साम्प्रदायिक सद्भाव फाउंडेशन की सोच है कि भारत साम्प्रदायिक और अन्य सभी प्रकार की हिंसा से मुक्त रहे, जहां सभी नागरिक, विशेष रूप से बच्चे और युवा शांति और सद्भाव के साथ रहें। इसके लिए फाउंडेशन साम्प्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देती है, राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करती है और सामूहिक सामाजिक कार्यों और जागरूकता कार्यक्रमों के जरिए विविधता में एकता की भावना का मजबूत करती है तथा हिंसा के शिकार लोगों की मदद करती है, ताकि देश की सुरक्षा, शांति और खुशहाली के लिए विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच आपस में विचार-विमर्श होता रहे। फाउंडेशन हिंसा के शिकार बच्चों को उनकी देखभाल, शिक्षा और प्रशिक्षण के लिए आर्थिक सहायता देती है, ताकि उनका ठीक ढंग से पुनर्वास हो सके। साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता को बढ़ावा देने के लिए फाउंडेशन या तो स्वयं या राज्य सरकारों, गैर-सरकारी संगठनों और अन्य संस्थाओं के साथ मिलकर कई प्रकार की गतिविधियों का आयोजन करती है। फाउंडेशन साम्प्रदायिक सद्भाव और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने में उल्लेखनीय योगदान देने वालों को पुरस्कार देती है। फाउंडेशन देश के विभिन्न धार्मिक समूहों के बीच एकता और सद्भाव को मजबूत करने का कार्य करती है और अहिंसा तथा विवादों के निपटान के सिद्धांतों में विश्वास बढ़ाने के कार्यों को प्रोत्साहन देती है।

यह बात सही है कि सामप्रदायिक सद्भाव को कायम रखना और सामप्रदायिक गड़बड़ियों और उपद्रवों की रोकथाम करना तथा किसी भी ऐसी गड़बड़ी पर नियंत्रण करने और प्रभावित लोगों को सुरक्षा और राहत पहुंचाने के उपाय करना मुख्य रूप से राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है। केन्द्र सरकार ने साम्प्रदायिक सद्भाव कायम रखने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए हैं, जिसमें रोकथाम संबंधी उपाय, प्रशासनिक उपाय, कर्मियों से संबंधित नीति और राहत तथा पुनर्वास से संबंधित उपाय शामिल हैं। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि यदि उचित सतर्कता बनाए रखी जाती है, सावधानी से योजना बनाई जाती है और आवश्यक तैयारी के साथ सभी उपाय किए जाते हैं, तो सामप्रदायिक हिंसा की कई संभावित घटनाओं को रोका जा सकता है। इसके बावजूद अगर कहीं साम्प्रदायिक हिंसा होती है, तो साहस और दृढ़ता के साथ तुरंत कार्रवाई करके इस पर कारगर ढंग से काबू पाया जा सकता है और मानवीय कष्टों को बचाया जा सकता है। जो लोग साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं के शिकार हो जाते हैं, उनकी तकलीफों को दूर करने के लिए विभिन्न प्रकार के राहत और पुनर्वास कार्यों की समुचित योजना बनाने और विभिन्न उपायों को लागू करने पर काफी ध्यान देने की आवश्यकता है।

दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि साम्प्रदायिक उपद्रव पर बाद में काबू पाने की बजाए उसे पहले रोकना ज्यादा महत्वपूर्ण है। यह जिला प्रशासन का कर्तव्य है कि वह नियमित आधार पर जिले की साम्प्रदायिक स्थिति का ध्यान से मूल्यांकन करे और इस बारे में विवरण तैयार करे तथा जिले के उन इलाकों की पहचान करे, जो साम्प्रदायिकता की दृष्टि से अधिक संवेदनशील और तनावपूर्ण है। ऐसे इलाकों में पुलिस अधिकारियों को स्थिति पर कड़ी नजर रखनी चाहिए, समय-समय पर लोगों से तथा विभिन्न समुदायों के नेताओं से संपर्क करते रहना चाहिए। इन इलाकों के लिए कितने पुलिस कर्मी तैनात करने की आवश्यकता है, इसका सही आकलन किया जाना चाहिए और रिक्तियां भरी जानी चाहिए। ऐसे संवेदनशील और अति-संवेदनशील इलाकों में बिगड़ी स्थिति को संभालने के लिए विस्तृत मानक कार्यवाही प्रक्रियाओं और आपात योजनाओं के साथ तैयारी रखी जानी चाहिए। लाउडस्पीकरों का बेरोक टोक इस्तेमाल विभिन्न समुदायों के लोगों के समूहों में भावनाओं और हिंसक प्रतिक्रियाओं को भड़काता है, जिसे रोकने की आवश्यकता है। आमतौर पर विभिन्न प्रकार के धार्मिक जलूस साम्प्रदायिक टकराव और झड़पों का कारण बन जाते हैं, क्योंकि विभिन्न संगठन धार्मिक मौकों पर इन जलूसों के जरिए अपनी ताकत को दर्शाने की कोशिश करते हैं। इसलिए इनको नियंत्रण में रखना जरूरी है। जलूसों के शांतिपूर्ण संचालन में समुदायों के जाने-माने सम्मानित लोगों को शामिल किया जाना चाहिए। ऐसी घटनाओं और जलूसों के वीडियो/ आडियो कवरेज से इन पर नियंत्रण करने में सहायता मिल सकती है। अफवाहों की रोकथाम के लिए भी कारगर और सार्थक कार्रवाई जरूरी है। सही खबरें और जानकारी देने के लिए किसी जिम्मेदार अधिकारी की ड्यूटी लगाई जानी चाहिए। यह बात सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त कदम उठाए जाने चाहिएं कि पूजा के स्थलों को कोई नुकसान न पहुंचे।

मार्गदर्शक नियमों में कहा गया है कि पुलिस बल का गठन इस प्रकार किया जाना चाहिए कि वह जिस इलाके में तैनात किया जाए, उसकी सामाजिक रचना का प्रतिनिधित्व करे ताकि उसकी विश्वजस्तमनीयता और समाज के सभी वर्गों में आत्ममविश्वास की भावना बढ़ाने में सहायक हो सके। आम तौर पर सांप्रदायिक रूप से किसी संवेदनशील और दंगे की आशंका वाले इलाके में पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों की ईमानदारी, कुशलता और निष्पंक्षता तथा भेदभावरहित दृष्टिकोण काम करता है। हर सार्वजनिक सेवक को अपने में निहित कानूनी प्राधिकार का इस्ते‍माल करना चाहिए ताकि किसी प्रकार की सांप्रदायिक हिंसा का निवारण किया जा सके और लोगों को निष्प‍क्ष तरीके से सांप्रदायिक हिंसा से छुटकारा दिलाया जा सके और उनपर किसी प्रकार की बुरी भावना से प्रेरित कार्रवाई न की जाये। जिला प्रशासन ने दंगा निवारण और सांप्रदायिक गडबड़ी रोकने में जो सेवा की हो, उसे समुचित मान्यसता दी जानी चाहिए।

किसी सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र में अगर स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाती है और इसके परिणामस्विरूप आगजनी या हिंसा होती है तो उस क्षेत्र के छोटे दुकानदार, उद्यमी और दिहाडी वाले श्रमिकों को जान-माल के नुकसान की सबसे ज्यादा आशंका होती है। अधिकांशत: आर्थिक नुकसान भी उन्हें ही झेलना पड़ता है और इनमें से ज्याकदातर किसी बीमा कंपनी द्वारा लाभान्वित भी नहीं होते। यही कारण है कि ये लोग उस इलाके में शांति और सद्भाव बनाये रखना चाहेंगे। इसी प्रकार से, महिलाएं ऐसी स्थिति में सबसे ज्याउदा तकलीफ उठाती हैं अत: वे भी उस इलाके में शांति और सद्भाव बनाये रखना चाहेंगी। जिला प्रशासन इन लोगों/ग्रुपों की ऊर्जा से लाभ उठा सकता है और शांति सुनिश्चित कर सकता है।

देश के अधिकांश स्वैाच्छिक संगठन शांति, राष्ट्रीय अखंडता और सांप्रदायिक सद्भाव बनाये रखने के लिए काम कर रहे हैं। अधिकांशत: इन संगठनों के पास ऐसे उत्साकही और समर्पित कार्यकर्ता होते हैं जिनकी नीयत सही होती है। जिला प्रशासन को इन लोगों का समर्थन जुटाना चाहिए और सांप्रदायिक सद्भाव बनाये रखने के लिए उनका सहयोग लेना चाहिए। अगर जरूरी हो तो स्थिति को नियंत्रित करने में भी उनका सहयोग लेना चाहिए। अगर किसी तरह की सांप्रदायिक गडबड़ी की आशंका हो या गडबडी हो जाये, तो तुरंत निवारक कदम उठाये जाने चाहिए जिनमें निषेधाज्ञा/ कर्फ्यू लागू करना और उसपर तटस्थ होकर अमल कराना जरूरी है। सांप्रदायिक हिंसा/दंगे से जुडे सभी अपराधों के मामलों पर नजर रखी जानी चाहिए और जब भी जरूरी हो निष्प्क्ष और तटस्थं छानबीन सुनिश्चित करने के लिए विशेष अन्वेतषण टीम बनाई जानी चाहिए।

दंगा पीडितों को अगर ठीक समय पर राहत/अनुग्रह राशि नहीं मिलती तो इसके चलते काफी गुस्सान किया जाता है। अंतरिम राशि सांप्रदायिक हिंसा के शिकार लोगों को तुरंत दी जानी चाहिए और ऐसी राशि देते समय यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि लिंग, जाति, समुदाय अथवा धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव न होने पाये। जिला प्रशासन को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ठीक समय पर खाने पीने की चीजें/सेवाएं उपलब्धप कराई जायें और दूघ, दवाएं, पानी और बिजली आदि दंगा पी‍डित इलाके में उपलब्धर रहें। जब भी जरूरत हो, राहत शिविर खोले जाने चाहिए जिनमें चिकित्सा जांच/सहायता की सुविधा उपलब्घक हो। जब भी जरूरी हो और अगर आवासीय या वाणिज्यिक संपत्ति को नुकसान पहुंचा हो, तो बीमा संबंधी मामले निपटाने के लिए उपयुक्तआ व्यावस्था् उपलब्धह होनी चाहिए। अगर जरूरी हो तो वित्ती य संस्थााओं से ऋण सुविधाएं भी उपलब्धु होनी चाहिए।

केंद्र सरकार ने आतंकवाद और सांप्रदायिक हिंसा के शिकार लोगों की मदद के लिए एक केंद्रीय योजना शुरू की है। इसके अंतर्गत पीडित परिवारों को तीन लाख रूपये की एकबारगी अदा की जाने वाली राशि दी जाती है। इसके अलावा भी अनुग्रह राशि आदि उपलब्धक कराई जा सकती है।

सरकार ने एक कानून बनाया है जिसका उद्देश्यी धार्मिक स्थागनों की गरिमा बनाये रखना और राजनीतिक, आपराधिक, षडयंत्रकारी अथवा सांप्रदायिक उद्देश्यों के लिए इनका इस्तेरमाल रोकना है। कानून के अनुसार इसके बारे में पुलिस को सूचना देना प्रबंधक की जिम्मेथदारी है। इस कानून के अनुसार किसी पूजा स्थसल के अंदर हथियार जमा करना भी मना है।

पूजा स्थदल (विशेष प्रावधान) अधिनियम-1991 ऐसा कानून है जो किसी पूजा स्थनल को अन्यि रूप में बदलने पर रोक लगाता है और पूजा स्थ ल का वही धार्मिक स्व रूप बनाये रखना सुनिश्चित करता है जो 15 अगस्त 1947 को था। तदनुसार, न तो किसी धार्मिक संस्थाखन का प्रबंधक उसे राजनीतिक गतिविधियां चलाने के लिए उपलब्ध करा सकता है, और न ही किसी ऐसे व्यीक्ति को जिस पर किसी आपराधिक गतिविधि का आरोप है, अथवा उसे आपराधिक गतिविधि में सजा मिल चुकी है, को वहां छिपने दे सकता है। इसी तरह से किसी उपासना स्थाल के अंदर न तो कोई हथियार जमा किया जा सकता है और न ही उसकी किलेबंदी की जा सकती है। किलेबंदी करने में बिना इजाजत या लाइसेंस लिये तहखाने बनाना, टॉवर या ऊंची दीवारें खडा करना शामिल है। ऐसे परिसरों को कानून के अंतर्गत मना की गई गतिविधियां चलाने के लिए इस्तेामाल नहीं किया जा सकता। वहां से ऐसी गतिविधियां भी नहीं चलाई जा सकती जिनसे सांप्रदायिक सद्भाव बिगडता हो, या किसी धार्मिक, जातीय, भाषा संबंधी अथवा क्षेत्रीय समूह, जाति अथवा समुदाय के प्रति दुर्भाव फैलता हो।

सभी धर्म मूल रूप से प्यार और भाईचारे की भावना बढाते हैं। अगर किसी भी धर्म का मूल सिद्धांत इस प्रकार का है तो दुर्भाव, नफरत अथवा हिंसा की गुंजाइश कहां बचती है? स्पष्ट है कि कुछ लोग धार्मिक शिक्षाओं का अपने स्वारर्थ, निजी महत्वाकांक्षाओं और लाभ के लिए गलत व्या्ख्या् करते हैं। यह सर्वविदित है कि आम तौर पर सांप्रदायिक गडपबडी छोटी और मामूली घटना को लेकर शुरू होती है और निहित स्वायर्थ वाले लोग इसे बडा रूप दे देते हैं।

भारत एक विकासशील देश और उभरती अर्थव्यवस्था है। हमारे नेताओं ने इसे एक विकसित देश और आर्थिक महाशक्ति बनाने का सपना देखा था। यह सपना तब तक साकार नहीं हो सकता जब तक देश की आंतरिक शांति व्यवस्था और खास तौर से सांप्रदायिक सद्भाव बना न रहे। सांप्रदायिक शांति और सद्भाव बनाये रखने पर सरकार को काफी ऊर्जा खर्च करनी पडती है और अगर शांति व्यावस्थाभ बनी रहती है तभी विभिन्नख सांप्रदायिक वर्गों के बीच विश्वास बढेगा। ऐसा होने पर ही देश विकास और आर्थिक प्रगति के रास्‍ते पर आगे बढ़ पायेगा।



Foreign Direct Investment and Economic Growth

Paul Theroux in his book, ‘Riding the Iron Rooster’ has made some fascinating comments on China which can help us in trying to understand why China is today an economic power-house and India is still struggling. This book was written in 1988 and describes a series of train journeys that Theroux undertook across China in trains which were obviously not the new Bullet Trains that China has now introduced.

Starting from Victoria Station in London Theroux travels across Europe, Russia, and Mongolia and then enters China through Inner Mongolia, making landfall at Datong. After the emptiness of Mongolia Theroux finds Datong and the China it represents to be shabby, busy, disorderly, very crowded and thoroughly polluted by smog which was a combination of desert dust, fog and industrial smoke. The shops were full of goods; there was an air of prosperity, but coal as the source of energy and manufacture, especially of steam locomotives, created a lasting impression. The industrial process was not automated, but everyone was busy working. The guiding philosophy was the three great goals of the workers. To quote Theroux these goals were, “timing of production, so that no work was wasted; keeping the right mental attitude; and increasing productivity”
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I have begun this paper by referring at some length to the very first impression that Paul Theroux had when he entered China from Mongolia. It was one of a country which has industries, whose people had a mindset of production and whose government obviously had a commitment to manufacturing. After the revolution Mao Tse Tung deliberately fostered an economic policy which strove to build a huge manufacturing sector in the country so that China could become an industrialised nation. Remember the slogan that China would overtake America in steel production? The huge number of backyard furnaces that came up and produced very low quality pig iron was a part of this effort to industrialise. Not much pig iron was produced this way, but the people were weaned away from a rural psyche to one in which manufacturing became central to the economy. It must be remembered that in China only ten percent of the total land area is cultivable and more than sixty percent of the land consists of uncultivable wasteland. Geology, geography, topography, hydrology and soil morphology encouraged, in fact mandated, that China could not continue to prosper on the basis of agriculture alone. The industrial revolution in China was then an inevitable consequence of the land configuration, though to give Mao credit he hastened the transition from a basically subsistence rural economy to a very powerful industrial economy.

Industrialisation carries with it a number of prerequisites, sequential growth of support infrastructure, capital requirement and capital formation and research and development which would lead to invention, innovation and improvement. Industry cannot survive without power and the development of the power sector becomes a sine quo non for industrialisation. The development of communications so that goods, people and services can be transported over long distances is absolutely essential for industrial growth. Because a country starting from a low level of economic capability does need assistance for capital formation and for development of technology, China had to find partners. Therefore, despite the fact that China is a Communist country whose ideal is socialism and State ownership of the means of production, China opted for an open door policy in which foreign investment was welcomed and the off-shoring of foreign industry and its location in China was encouraged. China provided the land space and labour and many of the world industries established a base in China. A great deal of Chinese industrial grown has taken place because of this open door policy. The Chinese Government at no stage felt that it could not keep the multinational corporations under control and, therefore, the Chinese had no hesitation in letting in foreign capital. Despite the handicap of having a one-party rule and a judicial system which is certainly not Anglo Saxon, China has been able to reassure the foreign investor that his investment would be safe.

Let us contrast this with India. We have always been suspicious of foreigners coming and investing in India because after all the East India Company and its Dutch, French, Portuguese and Danish counterparts initially came to India for trade. Because of a succession of wars in Europe in which Britain emerged as the dominant naval power and also a great military power on land, the French, Portuguese and other European interventions in India were virtually liquidated and Britain emerged as the supreme European power. Starting from trading posts such as Bombay, Surat and Calcutta the British trader gradually grew into being an arbiter in matters of local, native administration and the East India Company expanded into an imperial power. These memories are fresh in the Indian mind and, therefore, the Indian people and the Indian politicians have always had a deep- rooted suspicion and antipathy towards the successors to the East India Company, the multinational corporations. That is why there is strong political opposition to allowing foreigners to come and take over our companies, our manufacturing units and our trade outlets. Surprisingly China, which calls itself a Peoples Republic and has the single party rule of the Communist Party of China, is today most openly capitalist and gives the warmest possible welcome to foreign investors. India, on the other hand, is a multi-party democracy in which the word “socialist” used in the Preamble to the Constitution is more a comforting slogan than a political commitment, but we are still hostile to the idea of foreigners participating in our economy because we still feel that Surat may become the base of a foreign empire. That does explain why there is such strong political revulsion whenever the question of opening up of our market to foreigners comes up for discussion.

Trade created an empire in India and, subsequently, this empire systematically destroyed such manufacturing capabilities that India had so that the factory-made goods of Britain may be sold in the Indian market and India may then be reduced to the position of a supplier of primary products to Britain. Despite this history the Government of India has decided to open up two sectors of the Indian economy to Foreign Direct Investment. These are retail trade and the civil aviation sector, the latter named being in absolute shambles because of mismanagement. Foreign Direct Investment in the retail sector is strongly opposed by the Left, BJP, Trinamool Congress and several such parties, some of which are a part of the present Congress led coalition. The argument advanced by government is that foreigners taking over the aviation industry will pump necessary working capital into the system and this part of the economy would revive. Similarly, Foreign Direct Investment in retail trade would cut out middlemen, create the infrastructure which would enable the supply chain to reach from the farmer right up to the customer in the retail store and would bring direct benefit to the cultivators while ensuing good quality of the produce and a reasonable price for the urban consumers. It is argued that the present system of agricultural production and marketing is such that there is considerable wastage of agricultural produce by inappropriate storage, spoilage and even destruction through putrefaction in the process of transporting the produce from field to market. The foreign investment retail chains would reach out directly to the producer, create adequate storage, including cold storage facilities and build an efficient transport system which would quickly bring goods to the retail stores. This would put more money in the hands of farmers, prevent wastage and enable the consumer to buy agricultural products at an affordable price. The fact that it would throw a very large number of small vendors, road side hawker and itinerant sellers who carry fruits and vegetables on hand carts right up to the doorstep out of a job does not seem to bother our American Business School, World Bank trained or oriented economists and policy makers.

We seem to be quite willing to allow foreign investors to invest capital, including working capital, in airline companies, most of which are utterly mismanaged. Why do we not encourage foreign investors like British Aerospace, Boeing, Dassault, etc., to invest in producing aircraft in India? Why do we not try and have foreign companies invest in building factories for producing the refrigeration equipment which keeps cold storage plants functional? In other words, why do we not encourage foreign companies to invest in the secondary sector in a big way in India? We have had a fair amount of success in the Build, Operate and Transfer model (BOT model) of road construction and certainly on highways such as that which connects Bhopal to Indore the BOT model has enabled a first rate road to be built. If a sufficiency of off-shoring of manufacturing facilities is done in India we would certainly be able to create more gainful employment, India would be able to evolve an industrial culture instead of the present satisfaction with trading and as our manufacturing capacity increases, we would become a major industrial power, economic power and military power. Obviously we need to take a fresh look at our policy relating to Foreign Direct Investment in India. Given the choice I would cut down all FDI in retail trade, the service sector such as running an airline and in real estate. I would have an open door policy towards investment in the secondary sector, including the setting up of hundred percent foreign owned manufacturing facilities in India. I would certainly give meaningful incentives for investment in physical infrastructure. My only restriction would be that employment generated by these activities would go to the citizens of this country so that their earning and welfare are enhanced.

The great advantage of having a powerful industrial economy is that it forces the manufacturing companies to invest in more research and development because if they do not improve, innovate and invent, their products will become unsaleable in the market. Therefore, industrial growth will bring about simultaneous growth in scientific research for the purpose of innovation and invention. This, in turn, will strengthen our institutions of technology and management because as industry grows, as the need for research grows, the market for these disciplines will expand, the research and development establishment will become stronger and the Institutes of Technology and Management will be forced to redesign teaching methodologies to keep up with the new demand.


My final words would be that government must realise that so far as the foreign direct investor is concerned, he would prefer an activity in which his own capital investment is miniscule, there is a quick turnover of commodities and, therefore, profits are earned almost simultaneously with trading. The gestation period in envisaging, constructing, commissioning of an industrial establishment and then going into commercial production is quite long and profit would have to be deferred to an appropriate date in the future. That is why in India trade is more attractive than manufacture. This would be true of the foreign direct investor also. We need to break this mindset, to make the industrialist realise that waiting for profit is not such a bad idea after all because the production capacity created will yield results year after year after year and that a well managed industrial enterprise will always be more profitable than just trade, whilst being less risky because it is unlikely to be affected by daily market fluctuations which retail trade has to face. Therefore, let economic reforms be targeted at opening up our economy to productive investment but not indiscriminately to trade. America and the developed world want exactly the opposite to happen and this we must resist.

गुरुवार, 27 जून 2013

मैंग्रोव

राष्ट्रीय पर्यावरण नीति-2006 में यह माना गया है कि मैंग्रोव एक महत्वपूर्ण समुद्रतटीय पर्यावरण संसाधन है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय मैंग्रोव के संरक्षण और प्रबंधन के क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभाता है, जो समुद्री प्रजातियों के लिए स्थान उपलब्ध कराता है, अत्यधिक प्रतिकूल मौसम से बचाव करता है और सतत पर्यटन के लिए एक संसाधन तैयार करता है। सरकार देश में नियामक और संवर्धक दोनों उपायों के द्वारा मैंग्रोव को बनाए रखना चाहती है।

 मैंग्रोव क्या है ?

 मैंग्रोव ऐसे पौधे हैं जो अत्यधिक लवणता, ज्वारभाटा, तेज हवा, अधिक गर्मी और दलदली भूमि में भी जिंदा रह जाते हैं। इन स्थितियों में अन्य पौधों के लिए जिंदा रह पाना मुश्किल होता है। मैंग्रोव की पारिस्थितिकी में स्थलीय और समुद्री पारिस्थितिकी के बीच एक सेतु-सा प्रतीत होता है। मैंग्रोव समुद्र के छिछले किनारे, लैगूनों और दलदली भागों वाले ज्वारभाटा क्षेत्रों में पाया जाता है। सभी समुद्रतटीय राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में मैंग्रोव लगाए गए हैं। भारत में विश्व के कुछ सर्वश्रेष्ठ मैंग्रोव पाए जाते हैं। देश में मैंग्रोव के सर्वाधिक आच्छादन में पहला स्थान पश्चिम बंगाल का है और उसके बाद गुजरात तथा अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह का स्थान है। हालांकि सभी समुद्रतटीय क्षेत्र मैंग्रोव लगाए जाने के लिए उपयुक्त नहीं हैं, क्योंकि मैंग्रोव के लिए लवणीय और ताजा जल के एक समुचित मिश्रण और दलदल की जरूरत होती है। सरकार ने देश भर में सघन संरक्षण और प्रबंधन के लिए मैंग्रोव के 38क्षेत्रों की पहचान की है। तमिलनाडु में पिचावरम, मुथुपेट, रामनाड, पुलीकाट और काजूवेली जैसे मैंग्रोव क्षेत्रों की पहचान की गई है।

मैंग्रोव समुद्रतट का रक्षक है।

 मैंग्रोव पारिस्थितिकी प्रणाली जैव-विविधता से परिपूर्ण है और यह बाघ, डॉल्फिन, घड़ियाल आदि जैसी जोखिम वाली प्रजातियों सहित अन्य बहुत-सी प्रजातियों की शरणस्थली है, जिसमें स्थलीय और जलीय दोनों प्रजातियां शामिल हैं। मैंग्रोव फिन मछली, शेल मछली, क्रस्टासिन और मोलस्कों के लिए रहने का स्थान भी है। इन पारिस्थितिकी प्रणालियों द्वारा समुद्रतटीय जल में बड़ी मात्रा में जैविक और अजैविक पोषक तत्वों के निष्कर्षण के कारण मैंग्रोव के वनों को विश्व में सर्वाधिक उत्पादक पारिस्थितिकीय प्रणाली के रूप में जाना जाता है।

 कई प्रकार की पारिस्थितिकीय सेवाएं प्रदान करने के अलावा मैंग्रोव समुद्रतटीय क्षेत्रों को कटाव, ज्वारभाटा और सुनामी से बचाने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। यह भूमि उपचय के संदर्भ में मददगार है। मछली के अलावा यह शहद, मोम और वृक्ष से प्राप्त क्षार का एक महत्वपूर्ण स्रोत भी है। वर्तमान में कृत्रिम और प्राकृतिक दोनों ही घटकों के कारण यह सर्वाधिक जोखिम वाली पारिस्थितिकियों में से एक है।

 आठ राज्यों में सघन संरक्षण

 मौजूदा आकलन यह दर्शाते हैं कि देश में 4,662.56 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र मैंग्रोव से आच्छादित है। देश भर में प्रतिवर्ष औसतन 3,000 हेक्टेयर क्षेत्र में मैंग्रोव लगाए जाने का लक्ष्य रखा गया है। ये क्षेत्र पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा सघन संरक्षण के लिए पहले से चयनित 38 क्षेत्रों में शामिल हैं। वर्ष 2010-11 के दौरान मैंग्रोव के संरक्षण और प्रबंधन के लिए पश्चिम बंगाल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, गोवा और गुजरात को 7.10 करोड़ रुपये की वित्तीय सहायता दी गई थी।

 प्रारंभिक तौर पर भारत सहित आठ देशों को शामिल करते हुए इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) की ओर सेभविष्य के लिए मैंग्रोव: समुद्रतटीय पारिस्थितिकीय संरक्षण में निवेश को बढ़ावा देने के लिए रणनीतिनामक परियोजना में समन्वय कर रहा है।




REGIONALISM.

DEFINITION OF REGIONALISM

The term ‘regionalism’ has two connotations. In the negative sense, it implies excessive attachment to one’s region is preference to the country or the state. In the positive sense it is a political attribute associated with people’s love for their region, culture, language, etc. with a view to maintain their independent identity. While positive regionalism is a welcome thing in so far maintaining as it encourages the people to develop a sense of brotherhood and commonness on the basis of common language, religion or historical background. The negative sense, regionalism is a great threat to the unity and integrity of the country. In the Indian context generally the term regionalism has been used in the negative sense. In India Regionalism is a feeling or an ideology among a section of people residing in a particular geographical space characterized by unique language, culture etc. that they are the sons of the soil and every opportunity that exists in their land must be accorded to them first but not to the outsiders. It is a sort of Parochialism. In most of the cases it is raised for expedient political gains but not necessarily.

The feeling of regionalism may arise either due to the continuous neglect of a particular area or region by the ruling authorities or it may spring up as a result of increasing political awareness of backward people that have been discriminated against. Quite often some political leaders encourage the feeling of regionalism to maintain their hold over a particular area or group of people.

REGIONALISM IN INDIA.

India has faced the problem of regionalism, even before Independence.Regionalism in India can be traced back to Dravida Movement started in Tamil Nadu. The movement initially focused on empowering Dalits, non-Brahmins, and poor people. Later it turned against imposition of Hindi as sole official language on non-Hindi speaking areas. Finally, the movement for some time focused on seceding from India to carve out their own Dravidastan or Dravida Nadu. The movement slowly declined and today they have become prominent regional parties after many splits and factionalism.

But the incidents like the recent attacks on Bihari labourers by the United Liberation Front of Asom, uproar created by the MNS in Maharashtra, the dispute over Hogenakal drinking project, the Jammu and Kashmir issue, in Punjab against non-Punjabis that gave rise to Khalistan Movement and earlier Akali Movement; in North-East against other Indians, in Andhra, Telangana issue and likes make sure that still the issue of regionalism persists in India. These issues have been highlighting the sharp divide among regional states of India, which point that the overall national interest has been reduced to a secondary status.

It can be traced that regionalism slowly turned from non violent means to violent means to achieve their goals. From Potti Sriramulu’s non violent means of fatsing to Maharashtra Nav Nirman Sena (MNS) and ULFA’s violent means, regionalism has come a long way.
Regionalism in present day India is readily used for political gains by petty politicians and secessionist organizations. Economic reasons are exploited for political dividends.

Forms of Regionalism in India.

Regionalism in India has assumed various forms like:

Regionalism, properly so called.

 It is the first and most legitimate kind of regionalism which is often in the form of the demand of a separate space or state of one's own, for the purpose of resting securely within the Union of India. This was spearheaded by the Telugu-speaking residents of the erstwhile Madras Presidency. The forms of protest it involved were attacks on state property, and the hunger-fast, and as a result of this, the creation of the state of Andhra Pradesh and, later redrawing of the map of India on linguistic lines took place. With the same token, some of such protests for the creation of a separate state gave birth to leading regional parties like the Dravida Munnetra Kazhagam in Madras, which was later emulated by the Akali Dal in Punjab, the Telugu Desam Party in Andhra Pradesh, and the Asom Gana Parishad in Assam.

This category also includes sub-regionalism, which pertains to the groups, which are in minority within the states based on language, who also occupy a definite territory within these states, and by virtue of language or ethnicity, they have enough to bring them together and to bind them against the majority community in that state.The successful protests include those which were raised by the hill people of Uttar Pradesh, which delivered to them a new state called Uttaranchal (now Uttarakhand), and the tribal and other residents of the Chhotanagpur Plateau, whose claim from a reluctant Bihar was the state of Jharkhand for which they had been fighting from well before Independence.

 Secessionism.

 It can be classified as the most violent and dangerous form of regionalism as it is based on the desire, or hope, or fantasy, to divide the Republic of India and form a separate nation of one’s own. This form of regionalism evolved with A. Z. Phizo's Naga National Council, and T. Muivah’s National Socialist Council of Nagaland. In the similar way, militants in Kashmir can also be said to follow this form of regionalism as they are persistently committing bloodbath in pursuit of their dream of a separate separate. The movemment of Khalistan, spearheaded by the Sikh extremists during 1980s also hoped to form their own nation-state. In fact, even the Dravidian movement for many years demanded a separate nation out of India, which fialed due to the jingoism unleashed by China's war with India.

Parochialism.
 Another form of regionalism has been termed as parochialism. This can be benevolent, as in evident in form or pretensions of the Bengali bhadralok, who claim that their literature, music, dress and cuisine are superior to others in India. However, sometimes it has also taken the form of bloodshade, as evident in the attacks on Bihari labourers by the Ulfa cadre, in which the belief rests that only Assamese speakers have the right to live in Assam. This kind of bloodshade was committed by the Shiv Sena goons in mid-sixties, who in Bombay began to attack South Indians entitling them as ‘outsiders’ to the city. Even Udupi restaurants were torched, and offices and factories threatened not to employ south Indians in their establishments. Recently, the Shiv Sena has kept the Bengalis and Biharis at its target. Following the same, the MNS has made the North Indians its target.

CAUSES FOR GROWTH OF REGIONALISM

In India a number of factors have galvanized the movements of regionalism:

1.     The efforts of the national government to impose a particular ideology, language or cultural pattern on all people and groups compelled the regionalism movements to crop up. With the same effect, the states of the South began to resist the imposition of Hindi as an official language as they feared this would lead to dominance of the North. Emulating the same the Assam anti-foreigner movement was launched by the Assamese to preserve their own culture.
2.     Almost all the states have spawned a military native movement directed against outsiders. The fundamental issue has the employment for the local people and many state governments either officially or unofficially have supported the protection of jobs for the „sons of the soil‟. Shiv Sena of Maharashtra is one example of this.
3.      Continuous neglect of an area or region by the ruling parties and concentration of administrative and political power has given rise to demand for decentralization of authority and bifurcate of unilingual states. On occasions sons of soil theory has been put forth to promote the interests of neglected groups or areas of the state.
4.     The desire of regional elites to capture power has also led to rise of regionalism. It is well known that political parties like DMK, AIADMK, Akali Dal, Telugu Desam Asom Gana
4.Parishad etc., have encouraged regionalism to capture power.
5.     The desire of the various units of the Indian federal system to maintain their sub cultural regions and greater degree of self-government has promoted regionalism and given rise to demand for greater autonomy.
6.     The interaction between the forces of modernisation and mass participation have also paved the way for growth of regionalism in India. As the country is still away from realising the goal of a nation state, the various groups have failed to identify their group interests with national interests, hence the feeling of regionalism has persisted. The growing awareness among the people of backward areas that they are being discriminated against has also promoted feeling of regionalism. The local political leaders have fully exploited this factor and tried to feed the people with the idea that the Central Government was deliberately trying to maintain regional imbalances by neglecting social and economic development of certain areas.
7.     Regionalism has also emerged because of the attempts made by the government to improve a particular or ideology on people who desire to follow a different path.

 Determinants of Regionalism in India.
While the cultural factors, real or imagined, focus upon the symbolic dimension, the socioeconomic and political disparities highlight the instrumental dimension. The major determinants of regionalism in India are examines as under:
 Political Factor: -
 In a sense, all regionalism is a form of politics, i.e. politics of natives. In political sphere, regionalism is against centralization of power and administration. It stands for more power and administration.
 Historical Factor: -
 Common historical experience often buttresses regionalism by way of creating differences in social heritage, attitude, myths and regionalism.
 Socio-Economic Factor: -
Socio-economic imbalance between regions is the crux of regionalism in India. Regional imbalance is also inherent in the pattern of capital investment and distribution. The uneven nature of capital investment is bequeathed to India by the colonial government.
Geographical Factor: -
The geographical distinctiveness gives a symbolic identity which needs economic and political props for its resurgence from time to time. For example, the old geographical boundaries of the ex-princely states still haunt and are implied in defining regional identity in India.
Socio-cultural Factor: -
 Socio-cultural differences between regions fan regional feeling to some extent. Socio-cultural symbols often provide the necessary inputs for identity –formation for a people living in a particular region. Regional caste, sub caste and kinship differences motivate regional feeling within a broad socio-linguistic area.
HOW TO COMBAT REGIONALISM.
 Regionalism has been an important aspect of Indian politics. Sometimes, it has posed threat to the unity of the country. Hence it is necessary to take steps to reduce such tendencies. Some such measures can be
1. To promote even development of the nation. The neglected areas must be given more importance so that they feel a part of the national mainstream.
2. A proper law should be passed to execute the political leaders supporting regionalism just to gain political attention like Uddhav Thackrey and Raj Thackrey or they should be treated under the laws of sedition.
3. The central government must not interfere in the affairs of the State unless it is unavoidable for national interest.
4. Problems of people must be solved in a peaceful and constitutional manner. Politicians must not be allowed to misuse the issue of regional demands.
5.  Except for issues of national importance, the states should be given freedom to run their own affairs.
6. Changes are necessary in the Central-State relations in favour of the states, and for introducing a system of national education that would help people to overcome regional feelings and develop an attachment towards the nation.

7. The different departments for different states can be constituted at central government level so that that specific department can look upon state critically and suggest the ways to government for the upliftment of the state.

8. There should be a nominal participation of all the states at central level government. The leaders of the deprived states should come forward to participate in the central government and raise their concern rather than sitting in the state and demanding the new state.
9. As much as possible, public policies depicting the idea of nationalism should be introduced and there should be uniformity in schemes and policies for all the states.

10. Election Commission should lay down some norms for regional parties against regionalism. Election Commission should define that any party who will be found in promoting unnecessary
 regionalism will be banned.

REGIONAL ISSUES IN INDIA

Linguistic Reorganization of States

It was the demand of Potti Sriramulu, a freedom fighter and a devoted follower of Mahatma Gandhi, that led to the creation of Andhra Pradesh state and linguistic recognition of the states in India. To achieve this end, he died in 1952 after not eating for 52 days in support of a Telugu-speaking state. Sriramulu’s death forced Jawahar Lal Nehru to accede to the various demands from other parts of the country with similar demands. Consequently, in 1954, a States Reorganisation Committee was formed with Fazal Ali as its head, which recommended the formation of 16 new states and 3 Union Territories based on the language.

Demand for Dravida Nadu

 Going back to the journey of Regionalism in India, it is well noticeable that it emerged with Dravidian Movement, which started in Tamil Nadu in 1925. This movement, also known as ‘Self-Respect Movement’ initially focused on empowering Dalits, non-Brahmins, and poor people. Later it stood against imposition of Hindi as sole official language on non-Hindi speaking areas8. But it was the demand of carving out their own Dravidastan or Dravida Nadu, which made it a secessionist movement.. As early as 1960s the DMK and the Nan Tamil organized a joint campaign throughout Madras state demanding its secession from India and making it an independent sovereign state of Tamiland. DMK proposed that the states of Madras, Andhra Pradesh, Kerala and Mysore should
secede from the Indian union and form an independent „Republic of Dravida Nadu‟.

1962: C.N Annadurai maintained that the people of South India were of different stock from that
of the north. He alleged that the south has been ignored and neglected by union government in
plans of India‟s industrial development.

1963: Constitution bill which enabled it to make laws providing penalties for any person
questioning the sovereignty and integrity of Indian union.

DMK dropped its demand for separate nation Dravida nation.

1974: Anti-Malayali demonstration in Madras city by Tamil Protection Organization demanding
to give employment to Tamilians alone

Telangana Movement.

 In the years after the formation of Andhra Pradesh state, people of Telangana expressed dissatisfaction over how the agreements and guarantees were implemented. Discontent with the 1956 Gentleman's agreement intensified in January 1969, when the guarantees that had been agreed on were supposed to lapse. Student agitation for the continuation of the agreement began at Osmania University in Hyderabad and spread to other parts of the region. Government employees and opposition members of the state legislative assembly threatened "direct action" in support of the students.

Shiv Sena against Kannadigas.

In 1966, Shiv Sena, in Maharashtra, launched its agitation against Kannadigas in the name of Marathi pride. The first targets of its agitation were South Indians who the Udupi hotels in Mumbai. This agitation was labeled to be a retaliation of the lathi-charge on Marathi speaking people in the border areas.

Bodoland Demand Within Assam.

The Bodo agitation is led by the Assam Bodo Students Union which is demanding a separate state and has resorted to wide scale violence and series of crippling bandhs to pursue their demand. One of the basic reason Assam agitations is because of the expansion of education, particularly higher education, but not industrialization and other job creating institutions is increasing the army of educated youths in the backward regions. These frustrated young men are allured by the movements against the inflow of people from other countries ands states. On the other hand these unemployed youths are also attracted by the caste, communal and other sectional agitations fighting for the protection of rights on sectarian lines.  

Khalistan Movement.

 It was during the era of 1980s that Khalistan movement with its aim to create a Sikh homeland, often called Khālistān, cropped up in the Punjab region of India and Pakistan. The vision was to include the Indian states of Punjab, Haryana, Himachal Pradesh, New Delhi, parts of the Kashmir, parts of Rajasthan, and parts of Gujarat. Thus this movement falls more in the category of a separatist movement, imbibing the characteristics of regionalism. Apart from this, there have been several other secessionist movements namely, Assam, Jammu and Kashmir, Tripura, Meghalaya, Mizoram, Manipur, Nagaland and Arunachal Pradesh.

Attacks on Bihar Laborers by the ULFA.  

ULFA continues to attempt ambushes and sporadic attacks on government security forces. In 2003, the ULFA was accused of killing laborers from Bihar in response to molestation and raping of many Assamese girls in a train in Bihar. This incident sparked off anti-Bihar sentiment in Assam, which withered away after some months though. On August 15, 2004, an explosion occurred in Assam in which 10-15 people died, including some school children. This explosion was reportedly carried out by ULFA. The ULFA has obliquely accepted responsibility for the blast. This appears to be the first instance of ULFA admitting to public killings with an incendiary device. In January 2007, the ULFA once again struck in Assam killing approximately 62 Hindi speaking migrant workers mostly from Bihar. On March 15, 2007, ULFA triggered a blast in Guwahati,injuring six persons as it celebrated its 'army day'.

The MNS Targeting North Indians.

 It was in 2008 that Maharashtra Navnirman Sena (MNS) workers began their violent agitation against North Indians. Bhojpuri films were not allowed to run on theatres in Maharashtra. The targets were vendors and shopkeepers from North India in various parts of Maharashtra.

Inter-State Disputes.

 Another form of regionalism in India has found expression in the form of interstate disputes. There are disputes boundary disputes for example between Karnataka and Maharashtra on Belgaum where Marathi speaking population is surrounded by Kannada speaking people, between Kerala and Karnataka on Kasargod, between Assam and Nagaland on Rengma reserved forests. There is a dispute over Chandigarh over Punjab and Haryana. The first important dispute regarding the use of water source was over the use of water resources of three rivers mainly Narmada, Krishna and Cauvery in which states of Madhya Pradesh, Rajasthan, Gujarat and Maharashtra were involved. Disputes also arose between use of Cauvery waters among the states of Tamil Nadu, Kerala and Karnataka. Another dispute arose among the states of Maharashtra, Karnataka and Andhra Pradesh over the use and distribution of waters of the Krishna River.Disputes between Punjab, Rajasthan and Himachal Pradesh overt the use of waters of Ravi River. The Electricity sharing issue between Punjab and Delhi is another example of this.

Creation of new States in 2000.

In 2000, the Government of India, pursuant to legislation passed by Parliament during the summer, created three new states, Chhattisgarh, Uttaranchal, and Jharkhand, reconstituting Madhya Pradesh, Uttar Pradesh, Bihar, respectively. Both the ruling BJP and the opposition Congress party supported the formation of the states. The basis for creating the new states is socio-political and not linguistic. With the new states, the Indian Union now has 28 states.

CONCLUSION.                            

According to the Constitution of India, an Indian citizen is free to move around and settle down peacefully any part of the country. So they go to places where jobs are available, and get them on the basis of merit. This gives the political parties absolutely no reason to accuse them of stealing anything, or criticizing their language and culture, or for that matter, instigating violence against them. Their want for limelight and votes ends up being a nightmare for the common man. This is not the solution to the problem of excessive migration. It can only be solved by development and creation of jobs in other states, and tackling the issue of overpopulation. If this unnecessary propagation of hatred continues, it will solve nothing, and only divide the people more. Today it is the division of states. Tomorrow it will be the division of districts, and so on.


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