IAS Charisma is a brainchild of Dr. Kumar Ashutosh, a Ph.D. in History, PGDM(Marketing) and Double M.A.(History and Philosophy), an IAS aspirant himself, he cleared IAS Mains twice and faced IAS interview before starting on this journey of guiding future IAS aspirants to help them in tackling with the problems that he had to face during IAS preparation. IAS Charisma is an endeavor to light a candle for IAS aspirants who sometimes get lost in commercialization of education.
शुक्रवार, 27 नवंबर 2015
गुरुवार, 17 सितंबर 2015
ग्रामीण पर्यटन
भारत देश ग्रामीण प्रधान अर्थव्यवस्था वाला देश है. भारत में 74 प्रतिशत जनसंख्या लगभग 7 लाख गांवों में बसती है तथा भारतीय गाँवों में ग्रामीण
पर्यटन की अपार संभावनाएं हैं . पर्यटन का वह रूप जो कि ग्रामीण जीवन की कला ,संस्कृति तथा परम्पराओं से सबंधित हो एवं वह
आर्थिक व् सामाजिक लाभ के साथ-साथ पर्यटक और स्थानीय लोगों के मध्य पर्यटन को
बढ़ावा देने के पारस्परिक अनुभवों को संवाद के रूप में स्थापित करें इसी को हम
ग्रामीण पर्यटन के नाम से जानते हैं . ग्रामीण पर्यटन के विभिन्न आधार हैं जैसे-
वह स्थान ग्रामीण क्षेत्र में स्थित हो. वहां ग्रामीण कार्यपद्धति जैसे छोटे लघु
उधोग , खुला वातावरण , प्राकृतिक सानिध्य , धरोहर , परम्पराएँ ,
सामाजिक गतिविधियाँ इत्यादि हों. वह क्षेत्र
विभिन्न प्रकार की मिश्रित संस्कृति , ग्रामीण परिवेश , इतिहास व्
अर्थव्यवस्था को प्रकट करता हो.
शार्पले और शार्पले के अनुसार यह ग्रामीण पर्यटन 18 वीं शताब्दी के बाद यूरोप में एक जाने -पहचाने क्रिया-कलाप
के रूप में उभर कर सामने आया. थामस कुक ने 1863 में स्विट्ज़रलैंड के ग्रामीण क्षेत्रों में इस प्रकार का
पहला पर्यटन अभियान आरम्भ किया तत्पश्चात इस उधोग में अत्यधिक वृद्धि हुई. 20 वीं शताब्दी से ग्रामीण पर्यटन समस्त देशों
में बढ़ता चला गया.
भारत में हमें ग्रामीण पर्यटन के कुछ प्रमाण प्राचीन काल में दिखाई देते हैं.
जब भगवान राम 14 वर्षों तक विविध
स्थानों पर घूमते रहे , इसी प्रकार
पांडवों ने भी अज्ञातवास के काल में विभिन्न स्थानों का भ्रमण किया. महावीर तथा
गोतम बुद्ध ने भी विभिन्न गांवों में भ्रमण किया. अतः हम प्राचीन काल मे भी
ग्रामीण पर्यटन को इस रूप में भी देख सकते हैं .
भारत में ग्रामीण पर्यटन की केरल , हिमाचल प्रदेश, आँध्रप्रदेश,
उत्तराखंड , गुजरात, राजस्थान तथा
मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में अपार संभावनाएं दिखाई देती हैं. आज हर राज्य में
पर्यटन का अपना स्वतंत्र मंत्रालय है, उसके बहुत से विभाग हैं, निगम हैं,
बोर्ड हैं और बाहर निजी क्षेत्र में भी अनगिनत
संस्थान और इस उद्यम से जुड़े लाखों लोग हैं। दिलचस्प बात यह है कि इन बड़े शहरों
और ऐतिहासिक-धार्मिक-प्राकृतिक महत्व के स्थलों से जुड़ा यह उद्यम अब लगातार उनके
आस-पास के ग्रामीण इलाकों और वहां के ग्रामीण जीवन को अपनी लालसा में लपेटता जा
रहा है। उन ग्रामीणों का खान-पान,पहनावा, उनके तीज-त्यौहार और लोकानुरंजन के उत्सव अपने
मूल स्वरूप से हटकर उनके आमोद-प्रमोद का हिस्सा होकर एक तरह के पर्यटक बाजार में
तब्दील होते जा रहे हैं। शायद यह उसी का परिणाम है कि आज हर बड़े शहर में ऐसे
अनोखे गांव और चौखी-अनोखी ढाणियां विकसित हो गई हैं, जो उन्हें शहर में ही गंवई खुलेपन और अपनाने का आभास देने लगी हैं और ये सैलानियों के
आकर्षण का बहुत बड़ा केन्द्र भी बनती जा रही हैं। सुदूर ग्रामीण इलाकों में बने
किले, हवेलियां और रावले,
जो देखरेख के अभाव में खंडहर होते जा रहे थे,
वे अच्छी-खासी हेरिटेज होटल्स और रेस्तराओं में
तब्दील होकर कमाई का नायाब जरिया बन गये हैं।
पर्यटन मंत्रालय की क्षमता निर्माण योजना के तहत क्षमता निर्माण गतिविधियों के
लिए 2006 से वित्तीय सहायता भी
दी जा रही है। पंडुरंगा ग्रामीण पर्यटन का हिस्सा हैं। उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र
में ग्रामीण पर्यटन की 2004 में बारामती
जिले में एक प्रायोगिक परियोजना के रूप में शुरूआत हुई थी। यहां 65 एकड़ के क्षेत्र में बागबानी होती है। उन्होंने
कहा कि जब शहर से लोग घूमने आते हैं तो रेशम प्रसंस्करण इकाइयों, दूध की डेयरी और फलों के बाग भी देखते हैं।
ग्रामीण पर्यटन को प्रोत्साहित करने का एक उद्देश्य यह भी था कि गांव के लोगों
का शहरों में पलायन रोका जा सके। 2004 से महाराष्ट्र में ग्रामीण और कृषि पर्यटन के 200 से अधिक केंद्र विकसित हुए हैं और एक लाख से ज्यादा
पर्यटक यहां घूमने आए हैं। इसके अतिरिक्त किसान, गांव के बेरोज़गार युवक भी ग्रामीण पर्यटन की गतिविधियों से
जुड़ गए हैं।
राजस्थान एक अन्य राज्य है जहां ग्रामीण पर्यटन पिछले कुछ समय में तेजी से
विकसित हुआ है। राजस्थान न केवल अपने ऐतिहासिक स्मारकों और धर्मस्थलों के लिए
प्रसिद्ध है बल्कि अपने शिल्प, नृत्य और संगीत
जैसी ललित कलाओं की समृद्धि संस्कृति के लिए भी मशहूर है। मुरारका फाउंडेशन के
विजयदीप सिंह के अनुसार उन्होंने न केवल भारतीय पर्यटकों बल्कि अमरीका, फ्रांस, इंग्लैंड और यहां तक कि स्विट्जरलैंड के पर्यटकों के लिए
अनेक पैकेज तैयार किए हैं। उन्होंने बताया कि कई पर्यटक स्थानीय जीवन, खानपान और संस्कृति का सीधे तौर पर आनंद लेने
के लिए गांव वालों के साथ उनके घर पर ही रुकना चाहते हैं। इस तरह के पैकेज के
अंतर्गत पर्यटकों से एक दिन के लिए 1200 रुपए लिए जाते हैं, जिसमें से 850 रुपए किसानों के परिवारों को दे दिए जाते हैं।
पर्यटकों के लिए यह कोई महंगा शौक नहीं है और किसान को भी इससे अतिरिक्त आमदनी हो
जाती है।
पंजाब में कृषि पर्यटन लोकप्रिय हो चुका है। कोई भी व्यक्ति पीली सरसों के
खेतों में घूम फिर सकता है, ट्रैक्टर पर घूम
सकता है, मवेशियों को चराने के लिए
ले जा सकता है या उन्हें खाना खिला सकता है, हरे भरे खेतों में मक्के की रोटी और साग के साथ छांछ का
लुत्फ उठा सकता है, लोकनृत्य भांगड़ा
का मजा लेने के साथ स्थानीय शिल्प फुलकारी बनते हुए देखने के अलावा ग्रामीण समुदाय
और पंचायत से मिल सकता है। पर्यटक कुश्ती,गिल्ली-डंडा, पतंगबाजी जैसे
स्थानीय खेलों में भाग ले सकते हैं या उन्हें देख सकते हैं। बच्चे घास पर उछलकूद
करने के साथ-साथ ट्यूबल में नहा सकते हैं। अनेक अन्य राज्य भी ग्रामीण पर्यटन को
प्रोत्साहित कर रहे हैं।
ग्रामीण पर्यटन को प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए हिमाचल में पर्यटकों को वहां
कि संस्कृति से रूबरू करने के लिए प्रदेश सरकार द्वारा “होम स्टे” नाम की योजना
प्रारंभ कि गई है इसी प्रकार हरियाणा में ग्रामीण पर्यटन को प्रोत्साहन देने के
लिए फॉर्म हाउस टूरिस्म को विकसित करने कि पहल की गई है. ‘म्हारा गांवों’ नामक योजना के द्वारा पर्यटकों को हरियाणा की संस्कृति से जोड़ने की बेहतरीन
कोशिश कि जा रही है . सूरजकुंड में
प्रत्येक वर्ष लगने वाला मेला विदेशी पर्यटकों को ग्रामीण परिवेश कि ओर आकर्षित कर
रहा है . उत्तराखंड के अल्मोड़ा में ग्रामीण पर्यटन में प्रोत्साहन के लिए खुबसूरत गावों को ग्राम क्लस्टर योजना
से जोड़ने कि बात कि जा रही है .
ग्रामीण पर्यटन की अपार संभावनाओं को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र भी इस प्रयोग
को सफल बनाने के लिए आगे आया है . संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने ग्रामीण
पर्यटन के लिए चुने गए स्थानों की विभिन्न विशेषताओं के लिए एक सॉफ्टवेयर तैयार
किया है जो विभिन्न देशों के पर्यटक संचालकों को उपलब्ध कराया गया है .
ग्रामीण पर्यटन के द्वारा अब गांवों में धन आने लागा है तथा गावों के भूले –बिसरे स्मारकों कि भी खोज-खबर अब ली जाने लगी
है . जो स्मारक तथा धर्मस्थल अब तक उपेक्षित थे अब उनकी भी साज- संभाल की जा रही
है . ग्रामीण पर्यटन के द्वारा स्थानीय कलाओं को भी नए अवसर प्राप्त हो रहे हैं .
अनेक ग्रामीण परिवार जहाँ उच्च स्तर की शिल्प कलाएं गुरु शिष्य परम्पराओं के
अंतर्गत चली आ रही हैं जिनका अबतक उचित मूल्यांकन नहीं हो पाता था ग्रामीण पर्यटन
के द्वारा इन कलाओं को भी महत्व प्राप्त हो रहा है .
2014 विभिन्न राज्यों में घरेलु पर्यटकों की संख्या
प्रतिशत में
क्रम संख्या
|
राज्य
|
पर्यटकों कि
संख्या प्रतिशत में
|
1
|
तमिलनाडु
|
25.6
|
2
|
उत्तरप्रदेश
|
14.3
|
3
|
कर्नाटक
|
9.2
|
4
|
महाराष्ट्र
|
7.3
|
5
|
आंध्रप्रदेश
|
7.3
|
6
|
तेलंगाना
|
5.6
|
7
|
मध्यप्रदेश
|
5.0
|
8
|
पश्चिमी बंगाल
|
3.8
|
9
|
झारखण्ड
|
2.6
|
10
|
राजस्थान
|
2.6
|
2014 विभिन्न राज्यों में घरेलु पर्यटकों की संख्या
प्रतिशत में
1
|
तमिलनाडु
|
20.6
|
2
|
महाराष्ट्र
|
19.4
|
3
|
उत्तरप्रदेश
|
12.9
|
4
|
दिल्ली
|
10.3
|
5
|
राजस्थान
|
6.8
|
6
|
पश्चिमी बंगाल
|
6.1
|
7
|
केरल
|
4.1
|
8
|
बिहार
|
3.7
|
9
|
कर्नाटक
|
2.5
|
10
|
हरियाणा
|
2.4
|
बुधवार, 16 सितंबर 2015
स्मार्ट सिटी परियोजना
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन
सरकार ने शहरी भारत को रहन-सहन, परिवहन और अन्य
अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस करने के इरादे से तीन महत्वाकांक्षी
योजनाओं- स्मार्ट सिटीज, अटल मिशन फॉर
रिजुवनेशन एंड अर्बन ट्रांसफॉर्मेशन (अमृत)और सभी को आवास योजना - का हाल ही में
शुभारम्भ किया है। इन परियोजनाओं से देशवासियों की उम्मीदों को नयी उड़ानें मिलती
नजर आ रहीहै और सपनों को संजीवनी।
शहरी जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने, स्वच्छ पर्यावरण उपलब्ध कराने, परिवहन व्यवस्था को सुधारने, शहरों की छवि खराब करती झुग्गीझोपड़ियों को हटाने तथा उनमें
रहने वाले लोगों को वैकल्पिक सुविधा मुहैया कराने के लिए शहरी संसाधनों, स्रोतों और बुनियादी संरचनाओं कासक्षम ढंग से
विकास करना स्मार्ट सिटी परियोजना का प्रमुख मकसद है। इन परियोजनाओं के तहत 2022 तक सभी को आवास उपलबध करानेका लक्ष्य भी है।
वर्ष 2011 की जनगणना के
अनुसार, भारत की वर्तमान जनसंख्या
का लगभग 31 फीसदी आबादी शहरों में
बसती है और इनका सकल घरेलू उत्पाद में 63 फीसदी का योगदान हैं। ऐसी उम्मीद है कि वर्ष 2030 तक भारत की आबादी का 40 फीसदी हिस्सा शहरों में रहेगा और सकल घरेलूउत्पाद में इसका
योगदान 75 प्रतिशत का होगा । इसके
लिए भौतिक, संस्थागत, सामाजिक और आर्थिक बुनियादी ढांचे के व्यापक
विकास कीआवश्यकता है। ये सभी जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने एवं लोगों और निवेश
को आकर्षित करने, विकास एवं प्रगति
के एक बेहतर चक्र कीस्थापना करने में महत्वपूर्ण हैं। स्मार्ट सिटी का विकास इसी
दिशा में एक कदम है।
इस मिशन में 100 शहरों को शामिल
किया जाएगा और इसकी अवधि पांच साल (2015-16 से 2019-20) की होगी। उसके
बाद शहरी विकासमंत्रालय द्वारा मूल्यांकन किए जाने एवं प्राप्त अनुभवों को शामिल
किये जाने के साथ मिशन को जारी रखा जा सकता है। एक सौ स्मार्ट शहरों कीकुल संख्या
एक समान मापदंड के आधार पर राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के बीच वितरित किया
गया है। इस वितरण फार्मूला का इस्तेमालकायाकल्प और शहरी परिवर्तन के लिए अमृत के
तहत धनराशि के आवंटन के लिए भी किया गया है।
शहरी विकास मंत्रालय ने यह तय कर दिया है कि देश के किस राज्य से कितने शहर
स्मार्ट सिटीज प्रोजेक्ट के लिए चुने जाएंगे। जिसमें से सबसेज्यादा 13 स्मार्ट सिटीज उत्तर प्रदेश में होंगी।
तमिलनाडु के 12 और महाराष्ट्र
के 10 शहरों को स्मार्ट सिटीज
के तौर पर विकसित किया जाएगा।मध्य प्रदेश के सात और गुजरात और कर्नाटक के छह-छह
शहर स्मार्ट सिटी बनेंगे। कुल मिलाकर देश भर में 100 स्मार्ट सिटीज विकसित करनेकी योजना है, लेकिन प्राथमिकता किसे मिलेगी, ये इंटर-सिटी कंपिटिशन में शहरों के स्मार्ट
सिटी प्लान पर निर्भर करेगा। इस साल के आखिर तक20 शहरों को स्मार्ट सिटीज के लिए चुना जाएगा, जबकि बाकी 80 शहरों के चयन का काम 2017-18 तक पूरा कर लिया जाएगा।
रैंकिंग में सबसे ऊपर आए 20 स्मार्ट सिटीज
के बाद बाकी 80 शहरों को खुद के
प्लान में सुधार का मौका दिया जाएगा। 100 स्मार्ट सिटीज केअलावा देश भर से अब तक 476 शहरों की पहचान अमृत योजना के लिए की गई है। ये सारे शहर
कम से कम एक लाख की आबादी वाले होंगे। इनशहरों को बुनियादी सुविधाएं विकसित करने
के लिए केंद्र सरकार की तरफ से मदद मिलेगी।
स्मार्ट सिटी के वितरण की समीक्षा मिशन के कार्यान्वयन के दो साल बाद की
जाएगी। चुनौती में राज्यों / शहरी स्थानीय निकायों के प्रदर्शन केआकलन के आधार पर
राज्यों के बीच शेष संभावित स्मार्ट शहरों में से कुछ का पुनःआवंटन शहरी विकास
मंत्रालय द्वारा किया जा सकेगा।
स्मार्ट सिटी मिशन एक केन्द्र प्रायोजित योजना के रूप में संचालित किया जाएगा और केंद्र सरकार
द्वारा मिशन को पांच साल में 48,000 करोड़रुपये,
करीब प्रति वर्ष प्रति शहर 100 करोड़ रुपये औसत वित्तीय सहायता देने का
प्रस्ताव है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि व्यापक विकास भौतिक, संस्थागत, सामाजिक और
आर्थिक बुनियादी ढांचे को एकीकृत करके ही होता है। सरकार कीकई क्षेत्रीय योजनाएँ
इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए शामिल होती हैं, भले ही उनके रास्ते अलग हैं। शहरी योजनाओं के स्वरूप में
बदलाव करके उन्हेंअत्याधुनिक सुविधाओं से लैस शहर में तब्दील करने में अमृत और
स्मार्ट सिटी मिशन एक-दूसरे के पूरक साबित होने वाले हैँ।
हर कोई चाहता है कि वे स्मार्ट सिटी
के निवासी कहलाएं, लेकिन सबसे बड़ा
सवाल यह है कि एक शहर आखिर स्मार्ट कब कहलाता है? इससवाल का जवाब कुछ शब्दों में बांधा नहीं जा सकता, क्योंकि सरकार से लेकर इन योजनाओं पर काम करने
वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और आमलोग सबका जवाब अलग-अलग होगा। हर शहर की अपनी
संस्कृति और अपना चरित्र होता है। हर शहर की अपनी कुछ विशेषताएं होती हैं।
कई शहर बसावट में ही काफी जटिल और दुर्गम होते हैं और कुछ शहर काफी सहज होते
हैं। स्मार्ट सिटी शब्द सुनते ही सबसे पहले जो तस्वीरउभरती है वह कुछ ऐसी होती है—एक शहर जहां की जलवायु शुद्ध हो, लोग खुली हवा में सांस ले सकें। बिजली-पानी की
सप्लाई 24 घंटे सुचारू हो,दिनभर लोगों को ट्रैफिक में न जूझना पड़े,
सार्वजनिक यातायात उपलब्ध हो जो विश्व स्तरीय
हो, बुनियादी सुविधाएं व्यापक
हों। सड़कें, इमारतें,शापिंग माल, सिनेप्लैक्स सब कुछ योजनाबद्ध तरीके से बने हों। अनाधिकृत
कालोनियों की सड़ांध मारती गलियां न हों। झुग्गी-बस्तियां न हों। कुछऐसा शहर दिखे
जहां लोगों के रहन-सहन में समानता दिखे।
भारत जैसे शहरों जिनकी सही मैपिंग तक उपलब्ध नहीं, जिनमें अवैध कब्जों की भरमार हो, शहरों का बेतरतीब निर्माण हो चुका हो, ऐसे शहरों कोस्मार्ट बनाना किसी बड़ी चुनौती से
कम नहीं। भविष्य के शहर में बिजली के ग्रिड से लेकर सीवर पाइप, सड़कें, कारें और इमारतें हर चीज़ एक एकनेटवर्क से जुड़ी होगी।
इमारत अपने आप बिजली बंद करेगी, स्वचालित कारें
खुद अपने लिए पार्किंग ढूंढेंगी और यहां तक कि कूड़ादान भी स्मार्टहोगा, लेकिन सवाल यह है कि हम इस स्मार्ट भविष्य में
कैसे पहुंच सकते हैं? शहर में हर इमारत,
बिजली के खंभे और पाइप पर लगे सेंसरों परकौन
निगरानी रखेगा और कौन उन्हें नियंत्रित करेगा।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि शहरों को स्मार्ट बनने की ज़रूरत है। एक अनुमान के
मुताबिक साल 2050 तक दुनिया की 75 प्रतिशत आबादी शहरोंमें निवास करेगी, जिससे यातायात व्यवस्था, आपातकालीन सेवाओं और अन्य व्यवस्थाओं पर ज़बर्दस्त दबाव
होगा। सच्चाई यह है कि दुनियाभरमें इस समय जो स्मार्ट शहर बन रहे हैं वे बहुत छोटे
हैं। इन शहरों के बारे में काफी चर्चा हो रही है लेकिन उनके पास ऐसी कोई तकनीक
नहीं हैजिससे वास्तव में लोगों की जिंदगी में बदलाव आ रहा है। हालांकि अगले पांच
सालों में चीजें स्मार्ट हो जाएंगी, तब उन शहर का डेटा इंफ्रास्ट्रक्चरट्रेनों और सड़कों की तरह अहम हो जाएगा।
ऐसा नहीं कि भारत स्मार्ट सिटी की ओर अग्रसर होने वाला पहला देश है, इससे पहले से कई देशों में स्मार्ट सिटी
परियोजनाएं बेहतरीन तरीके सेक्रियान्वित की जा चुकी हैं। भारत में भी यदि इसे
संजीदगी से अमल किया जाए तो इसे मोदी सरकार की बेहतरीन पहल कही जा सकती है,
बशर्तेसरकार सामंजस्य बिठाने के लिए गांवों को
भी स्मार्ट बनाने का प्रयास करे।
सोमवार, 14 सितंबर 2015
ग्लोबल वार्मिंग से संकट में खाद्य सुरक्षा
यूरोप तथा उत्तरी अमरीका के देशों की कृषि के लिए ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव सकारात्मक होगा। वर्तमान में यहां ठंड ज्यादा पड़ती है। तापमान में कुछ वृद्धि से इन देशों का मौसम कृषि के अनुकूल हो जाएगा। अत: विकसित देशों का पलड़ा भारी हो जाएगा। उनके यहां खाद्यान्न उत्पादन बढ़ेगा, जबकि हमारे यहां घटेगा। साठ के दशक में हमें अमरीका से खाद्यान्न की भीख मांगनी पड़ी थी। वैसी ही स्थिति पुन: उत्पन्न हो सकती है। इस उभरते संकट का सामना करने के लिए हमें अपनी कृषि और जलनीति में मौलिक परिवर्तन करने होंगेज् प्रशांत महासागर के द्वीपीय राज्यों के प्रमुखों से वार्ता करने के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने ग्लोबल वार्मिंग के प्रति भारत की गंभीरता का आश्वासन दिया। ज्ञात हो कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय एवं अंटार्कटिका में जमे हुए ग्लेश्यिर के पिघलने का अनुमान है। इस पानी के कारण समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा और कई द्वीप जलमग्न हो सकते हैं। मोदी की आगामी अमरीकी यात्रा में भी ग्लोबल वार्मिंग पर अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा से चर्चा हो सकती है। मोदी के इन प्रयासों के लिए साधुवाद। लेकिन इससे अधिक जरूरत ग्लोबल वार्मिंग का अपने देश की कृषि और देश के किसानों पर पडऩे वाला प्रभाव है पिछले 100 वर्षों में भारत में तापमान 0.6 डिग्री बढ़ा है। अनुमान है कि इस सदी के अंत तक इसमे 2.4 डिग्री की वृद्धि होगी जो कि पिछली सदी में हुई वृद्धि का चार गुना है। दुनिया के तमाम देशों द्वारा स्थापित ‘इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन कलाइमेट चेंज’ ने अनुमान लगाया है कि बाढ़, चक्रवात तथा सूखे की घटनाओं में भारी वृद्धि होगी। विश्व बैंक के एक अध्ययन के अनुसार जो भीषण बाढ़ अब तक 100 वर्षों में एक बार आती थी, वैसी बाढ़ हर दस वर्षों में आने की संभावना है। पूरे वर्ष में होने वाली वर्षा लगभग पूर्ववत रहेगी, परंतु इसका वितरण बदल जाएगा। जोरदार बारिश के बाद लंबा सूखा पड़ सकता है। पिछली सदी में हुई तापमान में मामूली वृद्धि से हजारों किसान आत्महत्या को मजबूर हुए हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि चार गुना वृद्धि से कितनी तबाही मचेगी। यह दुष्प्रभाव असिंचित खेती पर ज्यादा पड़ेगा। देश के बड़े इलाके में बाजरा, मक्का तथा रागी की खेती होती है जो कि पूर्णयता वर्षा पर निर्भर रहती है। वर्षा का पैटर्न बदलने से ये फसलें चौपट होंगी। किसानों की मांग होगी कि सिंचाई का विस्तार हो। जाड़े में होने वाली वर्षा रबी की फसल के लिए विशेषकर उपयोगी होती है। इस वर्षा में भी कमी होने का अनुमान है। फलस्वरूप वर्तमान में सिंचित क्षेत्रों में भी सिंचाई की मांग बढ़ेगी, लेकिन पानी की उपलब्धता घटेगी। अनुमान है कि पहाड़ी क्षेत्रों में पडऩे वाली बर्फ की मात्रा कम होगी। गर्मी के मौसम में यह बर्फ ही पिघल कर हमारी नदियों में पानी बनकर बहती है। बर्फ कम गिरने से गर्मी में नदियों में पानी की मात्रा कम होगी। इसके अतिरिक्त हमारे भूमिगत जल के तालाब भी सूख रहे हैं। लगभग पूरे देश में ट्यूबवेल की गहराई बढ़ाई जा रही है, चूंकि भूमिगत जल का अतिदोहन हो रहा है। जितना पानी वर्षा के समय भूमि में समाता है, उससे ज्यादा निकाला जा रहा है। भूमिगत जल का पुनर्भरण कम हो रहा है, चूंकि बाढ़ पर नियंत्रण करने से पानी फैल नहीं रहा है और भूमि में रिस नहीं रहा है। सरकार की नीति है कि वर्षा के जल को टिहरी तथा भाखड़ा जैसे बड़े बांधों में जमाकर लिया जाए। बढ़ते तापमान के सामने यह रणनीति भी फेल होगी, चूंकि इन तालाबों से बड़ी मात्रा में वाष्पीकरण होगा, जिससे पानी की उपलब्धता घटेगी। अमरीका के 12 बड़े तालाबों के अध्ययन में अनुमान लगाया है कि वाष्पीकरण में नौ प्रतिशत की वृद्धि होगी। यह ठंडे देश की बात है। भारत जैसे गर्म देश में वाष्पीकरण से पानी का घाटा ज्यादा होगा। हम हर तरफ से घिरते जा रहे हैं। सिंचाई की मांग बढ़ेगी, परंतु पानी की उपलब्धता घटेगी। बर्फ कम गिरने से गर्मी के मौसम में नदी में पानी कम होगा। बाढ़ पर नियंत्रण करने से भूमिगत जल का पुनर्भरण नहीं होगा। बड़े बांधों से वाष्पीकरण होने से पानी की हानि ज्यादा होगी। एक और संकट सामरिक है। मसेचूसेट्स इंस्टीच्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी द्वारा किए गए अध्ययन में बताया गया है कि यूरोप तथा उत्तरी अमरीका के देशों की कृषि के लिए ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव सकारात्मक होगा। वर्तमान में यहां ठंड ज्यादा पड़ती है। तापमान में कुछ वृद्धि से इन देशों का मौसम कृषि के अनुकूल हो जाएगा। अत: विकसित देशों का पलड़ा भारी हो जाएगा। उनके यहां खाद्यान्न उत्पादन बढ़ेगा, जबकि हमारे यहां घटेगा। साठ के दशक में हमें अमरीका से खाद्यान्न की भीख मांगनी पड़ी थी। वैसी ही स्थिति पुन: उत्पन्न हो सकती है। इस उभरते संकट का सामना करने के लिए हमें अपनी कृषि और जलनीति में मौलिक परिवर्तन करने होंगे। हरित क्रांति के बाद हमने खाद्यान्नों की अपनी पारंपरिक प्रजातियों को त्याग कर हाई यील्डिंग प्रजातियों को अपनाया है। इससे खाद्यान्न उत्पादन भी बढ़ा है, परंतु ये प्रजातियां पानी के संकट को बर्दाश्त नहीं कर पाती हैं। पर्याप्त पानी न मिलने पर इनका उत्पादन शून्यप्राय हो जाता है। तुलना में हमारी पारंपरिक प्रजातियां मौसम की मार को झेल लेती हैं, यद्यपि उत्पादन कम होता है। अपनी खाद्य सुरक्षा को बनाए रखने के लिए जरूरी है कि हम खाद्यान्नों की पारंपरिक प्रजातियों को अपनाएं। ये पानी कम मांगती हैं। प्रश्न है कि इनकी खेती से आई उत्पादन में गिरावट की भरपाई कैसे होगी? उपाय है कि अंगूर, लाल मिर्च, मेंथा और गन्ने जैसी जल सघन फसलों पर टैक्स लगाकर इनका उत्पादन कम किया जाए अथवा केरल जैसे प्रचुर वर्षा वाले क्षेत्रों में इनकी खेती को सीमित कर दिया जाए। इन उत्पादों का आयात भी किया जा सकता है। इन फसलों का उत्पादन कम करने से पानी की बचत होगी। इस पानी का उपयोग पारंपरिक प्रजातियों से खाद्यान्न का उत्पादन करने के लिए किया जा सकता है। तब हमारी खाद्य सुरक्षा स्थापित हो सकेगी। तूफान, सूखा तथा बाढ़ के समय हमारे किसानो ंको कुछ उत्पादन मिल जाएगा और वे आत्महत्या को मजबूर नहीं होंगे। हां, अंगूर जैसी विलासिता की वस्तुएं बहुत महंगी हो जाएंगी। खाद्यान्न भी कुछ महंगे होंगे, चूकि प्रति हेक्टेयर उपज कम होगी, जबकि लागत लगभग पूर्ववत रहेगी। अपनी खाद्य सुरक्षा बनाए रखने के लिए हमें खाद्यान्नों की इस छोटी मूल्य वृद्धि को स्वीकार करना चाहिए। दूसरा विषय जल संसाधनों का है। मानसून के पानी का भंडारण जरूरी है, परंतु बड़े बांधों में भंडारण करना हानिप्रद है, चूंकि इनसे वाष्पीकरण अधिक होता है।
उपाय है कि वर्षा के जल का भंडारण भूमिगत एक्वीफरों में किया जाए। धरती के गर्भ में विशाल तालाब होते हैं, जिन्हें एक्वीफर कहा जाता है। वर्षा के पानी को ट्यूबवेलों के माध्यम से इन एक्वीकरों में डाला जा सकता है। नदियों द्वारा पहाड़ से लाए जा रहे पानी को भी डाइवर्ट करके इन ट्यूबवेलों में डाला जा सकता है। एक्वीफर में पड़े पानी का वाष्पीकरण नहीं होता है। विशेष यह कि देश भर में बाढ़ के नियंत्रण के लिए नदी किनारों पर बने सभी तटबंधों को तोड़ देना चाहिए। बाढ़ के पानी को फैलने देना चाहिए, जिससे एक्वीफर का पुनर्भरण हो। गांव ऊंचे स्थानों पर तथा मकानों को स्टिलट पर बनाना चाहिए, जिससे बाढ़ से जानमाल का नुकसान न हो। यह खुशी की बात है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ग्लोबल वार्मिंग के प्रति जागरूक हैं।
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