गुरुवार, 19 जून 2014

सर्वोदय और मार्क्स

जातिविहीन, वर्ग विहीन शोषण से मुक्त समाज का सपना महात्मा गांधी ने देखा था और उन्होंने सर्वोदय जैसा एक दर्शन उसके लिए विकसित किया। ऐसा ही एक प्रयास पश्चिम के समाज विज्ञानी कार्ल मार्क्स ने भी किया। मार्क्स ने समाज को शोषण से मुक्त करने के लिए एक क्रांति की प्रक्रिया का मत रखा। उन्होंने अपने इस मत को वैज्ञानिक समाजवाद का नाम दिया। हालांकि क्रांति की प्रक्रिया महात्मा गांधी ने भी दी, लेकिन उन्होंने स्वयं के संस्कारों के अनुरूप ही उसका स्वरूप प्रस्तुत किया। सत्य का अंश दोनों के ही दर्शन में है। समाज के लिए दोनों ही व्यवस्था को बदलना चाहते हैं, किंतु मार्क्स ने क्रांति के लिए शस्त्रों की राह चुनी, जबकि गांधीजी ने क्रांति का स्वरूप अहिंसा सत्याग्रह के अंतर्गत रखा। मार्क्स ने पूंजीवाद के खात्मे के लिए शस्त्र क्रांति का सहारा लिया।

दोनों का लक्ष्य एक है, किंतु लक्ष्य प्राप्त करने के तरीके में मूलभूत अन्तर है। सर्वोदय दर्शन की आधारशिला अपने देश की सस्ंकृति के साथ गहरी जुड़ी हुई है। यही कारण है कि सर्वोदय ने समाज परीवर्तन के लिए अपनी प्राचीन परंपरा के अनुरुप अहिंसा की प्रक्रिया को चुना। यहां एक विशेष ध्यान रखने योग्य बिंदु यह है कि कार्ल मार्क्स का दर्शन व्यवस्था का परीवर्तन करने पर टीका है, वहीं सर्वोदय का व्यक्ति परीवर्तन पर। महात्मा गांधी ने यह स्पष्ट रूप से स्वीकारा कि जब तक व्यक्ति में आध्यात्मिक सांस्कृतिक परिवर्तन नहीं आता, तब तक समाज में परीवर्तन कतई नहीं होगा। केवल व्यवस्था परीवर्तन से समाज में व्याप्त असमानता का निराकरण नहीं हो सकता। उन्होंने वर्तमान में प्रचलित तीनों प्रकार की सत्ताओं से सर्वोदय को भिन्न माना। उन्होंने समाज को एक ऐसी स्थिति तक ले जाने की बात कही, जहां आध्यात्मिक सत्ता सर्वोच्च हो जहां धन, बल शक्ति पर आधारित व्यवस्था से कई ज्यादा प्रभावी अधिष्ठान नैतिकता कर्तव्य का हो।

सर्वोदय ने साम्यवादी व्यवस्था को घोर वितण्डावादी कहा, क्योंकि यह विचारधारा मूलतः दुराग्रह से प्ररित है। यह विचार व्यवस्था परिवर्तन में पीड़ितों की पीड़ा का उपयोग करता है। मजदूर वर्ग उसके लिए केवल क्रांति का एक हथियार मात्र है। सर्वोदय के लिए कोई विरोधी पक्ष नहीं है, वह मानव की अच्छाई को आधार मानकर आगे बढ़ता है। दूसरा ध्यान देने योग्य बिंदु यह है कि सर्वोदय केवल व्यवस्था परिवर्तन के पक्ष में नहीं, वह तोव्यवस्थाको ही मिटाना चाहता है। समाज में किसी भी प्रकार कीव्यवस्थाके वे पक्ष में ही नहीं, जबकि मार्क्स केवल व्यवस्था का स्थानांतरण करना चाहते हैं, सत्ता को पूंजीपतियों के हाथ से निकालकर मजदूरों के हाथ में सौंपना ही उनका मुख्य उद्देश्य है। ऐसा करने से समाज में व्याप्त शोषण समाप्त हो जायेगा, यह अनिश्चित है। आवश्यक नहीं कि सत्ता प्राप्ति के बाद मजदूर वर्ग अन्यो का शोषण नहीं करेगा। प्रसिद्ध गांधीवादी सर्वोदयी विचारक दादा धर्माधिकारी के अनुसार, ‘‘समाजवादी क्रांति के बाद साहूकारी शोषण की समाप्ति नहीं होगी, केवल एक व्यक्ति की साहूकारी के स्थान पर एक वर्ग की साहुकारी स्थापित हो जायेगी‘‘ ऐसे समाज का सपना सर्वोदय का नहीं।

सर्वोदय केवल अनुशासन की सत्ता का पक्षधर है। जब समाज प्रकृति के नियमों को कर्तव्य मानकर उनका पालन करेगा, तब किसी भी प्रकार की सत्ता की कोई आवश्यकता ही नहीं रहेगी। व्यक्ति का यह अनुशासन ही संपूर्ण समाज की ताकत बनेगी। यह विचार अपने देश की प्राचीन परंपरा के बिल्कुल निकट है। अपने यहां मान्यता है कि संसार रीत के नियमों से चलता है। ये रीत ही आदिकाल से संसार का संचालन कर रहा है। इसी को सर्वोदय दर्शन में आत्मानुशासन कहा गया। सर्वोदय ने इस प्राचीन सिद्धांत की नवीन व्याख्या की है। यह आत्मानुशासन समाज को ऐसी दिशा में ले जायेगा, जहां पर नियंत्रण के स्थान पर संयम की प्रधानता होगी किसी भी व्यक्ति पर किसी भी प्रकार की बाध्यता नहीं होगी, फिर भी नियमों का पालन होगा।उस स्थिति में पहुंचकर समाज में अधिकारों के स्थान पर कर्तव्यों को ज्यादा मान्यता दी जायेगी। व्यक्ति में समाज के प्रति कर्तव्य-पालन की भावना होगी, क्योंकि व्यक्ति किसी शासन के द्वारा नियमित होने के स्थान पर स्वानुशासन द्वारा प्रेरित होगा। इसी को उन्होंने राजनीति का विकल्प लोकनीति का नाम दिया।

तीसरा ध्यान देने योग्य बिंदु है कि मार्क्स की भांति सर्वोदय सीधे शासन को समाप्त करने की बजाय समाज में आध्यात्म अनुशासन का दायरा बढ़ाने पर बल देता है। उनकी स्पष्ट मान्यता है कि अनुशासन की बढ़ोतरी शासन को अव्यवहारिक कर देगी और धीरे-धीरे शासन-व्यवस्था स्वतः ही समाप्त हो जायेगा। साथ ही, इस प्रक्रिया को प्रारम्भ करने का दायित्व भी वह राज्य पर ही डालते हैं। सर्वोदय दर्शन के अनुसार, ‘‘राज्य धीरे-धीरे ऐसी स्थिति उत्पन्न करे कि समाज को राज्य-व्यवस्था की आवश्यकता ही रहे, वह अव्यवहारिक हो जाये। ‘‘यानी मार्क्स की भांति वह राज्य को आवश्यक बुराई नहीं मानते। हां अहिंसक क्रांति की पूर्णता की एक आवश्यक कड़ी अवश्य मानते हैं। इसका उपर उल्लेख हुआ है। कुछ अर्थों में यह राज्य के होने का कारण भी हैं। यानी समाज को यदि ऐसी उच्चतम स्थिति पर ले जाना है तो राज्य का होना भी परिहार्य है।

सर्वोदय दर्शन मार्क्स की तरह मतभेद की बजाय मनभेद को सहारा मानकर नहीं चलता है। वह किसी भी प्रकार की व्यवस्था के प्रति रंचमात्र भी दुर्भावना नहीं रखता। इसलिए वह संघर्ष को अनिवार्य नहीं मानता है किंतु मार्क्स एक वर्ग के साथ घोर दुर्भावना रखता है। अतः उसकी समाप्ति के लिए संघर्ष को भी अनिवार्य मानते हैं और उस संघर्ष के परिणामस्वरूप स्थापित नवीन व्यवस्था को वे द्वंदात्मक भौतिकवाद पर स्थापितगरीबों का लोकतंत्रकहते हैं। चूंकि संघर्ष भौतिक है तो स्थापित होने वाली व्यवस्था भी भौतिक ही होगी। फिर उसकी उन्नति का आधार भी भौतिक ही होगा। यहां पर सर्वोदय का मार्क्सवादी व्यवस्था के साथ एक और विरोध है दिखाई देता है। सर्वोदय समाज की उन्नति का आधार आध्यात्म को मानता है, क्योंकि वह शाश्वत परिवर्तन की गवाही देता है। ऐसे परिवर्तन की नहीं, जिसका कुछ समय के उपरांत पुनः शुद्धिकरण करने की आवश्यकता पड़े। समाज केवल भौतिक उन्नति पर ही आश्रित हो जायेगा, तो पुनः स्वार्थ द्वेष का बोलबाला हो जायेगा। फिर वही स्थिति उत्पन्न हो जायेगी। इसलिए वह लोक को आध्यात्मिक उन्नति के लिए भूमि प्रदान करने का काम हाथ में लेता है, ताकि समाज में किसी भी प्रकार की व्यवस्था नीति के स्थान पर लोकनीति की प्रतिस्थापना हो जाये। यही संपूर्ण प्रक्रिया ही अहिंसक क्रांति की प्रक्रिया कहलायेगी इसपर आधारित राज्य रामराज्य होगा और उसकी नीति होगी लोकनीति। ऐसे समाज में प्रत्येक व्यक्ति श्रम को समाज के प्रति अपना कर्तव्य मानेगा प्रत्येक का सुख-दुख समाज का सुख-दुख होगा।


सर्वोदय दर्शन ही वर्तमान में समाज की उन्नति का एक मात्र सही हल है, ऐसा गांधी जी ने माना और सही भी है। विद्वान जिस मार्क्सवाद विचारधारा की तुलना सर्वोदय (गांधीवाद) के साथ करते हैं। उस मार्क्सवाद की सर्वश्रेष्ठ कर्मभूमि रूस में उन देशों में, जहां इस विचारधारा ने अपने पांव पसारे, वर्गों के परस्पर विरोध को उभारा क्रांति के नाम पर रक्त की होली खेली, सभी आज यह स्वीकार करते हैं कि उनकी सबसे बड़ी समस्या ना आर्थिक है, ना ही यांत्रिक (जिसका उन्होंने घोर विरोध किया) आज उनकी सबसे बड़ी समस्या सांस्कृतिक है। वे समाज को भौतिक उन्नति के शिखर पर तो ले गये, किंतु उनका नैतिक स्तर उंचा उठाने में वे सर्वथा अक्षम रहे। इसलिए वे देश घोर विसंगतियों से जूझ रहे है।

अमरीका के साथ भारत की भी अग्निपरीक्षा

इराक में जारी गृह युद्ध से भारत के लिए बहुत बुरी खबरें रही हैं। अभी जो बुरी खबर आई है, वह भारत की पूरी सरकार का ध्यान खींच चुकी है। इराकी शहर मोसुल में 40 भारतीयों को अगवा कर लिया गया है। यह सभी भारतीय किसी प्रोजेक्ट पर काम करते थे। मोसुल पर अल कायदा के सहयोगी संगठन की अगुवाई वाले इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ इराक एंड सीरिया के लड़ाकुओं के कब्जे के बाद इन मजदूरों को सुरक्षित जगहों पर ले जाया जा रहा था, लेकिन उनको किसी गिरोह ने अगवा कर लिया।

 भारत की पूरी सरकार इन मजदूरों की सुरक्षित वापसी के काम में लग गई है। प्रधानमंत्री खुद घटनाक्रम पर नजर रखे हुए हैं। उन्होंने साफ कह दिया है कि चाहे जो करना पड़े भारतीयों को सुरक्षित लाना सर्वोच्च प्राथमिकता है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल हर मिनट की घटनाओं को देख रहे हैं। आसियान के लिए नियुक्त विशेष दूत सुरेश रेड्डी को इराक भेज दिया गया है क्योंकि, मोसुल में उनके कुछ संपर्क सूत्र बताए जाते हैं। सबसे बड़ी परेशानी यह है कि इन मजदूरों को रिहा करवाने के लिए सरकार के अधिकारियों की समझ में नहीं रहा है कि किससे बात की जाए। इस इलाके में इराकी सरकार की अपनी कोई हैसियत नहीं है। इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ इराक एंड सीरिया के लड़ाकुओं के नेता से किसी का संपर्क नहीं है। उनसे कूटनीतिक चैनल से बात की भी नहीं जा सकती। अजीब बात है कि नई सरकार की सभी चुनौतियां उसी सरजमीन से रही हैं जहां से अमरीकी राष्ट्रपतियों की आती रही हैं। भारत के लिए  चिंता की बात यह है कि उत्तरी इराक के उसी इलाके में भारत से जाकर काम करने वाले लोग बड़ी संख्या में रहते हैं। मोसुल के पास ही पूर्व राष्ट्रपति सद्दाम हुसेन का शहर तिरकित है जहां काम करने वाली कुछ  नर्सों के बारे में बताया जा रहा है कि उनको भी भारी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। तेल से जुड़ी राजनीति, कूटनीति और अर्थशास्त्र से भारत बहुत अधिक प्रभावित होने वाला है। इराकी गृहयुद्ध के चलते भारत के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री के वे सपने भी प्रभावित होने वाले हैं जो उन्होंने चुनाव अभियान के दौरान देखा था। उनके सपने थे कि देश की अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर ला देंगे, विकास की गति तेज कर देंगे, बेकार नौजवानों को नौकरियां देंगे और महंगाई कम कर देंगे। यह सारे सपने तेल की नियमित सप्लाई पर निर्भर हैं। पश्चिम एशिया के जो देश इराक के गृहयुद्ध से सीधे तौर पर प्रभावित हैं, उनमें प्रमुख हैं साउदी अरब, इरान, इराक, सीरिया संयुक्त अरब अमीरात और कुवैत। इन देशों से भारत के कुल पेट्रोलियम आयात का 57 प्रतिशत हिस्सा आता है। जाहिर है यहां की अस्थिरता भारत की संपन्नता के सपनों पर सबसे बड़ा हमला माना जाएगा। भारत के साथ-साथ अमरीका पश्चिम एशिया की हुई राजनीति में बुरी तरह से उलझ गया है। इराक और सीरिया में वहां की सरकारों के खिलाफ हथियारबंद विद्रोहियों का हमला चल रहा है। दोनों ही  देशों में शासक शिया मत के मानने वाले हैं जबकि विद्रोही पूरी तरह से सुन्नी मतावलंबी हैं। दुनिया जानती है कि इराक में फर्जी कारणों से हमला करना अमरीकी विदेशनीति की बहुत बड़ी असफलताओं में शुमार है। जब तक अमरीकी फौजें इराक में रहीं अमरीकी कृपा से राज कर रहे शिया प्रधानमंत्री की मौज थी लेकिन करीब ढाई साल पहले जब सभी अमरीकी सैनिक इराक से विदा हो गए तो अब वहां जिस संगठन को इराकी अलकायदा कहा जाता था उसने अपने आपको संगठित कर लिया है। वहीं संगठन अब इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया के नाम से जाना जाता है। इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया कोई सरकार नहीं है लेकिन जब इराक के सबसे बड़े शहर मोसुल पर इनका कब्जा हुआ और इराकी सेना वहां से भागीं तो इन लोगों ने मोसुल में शरिया कानून लागू कर दिया। इनके हथियारबंद लड़ाकुओं ने बहुत सारे कैदियों को जेल से छुड़ा लिया, बैंक में लूटपाट की और फरमान जारी कर दिया कि कोई भी लड़की तब तक घर से बाहर नहीं निकलेगी जब तक कि उसके साथ कोई मर्द हो। चोरी करने वालों का हाथ काटने का नियम लागू कर दिया गया। ऐलान किया गया की मोसुल में निजाम- -मुस्तफा कायम हो गया है। मोसुल के नए हुक्मरान कह रहे हैं कि यह अमरीका के उस हमले का बदला है जो उसने नैटो के साथ मिलकर इराक पर किया था। जाहिर है कि अमरीका विरोधी भावना उफान पर है और अमरीका यहां सब कुछ गंवा चुका है। अमरीका की विदेशनीति की धज्जियां तो बार बार उड़ी हैं लेकिन जो पश्चिम एशिया में हो रहा है वह अमरीकी शासकों के लिए बहुत ही दुखद है। जिस अलकायदा के विरोध के लिए अमरीका ने अफगानिस्तान पर हमला किया था, उसी की सहयोगी संस्था इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ इराक एंड सीरिया को सीरिया के शिया शासक बसहर अल असद के खिलाफ हथियार दिए जा रहे हैं और इराक में उसी अलकायदा संगठन की सामरिक उफान को देख कर अमरीका चुप है और अपने प्रिय इराकी शासक राष्ट्रपति मलिकी की तबाही देखने के लिए अभिशप्त है। अमरीकी नीतियों के लालबुझक्कड़  स्वरूप का नतीजा है कि आज अमरीका ऐसी दुविधा में है जिसके सामने सांप छंछूदर की दुविधा भी शर्म से लाल हो जाए। बहरहाल अमरीकी विदेश नीति की तो वह परवाह करेगा। भारत के चालीस मजदूरों के अगवा होने के बाद यह लड़ाई भारत के लिए भी बहुत ही महत्वपूर्ण हो गई है। प्रार्थना की जानी चाहिए कि गलत अमरीकी विदेश नीति के नतीजों से भारत के राष्ट्री हितों का नुक्सान नहीं होगा।

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