बुधवार, 2 अप्रैल 2014

न्यायिक नियुक्ति आयोग

देश की उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति और उनके तबादले के मामले में दो दशक से भी अधिक पुरानी व्यवस्था फिलहाल पूर्ववत ही जारी रहेगी। न्यायाधीशों के चयन और उनकी नियुक्ति की मौजूदा व्यवस्था में बदलाव के लिये पिछले दो दशक से प्रयास किये जा रहे हैं लेकिन अपरिहार्य कारणों से इसे मूर्तरूप नहीं दिया जा सका है। वर्तमान व्यवस्था के अंतर्गत उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के चयन का काम न्यायाधीशों की समिति करती है और इसमें सरकार की भूमिका नगण्य है। सरकार महसूस करती है कि इस प्रक्रिया में उसकी भूमिका भी होनी चाहिए।

      न्यायाधीशों की नियुक्ति की वर्तमान प्रक्रिया में बदलाव लाने और इसे अधिक पारदर्शी बनाने की लंबे समय से उठ रही मांग के मद्देनजर प्रस्तावित न्यायिक नियुक्ति आयोग को संवैधानिक दर्जा देने का प्रयास किया जा रहा था।

      चूंकि इस प्रक्रिया को अंतिम रूप नहीं मिल सका, इसलिए लोकसभा चुनाव के बाद गठित होने वाली नई सरकार को इस पर फिर से गौर करने का अवसर मिलेगा। नई सरकार चाहे तो मौजूदा प्रारूप को ही संसद से पारित करा सकती है लेकिन यदि वह इसमें कुछ और बदलाव करना चाहे तो फिर न्यायाधीशों की नियुक्ति की वर्तमान व्यवस्था के बदलाव में लंबा समय लग सकता है।

      यह संयोग ही है कि इससे पहले 1990 और फिर 2003 में भी न्यायाधीशों की नियुक्ति की वर्तमान व्यवस्था में संविधान संशोधन के जरिए बदलाव के प्रयास किये गए थे, लेकिन दोनों ही अवसरों पर लोकसभा भंग हो जाने के कारण यह प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ सकी थी। एक बार फिर ऐसा ही कुछ हुआ और न्यायाधीशों की नियुक्ति की मौजूदा व्यवस्था में बदलाव का प्रयास परवान नहीं चढ़ सका।

      प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार इस व्यवस्था में बदलाव करके न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाना चाहती थी। इस दिशा में सरकार ने काफी काम भी किया था। विधि एवं न्याय मंत्री कपिल सिब्बल ने 29 अगस्त, 2013 को राज्य सभा में 120वां संविधान संशोधन विधेयक और न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक, 2013 पेश किया था। सदन ने इस विधेयक को संसद की स्थाई समिति के पास भेज दिया था। संसद की स्थाई समिति ने 09 दिसंबर, 2013 को इस विधेयक पर अपनी रिपोर्ट संसद में पेश की थी।

      संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में न्यायिक नियुक्ति आयोग को संवैधानिक संरक्षण देने की सिफारिश की थी। इस सिफारिश के मद्देनजर ही केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने दिसंबर 2013 की बैठक में उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति और तबादले के लिये प्रस्तावित न्यायिक नियुक्ति आयोग को संवैधानिक संरक्षण प्रदान करने के  लिए संविधान के अनुच्छेद 124 मे दो नये उपबंध अनुच्छेद 124- और अनुच्छेद 124-- जोड़ने का भी निर्णय किया था।

      सरकार संसद के विस्तारित शीतकालीन सत्र में इस संविधान संशोधन को पारित कराना चाहती थी लेकिन दूसरे मुद्दों के कारण इस विषय को संसद से मंजूरी नहीं मिल सकी।  यदि यह विधेयक पारित हो जाता तो इसे राष्ट्रपति की संस्तुति मिलने के बाद उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति की जिम्मेदारी न्यायिक नियुक्ति आयोग को सौंपी जा सकती थी।  

प्रस्तावित न्यायिक नियुक्त आयोग का अध्यक्ष देश के प्रधान न्यायाधीश को बनाने का प्रस्ताव था। छह सदस्यीय आयोग में उच्चतम न्यायालय के दो वरिष्ठ न्यायाधीशों के साथ ही कानून मंत्रि, विधि सचिव और दो बुद्धिजीवी को इसका सदस्य बनाने का प्रस्ताव था। इन बुद्धिजीवियों के नामों का चयन प्रधान मंत्री, प्रधान न्यायाधीश और संसद में प्रतिपक्ष के नेता को करने की व्यवस्था की गयी थी। न्याय विभाग के सचिव को इसका संयोजक बनाने का प्रस्ताव था।
इस आयेाग को न्यायाधीशों की नियुक्ति, तबादले और इस पद के दावेदारों की गुणवत्ता से संबंधित कामकाज की जिम्मेदारी सौंपी जानी थी। आयोग को देश के प्रधान न्यायाधीश, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों तथा न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये सिफारिश करने के साथ ही एक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों की किसी दूसरे उच्च न्यायालय में तबादले की सिफारिश करने का अधिकार प्रदान किया जा रहा था।

उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति संबंधी प्रक्रिया में राज्यपाल, मुख्यमंत्री और संबंधित राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की लिखित में राय प्राप्त करना भी आयोग के काम में शामिल है। यह सारी कार्यवाही आयोग द्वारा कामकाज के लिये बनाये गये नियमों के अनुसार ही की जाती।

उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के पद रिक्त होने की स्थिति में इस बारे में केन्द्र सरकार को आयोग के पास सूचना भेजनी पड़ती। न्यायालयों में वर्तमान रिक्त स्थानों के बारे में यह कानून बनने की तारीख से तीन महीने के भीतर सूचना देने की व्यवस्था की जा रही थी। इसी तरह, यदि किसी न्यायाधीश का कार्यकाल पूरा हो रहा हो तो ऐसी स्थिति में यह पद रिक्त होने की तारीख से दो महीने पहले ही आयोग को सूचित करने का भी इसमें प्रावधान था।  किसी न्यायाधीश के निधन होने के कारण रिक्त हुए पद के बारे में भी दो महीने के भीतर ही आयोग को सूचित करने का प्रावधान किया गया है।

न्यायिक नियुक्ति आयोग में प्रावधान है कि इसके न्यायाधीशों के चयन की प्रक्रिया आयोग के संयोजक उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों, केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों से पात्र उम्मीदवारों के बारे में सिफारिशें आमंत्रित करके शुरू करेंगे।

इस समय उच्चतम न्यायालय में प्रधान न्यायाधीश सहित न्यायाधीशों के 31 और 24 उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 906 स्वीकृत पद हैं। एक अनुमान के अनुसार इस समय विभिन्न उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के करीब 275 पद रिक्त हैं। उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के रिक्त पदों का सीधा प्रभाव लंबित मुकदमों के निबटाने की प्रक्रिया को प्रभावित करता है।

न्ययाधीशों की नियुक्ति की वर्तमान व्यवस्था को लेकर उठ रहे सवालों के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश डा आर लक्ष्मणन की अध्यक्षता वाले 18वें विधि आयोग ने 2008 में अपनी 214वीं रिपोर्ट में भारत में 1993 से प्रभावी न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया में बदलाव पर विचार का सुझाव दिया था।

आयोग की राय थी कि संविधान के अनुच्छेद 124 (2) और 217 (1) न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में कार्यपालिका और न्यायपालिका की भूमिका में बहुत खूबसूरती से संतुलन कायम किया गया था। लेकिन 1993 के उच्चतम न्यायालय के निर्णय और राष्ट्रपति को इस मसले पर दी गयी सलाह ने इसमें असंतुलन पैदा कर दिया। विधि आयोग का सुझाव था कि इस मामले में कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच मूल संतुलन बनाने के लिए इसकी नये सिरे से समीक्षा की जाए।

मद्रास उच्च न्यायालय के 150वीं जयंती समारोह में सितंबर, 2012 में राष्ट्रपति ने भी न्यायाधीशों की भूमिका के बारे में निर्णय को बेहद संवदेनशील विषय बताते हुये न्यायपालिका की स्वतंत्रता और इसकी विश्वसनीयता बनाये रखने पर भी जोर दिया था। राष्ट्रपति का विचार था कि न्यायपालिका की विश्वसनीयता उन न्यायाधीशों के स्तर पर निर्भर करती है जो देश की तमाम अदालतों को संचालित करते हैं। इसलिए न्यायाधीशों के चयन और उनकी नियुक्ति की प्रक्रिया सिर्फ उच्च मानदंडों के अनुरूप होनी चाहिए बल्कि यह प्रतिपादित सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए।


मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

खौफनाक निर्लिप्तता

पिछले दिनों मिस्र की एक अदालत द्वारा 500 से अधिक लोगों को एकसाथ फांसी देने की सजा सुनाए जाने के फैसले को पढ़ते ही हिटलर और उसकी नाजी सेना के साथ ही साथ यातना शिविरों में कैद अनगिनत यहूदियों पर किए गए अत्याचारों से इसकी तुलना करना  अकारण नहीं है। मुकदमे की दूसरी किश्त में भी करीब 700 और लोगों को यही सजा सुनाए जाने की संभावना है। इसी मिस्र में पिछले ही वर्ष दो हजार से यादा प्रदर्शनकारियों को पुलिस सेना ने विभिन्न प्रदर्शनों के दौरान अपनी बंदूकों से मौत के घाट उतार दिया था। गौरतलब है कि यह सबकुछ उन मोहम्मद मुर्सी और उनके समर्थकों के खिलाफ  चल रहा है जिन्होंने हुस्नी मुबारक की तानाशाही के खिलाफ  संघर्ष किया था। कट्टरपंथी होने के बावजूद वे एक चुने हुए नेता थे। उन्हें अपदस्थ कर पुन: सेना सत्तारूढ़ हुई और पहले से भी अधिक नृशंसता के साथ उसने बदले की कार्यवाही की।
मिस्र एक ओर अपने नए संविधान में तमाम प्रगतिशील प्रावधान जैसे धार्मिक स्वतंत्रता महिलाओं को बराबरी का स्थान प्रदान कर रहा है। वहीं दूसरी ओर न्यायालय के माध्यम से मृत्युदंड जैसे अमानवीय प्रावधानों से डर का वातावरण बनाए रखना चाहता है। गांधीजी कहते थे - आप क्या मानते हैं? तोप दागकर सैकड़ों को मार डालने की हिम्मत की जरूरत है या हंसते हुए, तोप के मुंह के सामने जाकर खड़े हो जाने में? जो अपनी मौत को सिर पर लिए घूमता है वह रणधीर है या जो दूसरों की मौत अपनी मुट्ठी में रखता है।  हमारी त्रासदी यह है कि आज हम दूसरे श्रेणी के व्यक्ति को अपना नायक मानने को अभिशप्त हैं। मिस्र की विडंबना भी यही है कि कट्टरपंथियों के खिलाफ  आए इस फैसले का नरमपंथियों या समन्वयवादियों ने कोई विरोध नहीं किया। यानि वैचारिक धरातल पर उनमें भी एक किस्म की कट्टरता है और वे भी अपने विरोधियों के इस तरह से नष्ट होने पर सहमत हैं। निष्कर्ष यही है कि दोनों मूलत: एक ही प्रवृत्ति के संवाहक हैं। ठीक इसके विपरीत गांधीजी चौराचौरी में पुलिस वालों की हत्या से दुखी होकर अपना असहयोग आंदोलन वापस ले लेते हैं। गुलाम भारत में चौराचौरी कांड के आरोपियों पर चले मुकदमे का निर्णय भी असाधारण था। शायद इसी निर्णय ने भारत में शांतिपूर्ण आंदोलनों को नई राह भी दी।
लेकिन मिस्र के लोकतांत्रिक सेनानियों को वैश्विक स्वतंत्रता संघर्षों से सीख लेने की आवश्यकता ही महसूस नहीं होती। वैसे यह बात दुनियाभर के राजनीतिज्ञों और संघर्षशील समुदाय पर (अपवाद छोड़कर) लागू होती है। डॉ. राममनोहर लोहिया ने लिखा है- एक सन्यासी अब भी मनन कर सकता है। लेकिन मेधावी एवं साधारण व्यक्ति के पास तो मनन के लिए समय है, उसके प्रति रुचि। वर्तमान सभ्यता में मनुष्य अब ऐसी स्थिति में पहुंच गया है जब वह तो महान हो सकता है ही आराम पा सकता है। लगता है मस्तिष्क अपनी यात्रा के अंत पर पहुंच गया है। यह भी एक स्थायी परंतु निष्फ बेचैनी की स्थिति है।  सारी दुनिया इसी मारकाट को अपने अस्तित्व बनाए रखने का औजार बना रही है। रूस के राष्ट्रपति पुतिन द्वारा क्रीमिया को हथियाए जाने का विरोध अमेरिका, फ्र ांस ब्रिटेन कर रहे हैं जो कि इरान, इराक अफगानिस्तान पर हमले और कब्जे के साझा सहयोगी रहे हैं। चीन अपनी भविष्य की रणनीति जिसमें दक्षिणी प्रशांत महासागर पर अपना कब्जा करना शामिल है, के लिए रूस की इस कार्यवाही को गौर से देख रहा है। छोटे और मझौले देशों में बढ़ती अव्यवस्था बड़े और धनी देशों को अत्यंत मुफ ीद बैठती है। इसी वजह से वे उनके डे टू डे अफेयर्स (रोजमर्रा के क्रियाकलापों) में हस्तक्षेप नहीं करते। लेकिन दूसरी तरफ इन देशों की सैन्य सहायता में लगातार वृध्दि करते रहते हैं। इस संदर्भ में अमेरिका द्वारा मिस्र और पाकिस्तान को दी जा रही सैन्य सहायता में हो रही लगातार वृध्दि और इराक के बाद अफगानिस्तान से अपनी ौजों की वापसी को देखा जाना चाहिए। अफ गानिस्तान से अमेरिका सेना की वापसी के बाद अंतोत्गत्वा पाकिस्तान ही तो उसके हितों की रक्षा करेगा। यहां एक बार पुन: डॉ. लोहिया की बात पर गौर करना चाहिए, अपनी सभ्यता के विशेषाधिकारों की सुरक्षा के लिए अणुबम और हाइड्रोजन बम बनाना, उन अधिकारों को कुचले राष्ट्रों को बांटने से अधिक आसान है। इन बातों के भयावह आतंक को इतिहास की पृष्ठभूमि में देखना होगा। वे आधुनिक सभ्यता के पंजे और विषैले दांत और दु:सह बोध है। इनके होने से, इनका स्वामी बदल कर एक प्रकार से डिनोसोर (डायनासोर) हो जाता है, जो अपने ही बोझ से दबकर मर गया था।
विश्वभर में बढ़ती हिंसा से साफ  जाहिर हो रहा है कि मानव ने मनन करना बंद कर दिया है। दिन-प्रतिदिन बढ़ती हिंसा परिवार से प्रारंभ होकर धीरे-धीरे समूचे विश्व को अपने में समेट लेती है। मिस्र के न्यायालय से आया सामूहिक मृत्युदंड का निर्णय साफ  दर्शा रहा है कि हम अपनी बनाई व्यवस्थाओं के गुलाम होते जा रहे हैं। बढ़ते राष्ट्रवाद के चलते किसी अन्य देश में हुए मानवाधिकार उल्लंघन की खिलाफ अब उस राष्ट्र के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप मानी जाती है। भारत के संदर्भ में चीन और तिब्बत के संबंधों का विश्लेषण करने से स्थितियां  और भी स्पष्ट हो जाती हैं। जिस नैतिक दबाव की परिकल्पना लिए भारत ने आजादी के बाद का अपना सफ शुरू किया था। वह भारत भी अब पहचान में नहीं आता। अपने राजनीतिक विरोधियों को सरेआम दूसरे राष्ट्रों का एजेंट कहना अब हमें शर्मसार नहीं करता। हर अपराध पर फसी से कम की सजा आज हमें स्वीकार्य नहीं है। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि हमारा विश्वास हो चला है कि दुनिया और व्यक्ति दोनों में किसी भी प्रकार का सकारात्मक परिवर्तन संभव नहीं है। यह अत्यंत खतरनाक दुखदायी प्रवृत्ति है।

हम चीन की तारीफ  करते हुए थियानमान चौक की अनदेखी करते हैं और अमेरिका को सराहने में हम इराक, ईरान, अफ गानिस्तान, पाकिस्तान मिस्र में उसकी गतिविधियों को नजरअंदाज करते हैं। नैतिकता के इस पतन ने दुनिया को एक ऐसे दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां मिस्र जैसे देश अपने हजारों नि:हत्थे नागरिकों को गोली से उड़ा सकते हैं और कानून की आड़ में सैकड़ों लोगों को ांसी पर चढ़ा सकते हैं। वहीं संयुक्त राष्ट्र संघ भी सिर्फ  चेतावनी जारी करने का माध्यम बन कर रह गया है। वीटो पावर की वजह से यह वैश्विक संस्था भी अर्थहीन होती जा रही है। क्या हम अब भी मौन बने रहेंगे?

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