बुधवार, 29 मई 2013

भारतीय प्रतिस्‍पर्धा आयोग

मुक्त एवं निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा किसी भी सक्षम बाजार अर्थव्यवस्था  के स्तंभों में से एक है। वैश्विक अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्धा एक संचालक शक्ति बन गई है। मई 19, 2009 से भारत में  व्यापार करने के प्रतिमान बदल गए। इस दिन भारत के प्रतिस्पंर्धा आयोग द्वारा प्रतिस्पर्धा अधिनियम लागू किया गया। करीब चार वर्षों के संक्षिप्ति अस्तित्वं के दौरान सीसीआई ने उल्लेखनीय कार्य किए हैं। अस्तित्व अवधि कम होने के बावजूद प्रतिस्पर्धा कानून अत्यंत महत्‍वपूर्ण है क्योंए कि यह आर्थिक विकास और आर्थिक कल्याण के बढ़ते स्तरों के लिए एक ब्लॉक का निर्माण करता है।

भारत में प्रतिस्पर्धा कानून का क्रमि‍क विकास

भारत विकासशील देशों में प्रथम है, जिसने 1969 में एकाधिकार एवं प्रतिबंधित व्यापार पद्धतियां (एमआरटीपी) अधिनियम के रूप में प्रतिस्पर्धा कानून बनाया। एमआरटीपी अधिनियम आर्थिक शक्ति के संकेंद्रण को रोकने,प्रतिबंधात्मेक या अनुचित व्या पार पद्धतियों पर रोक लगाने और एकाधिकारों पर नियंत्रण करने के लिए तैयार किया गया था। इसके बाद वर्ष 1991 भारत के आर्थिक विकास में मील का पत्थक सिद्ध हुआ। नए भारत को नए नियमों की आवश्य1कता थी। अत: नए प्रतिस्पकर्धा कानून की आवश्यतकता पड़ी। तदनुरूप 2002 में प्रतिस्प र्धा अधिनियम पारित किया गया और 2007 में संशोधित किया गया। भारतीय प्रतिस्पर्धा  आयोग (सीसीआई) की स्थापना एक स्वायत्त निकाय के रूप में 1 मार्च, 2009 को की गई, जिसमें एक अध्यक्ष और छह सदस्य शामिल हैं। उच्चततम न्याकयाल में अपील के लंबित रहते मई, 2009 में एक अपील निकाय के रूप में प्रतिस्पंर्धा अपील न्यायाधिकरण भी स्थापित किया गया। तत्पश्चात एमआरटीपी अधिनियम निरस्त् कर दिया गया। उस अधिनियम के अंतर्गत स्थासपित एमआरटीपी आयोग को समाप्त् कर दिया गया और बकाया मामले सीसीआई को हस्तांतरित कर दिए गए। विलय और अधिग्रहण संबंधी धाराएं 5 और 6 जून, 2011 में अधिसूचित की गईं।

पिछले 4 वर्षों के दौरान गतिविधियां

मई, 2009 में प्रतिस्पर्धा विरोधी समझौतों और प्रभुत्व के दुरुपयोग से संबंधित धाराएं 3 और 4 के प्रावधानों की अधिसूचना जारी होने के बाद से सीसीआई के विचारार्थ 350 से अधिक मामले सामने आए जिनमें से 260 से अधिक मामलों में अंतिम आदेश पारित किए जा चुके हैं। प्रवर्तन के रूपों में प्रतिस्पर्धा विरोधी व्यापक मुद्दे शामिल हैं, जैसे उत्पादक संघ, बोली बढ़ोतरी, प्रभुत्व् का दुरुपयोग, बाजार पर्यन्त मुद्दे आदि।
प्रतिस्प‍र्धा अधिनियम की धाराओं 5 और 6 के अंतर्गत 120 से अधिक नोटिस प्राप्त  किए गए हैं और उनके निपटान की दर 95 प्रतिशत से अधिक रही है। सभी नोटिसों का निपटारा स्वनिर्धारित 30 दिन की समय-सीमा के भीतर किया गया जबकि कानून में नोटिसों के निपटान के लिए 210 दिन तक की अवधि की अनुमति है।

सीसीआई के विभिन्न  आदेशों के अंतर्गत कवर किए जाने वाले प्रमुख क्षेत्र

इस अधिनियम के अंतर्गत किए जाने वाले विविध क्षेत्रों में बुनियादी ढांचा, वित्त, मनोरंजन, आईटी, दूर संचार,नागर विमानन, ऊर्जा, बीमा, यात्रा, ऑटमोबील मैन्युफैक्च्रिंग, भू संपत्ति और फार्मास्युोटिकल्स, आदि शामिल हैं।

देश के आर्थिक विकास के लिए निर्माण उद्योग में सीमेंट एक महत्वपूर्ण निवेश है। सीसीआई ने 11 सीमेंट विनिर्माताओं और उनके व्यादपार संगठन पर करीब 6700 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया क्योंकि वे एक उत्पादक संघ की तरह व्यावहार कर रहे थे।

सीमेंट विनिर्माताओं और उनके व्यापार संगठन ने बाद में कोम्पैट में अपील करने का फैसला किया। कोम्पैट ने मामले की सुनवाई जारी रहते सीमेंट कंपनियों को सीसीआई द्वारा लगाए गए जुर्माने की 10 प्रतिशत राशि जमा कराने का आदेश दिया। देश में प्रतिस्पर्धा कानून के प्रवर्तन की प्रक्रिया में यह एक महत्वपूर्ण घटना है।

इससे पहले, उपभोक्ताओं पर व्यापक प्रभाव डालने वाले एक अन्य मामले में आयोग ने भू संपत्ति व्यापार की एक बड़ी कम्पनी डीएलएफ पर करीब 630 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया था। यह पाया गया था कि डीएलएफ ने अपने प्रभुत्व का दुरुपयोग करते हुए अपार्टमेंट मालिकों पर मनमानी और अनुचित शर्तें लागू की थीं। बाद में सीसीआई ने एक आदेश जारी करते हुए कंपनियों द्वारा निवेशकों के साथ हस्ताक्षरित समझौते की कार्य शर्तों में संशोधन किया था ताकि विक्रेता और क्रेता के बीच उचित एवं पारदर्शी कार्य शर्तें सुनिश्चित की जा सकें। यह आदेश भू संपत्ति क्षेत्र में उपभोक्ताओं के हितों की द्रष्टि से परिवर्तन का अग्रदूत सिद्ध हुआ।

 स्वत: संज्ञान कार्य

सीसीआई प्राप्त सूचनाओं के आधार पर मामलों की सुनवाई और जांच के साथ साथ स्व्त: संज्ञान लेते हुए भी कार्रवाई करता है। आयोग जहां कहीं सरसरी तौर पर प्रतिस्पर्धा अधिनियम का उल्लं घन महसूस करता है, वहां स्वयं संज्ञान लेते हुए कारवाई करता है।
2011 में इंडियन ऑयल कारपोरेशन को सिलेंडरों की आपूर्ति के लिए एलपीजी सिलेंडर विनिर्माताओं द्वारा बोलियों में कथित धांधली का स्वत: संज्ञान लि‍या। आयोग ने बोली में धांधली करने वाली पार्टियों पर 187 करोड़ रुपये से अधिक जुर्माना लगाया।
सीसीआई द्वारा पेट्रोलियम क्षेत्र, कृषि क्षेत्र आदि में भी स्वंत: संज्ञान लेते हुए कई और ऐसे नोटिस भेजे गए हैं।

व्यापार संगठनों की भूमिका

आयोग के प्रवर्तन संबंधी कार्य क्षेत्र में व्यापार संगठनों की भूमिका पर आधारित मामले भी अत्यंत महत्वयपूर्ण हैं। प्रतिस्पर्धा विरोधी समझौतों के मामलों को निपटाने में सीसीआई के अनुभव से पता चलता है कि व्या‍पार संगठन भी,अनजाने में या जान बूझ कर भूल चूक के ऐसे कार्यों में शामिल होते हैं, जो विभिन्न आर्थिक कानूनों के दायरे में आते हैं।

प्रतिस्प‍र्धा कानून व्या‍पार संघों की गतिविधियों को प्रतियोगियों के बीच किसी अन्य प्रकार के सहयोग की तरह समझता है। प्रतिस्परर्धात्म‍क कानून की दृष्टि में व्यापार संघों के प्रस्तावों, निर्णयों या अनुशंसाओं को उसके सदस्यों के साथ समझौतों के रूप में देखा जाता है, और सदस्यों पर बाध्यंकारी न होने की स्थिति में भी कानून भंग हो सकता है।

व्या‍पार संघ के कार्यों के बारे में सीसीआई द्वारा पहली जांच फिल्म निर्माताओं के बारे में की गई थी। सीसीआई ने 27 फिल्म  निर्माताओं पर, सांठगांठ के आरोपों की जांच करते हुए एक एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया। उन पर आरोप था कि वे संगठन के जरिए मल्टीप्लेक्स मालिकों का शोषण कर रहे हैं।

फार्मास्युटिकल क्षेत्र/फिल्मम निर्माण आदि में संगठनों से संबंधित अनेक मामलों में सीसीआई ने संगठनों के खिलाफ आदेश पारित किए हैं और उनसे कहा है कि वे प्रतिस्पर्धा विरोधी गतिविधियों पर रोक लगाएं और उनसे बाज आएं

सरकारी खरीद और प्रतिस्पर्धा कानून

सीसीआई के लिए महत्वपूर्ण मुद्दों में सरकारी खरीद के आयाम भी महत्वपूर्ण रहे हैं। सरकारी खरीद एक विवादित मुद्दा रहा है, और अनेक घटकों की वजह से प्रतिस्प‍र्धा कानून के दायरे में आता है। प्रतिस्पर्धा अधिनियम सार्वजनिक और निजी उद्यम के बीच कोई भेद नहीं करता। वास्तव में बड़े पैमाने पर खरीद करने वाले सरकारी उद्यम प्रतिस्पर्धा मूल्यांकन के अधीन आते हैं।

हाल के महीनों में, आयोग ने अनेक मामलों का निपटारा किया है। इनमें सरकारी ठेकों में व्याहपार संघवाद के मामले शामिल हैं। प्रतिस्पर्धा पद्धतियों के उल्लंघन और प्रभुत्व के दुरुपयोग को हतोत्साहित करने के लिए जुर्माने लगाए गए। जांच के बाद आयोग ने जहां कहीं यह पाया कि सरकार की कुछ विशेष नीतियों में संशोधन की स्थिति में प्रतिस्पनर्धा बढ़ सकती है, वहां आयोग ने सरकार को ऐसी नीतियों में बदलाव के सुझाव दिए।

ऐसे 21 से अधिक मामलों में आदेश पारित किए गए जहां एसओई या सरकारी विभाग एक पार्टी थे। इनमें से कुछ मामलों में तेल कंपनियां, रेलवे आदि शामिल थे।

सीसीआई सरकारी खरीद एजेंसियों के साथ मुद्दों को उठाता है और उसने 50 से अधिक मंत्रालयों/विभागों के नोडल अधिकारियों के साथ अनेक बार बातचीत की है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सरकारी खरीद में अपनाई जाने वाली पद्धतियां प्रतिस्पर्धा अधिनियम  की भावना के अक्षरश: अनुपालन के अनुरूप हों।

चार वर्ष की अवधि किसी नए कानून की कार्य क्षमता के मूल्यांकन के लिए बहुत कम होती है। फिर भी,पिछले चार वर्षों की गतिविधियों को देखने से पता चलता है कि भारत का प्रतिस्पर्धा आयोग बाजार में प्रतिस्पर्धा विरोधी पद्धतियों को रोकने वाले सजग संगठन के रूप में महत्वसपूर्ण बदलाव लाने के लिए तैयार है। प्रतिस्पर्धा अधिनियम और प्रतिस्पर्धा का विकास भारत में धीरे धीरे लेकिन निश्चित रूप से अपनी सही मंजिल की ओर अग्रसर है।

PTI

रविवार, 26 मई 2013

खादी और ग्राम उदयोग आयोग द्वारा रोजगार सृजन


खादी और ग्राम उद्योग आयोग (केवीआईसी) महात्‍मा गांधी के विचारों का प्रचार है। उद्योगों का विकास साधारण चरखे में प्रतिबिंबत किया गया है। महात्‍मा गांधी की प्रेरणा के अधीन भारत की राजनीतिक स्‍वतंत्रता के राष्‍ट्रीय संघर्ष ने ग्रामीण उद्योगों के संरक्षण, सुरक्षा और प्रोत्‍साहन के लिए सहगामी संघर्ष का रूप लिया। मिलों द्वारा तैयार किए गए सस्‍ते उत्‍पादों की असमान प्रतिस्‍पर्द्धा ने ग्रामीण दस्‍तकारों और शिल्‍पकारों के रोजगार और आजीविका के लिए खतरा पैदा कर दिया।

गांधी जी ने जीवन शैली और उपभोग में सादेपन को प्राथमिकता दी। भारतीय विकास के लिए गांधीवादी रणनीति अतिरिक्‍त जनशक्ति के विशाल प्रयोग और उत्‍पादन प्रक्रियाओं में उसकी सक्रिय भागीदारी से संबद्ध थी। गांधीवादी मुहावरे में कुटीर और ग्राम उद्योग जीवन शैली के लिए समर्थन ढांचे का प्रतिनिधित्‍व करते हैं। गांधी जी ने इस विचार का जोरदार समर्थन किया था कि ग्राम उद्योग और शिल्‍प ग्रामीण जीवन का महत्‍वपूर्ण भाग हैं और आत्‍मनिर्भर ग्राम के अस्तित्‍व को सुनिश्चित करने के लिए उसका जोरदार संरक्षण किया जाना चाहिए। वास्‍तव में, यह ब्रिटिश उद्योग के अतिक्रमण के प्रति रक्षा कवच के रूप में प्रतिक्रियात्‍मक दृष्टिकोण था।

असली भारत गांवों में रहता है। भारत की ग्रामीण आबादी का एक बड़ा हिस्‍सा इसकी अर्थव्‍यवस्‍था का एक प्रमुख स्रोत है और यह कुटीर उद्योग द्वारा समर्थित है, जिसने भारत की सांस्‍कृतिक धरोहर को काफी हद तक संरक्षित रखने का काम किया है।

खादी और ग्राम उद्योग आयोग देश में रोजगार पैदा करने की प्रमुख योजनाओं            को  कार्यान्वित कर रहा है। यह क्षेत्र 11वीं पंचवर्षीय योजना अवधि के दौरान 16.07 लाख लोगों को रोजगार प्रदान कर सका है।

प्रधानमंत्री की रोजगार गारंटी कार्यक्रम योजना (पीएमईजीपी) देश में सूक्ष्‍म उद्यमों के जरिए रोजगार के अवसर पैदा करने का एक प्रमुख कारक रहा है। यह ऋण-संबद्ध सब्सिडी कार्यक्रम है, जिसमें सामान्‍य वर्ग के लाभार्थी ग्रामीण क्षेत्रों में परियोजना लागत के 25 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 15 प्रतिशत की सब्सिडी मार्जिन राशि प्राप्‍त कर सकते हैं। इसके अलावा विशेष वर्गों यथा अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्‍य पिछड़े वर्ग, अल्‍पसंख्‍यक, महिलाएं, भूतपूर्व सैनिक, शारीरिक रूप से विकलांग, पूर्वोत्‍तर क्षेत्र, पर्वतीय और सीमावर्ती क्षेत्रों से संबंध रखने वाले लाभार्थियों के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में सब्सिडी की मार्जिन राशि 35 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 25 प्रतिशत है। विनिर्माण क्षेत्र में परियोजना की सर्वाधिक राशि 25 लाख रूपये और सेवा क्षेत्र में दस लाख रूपये है।

इस योजना की बेरोजगार लोगों में और प्रमुख कार्यान्‍वयन भागीदार यथा बैंकों, विशेष रूप से पूर्वोत्‍तर राज्‍यों और जम्‍मू कश्‍मीर राज्‍य में उत्‍साहवर्धक प्रतिक्रिया रही है। वर्ष 2011-12 के दौरान पूर्वोत्‍तर क्षेत्र के लिए निर्धारित मार्जिन राशि 80 करोड़ रूपये रखी गई थी लेकिन 31 मार्च 2012 तक वास्‍तविक वितरण एक सौ एक करोड़ रूपये यानी लक्ष्‍य का 126 प्रतिशत के आंकड़े तक पहुंच गया है।

समूह विकास के लिए परम्‍परागत उद्योगों को पुनर्जीवित करने के लिए धन उपलब्‍ध कराने की योजना ने भी परम्‍परागत उद्योगों को पुनर्जीवित करने और दस्‍तकारों की मजदूरी बढ़ाने में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस योजना के अधीन पूर्वोत्‍तर क्षेत्र में दो खादी, 11 ग्राम उद्योग और दो कॉयर समूहों को चालू किया गया है। इसके लिए उन्‍हें संवर्धित उपकरण, सामान्‍य सुविधा केंद्र, कारोबार विकास सेवाएं, प्रशिक्षण, क्षमता निर्माण और डिजाइन तथा विपणन सुविधाएं प्रदान की गई हैं।

केवीआईसी की नई योजनाएं

केवीआईसी को केवीआई उत्‍पादों के निर्यात को बढ़ावा देने के लिए वाणिज्‍य मंत्रालय द्वारा निर्यात प्रोत्‍साहन परिषदका मानद दर्जा प्रदान किया गया है। यह केवीआई क्षेत्र के लिए निर्यात के अवसर पैदा करने का एक बड़ा प्रयास सिद्ध होगा।

केवीआईसी ने डिजाइन और फैशन प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में व्‍यावसायिक विशेषज्ञता का लाभ उठाने के लिए मुंबई स्थित निफ्ट के साथ संपर्क स्‍थापित किए हैं और एक समझौता ज्ञापन पर हस्‍ताक्षर किए गए हैं। निफ्ट, केवीआईसी की डिजाइन सैल गठित करने में सहायता करेगा जिसे बाजार में बिक्री के वास्‍ते वस्‍त्र तैयार करने के लिए खादी संस्‍थाओं द्वारा प्रयोग में लाया जाएगा।

निर्यात को बढ़ावा देने के लिए केवीआईसी भारतीय विदेश व्‍यापार संस्‍था के साथ समझौता ज्ञापन के तौर-तरीकों पर काम कर रहा है, जो केवीआई संस्‍थाओं और इकाईयों की निर्यात के क्षेत्र में क्षमता निर्माण में व्‍यावसायिक विशेषज्ञता लाएगा और खादी एवं ग्राम उद्योग क्षेत्र के लिए निर्यात के बाजार भी तैयार करेगा।

केवीआईसी द्वारा इस क्षेत्र में उत्‍पादित खादी और ग्राम उद्योग की वस्‍तुओं की बिक्री को बढ़ावा देने के लिए बंगलुरू, गुवाहाटी और नगालैंड में कई खादी प्‍लाजा बनाये जा रहे हैं।

क्षेत्र/राज्‍य से बाहर प्रदर्शनी में भाग लेने के लिए पूर्वोत्‍तर क्षेत्र, जम्‍मू कश्‍मीर, अंडमान निकोबार बोर्ड की इकाईयों और खादी एवं ग्राम उद्योग संस्‍थाओं के दस्‍तकारों और बुनकरों आदि की यात्रा, ठहरने और भोजन के लिए अनुदान सहायता देने के विशेष पैकेज शुरू किए गए हैं। यह इन क्षेत्रों की संस्‍थाओं और इकाईयों को प्रमुख प्रदर्शिनयों में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए प्रोत्‍साहित करेंगे। इससे वे अपने उत्‍पादों की बिक्री बढ़ा सकेंगे और उनमें व्‍यावहारिकता भी ला सकेंगे।

प्रारंभ

वर्ष 2012-13 के दौरान ब्रैंड प्रोत्‍साहन, उत्‍पाद विकास, विभागीय बिक्री केंद्रों की सुव्‍यवस्‍था, सरकारी आपूर्तियों और निर्यात के क्षेत्रों पर विशेष ध्‍यान दिया जाएगा। यह व्‍यावसायिक एजेंसियों जैसे आईआईएफटी, सीआईआई, निफ्ट आदि के सहयोग से प्राप्‍त किया जाएगा। इसके अलावा देश और विदेश में प्रदर्शनियों, क्रय-विक्रय मेलों, कार्यशालाओं, गोष्ठियों और प्रशिक्षण कार्यक्रम आदि का भी आयोजन किया जाएगा।

·         अंतर्राष्‍ट्रीय प्रदर्शनियों और क्रय-विक्रय मेलों में भागीदारी के जरिए निर्यात बाजार को बढ़ावा देना। केवीआई उत्‍पादों के निर्यात को बढ़ावा देने के लिए केवीआई संस्‍थाओं और प्रधानमंत्री रोजगार गारंटी कार्यक्रमों के जरिए निर्यात बाजार को प्रोत्‍साहित करना।

·         निर्यातोन्‍मुख केवीआई संस्‍थाओं और आरईजीपी/पीएमईजीपी इकाईयों के निर्यात संघों को बढ़ावा देना।
·         यह निर्यात को बढ़ावा देने और निर्यात योग्‍य इकाईयों की सहायता में प्रमुख भूमिका निभा सकते हैं।

·         एशियाई विकास बैंक की सहायता से बाजारों को बड़े पैमाने पर बढ़ावा दिया जा रहा है। इसमें केवीआईसी के साथ भागीदार के रूप में निजी क्षेत्र की संस्‍थाओं का चयन किया जाएगा, जो पूरे देश में बड़े पैमाने पर कारोबार करेंगे।

केवीआईसी के कार्य निष्‍पादन का विहंगम दृष्टिपात

ब्‍यौरा
2010-11
2011-12
उत्‍पादन (करोड़ रूपये में)
रूपये  19,871.86
21,852.00
बिक्री (करोड़ रूपये में)
रूपये  25,792.99
26,797.13
रोजगार
(लाखों में )
113.80
119.10

शनिवार, 25 मई 2013

आम बजट की शब्दावली


सरकार हर साल के लिए जो बजट बनाती है, वह हमारे मंथली बजट से किसी भी तरह अलग नहीं होता। लेकिन फाइनैंस मिनिस्टर बजट भाषण में जिन शब्दों का इस्तेमाल करते हैं और जिन मदों के बारे में बताते हैं, वे काफी भारी-भरकम होते हैं।हमने कुछ अहम कॉन्सेप्ट और जटिल शब्दों को सरल बनाने की कोशिश की है

सकल घरेलू उत्पाद 

देश की अर्थव्यवस्था के सभी उत्पादक सेक्टरों के उत्पादन का मूल्य

राजकोषीय घाटा

आय और खर्च के अंतर को पाटने के लिए हर साल सरकार की ओर से लिया जाने वाला अतिरिक्त कर्ज। देखा जाए तो राजकोषीय घाटा घरेलू कर्ज पर बढऩे वाला अतिरिक्त बोझ ही है।

सब्सिडी

आर्थिक असमानता दूर करने के लिए सरकार की ओर से आम लोगों को दिया जाने  वाला आर्थिक लाभ। यह नकद भी हो सकता है। कंपनियों को सब्सिडी टैक्स छूट के तौर पर दी जाती है ताकि औद्योगिक गतिविधियां बढ़ें और रोजगार पैदा हो।

पूंजीगत और राजस्व खर्च 

सब्सिडी और कर्ज पर ब्याज का भुगतान जैसे परिसंपत्ति का निर्माण न करने वाले खर्च राजस्व खर्च कहलाते हैं। जबकि राजमार्गों और डैम के निर्माण या राज्यों को केंद्र की ओर से दिया जाने वाला कर्ज पूंजीगत खर्च कहलाता है।

आयोजना और गैर आयोजना व्यय 

आयोजना खर्च में एक वार्षिक फंड शामिल होता है, जो योजना आयोग की ओर से पांच साल के दौरान विकास योजना पर होने वाले खर्च को देखते हुए आवंटित किया जाता है। जबकि गैर आयोजना व्यय में रक्षा, सब्सिडी, ब्याज भुगतान, पेंशन और योजनागत परियोजनाओं को किए जाने वाले सारे खर्च शामिल होते हैं।

कर राजस्व

सरकार अपने खर्च चलाने के लिए लोगों और कंपनियों पर सीधे टैक्स लगाती है। वह लोगों की ओर से इस्तेमाल वस्तुओं और सेवाओं पर भी टैक्स लगाती है। यह सरकार की आय का प्राथमिक और प्रमुख स्रोंत है।

गैर कर राजस्व 

प्रत्यक्ष (डायरेक्ट टैक्स) और अप्रत्यक्ष कर (इनडायरेक्ट टैक्स) के अलावा सरकार के राजस्व का  स्रों। इसमें सरकार को हासिल होने वाला ब्याज, स्पेक्ट्रम नीलामी से हासिल पैसा और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में सरकारी हिस्सेदारी से हासिल रकम शामिल है।

कर्ज अदायगी

जिस तरह कोई उपभोक्ता अपने कर्ज को मूलधन और ब्याज के तौर पर एक निश्चित अंतराल में चुकाता है उसी तरह सरकार भी अपने बाहरी कर्ज को कई तरह की एजेंसियों और आतंरिक कर्ज लेकर जुटाती है। अमूमन बांड बेच कर जुटाए गए पैसे का इसमें इस्तेमाल होता है।

सरकारी राजस्व और व्यय (गवर्नमेंट रेवेन्यू और स्पेंडिंग)

सरकारी बजट में कुल मिलाकर कमाई और खर्च का हिसाब-किताब होता है। इनको दो हिस्सों - रेवेन्यू (राजस्व) और कैपिटल (पूंजी) में बांटा जाता है। खर्च को भी दो हिस्सों प्लान (योजना) और नॉन-प्लान (गैरयोजना) में बांटा जाता है।

रेवेन्यूग्रॉस टैक्स रेवेन्यू (सकल राजस्व):

सरकार को टैक्स से होने वाली कमाई से राज्यों को फाइनैंस कमिशन के बताए हिसाब से उनका हिस्सा देना होता है। बाकी रकम केंद्र सरकार के पास रह जाती है।

नॉन टैक्स रेवेन्यू (गैर कर आय):

इस मद में जो अहम आमदनी आती है, वह है सरकार की तरफ से दिए गए लोन पर मिलने वाला ब्याज और पब्लिक सेक्टर यूनिट में हिस्सेदारी पर उनसे मिलने वाला डिविडेंड और लाभ। सरकार को अलग-अलग सेवाओं से भी आमदनी होती है, जिनमें उसकी तरफ से मुहैया कराई जाने वाली पब्लिक सर्विसेज भी शामिल हैं। इसमें से सिर्फ रेलवे अलग डिपार्टमेंट है लेकिन इसकी समूची आमदनी और खर्च कंसॉलिडेटेड फंड ऑफ इंडिया में जमा होता है और निकलता है।

कैपिटल रिसीट्स (पूंजी प्राप्तियां):

इनमें लोन और अडवांसेज की रिकवरी (प्राप्ति) शामिल है।

मिसलेनियस कैपिटल रिसीट्सः

इसमें मुख्य रूप से पीएसयू डिसइन्वेस्टमेंट से मिलने वाली आय शामिल होती है।

सकल बजट समर्थनः पंचवर्षीय योजना को पांच सालाना

योजना में बांटा गया है। प्लान फंडिंग को सरकारी सपोर्ट (बजट से) और सरकारी कंपनियों के इंटरनल और एक्सट्रा बजटरी रिसोर्सेज में बांटा गया है। प्लान के सरकारी सपोर्ट, जिसमें राज्यों का प्लान शामिल होता है, को ग्रॉस बजटरी सपोर्ट कहा जाता है।

एक्सपेंडिचर (व्यय):

सरकारी खर्च के बारे में जानने से पहले हमारे लिए प्लान और नॉन प्लान स्पेंडिंग और सेंट्रल प्लान के बारे में जानना जरूरी होगा।

प्लान एक्सपेंडिचर (योजना व्यय):

यह मुख्य रूप से सालाना योजना को मिलने वाला बजट समर्थन होता है। इसमें मुख्य रूप से विकास (हेल्थ, एजुकेशन, इंफ्रा और सोशल) पर होने वाला खर्च शामिल होता है। सभी बजट मदों की तरह ही इसको भी राजस्व और पूंजी घटक में बांटा जाता है।

पब्लिक डेट (लोक ऋण):

सरकार जो कर्ज लेती है, उसका बोझ आखिरकार देश की जनता को उठाना पड़ता है इसलिए इसे पब्लिक डेट कहा जाता है। इसे दो मदों में बांटा जाता है इंटरनल डेट (देश में जुटाया गया कर्ज) और एक्सटर्नल डेट (गैरभारतीय स्रोतों से जुटाया गया कर्ज)।

नॉन प्लान एक्सपेंडिचर (गैर-योजना):

इसमें उपभोग वाले व्यय, खासतौर पर रेवेन्यू एक्सपेंडिचर आते हैं। इसमें इंटरेस्ट भुगतान, सब्सिडी, सैलरी, डिफेंस और पेंशन शामिल होता है। इसका कैपिटल घटक बहुत छोटा होता है,जिसका बड़ा हिस्सा रक्षा को जाता है। आमदनी और खर्च के बीच का अंतर जब सरकारी व्यय प्राप्तियों से ज्यादा हो जाता है तो उस कमी को पूरा करने के लिए सरकार को कर्ज लेना पड़ता है। इस घाटे का देश की इकनॉमी पर गहरा असर पड़ता है क्योंकि इसमें कमी करने की कोशिश में पब्लिक डेट बढ़ता है और ज्यादा इंटरेस्ट पेमेंट पर रेवेन्यू में सेंध लगती है।

भूमंडलीकरण, संस्कृति और मीडिया


समकालीन परिवेश में हमारे प्रतिदिन के जीवन चक्र में और लगभग सभी क्षेत्रों में मीडिया का हस्तक्षेप बहुत बढ़ गया है, इसके अनेक कारण हैं। मीडिया के विभिन्न जनसंचार माध्यमों ने हमें सनसनीखेज ख़बरों का आदी बना दिया है। ‘‘इतिहास, कला, संस्कृति, राजनीतिक घटना आदि सभी क्षेत्र में सनसनीखेज तत्व हावी हैं। सनसनीखेज ख़बरें जनता के दिलो-दिमाग पर लगातार आक्रमण कर रही हैं।’’ इस हमले में अधिकाधिक सूचनाएं होती हैं। हालांकि, इन सूचनाओं की व्याख्या करने और इसकों ग्रहण करने की आवश्यकता में निरंतर गिरावट आ रही है। आज मीडिया जनता को संप्रेषित ही नहीं कर रहा बल्कि भ्रमित भी कर रहा है। यह कार्य वह अप्रासंगिक को प्रासंगिक बनाकर, पुनरावृत्ति और शोर के साथ प्रस्तुत कर रहा है। हम बराबर मीडिया से क्लिपेंसुन रहे हैं। इस सबके कारण जहां मीडिया ज्यादा से ज्यादा सूचनाएं दे रहा है, वहीं दूसरी और कम-से-कम सूचना संप्रेषित कर रहा है। खास तौर पर टेलीविजन। स्मृति और घटना के इतिहास से इसका संबंध पूरी तरह टूट चुका है। यह वैश्विक मीडिया का सामान्य फिनोमिना है।

 ‘‘वैश्विक मीडिया मुगल अपने साम्राज्य को बढ़ाने के लिए मीडिया में ज्यादा-से-ज्यादा निवेश कर रहे हैं। साथ ही नई मीडिया एवं सूचना तकनीकी का भरपूर लाभ उठा रहे हैं। राजनीतिक तनाव और टकराव के क्षेत्र में शासक वर्गों के साथ मिलकर हस्तक्षेप कर रहे हैं। उन सरकारों अथवा तंत्रों के खिलाफ जनता को गोलबंद कर रहे हैं जिन्हें वे पसंद नहीं करते।’’ भूमंडलीकरण और मीडिया मुगल की युगलबंदी स्थानीय, क्षेत्रीय और वैश्विक अभिरूचियों, संस्कारों और संस्कृति के बीच समायोजन का काम कर रही है।

इस आलोच्य में कहें तो ग्लोबलाइजेशन अर्थात् भूमंडलीकरण को प्रभावी बनाने में परिवहन, संचार और साइबरस्पेश की आधुनिक तकनीकों की केंद्रीय भूमिका रही है। मीडिया में इससे संबंधित स्वरूपों, प्रतीकों, मॉलों और लोगों का प्रसारण बढ़ा है। पूंजी का विनियमन हुआ है। संस्कृति और इच्छाओं की अभिव्यक्ति केंद्र में आ गई है और साम्राज्यवाद का एक नया स्वरूप उभरकर सामने आ चुका है। यहां साम्राज्यवाद के रूप में सांस्कृतिक साम्राज्यवाद, मीडिया साम्राज्यवाद जैसे तत्व हैं। कहना गलत न होगा कि ‘‘भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में ग्लोबलका लोकलपर प्रभाव पड़ रहा है। इस प्रभाव के प्रतीक हैं- ग्लोबल ब्रांड’, यथा मैकडोनाल्ड, बर्गर किंग, पीजा हट, निकी, रीबॉक, बहुराष्ट्रीय चैनल, संगीत उद्योग और ग्लोबल विज्ञापन। वस्तुतः ग्लोबलाइजेशन ने पूरे विश्व को एक वैश्विक बाजार में बांध दिया है।’’ ‘‘आर. राबर्टसन ने ग्लोबलाइजेशनः सोशल थ्योरी एंड ग्लोबल कल्चर (1992) में वैश्वीकरणके लिए ग्लोबलाइजेशनशब्द का प्रयोग किया है। इसमें ग्लोबलऔर लोकलके द्वंद्व व अंतर्विरोधों की चर्चा की गई है। साथ ही यह बताया गया है कि कैसे ग्लोबल और लोकल संपर्क करते हैं।’’ उदाहरण के तौर पर नेशनल ज्योग्राफीचैनल में स्थानीय, जातीय या कबीलाई जनजीवन की प्रामाणिक कवरेज व जीवन शैली के प्रसारणों में सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के नजरिए से लोकल के ग्लोबल स्तर पर जनप्रिय बनाए जाने की प्रक्रिया को देखा जा सकता है। इससे लोकल के प्रति संवेदनाएं पैदा करने में मदद मिलती है।

आज भूमंडलीकरण और मीडिया के अंतः संबंध के कारण वर्ण संकर संस्कृति और वर्णसंकर अस्मिता के सवाल केंद्र में आ गए हैं। ‘‘बहुराष्ट्रीय कंपनियां जहां इकसार संस्कृति निर्मित कर रही हैं वहीं दूसरी ओर वर्ण संकर संस्कृति और वर्णसंस्कृति अस्मिताओं को पेश कर रही है। भूमंडलीकरण के कारण मुद्रा, वस्तु व्यक्ति को निरंतर क्षेत्रीय सीमा का अतिक्रमण करने के लिए मजबूर किया जा रहा है। लेकिन वास्तविकता यह है कि वैश्वीकरण जिस क्रॉस संस्कृति का निर्माण कर रहा है, वह संस्कृति का सतही और क्षणिक रूप है।’’ आज भूमंडलीकरण के कारण पलायन का तत्व सामाजिक जीवन की धुरी बन चुका है। अब हम जातीय पलायन के रूप में जनता के एक जगह से दूसरी जगह निर्वासन, स्थानांतरण, शरणार्थी समस्या और घूमंतुओं को जगह-जगह देख सकते हैं। उसी तरह स्थानीय मीडिया के बजाय ग्लोबल मीडिया के बढ़ते हुए प्रभाव और उपभोक्ता संसार को हम मीडिया पलायन कह सकते हैं। साथ ही अब विचारधारात्मक पलायन के तौर पर विचारधारा के नए रूपों में नागरिकता, स्वतंत्रता, मानवाधिकार, जनतंत्र, विवेकवाद आदि का जन्म हुआ है। ‘‘जेम्स करन और एम.जे. पार्क ने बताया है कि मीडिया में ऐसी बेशुमार सामग्री प्रसारित की जा रही हैं जो भूमंडलीकरण, संस्कृति और मीडिया के बारे में प्रचलित तमाम किस्म की सैद्धांतिकी को ख़ारिज करती है। आज काल्पनिक अस्मिता की ग्लोबल और लोकल दोनों ही छवि फीकी नजर आ रही है।’’

मीडिया बाजार का विश्लेषण करने पर स्पष्ट हो जाता है कि ‘‘अधिकांश बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अपने देश में मजबूत आधार है या सबसे ज्यादा बड़े शहरों में आधार है। इसमें विकासशील देशों में मेक्सिको शहर, संघाई, ब्राजिंग, मुंबई, कोलकता, कैरो, जकार्ता आदि प्रमुख है। यदि भाषाई आधार पर गौर करें तो प्रथम दस भाषाओं में चीनी पहले नंबर पर है। इसके बाद हिंदी आदि का नाम आता है। हकीकत तो यह है कि मीडिया प्रवाह पर सात बड़े औद्योगिक राष्ट्रों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों का साम्राज्य है। इनमें से अधिकांश अमेरिका की हैं।’’ और कहना गलत न होगा कि ये विश्व के लगभग 90 प्रतिशत जनंसख्या पर अपना अधिपत्य जमाए हुए हैं। आज विश्व मीडिया विमर्श में केंद्रीकरण और विकेंद्रीकरण के प्रश्न केंद्र में है। इस विमर्श में निम्नलिखित चार बिंदुओं पर एक आम सहमति खींची जा सकती है, यथा-

•          विकेंद्रीकरण के लिए विकेंद्रीकृत जनतंत्र और बहुलतावाद जरूरी है।
•          विविध माध्यमों की आवाज पर गौर करना चाहिए।
•          मीडिया जगत में वैविध्यपूर्ण अभिव्यक्ति का दायरा सिकुड़ता जा रहा है।
•          मीडिया तकनीक के उच्चतम रूप बेहद खर्चीले हैं।

हालांकि मीडिया में विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को तकनीक उन्नति ने संभव बनाया है और निरंतर बना रहा है। पर्सनल कंप्यूटर, वर्ड प्रोसेसर, ग्राफिक डिजाइन, केबल प्रसार, इंटरनेट आदि ऐसे ही उत्पाद हैं। लेकिन एक सीमा तक यहां भी पूंजी है। अतः जो जितनी पूंजी निवेश कर सकता है उसके सामने संप्रेषण की उतनी ही बड़ी संभावनाओं के द्वार खुले हैं।

इस समूची प्रक्रिया ने ‘‘मार्शल मैकलुहान की धारणा यह स्पष्ट करती है कि माध्यम ही संदेश है अर्थात् मीडिया का प्रभाव संप्रेषित कंटेंट अर्थात् अंतर्वस्तु से कहीं ज्यादा होता है। अथवा हम यह भी कह सकते हैं कि मीडिया जो कहना चाहता है, प्रभाव उससे कहीं ज्यादा होता है। अस्तु माध्यम ही संदेश है, इस धारणा का बार-बार हमें बदलती हुई परिस्थितियों में मूल्यांकन करना चाहिए।’’ चूंकि, हमारी सोच अंतर्वस्तु के मूल्यांकन का आदी है अतः हम यह सोचने के लिए तैयार ही नहीं है कि माध्यम भी संदेश हो सकता है। यह सच है कि कोई भी माध्यम बगैर संदेश के नहीं होता। ठीक उसी प्रकार यह भी सच है कि कोई संदेश माध्यम के बिना हम तक नहीं पहुंच सकता। कहने का मतलब है कि कंटेंट को कम करके नहीं आंकना चाहिए। किंतु, कंटेंट पर इस कदर भी जोर नहीं देना चाहिए कि माध्यम का महत्त्व घट जाए।

अस्तु, वैश्विक संस्कृति स्वभावतः सांस्कृतिक मुठभेड़ के जरिए विकास करता है। विचारों, मूल्यों एवं संस्कृतियों में सम्मिश्रण की गति आज इतनी तेज है, वैसी पहले कभी दर्ज नहीं की गई। इस संदर्भ में वैश्विक संस्कृति के साथ विभिन्न धर्मों का अंतर्विरोध भी है साथ ही विभिन्न धर्मों की धार्मिकता की बाढ़ भी दिखाई देती है। ध्यातव्य रहे कि धार्मिक विचारधाराओं को ग्रहण करके आधुनिक राज्य का उदय हुआ था किंतु भूमंडलीकरण के कारण इस आधुनिक राज्य को सबसे गंभीर चुनौतियां धार्मिक तत्वादियों से मिली है। मूल बात यह है कि मीडिया के आलोक में भूमंडलीकरण और भूमंडलीय संस्कृति का धर्म, धार्मिकता और धार्मिक तत्ववाद से वैचारिक तौर पर गहरा संबंध है। यह वस्तुतः प्रतिगामी संबंध है। इसलिए सांस्कृतिक लोकतंत्र के निर्माण में जनमाध्यम महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। इस क्रम में जनमाध्यमों के स्वरूप को जानना व समझना होगा। और, इस समग्रता के तहत मीडिया घटक एवं उसके प्रभाव का विश्लेषण अनिवार्य हो जाता है।

वैश्वीकरण मूल रूप से आर्थिक सुधार एवं प्रगति से संबंधित प्रक्रिया है। यह जहां एक और संवाद की बात करता है वहीं दूसरी और आकाशीय तथ्यों पर भी जोर देता है। इसके तीन आर्थिक पहलू होते हैं-‘‘खुला अंतरराष्ट्रीय बाजार, अंतरराष्ट्रीय निवेश और अंतरराष्ट्रीय व्यक्ति। इसका उद्देश्य सभी देशों को एकीकृत बाजार में रूपांतरित करना है। वैश्वीकरण के चिंतन का उदय मुख्य रूप से अस्सी के दशक में हुआ था, परंतु इसकी अवधारणा अति प्राचीन काल से ही मानव समाज में विद्यमान थी। जहां 17वीं सदी के मध्य में इंग्लैंड का उपनिवेशवाद आरंभ हो गया था, वहीं फ्रांस ने भी इस दिशा में अपने पाँव फैलाना शुरू कर दिया था। उपनिवेशवाद का परिणाम ही वैश्वीकरण के रूप में सामने आया।’’

वस्तुतः भूमंडलीकरण जिस बाज़ारवाद की विवेचना करता है उसका आधुनिक रूप भारत में आज से 11 वर्ष पहले सन् 1991 के आर्थिक उदारीकरण एवं खुले बाज़ार की नीति के तहत सामने आया। इसका उद्देश्य न केवल अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाना था बल्कि वैश्विक स्तर पर भारत को आर्थिक रूप में खड़ा करना था। ‘‘इसके परिणाम के रूप में गरीबी उन्मुलन, रोजगार में वृद्धि, श्रम में गुणवत्ता की परिकल्पना की गई थी। इस परिकल्पना को मूर्त रूप प्रदान करने के उद्देश्य से बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वार भारत में खोल दिए गए। इसके बाद की स्थिति पूर्ण रूप से विदेशी कंपनियों के पक्ष में बनती चली गई।’’ ये कंपनियां अधिकाधिक लाभ कमाने के उद्देश्य से एक नई सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक परिवेश का निर्माण कर रही हैं। इनके प्रभाव से जनसंचार माध्यम भी अछूते नहीं हैं। इनके द्वारा एक ऐसे परिवेश का निर्माण किया जा रहा है जो भारतीय उपमहाद्वीप के लिए सर्वथा प्रतिकूल है। विदेशी कंपनियों के आगमन ने तो भारतीय उद्योगों के अस्तित्व पर प्रश्न-चिह्न खड़ा कर दिया है। इसके प्रभाव में रंगा मीडिया जाने-अंजाने अश्लीलता, आतंकवाद, पृथकतावाद, सांप्रदायिकता आदि को बढ़ावा दे रहा है। साथ-ही-साथ मीडिया साम्राज्यवाद को भी बल मिल रहा है। आज जनमाध्यम सांस्कृतिक तौर पर समृद्ध बहुजातीय राष्ट्रों में मनोरंजन के नाम पर अभिजात्यवाद, उपभोक्तावाद और राष्ट्रीय विखंडन को बढ़ावा दे रहे हैं। हमें राष्ट्रीय हित में मीडिया को नीतियों के स्तर पर इस रूप में स्वीकार करने की आवश्यकता है जिससे लोकतांत्रिक मूल्य संरक्षित रहें।

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