शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

चीन का बढ़ता रक्षा बजट भारत के लिए खतरा

जब से ऑस्ट्रेलियाई पत्रकार मैसवेल ने हैंडरसन ब्रुक्स-भगत रिपोर्ट के कुछ अंशों को अपनी वेबसाइट पर उध्दृत किया है तब से सारे संसार में और खासकर भारत में रक्षा विशेषज्ञों में खलबली मच गई है कि मैक्सवेल ने आखिर यह गुप्त रिपोर्ट प्राप्त कैसे की? भारत के किस उच्च रक्षा अधिकारी ने उन्हें यह अत्यन्त ही संवेदनशील गुप्त रिपोर्ट की कापी दी थी। इसके पहले मैक्सवेल ने अपनी प्रसिध्द पुस्तक 'इंडिया-चाइना वार' में भी लिखा था कि 1962 में जब चीन के साथ युध्द हुआ और जिसमें भारत की शर्मनाक हार हुई उसमें तत्कालीन रक्षामंत्री कृष्णामेनन ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को गलत सलाह दी। कृष्णामेनन साम्यवादी विचारों के समर्थक थे और उनकी चीन से बहुत नजदीकी थी। मैक्सवेल ने संभवत: ठीक ही कहा है कि कृष्णामेनन ने पंडित नेहरू को गुमराह किया जिस कारण पंडित नेहरू चीन की धोखेबाजी को समझ नहीं सके। चाउ-एन-लाई हिन्दी-चीनी भाई भाई का नारा लगाते रहे। पंडित नेहरू उन पर आंख मूंदकर विश्वास करते रहे और पंडित नेहरू को भ्रम में रखकर चीन ने भारत की हजारों किलोमीटर जमीन हड़प ली जिसे उसने आज तक वापस नहीं किया।

राजनेताओं खासकर पंडित नेहरू और कृष्णामेनन को मैक्सवेल ने अपनी किताब में दोषी ठहराया ही है। परन्तु उन्होंने सबसे अधिक दोष सेना के तत्कालीन शीर्ष अफसरों पर लगाया है जिन्होंने पंडित नेहरू को इस बात से अवगत नहीं कराया कि भारतीय सेना के जवान अस्त्र-शस्त्रों के अभाव में चीन की सेना का मुकाबला करने में समर्थ नहीं थे। 1949 में जब चीन की मुख्य भूमि पर साम्यवादियों का शासन हो गया था तभी से चीन ने अपनी सैन्यशक्ति को जोर-शोर से बढ़ाना शुरू कर दिया। उसने अपने अस्त्र-शस्त्रों को आधुनिकतम बनाया। उधर भारत हाथ पर हाथ रखकर बैठा रहा। यहां तक कि जबकि चीन के पास सोवियत रूस द्वारा दिये हुए आधुनिकतम हथियार थे। भारत के सैनिक द्वितीय विश्वयुद्व के घिसी-पिटी बन्दूकों से लड़ाई कर रहे थे। तोपखाना तो उनके पास बिल्कुल नहीं था। सबसे आश्चर्य की बात तो यह थी कि सेना के जो जवान चीनी सैनिकों का मुकाबला करने के लिए देश के अन्य क्षेत्रों से सीमा पर भेजे गये, उनके पास मामूली कपड़े के जूते थे। बर्फ पर चलने के लिए चमड़े के जूते भी नहीं थे। भला वह कमजोर फौज दुर्दांत चीनी सैनिकों का मुकाबला कैसे कर सकती थी?

मैक्सवेल के रहस्योद्धाटन के बाद भारत के विभिन्न टीवी चैनलों पर इन दिनों दिन-रात यह बहस हो रही है कि भगवान करे यदि आज चीन से फिर से युध्द हो जाए तो क्या हमारी सैनिक शक्ति उससे मुकाबला करने के लिए सक्षम है? इस सिलसिले में सभी रक्षा विशेषज्ञों का एक मत है कि चीन के साथ हुए युध्द में आज से 52 साल पहले जो भारत की शर्मनाक हार हुई थी उसके बाद भारत सरकार ने सैनिक सुरक्षा की दृष्टि से अपने को मजबूत करने के लिए कुछ भी नहीं किया। यहां तक कि बेस कैम्प से सीमा तक जाने के लिए पक्की सड़कें भी नहीं बनाईं। कच्ची सड़कों पर तो ट्रक जा सकते हैं और तोपखाने। जवानों को लेकर फौजी गाड़ियां भी नहीं जा सकती हैं। आधुनिक अस्त्र-शस्त्र के नाम पर केवल भारत के पास बोफोर्स तोपें हैं और कुछ नहीं। जब से बोफोर्स तोपों का विवाद शुरू हुआ भारत की विभिन्न सरकारों ने एक तरह से विदेशों से आधुनिकतम अस्त्र-शस्त्र और लड़ाकू विमान या पनडुब्बियों को खरीदना बन्द ही कर दिया। सरकार की तरफ से कहा गया कि रक्षा बजट में कटौती करके वह पैसा जनकल्याणकारी योजनाओं पर खर्च किया जाएगा। जनकल्याणकारी योजनाओं में किस तरह का घोटाला हो रहा है यह किसे से छिपा हुआ नहीं है। सुरक्षा के मामले में आज भारत चीन के सामने जितना पंगु हो गया है उतना पहले कभी नहीं था। इस बीच प्राय: प्रतिदिन ये खबरें आती रही हैं कि किसी किसी अति बहुमूल्य पन्डुब्बी में आग लग गई। आए दिन मिग विमानों की दुर्घटना होती रहती है। मिग विमान की टैक्नोलोजी बहुत पहले सोवियत रूस के द्वारा भारत को दी गई थी जो अब बहुत ही पुरानी हो गई है।

इस बीच एक अत्यन्त ही चिन्ताजनक समाचार संसार के सभी मीडिया में प्रकाशित हुआ है कि चीन ने प्राय: एक सप्ताह पहले नेशनल पिपुल्स कांग्रेस की वार्षिक बैठक में यह घोषणा की कि उसने अपने 2014 के रक्षा बजट को बढ़ाकर 132 बिलियन डालर कर दिया है। गत वर्ष की तुलना में रक्षा बजट में 12.2 प्रतिशत की वृध्दि हुई है। ऐसी वृध्दि पहले कभी नहीं की गई थी। वैसे तो पिछले दो दशकों से चीन लगातार अपने रक्षा बजट में बढ़ोतरी करता रहा है। पश्चिमी देशों के रक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि सुरक्षा की तैयारी के मामले में और रक्षा बजट कितना बढ़ाया गया है वह सच्ची बात चीन कभी जगजाहिर नहीं करता है। चीन में इस मामले में कोई पारदर्शिता नहीं है। पश्चिमी देशों के रक्षा विशेषज्ञों का मत है कि इस बार के रक्षा बजट में बढ़ोतरी केवल 12.2 प्रतिशत नहीं है। वह कम से कम 40 प्रतिशत है।

लंदन के प्रसिध्द 'इंटरनेशनल इंस्टिटयूट फॉर स्टे्रटेजिक स्टडीज' ने कहा है कि चीन जिस तरह पागलों की तरह अपने रक्षा बजट में बेतहाशा बढ़ोतरी कर रहा है उसका सीधा असर भारत पर पड़ने वाला है। आज की तारीख में भारत अपने रक्षा बजट पर जितना खर्च कर रहा है उससे तीन गुना अधिक चीन कर रहा है। चीन के पड़ोसी देश जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान और वियतनाम के कुल रक्षा बजट को यदि मिला दिया जाए तो उससे कई गुणा अधिक चीन का रक्षा बजट है। सिंगापुर के प्रसिध्द 'स्कूल ऑफ इन्टरनेशनल स्टडीज' के विशेषज्ञों ने कहा है कि चीन के सभी पड़ोसियों खासकर भारत को दीवार की लिखावट को पढ़ लेना चाहिये। इस विश्व प्रसिद्व रिसर्च संस्थान ने कहा है कि जब शी जिनपिंग चीन के नये राष्ट्रपति निर्वाचित हुए थे तब सारी दुनिया में यह भ्रम फैला था कि वे उदारवादी विचारों के समर्थक हैं और निश्चित रूप से वे पड़ोसियों के साथ सौहार्द्रपूर्ण संबंध बनाये रखेंगे। परन्तु शी ने राष्ट्रपति होते ही डंके की चोट पर कहना शुरू कर दिया कि उनका एकमात्र लक्ष्य चीन को रक्षा के मामले में संसार का सबसे शक्तिशाली देश बनाना है और इस मामले में वे रक्षा बजट में कोई कटौती नहीं करेंगे और चीन के सैनिकों को आधुनिकतम अस्त्र-शस्त्र से लैस कर देंगे।
शी ने डंके की चोट पर कहा है कि साउथ चाइना सी के वे सभी द्वीप जिन पर पिछले कुछ वर्षों से विवाद चल रहा है और जिनमें तेल और गैस मिलने की भरपूर संभावना है उन सभी द्वीपों का मालिक चीन ही है। उन्होंने यह भी कहा है कि ईस्ट चाइना सी के वे द्वीप जो विवादित हैं और जिन पर जापान अपना अधिकार जमा रहा है उनका असली मालिक भी चीन ही है। इधर चीन ने इस क्षेत्र में विदेशी हवाई जहाज चाहे वे नागरिक विमान हों या लड़ाकू उनकी आवाजाही पर रोक लगा दी है और यह एलान किया है कि बिना चीन की अनुमति के कोई भी विमान इस क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकता है।


कुल मिलाकर स्थिति यह है कि चीन का तेजी से बढ़ता हुआ रक्षा बजट भारत के लिये एक तरह से खतरे की घंटी है। मामला अत्यन्त ही चिन्ताजक है। पर जो बीत गया उसके लिये चिन्ता करने से क्या लाभ? उम्मीद की जानी चाहिये कि चन्द महीनों में जो नई केन्द्रीय सरकार आएगी वह चीन से बढ़ते हुए खतरे को भांप कर देश की सुरक्षा पर भरपूर ध्यान देगी और जल, थल और वायु सेना को आधुनिकतम हथियारों से लैस करेगी। हमें यह मानकर चलना चाहिए कि चीन हमेशा से विस्तारवादी देश रहा है और वह कितनी भी दोस्ती की पहल करे चीन हमारा दोस्त नहीं हो सकता है। चीन के मुकाबले भारत को रक्षा के मामले में पूरी तरह सजग रहना होगा और हर भारतीय को यह समझना होगा कि चीन से बढ़ता हुआ खतरा देश के लिए एक अत्यन्त ही भयावह समस्या है।

गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

वंशवाद का प्रचलन

देश की राजनैतिक पार्टियों में वर्तमान पीढ़ी द्वारा अगली पीढ़ी को उत्तराधिकार देने का प्रचलन तेज होता जा रहा है। 2014 के लोकसभा चुनावों को देखा जाए, तो साफ  हो जाता है कि यह और भी तेज हो रहा है। इस सिलसिले में 2013 का साल बहुत ही महत्वपूर्ण था। पिछले साल जनवरी महीने में राहुल गांधी को जयपुर सत्र में कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनाया गया। उसके 9 महीने बाद भारतीय जनता पार्टी ने नरेन्द्र मोदी को अपना प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किया। अधिकांश पार्टियों में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सत्ता सौंपने में वंश का ध्यान रखा जा रहा है। इसके कारण हमारे देश का लोकतंत्र एक वंशवादी लोकतंत्र का शक्ल लेता जा रहा है। यह काफी दिनों से चल रहा है। बाप या मां अपने बेटे या बेटी को पार्टी पर कब्जा दिला रहे हैं। जम्मू और कश्मीर में फारुक अब्दुल्ला ने अपनी पार्टी की बागडोर अपने बेटे उमर अब्दुल्ला के हाथों मे थमा दी। वे वहां के मुख्यमंत्री बना दिए गए। वहां की प्रमुख विपक्षी पार्टी पीडीपी है। उसके नेता मुफ्ती मुहम्मद सईद ने भी पार्टी अपनी बेटी महबूबा मुफ्ती के हवाले कर दी है।

समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने भी अपने बेटे की ताजपोशी कर दी है। उनके बेटे उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बन चुके हैं। डीएमके प्रमुख करुणानिधि ले अपने बेटे एमके स्टालिन के हवाले अपनी पार्टी कर दी है। पीएमके के पिता रामदौस ने पार्टी को अपने बेटे अम्बुमनी रामदॉस को सौंप दी है। भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन कराने में मुख्य भूमिका अम्बुमनी ने ही निभाई। उसी तरह स्टालिन ने करुणानिधि को समझा दिया कि पार्टी कांग्रेस के साथ कोई तालमेल या गठबंधन नहीं करे। बिहार में लोक जनशक्ति पार्टी के नेता रामविलास पासवान के बेटे के हाथों पार्टी की कमान चुकी है। उन्होंने ही भारतीय जनता पार्टी के साथ अपनी पार्टी का गठबंधन कराया। लालू यादव ने भी अपनी बेटी मीसा को चुनाव मैदान में उतार कर अपनी अगली पीढ़ी के हाथ में पार्टी की सत्ता देने की तैयारी कर ली है। वे अपनी बेटी को ही नहीं, बल्कि अपने बेटे को भी आगे बढ़ाने के लिए हाथ पैर चला रहे हैं।  महाराष्ट्र का भी यही हाल है। बाल ठाकरे के बाद उनके बेटे उध्दव ठाकुर शिवसेना के सुप्रीमो बन गये हैं। एक अन्य सेना महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख बाल ठाकरे के भतीेजे हैं। शरद पवार ने भी अपनी बेटी सुप्रिया सुले और भतीजे अजित पवार के हाथों पार्टी की बागडोर थमाने का काम शुरू कर दिया है।पार्टियों का नियंत्रण एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी के हाथ में जाना अपने आपमें गलत नहीं है। देश की आबादी की संरचना बदल रही है। मतदाताओं की संरचना भी बदल रही है। देश में 543 लोकसभा क्षेत्र हैं। औसतन प्रत्येक लोकसभा क्षेत्र में एक लाख 80 हजार मतदाता पहली बार मतदान करेंगे। अब वे भारत के भविष्य को तय करेंगे। वे भारत की आकांक्षा का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए पार्टियों का नेतृत्व भी यदि युवाओं के हाथ में जाता है, तो यह अनुचित नहीं है।

पीढ़ीगत बदलाव के कारण कुछ समस्याएं अपने आप सामने रही हैं। भारतीय जनता पार्टी अपने आपको बदलने की कोशिश कर रही है और इसमें उसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का भी समर्थन मिल रहा है। इसमें संकेत दिया जा रहा है कि पुराने लोगों को अब जाना होगा। और यदि वे खुद नहीं गए, तो उन्हें बाहर खदेड़ दिया जाएगा। नरेन्द्र मोदी पार्टी पर अपना दबदबा बना रहे हैं और यह काम वह बहुत तेजी से कर रहे हैं। इसके कारण पार्टी के पुराने नेताओं की चिंता बढ़ती जा रही है। उन्हें लग रहा है कि मोदी उन्हें हाशिए पर धकेल रहे हैं। मोदी चाहते हैं कि आडवाणी शालीनता से राजनीति से अलग हो जाएं, लेकिन आडवाणी इसके लिए तैयार नहीं हैं। उन्हें नहीं लगता कि उनके हटने का समय आया है।

पार्टी के अनेक वरिष्ठ नेता मोदी से नाराज हो गए हैं। पुराने नेताओं से छुटकारा पाने में कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी को भी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। सोनिया ने राहुल को खुली छूट दे रखी है। उनकी टीम ही पार्टी के लिए रणनीति तैयार करने में जुटी हुई है। राहुल ने अपनी पसंद के लोगों को कांग्रेसी मुख्यमंत्री और पार्टी संगठन में पदाधिकारी बना रखा है। कांग्रेस के अंदर के वरिष्ठ नेता भी उनके काम करने के तरीके से नाखुश हैं। यानी भाजपा हो या कांग्रेस- पीढ़ी बदलाव का विरोध हो रहा है, लेकिन इसके बावजूद बदलाव हो रहे हैं।


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