सोमवार, 24 मार्च 2014

अपराधियों को राजनीति से बाहर रखना होगा

आजकल राजनीति में भले आदमियों के साथ-साथ अपराधी भी बड़ी संख्या में देखे जाते हैं। लोकसभा और विधान सभाओं में इनकी संख्या खासी है। पहली बार 1980 में बड़ी संख्या में विधानसभा और लोकसभा के चुनावों में बड़ी संख्या में कांग्रेस के तत्कालीन युवराज संजय गांधी ने अपराधियों या आपराधिक चाबी वाले दबंगों को टिकट बांटी थी। उसके बाद तो सभी पार्टियों में अपराधियों को टिकट देने का फैशन हो गया। एक से एक अपराधी और बाहुबली लोग लोकतंत्र के इन पवित्र केन्द्रों में पहुंचने लगे। दोनों बड़ी पार्टियों के अलावा क्षेत्रीय पार्टियों में भी बड़ी तादाद अपराधियों की है। सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश दिया कि किसी भी विधान मंडल का चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवारों को अपनी आपराधिक छवि का रिकार्ड हलफनामे की शक्ल में जमा करना पडेग़ा। सुप्रीम कोर्ट को उम्मीद थी कि जब जनता को मालूम हो जाएगा कि आपराधिक छवि के लोग उम्मीदवार हैं  तो वह उनको वोट नहीं देगी। अपने एक विद्वत्तापूर्ण लेख में विद्वान राजनीतिक विश्लेषक सर्वमित्रा सुरजन ने लिख दिया था  परंतु जब व्यवहार में इसे देखा गया तो आपराधिक छवि के अधिक से अधिक लोग जीत कर गए और इस तरह के हलफनामे का कोई असर नहीं पड़ा। मीडिया द्वारा बार-बार आग्रह किया जाता है कि विभिन्न पार्टियां आपराधिक छवि के लोगों को टिकट नहीं दें, परंतु व्यवहार में कोई भी पार्टी इसका पालन नहीं करती है। 'ट्रांसपेरंसी इन्टरनेशनल' ने अपनी रिपोर्ट में संसार के 174 देशों में भ्रष्टाचार और राजनीतिक अपराधीकरण के मामले में भारत को 72वां स्थान प्रदान किया है।

स्वतंत्रता के बाद पिछले 60 वर्ष में अपने देश में लोकतंत्र मजबूत तो हुआ है, लेकिन राजनीति का अपराधीकरण भी बढ़ा है, जिससे चुनावों के साफ-सुथरे होने पर संदेह के बादल गहराने लगे हैं। दिनोंदिन यह मुद्दा लोकतंत्र के भविष्य के लिहाज से अहम् होता जा रहा है। राजनीतिक पार्टियों द्वारा आपराधिक तत्वों की सहायता लेना तो अब बहुत छोटी बात हो गई है अब तो बाकायदा उनको टिकट देकर उपकृत किया जा रहा है।  भारत का कोई भी राजनैतिक दल ऐसा नहीं है जिसमें किसी किसी प्रकार के अपराधी हो।

लोकसभा और राय विधानसभाओं में यदि अपराधियों का रिकॉर्ड देखा जाए तो यह देखकर घोर आश्चर्य होता है कि अपराधियों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है।  यहां तक कि संसद में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लगभग एक तिहाई सांसद हैं, जिन पर कुल 413 मामले लंबित हैं। लोकसभा और विधानसभाओं में अपराधियों की संख्या तब और यादा बढ़ गई जब एक पार्टी के बदले कई पार्टियों की मिलीजुली सरकार बनने लगी, खासकर क्षेत्रीय पार्टियों में इतने अपराधी भरे पड़े हैं कि उनकी कोई गणना भी नहीं कर सकता है। तर्क दिया जाता है कि जब तक किसी व्यक्ति पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपराध साबित नहीं हो जाता है तब तक उसे अपराधी कैसे कह सकते हैं। पिछले अनेक वर्षों से तमाम संगठन अपराधियों के निर्वाचित होने के अधिकार पर सवाल खड़ा कर रहे हैं। फिर भी विधानसभाओं तथा संसद में अपराधियों की संख्या कम होने के स्थान पर बढ़ती ही जा रही है। कोई भी यह नहीं बताता है कि जनता आखिर अपराधियों को क्यों चुन कर भेजती है। यह तो तय है कि उनके गले पर अपराधियों की बन्दूकें नहीं लगी होतीं। और तो और अब तो बात यहां तक चुकी है कि जो जितना बड़ा अपराधी होगा उसके जीतने की उम्मीद भी अधिक होगी।

जब तक इस सवाल का जवाब नहीं तलाशा जाएगा कि आम जनता ईमानदार और स्वच्छ छवि वाले नेताओं को छोड़कर अपराधियों को ही वोट क्यों देती है, तब तक अपराधियों को निर्वाचित होने से नहीं रोका जा सकता है। यह तय है कि अपराधियों को निर्वाचित होने से रोकने के लिए बनाए जाने वाले कानून एक दिन स्वयं लोकतंत्र का ही गला घोंट देंगे। एक और चौंकाने वाली बात है कि स्विस सरकार के नवीन घोषणा के अनुसार यदि भारत सरकार उनसे मांगे तो वह यह बता सकते हैं कि उनके बैंकों में किन भारतीयों के कितने पैसे जमा है। हालत बहुत ही चिंताजनक हैं लेकिन इसी में से कहीं उम्मीद भी नज् आने लगी है।

केंद्र सरकार के विधि आयोग ने अपनी 244वीं रिपोर्ट दाखिल कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने एक मुकदमे की सुनवाई के दौरान विधि आयोग को आदेश दिया था कि चुनाव जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 में सुधार के लिए सुझाव तैयार किये जाए। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अपराधियों को राजनीति से बाहर रखना बहुत जरूरी है और उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए क्या उपाय किये जा सकते हैं। सरकार ने अब इस रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश कर दिया है। दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एपी शाह की अध्यक्षता वाले इस आयोग की रिपोर्ट में जो सुझाव दिए गए हैं वे अपराधियों को राजनीति से बाहर रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। आयोग की रिपोर्ट में सख्त प्रावधान तो हैं लेकिन ऐसे सुझाव भी हैं जिनको लागू किये जाने पर कानून का दुरुपयोग रोक जा सकेगा। रिपोर्ट का नाम ही 'चुनावी अयोग्यताएं' बताया गया है। इसमें एक महत्वपूर्ण प्रावधान तो यही है कि गलत हलफनामा देने वाले को जेल की सजा बढ़ा दी जानी चाहिए। अभी तक का प्रावधान यह है कि जब तक  मुकदमे  का फैसला हो जाए तब तक किसी को चुनाव लड़ने से रोका नहीं जा सकता।  मौजूदा रिपोर्ट में लिखा है कि जब किसी भी अभियुक्त के खिलाफ आरोप तय हो जाएं उसके बाद से उसे चुनाव के लिए पर्चा दाखिल करने से रोक दिया जाए। हालांकि जानकारों का एक वर्ग ऐसा भी है जो यह मानता है कि एफआईआर लिखे जाने के बाद ही अभियुक्त को चुनाव लड़ने से रोक देना चाहिए लेकिन विधि आयोग का मानना  है कि यह उचित नहीं है।  रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखाने से किसी नेता को चुनाव रोकने से रोकना संभव होने लगेगा तो पुलिस की मनमानी बढ़ जायेगी। इसलिए जब तक किसी स्तर पर न्यायिक प्रक्रिया से गुजर जाए तब तक किसी भी जांच को  प्रामाणिक नहीं माना जाना चाहिए। अभी नियम यह है कि किसी भी अदालत से सजा पाने वालों को चुनाव लड़ने से रोका जाना चाहिए। आयोग का कहना है कि अगर नियम का दुरुपयोग रोकने की सही यवस्था की जा सके तो अपराध तय होने के बाद ऐसे अभियुक्तों को चुनाव लड़ने से रोका जा सकता है जिनके अपराध में कम से कम पांच साल की सजा का प्रावधान हो। अभी तक देखा गया है कि सजा हो जाने के बाद अपराधी को रोकने की प्रक्रिया प्रभावशाली नहीं है। भारतीय न्याय व्यवस्था की एक सच्चाई यह भी है कि मुकदमों के अंतिम निर्णय में बहुत समय लगता है। बहुत सारे मामले ऐसे हैं जहां सबको मालूम रहता  है कि अपराधी कौन है लेकिन वह अदालत से बरी हो जाता है। हालांकि इस प्रावधान के दुरुपयोग की संभावना भी कम नहीं है लेकिन आयोग का कहना है कि इसमें ऐसे नियम बनाए जा सकते हैं जिससे कानून का दुरुपयोग हों। एक सुझाव यह भी है कि एमपी और एमएलए के खिलाफ दाखिल मुकदमों में साल भर के अन्दर फैसला जाना चाहिए।  सुप्रीम कोर्ट ने इस एक सुझाव को मान लिया है और इस सन्दर्भ में फैसला भी दे दिया है।


विधि आयोग की मौजूदा सिफारिशों को मान लेने से अपराधियों को बाहर रखने में जरूरी मदद मिलेगी। यह बहुत जरूरी है क्योंकि अगर फौरन कार्रवाई हुई तो बहुत देर हो जायेगी। इस चुनाव में भी साफ नजर रहा है कि ऐसे लोगों को चुनाव मैदान में उतारा जा रहा है जो पूरी तरह से अपराधी हैं और संसद की गरिमा को निश्चित रूप से गिराएंगे। ऐसे लोगों पर लगाम लगाए जाने की जरूरत है।

शनिवार, 22 मार्च 2014

महिला सशक्तिकरण का उद्देश्य

महिला सशक्तिकरण अपने आप में एक लक्ष्य होने से भी बढ़कर है। यह गरीबी घटाने की चुनौती का सामना करने के लिये, लम्बे समय तक विकास करते जाने के लिये, तथा सुशासन के लिये एक पूर्वगामी शर्त है।''
-कोफी अन्नान, पूर्व सेके्रटरी जनरल, संयुक्त राष्ट्र संघ
ऊपर दी गई उक्ति बिल्कुल ही सच है। आश्चर्य है कि यह बात समाज के अग्रणी लोगों के दिमाग में चौबीस घंटे क्यों नहीं घूमती? समाज के दो ही तो वर्ग हैं- स्त्री और पुरुष। इस समाज रूपी शरीर का यदि आधा हिस्सा कमजोर है, तो यह पूरा शरीर पुष्ट कैसे कहलायेगा?
अत: महिला सशक्तिकरण जिसकी बात हम अक्सर करते हैं, उस आधे हिस्से को भी पूरी तरह बलवान, तानवान और निडर तथा सक्रिय बनाने से ताल्लुक रखती है।
इसके लिये हमें किन क्षेत्रों में बढ़ कर वर्तमान का निदान ढूंढना चाहिये? चूंकि हमें हर वर्ग, हर घर, गांव, कस्बे, शहर, कार्पोरेट और खेतीहर मजदूर, सूचना प्रौद्योगिकी और ईंटें ढोने वाली महिला कार्यकर्ता, वैज्ञानिक, गृहिणी ही नहीं, बल्कि घरों में पोंछा लगाने वाली महिला भी, सभी के बारे में चिन्ता रखनी चाहिये। सभी स्त्रियों के सम्मान को ठेस पहुँचाने वाली बातों को दूर करना है, उनके रास्ते में खतरों और दिक्कतों को पहचानना है, पूरे समाज के दृष्टिकोण और रवैये को यादा स्फूर्तिमान संवेदनशील बनाना है। अच्छा होगा-
हम उन कमियों या अभावों का पता लगायें जिनकी वजह से बच्चों, किशोरों और महिलाओं का समुचित विकास नहीं हो पाता।
हम ढूंढें क़ि आज विद्यमान किन-किन साधनों योजनाओं से इन अभावों को दूर किया जा सकता है। इन सबको साधन रूप से लागू करने में सहयोग दें।
उन तरीकों का पता लगायें, जिनसे हमारी नीतियों कार्यक्रमों के लोगों पर पड़ने वाले प्रभाव की पैमाईश की जा रही हैं, तथा देखें कि क्या ये संतोषजनक हैं? विशेषत: स्वास्थ्य, शिक्षा, आय का स्तर, सन्तानोत्पादन जैसे क्षेत्रों में।
एक अखिल भारतीय प्रणाली का विकास करने की सोचें, जिसके तहत महिलाओं को तथा बच्चों को नि:शुल्क परामर्श तथा इलाज मिल सके, जिसमें सरकार, निजी क्षेत्र तथा सामाजिक संस्थाओं की सम्मिलित भागीदारी हो- और इस तरह देश की जनसंख्या को सुनियोजित और बच्चों के स्वास्थ्य को संरक्षित कर सकें।
स्वच्छ पेयजल, स्वच्छ घरेलू शौचालय, ईंधन की पर्यावरण समर्थित व्यवस्था, और पशुओं के लिये अच्छे चारे के लिये और सुनियोजित व्यवस्था की ओर ध्यान दें- चूंकि इनका बन्दोबस्त महिलाओं पर छोड़ दिया जाता है, और समस्या दुरुह होती है।
कामकाजी महिलाओं के बच्चों की देखभाल के लिये अधिकाधिक और बेहतर केन्द्र बनाने की सोचें।
अनचाही सन्तानों को जन्म देना पड़े इसके लिये सुरक्षित व्यवस्था स्थापित हो।
 महिलाओं की मदद करने के लिये समाज में व्यापक भावना फैलायें ताकि घर-घर में मदद की भावना जिसका प्रभाव हो कि सामुदायिक केन्द्र और अधिक अच्छी तरह चलें।
 उन कारणों का पता लगायें, कि महिलायें क्यों पिछड़ी रह जाती हैं- विशेषत: शिक्षा और तकनीकी शिक्षा में। जो सुविधायें लड़कों को सहज प्राप्त हो जाती हैं, वे लड़कियों को क्यों नहीं मिलतीं?
महिलाएं और किस प्रकार के काम सीख सकती हैं, इसमें उनकी मदद की जाए। विशेषत: ग्रामीण महिलाओं की दशा इस बारे में शोचनीय है। उनकी प्रतिभा धरी की धरी रह जाती है। कहीं उन्हें पारम्परिक हस्तशिल्प सिखाया जा सकता है- तो कहीं उनके लिये नवीन क्षेत्र भी उपलब्ध होने चाहिये। इस विषय में अभी प्रयास बहुत ही कम हुआ है। केरल में कहीं अधिक प्रगति देखने में आती है। बजाय अन्य प्रदेशों के। मेरी एक प्रिय जानकार ग्रामीण बहन खिल्लो ने माुफ्फरनगर में खेस बुन-बुन कर पूरे कुनबे की सर्दी मिटा दी है। बहुत सी महिलाएं जोश और दमखम रखती हैं, लेकिन साधनों के अभाव से मनमसोस कर रह जाती हैं। केरल में नारियल की जूट से रस्सी, तमिलनाडु में सिाल फाइबर के केले के रेशे की वस्तुएं, पाकिस्तान में गेंहू के पौधे के तने की टोकरी, ऊन की टीकोजी, कालीन अन्य वस्तुएं, सॉफ्ट टाया, मानव की सृजनशीलता का अन्त नहीं। कलकत्ते के गांवों में सलमे-सितारे की कढ़ाई, लखनऊ में चिकन वर्क, मन्दिरों में मालाएं, फूल, पूजा के दोने, मूर्तियां, मोती, सीप, शीशा, कांच, लकड़ी, पत्थर (संगमरमर) सोप स्टोनकलात्मक वस्तुओं की विविधता की सीमा नहीं। एक पूरा संसार समेट लाती हैं महिलाओं के हाथों की में कलाएं। इनकी कलाकृतियों की गुणवत्ता और विविधता में कौन क्या योगदान दे सकता है इसके बारे में प्रत्येक सृजनशील नागरिक अपनी सोच का लाभ दे सकता है।
महिलाओं को पूंजी की आवश्यकता पड़ती है। उसकी पूर्ति ऋण से करने के लिए सुगम तथा सरल व्यवस्था हो- जैसे इन्डोनेशिया में बैंक कर्मी बाजार हाट के दिन वहीं एक निश्चित स्थान (झोंपड़ी) में पहुंच जाता है- वह ऋण देता भी है और पुराने ऋण की किश्तें भी वापस लेता है। ग्राहक को कहीं भागा-दौड़ी नहीं करनी पड़ती।
 पूंजी एकत्र करने के लिये स्वयं सहायता समूह की पध्दति अपनाई बढ़ाई जाए। गांव के शिक्षित लोग लेखा रखने में बहुमूल्य योगदान दे सकते हैं।
 महिलाओं को नौकरियों में आने लायक शैक्षणिक योग्यता या प्रशिक्षण को बढ़ाया जाए। उदाहरण के लिए- लेखा संधारण पध्दति में थोड़ा प्रशिक्षण। कम्प्यूटर पर काम करने के लिये थोड़ा प्रशिक्षण (3-4 माह)
पारम्परिक कामों जैसे कृषि, पशु-पालन आदि में और अधिक समृध्दि के लिये जानकारी का प्रदाय। जैसे कृषि में ड्रिप इरिगेशन, हॉरमोन से पौधा संवर्धन, कीटनाशक अथवा उर्वरक का सही उपयोग, स्री प्रध्दति से धान उत्पादन का संवर्धन, बहुविध उपज (मल्टी क्रापिंग), नर्सरी निर्माण आदि।
जहां महिला कर्मियों का अवशोषण संभव है वहां अधिक सजगता।

 परिवारों में सामंजस्य बराबरी की भावना का परिपालन विकास। याद रहे, पहला संस्कार परिवार से ही मिलता है। यदि माता-पिता का आदर करते हैं, तो पुत्र भी अपनी पत्नी का आदर ही करेंगे।

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