रविवार, 23 फ़रवरी 2014

पारदर्शिता की चुनौती

चुनाव किसी भी लोकतंत्र को निकट से देखने का सबसे बेहतरीन जरिया हो सकते हैं। जब मत-शक्ति ही राजतंत्र और लोकतंत्र के बीच का सबसे बड़ा अंतर हो तब लोगों द्वारा अपने प्रतिनिधियों के चयन की प्रक्रिया खुद में ही एक यादगार उत्सव बन जाती है। 1947 में जब हमने स्वयं को औपनिवेशिक शासन के अत्याचार से आजाद करवाया तब हमने एक ऐसे तंत्र का निर्माण किया जिसके तहत कोई भी व्यक्ति चुनाव लड़कर जनता के समक्ष अपनी परीक्षा दे सकता था। दुर्भाग्यवश, यह प्रक्रिया उस दूरदर्शिता पर खरी नहीं उतर पाई है जिसे हमारे संस्थापकों, संविधान निर्माताओं ने हमारे लिए रचा था। वर्तमान में जिस प्रकार चुनावों का आयोजन किया जा रहा है वह हमारे लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक साबित हो सकता है। चुनाव वित्तापोषण और खर्च को ही ले लीजिए। हाल ही में चुनाव आयोग द्वारा चुनावी खर्च में वृद्धि की घोषणा ने इसे वापस बहस और चर्चा का मुद्दा बना दिया है, लेकिन सार्वजनिक बहस में धन की मात्रा पर अधिक ध्यान केंद्रित किया जा रहा है, इसकी वैधता पर इतना नहीं। मेरे विचार में वैधता की कमी ही वह एक ऐसा पहलू है जो देश में चुनावों की प्रकृति पर सबसे बुरा प्रभाव डालता है।

मौजूदा ढांचे के तहत राजनीतिक दलों के लिए उनके वित्ता स्नोतों का खुलासा करना अनिवार्य नहीं है। यदि कोई दल कर से छूट प्राप्त करने की इच्छा रखता है, तब उसके लिए बीस हजार या उससे अधिक का योगदान करने वाले दाताओं की पहचान प्रकट करना अनिवार्य है। इसलिए कई दल वास्तव में योगदान की जानकारी प्रदान नहीं करते। चुनाव सुधार के लिए प्रयासरत संस्थानों नेशनल इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स द्वारा किए गए एक विश्लेषण के अनुसार 'नामित' योगदानकर्ताओं से प्राप्त दान दलों की कुल आय का बहुत छोटा हिस्सा था। 2009-11 के बीच संसद में सबसे बड़े दो दलों की कुल आय में से केवल 12 प्रतिशत और 23 प्रतिशत ही 20,000 रुपये से अधिक मात्रा की भेंट द्वारा उपार्जित किया गया था। इससे साबित होता है कि हमें तंत्र में अधिक पारदर्शिता लाने की अत्यंत आवश्यकता है। जरूरी है कि कानून में संशोधन कर ऐसे प्रावधान लाए जाएं जो पार्टियों को वित्ता स्नोत घोषित करने के लिए प्रोत्साहित करें और दलों प्रत्याशियों के खातों का ऑडिट अनिवार्य करें। चुनाव आयोग को वित्ता स्नोतों की गलत जानकारी देने पर दलों और प्रत्याशियों को दंडित करने का अधिकार देने की भी आवश्यकता है।

अगला मामला भारत में चुनाव लड़ने के तरीकों से संबंधित है और ऊपर उजागर चिंता से जुड़ा हुआ है। इसका संबंध उस कांच की छत से है जो आज भारत की राजनीति में नए लोगों को अंदर आने से रोकती है। चुनाव लड़ना बहुत महंगा साबित हो सकता है। यदि हम चुनाव आयोग द्वारा तय की गई नई व्यक्तिगत चुनावी खर्च की सीमा पर ही विचार करें तब भी हर एक प्रत्याशी लोकसभा चुनाव के लिए 70 लाख रुपये तक खर्च कर सकता है। निश्चित रूप से यह सीमा चुनाव लड़ने की इच्छा रखने वाले कई लोगों की पहुंच से बहुत दूर होगी। यह अलग विषय है कि यह आधिकारिक सीमा भी वास्तविकता से बहुत परे है। यह सोचना मूर्खता होगी कि सभी प्रत्याशी चुनाव आयोग द्वारा तय खर्च सीमा को लक्ष्मण रेखा मानते होंगे। इसीलिए यह मामला सुधार की प्रक्त्रिया आरंभ करने के लिए उपयुक्त है। समकालीन दौर में राजनीतिक परिवार या बड़े व्यावसायिक घराने में पैदा हुए बिना सीट की उम्मीद करने वाले किसी भी व्यक्ति को निराशा ही हाथ लगने की संभावना है। जब किसी भी तंत्र में रुकावटों को हटा दिया जाता है तब लोगों को अधिक स्वतंत्रता और विकल्प प्राप्त होते हैं और समाज को भी लाभ प्राप्त होता है। कुछ ऐसा ही भारत के व्यावसायिक क्षेत्र में हुआ था, जब हमने राच्य नियंत्रणों को समाप्त किया था। हमें राजनीतिक तंत्र में भी कुछ ऐसा करने की आवश्यकता है ताकि कोई भी व्यक्ति जो देश की सेवा करने की इच्छा रखता हो, आगे बढ़कर राजनेता के रूप में समाज का प्रतिनिधित्व कर सके। मैं एक ऐसे तंत्र का समर्थक हूं जो प्रत्याशियों और दलों को राच्य द्वारा वित्तापोषण प्रदान करे और कुछ इस प्रकार से करे जिससे सक्षम प्रत्याशियों को बढ़ावा मिले और दलों को अपने वित्तापोषण के स्नोतों का खुलासा करना पड़े। अमेरिका में प्राइमरीज का उदाहरण ले लीजिए।


एक प्रत्याशी के किसी बड़े इलाके में जन समर्थन साबित करने के पश्चात अमेरिकी सरकार उस प्रत्याशी को प्रत्येक व्यक्तिगत दाता के लिए एक निश्चित अनुपात में धन प्रदान करती है। कहने का अर्थ है कि यदि आप एक व्यापक जन आधार इकट्ठा करने में कामयाब हो पाए हैं और एक व्यक्तिगत दाता आपके चुनावी खर्च के लिए एक छोटी धनराशि दान में देता है तो राच्य भी उसके समतुल्य धन राशि आपको देगा। इसी तरह से अमेरिका में प्रत्येक प्रमुख दल के राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार एक निश्चित धनराशि सरकार से चुनाव खर्च के रूप में ले सकता है यदि वह उम्मीदवार उस अनुदान की राशि की सीमा के अंदर ही खर्च करने को राजी हो जाए और अभियान के लिए निजी योगदान स्वीकार ना करे। राच्य द्वारा वित्तापोषण प्राप्त करने वाले सभी प्रत्याशी और दल भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक की निगरानी में किए गए ऑडिट के अधीन होने चाहिए और इन ऑडिट रिपोटरें को सार्वजनिक किया जाना चाहिए। चुनावी धन में पारदर्शिता की कमी हमारे समाज में कई बुराइयों का सबसे बड़ा कारण है। यदि एक राष्ट्र के रूप में हम इन प्रगतिशील सुधारों को लागू करने का निर्णय लेते हैं तो हम धीरे-धीरे ही सही, लेकिन निश्चित रूप से भारत में लोकतंत्र को खतरा पहुंचाने वाले अंतरंग पूंजीवाद, भाई-भतीजावाद और राजनीतिक कुलीन तंत्र जैसी बुराइयों को ठीक कर पाएंगे।

फांसी पर राजनीति

सर्वोच्च न्यायालय ने लगभग एक माह पहले फांसी की सजा को उम्रकैद में तब्दील करने के स्पष्ट दिशा-निर्देश बताए थे। जिसमें एक प्रमुख बात यह थी कि अगर फांसी की सजा प्राप्त कैदी की दयायाचिका पर लंबे अरसे तक निर्णय नहींलिया गया है तो उसे उम्रकैद में बदल दिया जाना चाहिए। इसी आधार पर 15 लोगों की मौत की सजा उम्रकैद में बदल दी गई थी और तब से कुछ और सजायाफ्ता कैदियों पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का इंतजार देश को था, इसमें पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारे भी शामिल थे। मंगलवार को सर्वोच्च न्यायालय ने राजीव गांधी की हत्या के दोषी तीन लोगों की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदलने का निर्णय सुनाया और तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने बिना देरी किए अगले ही दिन श्री गांधी की हत्या के दोषी सभी लोगों की रिहाई का फैसला कर लिया। जिस पर केंद्र सरकार की पुनर्विचार याचिका के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगा दी। यह सही है कि जिन तीन कैदियों की फांसी आजीवन कारावास में बदली, उनकी दया याचिका पिछले 11 वर्षों से लंबित थी, और सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों के मुताबिक उनके संबंध में जो निर्णय लिया गया उसके ठोस न्यायिक और संविधानिक आधार हैं। यहां यह भी गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने उम्र कैद का मतलब जीवनपर्यंत कारावास बताया था। किंतु सुश्री जयललिता ने फांसी की सजा पाए तीन कैदियों समेत सभी सात दोषियों की रिहाई के संबंध में जो जल्दबाजी दिखाई, उसके पीछे न्यायिक, संविधानिक या मानवीय कारण नहींबल्कि विशुध्द राजनैतिक कारण दिखाई दे रहे हैं।

तमिलनाडु में क्षेत्रवाद, भाषावाद किस कदर अपनी जड़ें जमाए हुए है, इसकी अलग से व्याख्या की आवश्यकता नहीं। विगत कई वर्षों से एमडीएमके के वाइको, द्रमुक के करुणानिधि और अन्नाद्रमुक की जयललिता सभी अपने-अपने स्तर पर तमिल भावनाओं को भुनाते रहे हैं। पूर्व उल्लेखित दोनों दल इस मामले में थोड़े अधिक उग्र हैं, जबकि जयललिता ने बीते कुछ बरसों से तमिल क्षेत्रवाद की राजनीति पर अधिक ध्यान देना प्रारंभ किया है। चूंकि आम चुनाव निकट हैं और जयललिता भावी प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा रखती हैं, तो उन्होंने इस बार तमिल भावनाओं को भुनाने में जल्दबाजी दिखाई और इसके पहले कि वाइको या करुणानिधि के दल राजीव गांधी के हत्यारों पर कोई राजनीतिक चाल चलते, उन्होंने सातों कैदियों की रिहाई का फैसला लेकर सबसे बड़ा तमिल रहनुमा बनने का दांव चल दिया है। इस दांव से उन्हें कितना लाभ मिलता है और विपक्षी दल इसका जवाब कैसे ढूंढते हैं, यह बाद में पता चलेगा। किंतु इससे राष्ट्रीय हितों और न्यायालय की भावना की जो अनदेखी हुई है, उसका नुकसान अवश्य देश को उठाना पड़ेगा। फांसी पर राजनीति की चाल इस देश के लिए अभिशाप की तरह बनती जा रही है। अफजल गुरु की फांसी पर भी सियासत चली और हाल के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद कश्मीर के राजनेताओं ने फिर उस पर बयानबाजी प्रारंभ की, जबकि वे जानते हैं कि इससे स्थितियां और उलझेंगी। इसी तरह पंजाब में बेअंत सिंह की हत्या के दोषियों पर राजनीति चली, जिसका नुकसान अंतत: जनता को ही भुगतना पड़ता है। बहुविध संस्कृतियों वाले भारत में क्षेत्रवाद और जातिवाद के कारण जब हत्या के आरोपियों का महिमामंडन कुछ लोग करने लगें, या उन्हें निर्दोष बताने के लिए जोड़-तोड़ करने लगें तो इससे उन्हें क्षणिक राजनीतिक लाभ अवश्य मिल सकता है, लेकिन देश को दीर्घकालिक हानि ही होगी।


सर्वोच्च न्यायालय ने जो दिशा-निर्देश दिए थे, उसके पीछे सभ्यता के विकास में काफी आधुनिक हो चुके समाज की यह मान्यता काम कर रही है कि जहां तक हो सके किसी को मौत की सजा मिले, क्योंकि हम किसी को जीवन दे नहींसकते, तो लेने का अधिकार भी नहींहै। मानवाधिकार की सोच इस फैसले के पीछे है। भारत में ऐसी ही सोच के चलते दुर्लभतम मामलों में ही फांसी का प्रावधान है, वह भी लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद। लेकिन इसका यह अभिप्राय कतई नहींहै कि न्यायपालिका की उदार, तर्कसम्मत दृष्टि का अनुचित लाभ राजनीतिक दल उठाएं और जनभावनाओं को भड़काएं।

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