सोमवार, 17 फ़रवरी 2014

भारत में निर्वाचन प्रणाली का विकास

अगस्त 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद स्वतंत्र भारत में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर सही मायनों में प्रतिनिधि सरकार चुनने के लिए आम चुनाव कराने की आवश्यकता पड़ी। इसलिए स्वतंत्र संवैधानिक प्राधिकार के रूप में निर्वाचन आयोग की स्थापना का प्रावधान करने वाले संविधान के अनुच्छेद-324 को 26 नवम्बर, 1949 को लागू किया गया, जबकि अधिकतर अन्य प्रावधानों को 26 जनवरी, 1950 (जब भारत का संविधान लागू हुआ) से प्रभावी बनाया गया।

निर्वाचन आयोग का औपचारिक गठन 25 जनवरी, 1950 को हुआ यानी भारत के संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य बनने के ठीक एक दिन पहले। 21 मार्च, 1950 को श्री सुकुमार सेन भारत के पहले मुख्य निर्वाचन आयुक्त नियुक्त किये गए।

 वर्ष 1950 से 16 अक्तूबर, 1989 तक आयोग ने एक सदस्य निकाय के रूप में काम किया। 16 अक्तूबर, 1989 से एक जनवरी, 1990 तक निर्वाचन आयोग को तीन सदस्यीय निकाय के रूप में परिवर्तित किया गया। लेकिन 01 जनवरी, 1990 को इसे फिर एक सदस्य निकाय का रूप दिया गया। निर्वाचन आयोग 01 अक्तूबर, 1993 से नियमित रूप से तीन सदस्यीय निकाय के रूप में काम कर रहा है।

मुख्य निर्वाचन आयुक्त तथा दो निर्वाचन आयुक्तों को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के समान वेतन और भत्ते दिये जाते हैं। निर्णय लेने में सभी तीन आयुक्तों की शक्तियां बराबर हैं। किसी विषय पर मतभिन्नता की स्थिति में निर्णय बहुमत से लिया जाता है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त तथा अन्य दो निर्वाचन आयुक्तों का कार्यकाल छह वर्ष या 65 वर्ष की आयु तक, जो भी पहले हो, होता है।

लोकसभा तथा विधानसभाओं के प्रथम आम चुनाव कराने के उद्देश्य से निर्वाचन आयोग के परामर्श तथा संसद की सहमति से राष्ट्रपति द्वारा परिसीमन का पहला आदेश 13 अगस्त, 1951 को जारी किया गया।

चुनाव कराने के उद्देश्य से वैधानिक ढांचा उपलब्ध कराने के लिए संसद ने 12 मई, 1950 को पहला अधिनियम (जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950) पारित किया। इसमें मुख्यतः मतदाता सूचियां तैयार करने का प्रावधान किया गया। दूसरा अधिनियम 17 जुलाई, 1951 (जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951) पारित किया गया और इसमें संसद के दोनों सदनों तथा प्रत्येक राज्य के लिए विधानसभाओं के निर्वाचन की प्रक्रिया तय करने का प्रावधान हुआ।

इन निर्वाचन क्षेत्रों के लिए मतदाता सूचियां सभी राज्यों में 15 नवम्बर, 1951 तक प्रकाशित की गईं। मतदाताओं की कुल संख्या (जम्मू-कश्मीर को छोड़कर) 17,32,13,635 थी जबकि 1951 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या (जम्मू-कश्मीर को छोड़कर) 35,66,91,760 थी। लोकसभा तथा विधानसभाओं के पहले आम चुनाव अक्तूबर, 1951 तथा मार्च, 1952 के बीच हुए। 497 सदस्यों वाली पहली लोकसभा 02 अप्रैल, 1952 को गठित की गई। 216 सदस्यों वाली पहली राज्यसभा 03 अप्रैल, 1952 को गठित हुई।

संसद के दोनों सदनों तथा राज्य विधानसभाओं के गठन के बाद मई, 1952 में प्रथम राष्ट्रपति चुनाव हुआ तथा विधि रूप से निर्वाचित पहले राष्ट्रपति ने 13 मई, 1952 को पदभार ग्रहण किया। 1951-52 में पहले आम चुनाव के समय आयोग ने 14 राजनीतिक दलों को बहु-राज्यीय दलों तथा 39 दलों को क्षेत्रीय दलों के रूप में मान्यता दी थी। अभी मान्यता प्राप्त सात राष्ट्रीय दल तथा 40 क्षेत्रीय दल हैं।

1951-52 तथा 1957 में पहले तथा दूसरे आम चुनावों के लिए निर्वाचन आयोग ने मतदान की मतपेटी प्रणाली अपनाई। इस प्रणाली के अंतर्गत प्रत्येक मतदान केन्द्र पर एक कमरे में प्रत्येक उम्मीदवार को एक अलग मतपेटी आवंटित की गई तथा मतदाता से केन्द्रीयकृत पूर्व मुद्रित मतपत्रों को उनकी पसंद के अनुसार उम्मीदवार की मतपेटी में डालने को कहा गया।

1962 मे हुए तीसरे आम चुनाव तथा उससे आगे आयोग ने मतदान कीमुहर प्रणालीलागू की। इसके अंतर्गत एक पृष्ठ पर चुनाव लड़ रहे सभी उम्मीदवारों के नाम तथा निर्वाचन चिन्ह छपे होते थे जिस पर मतदाता को रबर स्टैंप से अपनी पसंद के उम्मीदवार के निर्वाचन चिन्ह के निकट तीरनुमा मुहर लगानी होती थी। मुहर लगे सभी मतपत्रों को एक समान मतपेटी में डाल दिया जाता था।

इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) का उपयोग प्रायोगिक आधार पर आंशिक रुप से 1982 में केरल के परूर विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र में किया गया। बाद में 1998 में ईवीएम का व्यापक उपयोग शुरू हुआ। पहली बार 2004 में 14वीं लोकसभा के लिए हुए आम चुनाव में देश के सभी मतदान केन्द्रों पर ईवीएम का इस्तेमाल किया गया। तब से लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं के चुनाव ईवीएम के इस्तेमाल से हुए हैं।

1951-52 से लोकसभा के 15 आम चुनाव तथा विधानसभाओं के 348 आम चुनाव हुए है। देश अब 16वें लोकसभा चुनाव के लिए पूरी तरह तैयार है।


रविवार, 16 फ़रवरी 2014

राष्ट्र से महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं

हाल ही में पांच रायों में हुए चुनाव परिणामों के बाद आगामी अप्रैल-मई में होने वाले लोकसभा चुनावों को लेकर कई तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं। भविष्य को लेकर भी कई प्रकार की बातें भी की जा रही हैं। सत्ता की राजनीति से सदा दूर रहकर समाज का काम करने वाले एक लोकसेवक के नाते मेरे सामने आज कई चिंताजनक विषय हैं, जिन्हें मैं आप सभी के साथ साझा करना चाहता हूं।

इन दोनों चुनावों के बारे में विश्लेषक अलग-अलग अटकल लगा रहे हैं और कुछ तो भविष्यवाणी भी कर रहे हैं। इसी बीच दलों एवं राजनीतिज्ञों द्वारा अपनी ओर आकर्षित करने के लिए तमाम तरीके अपनाए जा रहे हैं। इसमें सबसे यादा अशोभनीय तरीका है जनता के प्रतिनिधि बनने के दावेदार उम्मीदवारों द्वारा अपने प्रतिस्पर्धी दल के नेताओं के खिलाफ  भद्दी-भद्दी बातें करना। बरसों पहले जब आज की तुलना में चुनाव इतने स्पर्धात्मक नहीं थे, तब आचार्य विनोबा भावे ने चुनाव के सबसे विलक्षण चरिर्त की व्याख्या करते हुए कहा था कि वह आत्मप्रशंसा और परनिंदा करने वाले होते हैं। उस काल की तुलना में आज यह परिभाषा और भी यादा सही बन गई है। वर्तमान में आत्मप्रशंसा और परनिंदा के सागर में झूठे-सच्चे वायदों के बीच देश के मूलभूत सवाल कहीं खो गए हैं और उनके बजाए तात्कालिक चमक-दमक की बातों से मतदाताओं की आंखें चौंधिया रही हैं। यदि आम चुनाव में देश के मूलभूत प्रश्नों का विचार हो तो ये चुनाव लोकतंत्र को मजबूत करने तथा संविधान के मूल सिध्दांतों को लागू करने की दिशा में आगे बढ़ने में सहायक होते। यही नहीं, बार-बार होने वाले यह चुनाव हमारे देश की प्रगति के मील के पत्थर भी बन सकते हैं।

हमें दो मुख्य बातों का विचार करना चाहिए। सर्वप्रथम चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवार के व्यक्तित्व और उसकी काबीलियत के बारे में तो सोचना ही चाहिए इसी के साथ हमें इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि यदि उनमें से कुछ उम्मीदवारों की प्रकृति तानाशाह जैसी हो तो उसका प्रभाव देश के लोकतंत्र के लिए घातक साबित हो सकता है। लेकिन व्यक्ति  के स्वभाव से यादा जरूरी  है उसकी नीतियों पर विचार करना। यह इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि चुनाव जीतने के बाद लोग सत्ता में आए दल से उन नीतियों को लागू किए जाने की आशा भी रखेंगे। विरोधी दल भी इन्हीं नीतियों को केंद्र में रखकर सत्ताधारी दल का मूल्यांकन करेंगे। इसलिए नीतियों का  सवाल उम्मीदवार के व्यक्तित्व  जितना ही महत्वपूर्ण बन जाता है।

दूसरी विचारणीय बात है, इस साल होने वाले चुनाव किन मूलभूत सिध्दांतों को केंद्र में रखकर होंगे? यह हमारी चिंता का विषय है। जाहिर सी बात है राष्ट्रीय चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर होने चाहिए। यानि देश के यादातर लोगों के जीवन से संबंधित होने चाहिए। मूलभूत नीतियों की प्राथमिकता को देखते हुए राष्ट्रीय मुद्दे ऐसे होने चाहिए जो:
-संविधान के मूलभूत सिध्दांतों को ध्यान में रखकर खड़े किए गए हों।
- देश के यादा से यादा लोगों के जीवन को दीर्घकाल तक प्रभावित करने वाले हों।
- उन प्रश्नों को स्पर्श करने वाले हों जो विशेष रूप से समाज के दलित, वंचित तथा पिछड़ों के जीवन से संबंध रखते हों।

हमारी चिंता  का विषय यह है कि आजकल चुनाव में जिन मुद्दों पर विचार होता है वह समाज के मुखर या श्रेष्ठी वर्ग को ध्यान में रखकर उठाए जाते हैं और जो वर्ग मुखर नहीं होते उनकी आवाज चुनाव के शोर शराबे में दब जाती है। वर्तमान में देश की एक मूलभूत समस्या है रोजी रोटी की। लेकिन राजनीतिक दल प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की प्रशासनिक क्षमता या अक्षमता अथवा भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे ही उठा रहे हैं। इस शोरगुल में कहीं भी करोड़ों भूमिहीन या करोड़ों कम पढ़े-लिखे शहरी ग्रामीण युवकों के प्रश्न नहीं उठाए जाते। इसी प्रकार जल, जंगल और जमीन से जुड़े सवाल  भी देश मूलभूत प्रश्न हैं। देश के सैकड़ों इलाकों में सामान्य जनता, खास तौर से वंचित समाज, इन सवालों को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। लेकिन चुनाव की आंधी में इन आंदोलनों का स्वर दबाया जाता है।

भारतीय संविधान के मूलभूत सिध्दांतों द्वारा मान्य स्वतंत्रता, समानता, बंधुता और न्याय की दिशा में देश कितना आगे बढ़ पाया है यही अपने देश के लोकतंत्र की सही कसौटी हो सकती है। आज तात्कालिक सवालों पर इतना शोरगुल होता है कि उसकी चकाचौंध में जनता मूलभूत सिध्दांतों तथा सवालों को भूल जाती है और इसी कारण लोकतंत्र कमजोर होता जाता है। हर चुनाव में इस बात पर विचार होना चाहिए कि सच्चे लोकतंत्र में अंतिम सत्ता किसके हाथ में हो? मतदाताओं के या उनके द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथ में? विधायक, सांसद या प्रधानमंत्री के बारे में चर्चा करने का अपना महत्व हो सकता है, लेकिन यह एकमार्त महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं है।

महत्व की बात तो यह है कि हर चुनाव के बाद आम लोग मजबूत हों और लोकतंत्र मजबूत हो, कि केवल सत्ताधारी या विपक्षी दल। यह एक चिंता का विषय है कि हम चुनाव प्रचार की अंधी दौड़ में कहीं सत्ता के असली हकदार मतदाता को गौण बनाकर, उसे बहला-फु सलाकर, ललचाकर, खरीदकर, डरा-धमकाकर और या नशे में चूर कर उसका मत हासिल कर सिर्फ  राजनीतिक दलों को ही मजबूत कर रहे हैं। कोई भी दल कभी भी राष्ट्र से यादा महत्वपूर्ण नहीं हो सकता एवं उम्मीदवार कभी भी मतदाता से महत्वपूर्ण नहीं हो सकता। इसलिए राष्ट्र का महत्व समझकर सभी दलों को देश के मूलभूत प्रश्नों पर अपनी नीति घोषित करनी चाहिए। चुनाव जीतकर सत्ता में जाने के बाद उस दल की सरकार इन मूलभूत सवालों को हल करने का काम कैसे कर रही है, इस बात की चौकीदारी मतदाताओं को करनी चाहिए।


तात्कालिक और दीर्घकालिक मूलभूत प्रश्नों के चयन में विवेक रखना होगा। भ्रष्टाचार नाबूद (नष्ट) होना चाहिए और इस बारे में एकमत होना चाहिए। भ्रष्टाचार में शामिल दोनों प्रकार के लोग एक तो जो घूस लेते हैं और दूसरे जो देते हैं - दोनों को रोकने के कार्यक्रम बनाने चाहिए। महंगाई पर अंकुश लगना चाहिए और इसके लिए संबंधित राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कारणों पर काबू पाना चाहिए। इसी प्रकार, देश के ग्रामीण और शहरी बेरोजगार युवकों को रोजगार देना यह एक मूलभूत सवाल है। देशी या विदेशी कंपनियों को खनिज के दोहन के लिए खुली छूट देकर उस जमीन पर बसने वाले लोगों को विस्थापित करने की नीति को रद्द किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त शिक्षा के निजीकरण और व्यापारीकरण के कारण गरीब वर्ग शिक्षा से वंचित हो गया है। इस प्रकार के अनेक मूलभूत सवाल, जो चुनाव के शोरगुल में दब गए हैं, उन्हें आज उठाना निहायत जरूरी हो गया है।

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