बुधवार, 26 जून 2013

आपदा, प्राकृतिक आपदा एवं उनका प्रबंधन

आपदा एक प्राकृतिक या मानव निर्मित जोखिम का प्रभाव है जो समाज या पर्यावरण को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है आपदाशब्द ज्योतिष विज्ञान से आया है इसका अर्थ होता है कि जब तारे बुरी स्थिति में होते है तब बुरी घटनाये होती हैं.

समकालीन शिक्षा में, आपदा अनुचित प्रबंधित जोखिम के परिणाम के रूप में देखा जाता है. ये खतरें आपदा और जोखिम के उत्पाद है. आपदा जो कम जोखिम के क्षेत्र में होते हैं वे आपदा नही कहे जाते हैं जैसे निर्जन क्षेत्र में. विकाशशील देश आपदा का भारी मूल्य चुकाते हैं- आपदा के कारण ९५ % मौत विकासशील देशों में होती है और प्राकृतिक आपदा से होने वाली मौत औद्योगिक देशों की तुलना में विकाशशील देशों में २० गुना ज्यादा हैं. आपदा को निम्न प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है -एक दुखद घटना, जैसे सड़क दुर्घटना, आग, आतंकवादी हमला या विस्फोट, जिसमें कम से कम एक पीड़ित व्यक्ति हो.

एक प्राकृतिक आपदा एक प्राकृतिक जोखिम का ही परिणाम है (जैसे की ज्वालामुखी विस्फोट, भूकंप, या भूस्खलन) जो कि मानव गतिविधियों को प्रभावित करता है.मानव दुर्बलताओं को उचित योजना और आपातकालीन प्रबंधन के आलोक में और बढ़ा देता है, जिसकी वजह से आर्थिक, मानवीय और पर्यावरण को नुकसान पहुँचता है. इसके परिणाम स्वरुप होने वाली हानि जनसँख्या की आपदा को बढ़ावा देने या विरोध करने की क्षमता पर निर्भर करती है अर्थात उनके लचीलेपन पर. ये समझ केंद्रित है इस विचार में: "जब जोखिम और दुर्बलता का मिलन होता है तब दुर्घटनाएं घटती हैं". जिन इलाकों में दुर्बलताएं निहित न हों वहां पर एक प्राकृतिक जोखिम कभी भी एक प्राकृतिक आपदा में तब्दील नहीं हो सकता है, उदहारण स्वरुप, निर्जन प्रदेश में एक प्रबल भूकंप का आना.बिना मानव की भागीदारी के घटनाएँ अपने आप जोखिम या आपदा नहीं बनती हैं, इसके फलस्वरूप प्राकृतिक शब्द को विवादित बताया गया है. हाल ही में भारत के उत्तरी राज्यों में घटित बाढ़ और भूस्खलन की घटना ने प्राकृतिक आपदाओं के स्वरूप पर बहस को और गंभीर बना दिया है .

ये आपदाएं मानव निर्मित थी अथवा प्राकृतिक इस पर बहस भले ही की जा रही हो परन्तु इस बात से किसी को संदेह नहीं की आपदा पश्चात के प्रबंधन की मानवीय तथा अन्य भौतिक क्षति को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है . कुदरत के कहर से भारी तबाही का सामना कर रहे उत्तराखंड के पास इस आपदा से निपटने के लिए कोई आपदा प्रबंधन योजना ही नहीं थी। अपनी सरंचना के कारण हमेशा ही प्राकृतिक आपदाओं के खतरे से घिरे रहने वाले इस राज्य की ओर से इन आपदाओं से निपटने के लिए कोई पुख्ता तैयारी नहीं की गई थी। कैग द्वारा हाल ही में 23 अप्रैल को जारी एक विज्ञप्ति में कहा गया है कि अक्टूबर 2007 में गठित स्टेट डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी की आज तक कोई बैठक तक नहीं हुई है और न ही इस अथॉरिटी ने अब तक आपदा से निपटने के लिए कोई नियम-कानून या दिशानिर्देश ही बनाए हैं।

राज्य की आपदा प्रबंधन तंत्र की तरफ इशारा करते हुए कैग की रिपोर्ट में कहा गया है कि नियमों के अनुसार आपदा के समय उससे निपटने की तैयारी की जिम्मेदारी आपदा प्रबंधन तंत्र की होती है। लेकिन इस मामले में 'राज्य की अथॉरिटीज पूरी तरह से निष्क्रय थीं।' राज्य आपदा प्रबंधन प्लान निर्माणाधीन था और कई आपदाओं के लिए कोई योजना ही नहीं बनाई गई।

क्या आपदा पूर्व चेतावनियों पर अमल करके उत्तराखंड के ऊपरी इलाकों को तबाही से बचाया जा सकता था। कैग की रिपोर्ट में कहा गया है कि पहले से जारी चेतावनियों पर अमल करने के बारे में कोई योजना नहीं बनाई गई थी। 'संचार व्यवस्था अपर्याप्त थी। यह लपरवाही तब और भी चौंकाने वाली बन जाती है जबकि वर्ष 2007-8 और 2011-12 के बीच राज्य में 653 लोगों ने प्राकृतिक आपदाओं में अपनी जानें गंवाईं। इनमें से 55 प्रतिशत लोगों की मौत भूस्खलन और तेज बारिश की वजह से हुई। इस अवधि के दौरान राज्य में 27 बड़े भूस्खलन की घटनाएं हुईं। अकेले वर्ष 2012 में 176 लोगों की मौत प्राकृतिक आपदा के कारण हुई।

साथ ही कैग की रिपोर्ट में राज्य आपदा राहत कोष के धन के इस्तेमाल में भी बड़े पैमाने पर गड़बड़ियों की तरफ इशारा किया गया है। इसमें कहा गया है कि राज्य सरकार ने प्राकृतिक आपदा की सलाना रिपोर्ट तक तैयार नहीं की और नहीं उसने इस बात जानकारी दी की राहत कोष के फंड का इस्तेमाल कैसे किया गया। नतीजा वर्ष 2007-11 के दौरान केंद्र सरकार द्वारा फंड जारी करने में 80 दिन से लेकर 184 दिनों की देरी हुई।

उत्तराखंड सरकार के कुप्रंबधन का उदाहरण देते हुए कैग ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने जून 2008 में राज्य के 101 गांवों को असुरक्षित करार दिया था लेकिन आज तक राज्य सरकार ने उस गांव के लोगों के लिए पुर्नवास की योजना नहीं बनाई।

भारत में लोगों को आपदासे बचाना या तत्काल राहत देना किसकी जिम्मेदारी है?. दरअसल आपदा प्रबंधन तंत्र की सबसे बड़ी आपदा यह है कि लोगों को कुदरती कहर से बचाने की जिम्मेदारी अनेक की है और किसी एक की नहीं।

इस देश में जब लोग बाढ़ में डूब रहे होते हैं, भूकंप के मलबे में दब कर छटपटाते हैं या फिर ताकतवर तूफान से जूझ रहे होते हैं, तब दिल्ली में फाइलें सवाल पूछ रही होती हैं कि आपदा प्रबंधन किसका दायित्व है? कैबिनेट सचिवालय? जो हर मर्ज की दवा है। गृह मंत्रालय? जिसके पास दर्जनों दर्द हैं। प्रदेश का मुख्यमंत्री? जो केंद्र के भरोसे है। या फिर नवगठित राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण? जिसे अभी तक सिर्फ ज्ञान देने और विज्ञापन करने का काम मिला है। एक प्राधिकरण सिर्फ 65 करोड़ रुपये के सालाना बजट में कर भी क्या सकता है। ध्यान रखिए कि इस प्राधिकरण के मुखिया खुद प्रधानमंत्री हैं।

जिस देश में हर पांच साल में बाढ़ 75 लाख हेक्टेयर जमीन और करीब 1600 जानें लील जाती हो, पिछले 270 वर्षो में जिस भारतीय उपमहाद्वीप ने दुनिया में आए 23 सबसे बड़े समुद्री तूफानों में से 21 की मार झेली हो और ये तूफान भारत में छह लाख जानें लेकर शांत हुए हों, जिस मुल्क की 59 फीसदी जमीन कभी भी थरथरा सकती हो और पिछले 18 सालों में आए छह बड़े भूकंपों में जहां 24 हजार से ज्यादा लोग जान गंवा चुके हों, वहां आपदा प्रबंधन तंत्र का कोई माई-बाप न होना आपराधिक लापरवाही है।

सरकार ने संगठित तौर पर 1954 से आपदा प्रबंधन की कोशिश शुरू की थी और अब तक यही तय नहीं हो सका है कि आपदा प्रबंधन की कमान किसके हाथ है। भारत काआपदा प्रबंधन तंत्र इतना उलझा हुआ है कि इस पर शोध हो सकता है। आपदा प्रबंधनका एक सिरा कैबिनेट सचिव के हाथ में है तो दूसरा गृह मंत्रालय, तीसरा राज्यों, चौथा राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन या फिर पांचवां सेना के। समझना मुश्किल नहीं है कि इस तंत्र में जिम्मेदारी टालने के अलावा और क्या हो सकता है। गृह मंत्रालय के एक शीर्ष अधिकारी का यह कहना, 'आपदा प्रबंधन तंत्र की संरचना ही अपने आप में आपदा है। प्रकृति के कहर से तो हम जूझ नहीं पा रहे, अगर मानवजनित आपदाएं मसलन जैविक या आणविक हमला हो जाए तो फिर सब कुछ भगवान भरोसे ही होगा..', भी यही जाहिर करता है।

उल्लेखनीय है कि सुनामी के बाद जो राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण बनाया गया था, उसका मकसद और कार्य क्या है यही अभी तय नहीं हो सका है। सालाना पांच हजार करोड़ से ज्यादा की आर्थिक क्षति का कारण बनने वाली आपदाओं से जूझने के लिए इसे साल में 348 करोड़ रुपये मिलते हैं और काम है लोगों को आपदाओं से बचने के लिए तैयार करना। पर बुनियादी सवाल यह है कि आपदा आने के बाद लोगों को बचाए कौन? यकीन मानिए कि जैसा तंत्र है उसमें लोग भगवान भरोसे ही बचते हैं।

आपदा प्रबंधन का हाल

इन सबों के बीच हमें गुजरात से आपदा प्रबंधन सीखना चाहिए जहां बीस मीटर की गहराई में दबे इंसान की धड़कन सुनने वाला यंत्र, गोताखोरों को लगातार 12 घंटे तक आक्सीजन देने वाला ब्रीदिंग सिस्टम, अंडर वाटर सर्च कैमरा, आधुनिक इन्फेलेटेबल बोट, हाई वाल्यूम वाटर पंपिंग..। आप सोच रहे होंगे कि यह किसी विकसित देश के राहत दल की तकनीकी क्षमता का ब्यौरा है। जी नहीं! यह और ऐसी तमाम क्षमताएं व विशेषज्ञताएं इसी देश के एक राज्य, गुजरात में मौजूद हैं और इन्हीं के बूते आपदाप्रबंधन के मामले में गुजरात विकसित देशों से मुकाबले की स्थिति में आ गया है।

सोलह सौ किलोमीटर से अधिक के समुद्री किनारे तथा भूकंप के मामले में सक्रिय अफगानिस्तान से प्लेट जुड़ा होने के कारण गुजरात पर हमेशा आपदाओं का खतरा बना रहता है। लेकिन गुजरात ने आपत्ति को अवसर में बदलते हुए आपदा प्रबंधन में एक अनोखी दक्षता हासिल की है। आज गुजरात की यह विशेषज्ञता व उपकरण बिहार के बाढ़ पीड़ितों की जान बचा रहे हैं। मुख्य फायर आफिसर एम.एफ. दस्तूर बताते है कि इजरायल का एक्वा स्टिक लिसनिंग डिवाइस सिस्टम उनकी आपदा टीम की धड़कन है। यह उपकरण जमीन के नीचे बीस मीटर की गहराई में दबे किसी इसान के दिल की धड़कन तक सुन लेता है। मोटर वाली जेट्स्की बोट और गोताखोरों को लगातार 12 घटे (आम ब्रीदिंग सिस्टम की क्षमता 45 मिनट तक आक्सीजन देने की है) तक आक्सीजन उपलब्ध कराने वाला अंडर वाटर ब्रीदिंग एपेरेटस भी सरकार के पास हैं।

यहां का आपदा प्रबंधन तंत्र आधुनिक मास्क, इन्फ्लेटेबल बोट, हाई वाल्यूम पंपिंग यूनिट आदि आधुनिक उपकरणों से लैस है। यहां आपदा प्रबंधन दल के पास नीदरलैंड का हाइड्रोलिक रेस्क्यू इक्विपमेंट भी है, जो मजबूत छत को फोड़ कर फर्श या गाड़ी में फंसे व्यक्ति को निकालने का रास्ता बनाता है। सरकार ने अग्निकांड से निपटने के लिए बड़ी संख्या में अल्ट्रा हाई प्रेशर फाइटिग सिस्टम भी खरीदे हैं। आम तौर पर आग बुझाने में किसी अन्य उपकरण से जितना पानी लगता है, यह सिस्टम उससे 15 गुना कम पानी में काम कर देता है। इसे अहमदाबाद के दाणीलीमड़ा मुख्य फायर स्टेशन ने डिजाइन किया है। यह आग पर पानी की एक चादर सी बिछा कर गर्मी सोख लेता है।

अमेरिका के सर्च कैमरे तथा स्वीडन के अंडर वाटर सर्च कैमरे भी सरकार ने अपनी राहत और बचाव टीमों को दिए हैं। ये उपकरण जमीन के दस फीट नीचे तथा 770 फीट गहरे पानी में भी तस्वीरे उतार कर वहां फंसे व्यक्ति का सटीक विवरण देते हैं। अमरीका की लाइन थ्रोइंग गन से बाढ़ में या ऊंची बिल्डिंग पर फंसे व्यक्ति तक गन के जरिए रस्सा फेंक कर उसे बचाया जा सकता है। राज्य की एम्बुलेंस सेवा 108 ने तो गंभीर वक्त पर बहुत अच्छे परिणाम दिए है। अब गुजरात में कहीं भी पंद्रह मिनट में एम्बुलेंस सेवा प्राप्त की जा सकती है। गुजरात ने महज एक वर्ष के भीतर भूकंप की विनाशलीला का कोई चिह्न नहीं रहने दिया.

वर्तमान में आपदा प्रबन्धन का सरकारी तंत्र देखें ता कैबिनेट सचिव, गृहमंत्रालय, राज्यों में मुख्यमंत्री, राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन विभाग और सेना इस तंत्र का हिस्सा हैं। यह भी सच है कि हमारे देश में आपदा प्रबन्धन की स्थिति ज्यादा ही लचर है। हमारे आपदा प्रबन्धन की कमजोर कड़ी लगभग हर आपदा में ढीली दिखी, लकिन हमने उसे मजबूत करन का प्रयास नहीं किया। मीडिया की भाषा में यह प्रशासनिक लापरवाहीअथवा न्यायपालिका की भाषा में आपराधिक निष्क्रियताहै। प्रभावी आपदा प्रबन्धन की पहली शर्त है जागरूकता और प्रभावित क्षेत्रा में तत्काल राहत एजेन्सी की पहुंच। यदि लोगों में आपदा की जागरूकता नहीं है तो तबाही भीषण होगी और राहत में दिक्कतें आएंगी। आपदा सम्भावित क्षेत्र में तो लोगों को बचाव की बुनियादी जानकारी देकर भी आपदा से होने वाली क्षति को कम किया जा सकता है। आपदा प्रबन्धन के बाकी तत्वों में ठीक नियोजन, समुचित संचार व्यवस्था, ईमानदार एवं प्रभावी नेतृत्व, समन्वय आदि काफी महत्वपूर्ण हैं। हमारे देश में व्यवस्था की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि यहां सब-एक दूसरे पर जिम्मेवारी डालते रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक औसतन 5 से 10 हजार करोड़ की आर्थिक क्षति तो प्रतिवर्ष प्राकृतिक आपदाओं से उठाते हैं लकिन इससे जूझन के लिये आपदा प्रबन्धन पर हमारा बजट महज 348 करोड़ रुपये है। इस धनराशि में अधिकांश प्रचार आदि पर ही खर्च हो जाता है। प्रशिक्षण की अभी तो तैयारी भी नहीं है। वर्ष 2005 में आपदा प्रबन्धन अधिनियम संसद ने पारित कर दिया है। इसके बाद से ही राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण का गठन किया गया है.

गुजरात भूकम्प के बाद वहां विकसित प्रभावी आपदा प्रबन्धन तंत्र एक मिसाल है। इस मॉडल को अन्य राज्य सरकारें अपना सकती हैं। इस समय गुजरात आपदा प्रबन्धन विभाग को विश्वस्तरीय आपदा प्रबन्ध्न संस्था के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। यदि ऐसा है, तो अन्य राज्य सरकारों को भी अपना आपदा प्रबन्धन तंत्र मजबूत और प्रभावी बनाना चाहिए। बाढ़ प्रभावित इलाके में स्थानीय मदद से प्रत्येक गांव या दो-तीन गांवों पर एक आपदा राहत केन्द्र की स्थापना कर वहां दो-तीन महीन का अनाज, पर्याप्त साधन, जरूरी दवाएं, पशुओं का चारा, नाव, तारपोलीन व अन्य जरूरी चीजों का बाढ़ से पूर्व ही इन्तजाम सुनिश्चित किया जाना चाहिए। आज की सबसे बड़ी जरूरत है देश भर के इंजीनियरों, डाक्टरों, अफसरों, जनप्रतिनिधियों का ऐसी प्रशिक्षण दी जाए जो विषम से विषम परिस्थितियों में भी मजबूत मनोबल व पूरी क्षमता से कार्य कर सके । इस कार्य में अन्य स्वयंसेवी संगठनों, एनसीसी, एनएसएस, विविल डिफेंन्स, होमगार्ड, कालेज छात्रों को भी शामिल किया जाना चाहिए। आपदा प्रबन्धन में लापरवाही को राष्ट्रीय अपराध घोषित किया जाना चाहिए। हमें यह समझना ही होगा कि आपदा प्रबंधन की अनुपस्थिति समस्त उपलब्धियों पर पानी फेर सकती है।


भारत में आपदा प्रबंधन के विधिक ढांचे के विषय में और जानने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें  http://mha.nic.in/hindi/pdfs_hin/NPDM%28H%29150110.pdf



THE SIGNIFICANCE OF COOPERATIVES FOR SOCIAL JUSTICE

Throughout the world today, societies are being torn apart due to the fact that various social groups and classes are not getting their due respect from other forces in society. Many societies are lacking social justice which could be seen as equal opportunity treatment of all persons in society. Various institutions have the responsibility to ensure this happens. Yet social justice is absent in many instances.

Cooperatives are based on principles and values that speak directly to the issue of social justice. Most traditional cooperatives follow the seven principles of cooperative identity, promoted by the International Cooperative Alliance (ICA), an Apex organization for cooperatives around the world. These principles call for the practice of democracy, equality, equity and solidarity. Cooperatives also embrace the ethical values of honesty, openness, social responsibility and caring for others.

With these principles and values at the core of cooperative operations, the poor, excluded and marginalized sectors of society are usually served well by cooperatives. The financial sector is one area where this has shown well. Financial cooperatives are some of the largest providers of micro-finance services to the poor. It is estimated that globally, financial cooperatives reach 78 million clients living below a poverty line of $2 per day. Financial cooperatives thus play a central role in the achievement of an inclusive financial sector that encompasses the poor.

Through their commitment to servicing the poor and under-served, financial cooperatives are helping to lessen the burden of poverty. Financial cooperatives, by providing savings products, help to reduce members’ vulnerabilities to shocks such as medical emergencies.

Cooperatives have also been instrumental in promoting inclusive development in rural areas, helping to both strengthen and diversify rural economies. Financial cooperatives provide access to credit for members who might not typically have access to the larger savings and commercial banks. This is significant in markets where financial providers are absent owing to poor revenue prospects, high risks, or high transaction costs. This access to financial services often supports the formation of small and micro businesses.

Cooperatives have also been able to strengthen agricultural production and improve access of poor farmers, especially through engaging in fair trade arrangements. Small farmers who struggle to create and sustain businesses of their own are able to increase farm revenues, lower marketing and information-gathering costs, as well as enter into high-value supply chains that they would not be able to do on their own.

While the need for more research cannot be denied, that which exists supports the idea that, if given the right supportive environment, cooperatives could help in profound ways to achieve social justice, where it is lacking. Empowering cooperatives to leverage their capacity to contribute to social justice requires a sound policy and legislative framework.

The International Year of Cooperatives 2012, declared by the United Nations General Assembly, is one means to raising awareness. By raising awareness of cooperatives – what they are and what they do – the IYC will empower cooperatives to promote their social justice values and encourage governments to create supportive policy and legislative frameworks, where needed.


Even with this support, the challenge of effective implementation of the cooperative principles and values cannot be ignored. The sound governance of cooperatives depends upon a well-informed and active membership base, dedicated to cooperative values and principles. To sustain the drive of cooperatives for social justice, a strong membership base, bound by the democratic one-member-one-vote principle, is essential to addressing weak or unethical management, capture by local politicians, or other conflicts of interests which could divert cooperatives from addressing social justice issues.

मंगलवार, 25 जून 2013

National Policy For Children-2012

Fundamental Rights [Article 15(3)] empowers the State to make special provisions for children. The Directive Principles of State Policy (Article 39) in the Constitution specifically guide the State in securing the tender age of children from abuse and ensuring that children are given opportunities and facilities to develop in a healthy manner in conditions of freedom and dignity.Ensuring survival, health and nutrition as an inalienable right of every child and special care for kids caught in sectarian violence are some of the features of the government’s Draft National Policy for Children, 2012. The Women and Child Development (WCD) ministry, which has revised the National Policy for Children for the first time  since it was adopted in 1974, has now put the draft policy, which defines any individual below the age of 18 years as child, in public domain inviting views before it is finalised.According to ministry officials, the policy would guide and inform all laws, policies, plans and programmes affecting children and all other actions of national, state and local Governments in relation to population below 18 years. Amongst the key priorities listed in the draft are making survival, health, nutrition, development, education, protection and participation undeniable rights of every child. As per the policy draft, every child has a right to be safeguarded against hunger, deprivation and malnutrition and the State would commit to securing this right through access, provision and promotion of required services and supports for holistic nurturing.

The State shall also take all necessary measures to improve maternal health care secure the right of the girl child and address discrimination of all forms in schools and foster equal opportunity. As per the draft policy, the state would take special protection measures to secure the rights and entitlements of children in difficult circumstances, in particular but not limited to, children affected by migration, displacement, communal or sectarian violence, civil unrest, disasters etc. Children of women in prostitution, children forced into prostitution and other abused and exploited children, those affected by HIV/AIDS, children with disabilities would also be eligible for state protection by the state.

The Cabinet approved the National Policy for Children, 2012 which recognises child survival, health, nutrition, education, development and protection as undeniable rights of every child. As per the National Child Policy every person below the age of eighteen years as a child and that childhood is an integral part of life with a value of its own. According to the policy, a long term, sustainable, multisectoral, integrated and inclusive approach is necessary for the harmonious development and protection of children. The policy lays down the guiding principles that must be respected by national, state and local governments in their actions and initiatives affecting children, a statement released by the government here said. The key guiding principles of the policy are the right of every child to life, survival, development, education, protection and participation, equal rights for all children without discrimination.

The best interest of the child should be a primary concern in all actions and decisions affecting children and family environment as the most conducive for all-round development of children. “The policy has identified survival, health, nutrition, education, development, protection and participation as the undeniable rights of every child, and has also declared these as key priority areas,” the statement released here said. The National Child policy also strives to create convergence and co-ordination across different sectors and levels of governance, partnerships with all stakeholders, setting up of a comprehensive knowledge base, provision of adequate resources; and sensitisation and capacity development of all those who work for and with children. The Policy reaffirms the government’s commitment to the realisation of the rights of all children in the country. It recognizes every person below the age of eighteen years as a child and that childhood is an integral part of life with a value of its own, and a long term, sustainable, multisectoral, integrated and inclusive approach is necessary for the harmonious development and protection of children. The policy lays down the guiding principles that must be respected by national, state and local governments in their actions and initiatives affecting children. Some of the key guiding principles are: the right of every child to life, survival, development, education, protection and participation; equal rights for all children without discrimination; the best interest of the child as a primary concern in all actions and decisions affecting children; and family environment as the most conducive for all-round development of children. The policy has identified survival, health, nutrition, education, development, protection and participation as the undeniable rights of every child, and has also declared these as key priority areas. As children’s needs are multisectoral, interconnected and require collective action, the policy aims at purposeful convergence and strong coordination across different sectors and levels of governance; active engagement and partnerships with all stakeholders; setting up of a comprehensive and reliable knowledge base; provision of adequate resources; and sensitization and capacity development of all those who work for and with children. A National Plan of Action will be developed to give effect to the policy and a National Coordination and Action Group (NCAG) will be constituted to monitor the progress of implementation. Similar plans and coordination and action groups will be constituted at the state and district levels. The National Commission for Protection of Child Rights and State Commissions for Protection of Child Rights are to ensure that the principles of the policy are respected in all sectors at all levels. There is a provision for review of the policy every five years. The Ministry of Women and Child Development will be the nodal ministry for overseeing and coordinating the implementation of the policy and will lead the review process.

The Ministry of Women and Child Development on 26 July 2012 drafted the National Policy for Children 2012. The revised draft policy reaffirms the government’s commitment towards children and addresses new challenges, seeking to realize the full potential of children’s rights throughout the country. It defines a child as a person below eighteen years of age, and acknowledges the inalienable and inherent rights of the child and aims to realize the full range of child rights for all children in the country. The draft has stated that every child has a right to be safeguarded against hunger, deprivation and malnutrition. According to the draft policy, the state is bound to secure the rights and entitlement of children in difficult circumstances such as migration, displacement, disasters and communal violence. The first National Policy on Children was formulated in 1974. The first policy of 1974 described children as a supremely important asset and made the state responsible for providing equal opportunities for growth and development of all children. The policy primarily focused on health and education of the children. The National Policy for Children (NPC), 1974 was adopted by the Government of India on 22 Aug 1974. This policy describes children as a supremely important asset of the nation and makes the State responsible to provide basic services to children both before and after birth, and also during their growing years and different stages of development. The recognition of the child as a person with inherent and inalienable rights, made it necessary to revise the 1974 policy for introducing rights-based perspectives to child development and protection. Thus, the Ministry of Women and Child Development in India has taken up the framing of a revised National Policy for Children which aims to cover the full range of child rights.

Features Of The National Policy For Children

The Women and Child Development (WCD) ministry, has revised the National Policy for Children for the first time since it was adopted in 1974.

·         Defines any individual below the age of 18 years as child,

·       The policy would guide and inform all laws, policies, plans and programmes affecting children and all other actions of national, state and local Governments in relation to population below 18 years.

·         As per the policy , every child has a right to be safeguarded against hunger, deprivation and malnutrition and the State would commit to securing this right through  access, provision and promotion of required services and supports for holistic nurturing.
·
·         The State shall also take all necessary measures to improve maternal health care secure the right of the girl child and address discrimination of all forms in schools and foster equal opportunity.

·         As per the policy, the state would take special protection measures to secure the rights and entitlements of children in difficult circumstances, in particular but not limited to, children affected by migration, displacement, communal or sectarian violence, civil unrest, disasters etc.

·         Children of women in prostitution, children forced into prostitution and other abused and exploited children, those affected by HIV/AIDS, children with disabilities would also be eligible for state protection by the state.

The policy has identified the following as the universal, inalienable and undeniable rights of every child, and has also declared these as key priority areas:

·         Survival,
·         Health,
·         Nutrition,
·         Development,
·         Education,
·         Protection and
·         Participation

Nodal Agencies

·         The Ministry of Women and Child development (MWCD) will be the nodal Ministry for overseeing and coordinating the implementation of this Policy.

·         A National Coordination and Action Group (NCAG) f o r Children will monitor progress and ensure that the principles of this Policy are respected in all sectors at all levels in formulating laws, policies and programmes affecting children.

·         Plans of Action at the national and state level will facilitate action on the provisions of this Policy. The NCAG will monitor the progress of implementation under these Plans.

Area of Concerns

·         The policy does not mention how it will ensure child participation at various levels of governance.

·       Neither operational guidelines to pursue the policy nor institutional mechanisms in terms of making various ministries responsible are mentioned in the policy.

·         No goal and / or target with regard to the Educational, Health, Nutrition and Protection rights of children is mentioned in the policy document.


·      The policy does not make clear commitments on budgets of various ministries, nor protection of existing special entitlements to disadvantaged and vulnerable children.

शहरीकरण की चुनौतियां

वैश्विक पटल पर भारत समेत एशियाई देश शहरीकरण में कदम रखने वाले अपेक्षाकृत नए खिलाड़ी हैं। लैटिन अमेरिका सहित पाश्चात्य देशों का एशिया से काफी पहले ही शहरीकरण हो चुका है। 1901 में भारत में कुल 10.8 फीसद आबादी ही शहरों में रहती थी। 1991 तक यह आंकड़ा 26 प्रतिशत पर पहुंच गया था और 2011 में 31 प्रतिशत तक। इसके विपरीत चीन का शहरीकरण पहले ही हो चुका है। 1991 में एक-तिहाई चीनी शहरों में रहते थे। 2011 तक वहां आधी आबादी शहरों में बस चुकी थी। हालांकि भारत ने अतीत में जो कुछ गंवाया था उसकी पूर्ति अब बड़ी तेजी से कर रहा है। पिछले दशक के दौरान 2800 नए कस्बों (टाउन) का निर्माण हुआ।

भारत में टाउन उन शहरों को कहा जाता है जिनकी आबादी पांच हजार से अधिक है और जहां आबादी का न्यूनतम घनत्व प्रति वर्ग किलोमीटर 400 व्यक्ति है। तमाम विकासशील देशों में शहरीकरण तेजी से हो रहा है। सन 2050 तक शहरीकरण की यही गति बरकरार रहने की उम्मीद है। यद्यपि अलग-अलग देशों में इसकी दर अलग-अलग रहेगी। उदाहरण के लिए 2011 से 2030 तक वैश्विक शहरी आबादी में 140 करोड़ की वृद्धि का अनुमान है, जिसमें 27.6 करोड़ वृद्धि चीन में और 21.8 करोड़ भारत में होगी। ये दोनों देश नई शहरी आबादी में 37 प्रतिशत का योगदान देंगे। 2030 से 2050 तक हालात बदल जाएंगे। तब विश्व की शहरी आबादी में 130 करोड़ की वृद्धि होगी, जो 2011-30 कालखंड में होने वाली वृद्धि से कम है। इसमें सबसे बड़ी 27 करोड़ की हिस्सेदारी भारत की होगी। इसके बाद नाइजीरिया रहेगा। वहां 12.1 करोड़ लोग शहरों में बस जाएंगे। ये दोनों देश विश्व की नई शहरी आबादी में 31 फीसदी का अंशदान देंगे। इस बीच चीन में नई शहरी आबादी में महज 4.4 करोड़ की वृद्धि होगी। वैश्विक दृष्टिकोण से भारत के शहरीकरण की प्रक्रिया बहुत तेज और बेहद महत्वपूर्ण होगी। 2030 तक भारत में दस लाख से अधिक आबादी वाले करीब 70 शहर होंगे।

मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, बेंगलूर और पुणे में एक करोड़ से अधिक आबादी होगी। मुंबई और दिल्ली विश्व के सबसे बड़े पांच शहरों में शामिल होंगे। शहरीकरण की बहुत सी चुनौतियां हैं। भारत में शहरीकरण की प्रक्रिया का प्रबंधन बेहद खराब तरीके से हुआ है, खासतौर पर चीन की तुलना में। अगर इसमें सुधार नहीं हुआ तो इससे आम आदमी का जीवन नारकीय हो जाएगा। दुर्भाग्य से भारतीय शहरों के विकास में निवेश बहुत ही कम हुआ है। संयुक्त राष्ट्र के आकलन के मुताबिक भारत के शहरी क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति निवेश मात्र 17 डॉलर है। यह चीन में निवेश का सातवां हिस्सा और न्यूयॉर्क का 17वां हिस्सा है। यही नहीं, भ्रष्टाचार, गलत संसाधन आवंटन और खराब क्रियान्यन के कारण जो राशि इस मद में खर्च की भी गई है, उसके भी अपेक्षित परिणाम नहीं आए हैं। भारत के शहरी जीवन के स्तर को उठाने के लिए शहरों में होने वाले खर्च में सात से दस गुना की वृद्धि करनी पड़ेगी। साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि शहरी विकास पर होने वाले खर्च का सही ढंग से प्रबंधन किया जाए और भ्रष्टाचार का स्तर नीचे लाया जाए। यह एक मुश्किल काम जरूर है, पर असंभव नहीं।


हम शहरों में तीन बुनियादी जरूरतों-पानी की आपूर्ति, जल एवं मल प्रबंधन और बिजली की उपलब्धता पर नजर डालें तो भारत के शहरों की बदहाली स्पष्ट हो जाएगी। अफसोस की बात है कि भारत में एक भी शहरी क्षेत्र नहीं है, जहां स्वास्थ्य को खतरे में डाले बिना सरकारी नल में आने वाले पानी को पिया जा सके और जहां सीवर की गंदगी को उचित ढंग से शोधन के बाद ही नदी-नालों में बहाया जाता हो, ताकि पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा न हो। हालिया वर्षो में कई शहरों में पानी की गुणवत्ता और आपूर्ति में सुधार होने के बजाय और गिरावट देखने को मिल रही है। भारत के अधिकांश शहरों में आमतौर पर 40 से 60 फीसदी पानी बर्बाद हो जाता है। देश की राजधानी दिल्ली में बिना शोधन के ही गंदगी को यमुना नदी में बहा दिया जाता है। थर्ड व‌र्ल्ड सेंटर फॉर वाटर मैनेजमेंट का आकलन है कि भारत में कुल गंदे पानी के 10 प्रतिशत से भी कम को उचित रूप में शोधन करके नदी-नालों-झीलों में डाला जाता है। दिसंबर में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया कि सीवर की गंदगी के शोधन के जिम्मेदार दिल्ली जल बोर्ड के अधिकारियों को जल शोधन के काम की जरा भी जानकारी और समझ नहीं है। इससे पहले अदालत को बताया गया था कि 1994 के बाद से यमुना की साफ-सफाई के लिए पांच हजार करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं, फिर भी यह खुला नाला बनी हुई है और कई स्थानों में इसमें ऑक्सीजन का स्तर शून्य पर आ गया है। इससे पता चलता है कि केवल पैसा नहीं, बल्कि उसका किस तरह इस्तेमाल होता है, यह अधिक महत्वपूर्ण है।

2005 में केंद्र सरकार ने एक योजना तैयार की थी, जिसके तहत 2012 तक पूरे देश में बिजली की आपूर्ति सुनिश्चित करने का लक्ष्य रखा गया था। अफसोस है कि इस योजना के क्रियान्वयन की गति बेहद धीमी है। आज भी तीन में से एक भारतीय तक बिजली की पहुंच नहीं है। जिन इलाकों में बिजली पहुंच भी गई है, वहां इसकी आपूर्ति बहुत कम है। वर्तमान में देश में प्रति व्यक्ति बिजली उपभोग विश्व के औसत का एक-तिहाई है। यह चीन के औसत उपभोग का 35 फीसदी और ब्राजील का 28 फीसदी है। बिजली की इस अंधेरगर्दी के कारण ही देश का शहरीकरण और विकास बाधित हो रहा है। अगर बुनियादी सुविधाओं के ये अस्वीकार्य स्तर कायम रहे तो एक दशक में ही शहरी क्षेत्रों को उन नारकीय हालात से गुजरना होगा जिनका सामना आज तक किसी भी पीढ़ी ने नहीं किया है। बिजली, पानी, सीवर, आवास और परिवहन समस्याओं से ही नहीं, बल्कि स्वास्थ्य, आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरण के अभूतपूर्व संकट से भी जूझना होगा। अफसोस की बात है कि भारत के एक भी शहर में 2030 तक भूउपयोग, आवास, बिजली, परिवहन, पानी और अपशिष्ट प्रबंधन को शामिल करते हुए कोई मास्टर प्लान मौजूद नहीं है। संतोष की बात है कि भारत के पास इन समस्याओं से निपटने का प्रबंधन, प्रौद्योगिकी और निवेश क्षमता है। कमी है तो राजनेताओं और नौकरशाहों की इच्छाशक्ति की। यह कब होगा इसी पर देश का भविष्य निर्भर करता है।


सोमवार, 24 जून 2013

Green National Accounting System In India



Government in 2011 had constituted an expert group under the chairmanship of Pratha Dasgupta from the Cambridge University to develop a framework for green national accounts, identification of data gaps and preparation of a road map for its implementation. The system of green national accounting would take into account the environmental costs of development and reflect the use of precious depletable natural resources in the process of generating national income. The need for green national accounts emerged as there was a growing recognition that contemporary national accounts were becoming unsatisfactory basis for economic evaluation. “The qualifier ‘green’ signals that we should be especially concerned about the absence of information on society’s use of the natural environment.” Double-digit GDP fixation is threatening India’s biodiversity and its long-term growth and security. Green accounting methods have estimated the loss of ecological wealth in India. GDP measures the value of output produced within a country over a certain time period. However, any depreciation measurements used, will account only for manmade capital and not the negative impact of growth on valuable natural capital, such as water, land, forests, biodiversity and the resulting negative effects on human health and welfare. Over the course of the last fifty years, India has lost over half its forests, 40 per cent of its mangroves and a significant part of its wetlands. At least 40 species of plants and animals have become extinct with several hundred more endangered.

In “green accounting” approach national accounts are adjusted to include the value of nature´s goods and services. Mr Jairam Ramesh, the former environment minister, advocated greening India’s national accounts by 2015 and encouraged policy makers to recognise the trade-off between pursuing high growth economic policies against the extensive impact they could have on India’s natural capital. The Green Indian States Trust (GIST) which, in 2003 unleashed a series of environmentally adjusted accounts under the Green Accounting for Indian States Project. According to their results, the loss of forest ecological services (i.e.soil erosion prevention, flood control and ground water augmentation) over three years (2001-03) due to declining dense forests was estimated at an astounding 1.1 per cent of GDP. According to GIST´s latest results, the North-Eastern states continue to be most affected, particularly Arunachal Pradesh and Mizoram where the loss of forest ecological services is more than 12 per cent of their NSDP.

India expects to put in place in five years a system of green national accounting that would take into account the environmental costs of development and reflect the use of precious depletable natural resources in the process of generating national income. “In the last few months, I have tried to set the ball rolling so that by 2015 at least we can have a system of green national accounting,” Union Minister of State for Environment and Forests Jairam Ramesh said here. Economists estimate gross domestic product (GDP) as a broad measure of national income, while net domestic product (NDP) accounts for the use of physical capital. “But as yet, we have no generally accepted system to convert gross domestic product into green domestic product that would reflect the use up of precious depletable natural resources in the process of generating national income”, he said. Economists all over the world have been at work for quite some time on developing a robust system of green national accounting but “we are not there as yet”. “Ideally, if we can report both gross domestic product and green domestic product, we will get a better picture of the trade-offs involved in the process of economic growth”, the Minister added. India expects to put in place in five years a system of green national accounting that would take into account the environmental costs of development and reflect the use of precious depletable natural resources in the process of generating national income.

A new global partnership to help developing countries integrate the economics of ecosystems into national accounting systems has been launched by the World Bank. The alarming loss of biological diversity around the world is attributable to the lack of proper valuation of the ecosystems and the services they provide. The valuation and its integration into national accounts are expected to lead to better management of natural environments. According to Mr Robert B. Zoellick, President, World Bank Group, the natural wealth of nations should be a capital asset valued in combination with its financial capital, manufactured capital and human capital. The national accounts should reflect the vital carbon storage services that forests provide and the coastal protection values that come from coral reefs and mangroves.

The first phase of the partnership to ‘green’ national accounts has been launched starting with India and Colombia, which will be in a group of six to 10 countries. A forthcoming World Bank Publication, titled ‘The Changing Wealth of Nations’, states that the commercial value of farmlands, forests, minerals and energy worldwide is more than $44 trillion, of which, the developing countries account for $29 trillion. But, there is more value in the services provided by ecosystems such as forests, like hydrology regulation, soil retention and pollination. The partnership initiative builds on ‘The Economics of Ecosystems and Biodiversity’ (TEEB) project of the United Nations Environment Programme (UNEP). It will include developing and developed countries, nongovernmental organisations and the global organisation for legislators. During the initial five-year pilot period, the programme will focus on how countries can quantify the ecosystems and their services in terms of income and asset values; developing ways to incorporate these values into policies on wealth and economic growth; and evolve guidelines for implementation of the valuations worldwide, according to a World Bank report. The feasibility studies to identify priority ecosystems will start soon in India and Colombia, while many other countries in Africa, Asia, Latin America and Central Europe have evinced interest to become partners in the pilot programme. India and Brazil lead the number of countries who are willing to draw on findings from the three-year study project The Economics of Ecosystems and Biodiversity (TEEB) to make their economies more environmentfriendly and effectively use the services of nature. The Brazilian and Indian governments are among those keen to use findings from The Economics of Ecosystems and Biodiversity (Teeb) project. Final results from the three-year study were unveiled here at the UN Convention on Biological Diversity meeting.Nature’s services must be counted if they are to be valued, its leader said.


Gyanesh Pandey


Corruption- Role of State and Civil Society

The recent bribery scandal in the defence helicopter deal of 3600 crore rupees has once again brought the issue of corruption on forefront in India. Interestingly, the Union Cabinet has accepted 14 out of 16 recommendation of the select committee for passing the Lokpal bill, meant to tackle corruption in the country.

It’s an irony that even a prolonged campaign against corruption last year could not throw any tangible solution. The matter is bursting at its seams but there is little hardly any respite to the common man hit hard by such unethical practices.  

India like many other countries of South and Southeast Asia is grappling with the problem of corruption. This evil has seeped into every segments of the country, be it administration, judiciary, legislature, education, health defence or developmental projects.
Corruption is mostly attributed to the government functionaries who demand a hefty sum for getting a simple job being done. The most popular adage is, one has to pay bribe for getting a birth or death certificate in India.  

 In 2012 India was ranked 94th out of 176 countries in the corruption list. The Transparency International Corruption Perceptions Index has found that more than 62% of Indians have first-hand experience of corruption in getting jobs or work done in public offices.

The causes of corruption in India include excessive regulations, complicated taxes and licensing systems, numerous government departments each with opaque bureaucracy and discretionary powers, monopoly by government controlled institutions on certain goods and services, delivery, and above all lack of transparency of laws and processes.

Indian corruption scenario could be divided into two phases, one before the economic liberalization in 1990 and second post liberalization.

In the first phase government nationalized many sectors of the Indian economy to protect the growth of its nascent industries. Thus began an era of license permit raj and corruption flourished with impunity. The business -government nexus developed. Only those who can afford to pay the officials were able to procure license for doing businesses.

With the opening up of the economy in 1990 the post liberalization era begun. In this phase the quantum of corruption multiplied manifold and continues to increase at an alarming pace.            
In the name of de -regularization and inviting private players, some government officials indulged in corrupt practices as many players scrambled for favors through greasing their palms.

The politicians, the bureaucrats, the middlemen nexus became all pervasive and all were seen hand in glove to provide fodder to corruption.

 As a result, every institution of the government was infested with the menace of corruption. Even in the private sector corruption started making its inroads.

Even though there are many laws and regulations to handle corruption, none seem to provide any relief to the people. They are all under the control of the government that’s seen as the engine of corruption.

When corruption hit the roof as scam after scam started surfacing every now and then and newspapers littered with corruption stories, common man became restless what to do, it’s  at this point of time some members of the civil society came forward to launch  campaign against corruption.

Anna Hazare, a prominent Gandhian along with other members of the civil society in 2011, launched a campaign to fight corruption in India. This campaign against corruption drew huge response and some even called it as second freedom struggle in the country.

The anti corruption campaign was essentially to bring a Lokpal bill that would constitute a separate body comprising prominent members of the civil society to monitor the corruption cases in the country. 

When the intricacies of this extra constitutional body was discussed and debated in the backdrop of Parliamentary democracy, the civil society’s campaign against corruption started receiving a lukewarm response from the masses, which initially whole heartedly supported the initiative taken by the civil society.

Anna Hazare ultimately had to withdraw his movement and disband his team that was in the forefront of this electrifying movement. Later, he made some attempts to kick start the movement holding a public rally but hardly any enthusiasm was seen among the general public.

Arvind Kejrewal, a member of team Anna and Right to Information activist took up the fight forward and launched a political outfit called ‘Aam Aadmi Party.’ It remains to be seen how this party fares in the general elections and fulfills the aspiration of the people. 

Meanwhile, the Union Cabinet has approved amendments to the official version of the Lokpal and Lokayuktas Bill that it brought in 2011 in wake of Anna Hazare’s agitation. The government has accepted 14out of 16 suggestions made by the Select Committee comprising of the members of the Rajya Sabha represented by all major political parties.

The bill accepted by the government rejected the core demand of the civil society making Lokpal appointment free from government control and providing autonomy to the Central Bureau of Investigation (CBI).

No wonder the members of the civil society have rejected the government’s move to control corruption as it has failed to address their key demand. 

So in the current situation, neither the government nor the civil society is able to come up with a plan of action to tackle corruption. The general feeling among the masses is both have failed to provide concrete solution to address the core issue. As a result the problem corruption continues to remain as it is in the country.


Syed Ali Mujtaba

शनिवार, 22 जून 2013

पर्यावरण असंतुलन और भारत की इदन्नमम् परंपरा

एक आंकलन के अनुसार अगले 50 वर्षों में ओजोन परत में हो रहे निरंतर क्षरण के कारण विश्व में त्वचा कैंसर के फैलने की प्रबल आशंका है। पर्यावरणविदों ने इस कैंसर के फैलने की आशंका शीतोष्ण जलवायु के उन क्षेत्रों में सबसे अधिक मानी है, जहां ओजोन की परत पतली है, स्पष्ट है यूरोपीय देश इसकी चपेट में है। परंतु इसका अभिप्राय यह नही कि खतरा हमसे दूर है और हम आराम से रह सकते हैं। पूरी धरती गरमा रही है और उससे पूरे भूमण्डल को ही खतरा है। गर्माती धरती के कारण अधिक प्रचण्ड और अनिश्चित मौसम अपना प्रभाव दिखाएगा जिससे अकाल, बाढ़, तूफान आदि में वृद्घि होगी और इसके परिणाम स्वरूप मृत्यु दर चोट ग्रस्त होने की दर तथा कीटों के विस्तार के साथ संक्रामक रोगों के फैलने की दर में वृद्घि दर्ज होगी। एक से तीन डिग्री सेल्सियस की वैश्विक तापवृद्घि संभवत: शीतोष्ण क्षेत्रों में अत्यधिक गर्म दिवसों की संख्या में वृद्घि करेगी। जिसके परिणाम स्वरूप तापघात के कारण कई हजार अतिरिक्त मौतें प्रतिवर्ष हो सकती हैं। गर्मियों की बढ़ती तपिश से बचने के लिए वातानुकूलित विधियों को प्रयोग करने में सक्षम लोग इसका अधिकाधिक उपयोग करेंगे जिससे विद्युत ग्रहों के द्वारा वायु प्रदूषण में वृद्घि होगी। विद्युत संयंत्रों से निकलने वाले सूक्ष्म कण सीधे तौर पर सांस एवं हृदय रोगों में वृद्घि कर रहे हैं। इससे अस्पतालों में रोगियों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। वर्तमान चिकित्सा विज्ञान यद्यपि अपनी सफलता पर इतरा रहा है और अपनी पीठ अपने आप ही थपथपा रहा है, परंतु वास्तव में यह विज्ञान अब सफलता के नही अपितु अपनी असफलता के सर्वाधिक निकट है, क्योंकि किसी भी प्रकार की महामारी के फैलने पर सिवाय लाशों को जल्दी जल्दी अस्पतालों से बाहर फेंकने और हटाने के इसके पास कोई उपाय नही होगा। बिगड़ते पर्यावरण का घातक प्रभाव भारत पर भी पड़ रहा है। वैश्विक तापवृद्घि के कारण भारत में चिकनगुनिया व डेंगू जैसे बुखारों ने भयानक स्तर पर अपनी दस्तक दी है। अक्टूबर 2000 में भारत के आठ प्रांतों के 151 जिले चिकनगुनिया की चपेट में आये थे। इन राज्यों में आंध्र प्रदेश, अण्डमान और निकोबार द्वीप समूह, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश केरल और दिल्ली थे। देश भर में चिकनगुनिया के 12 लाख 50 हजार से अधिक रोगी पाए गये, जिनमें से 52,245 रोगी कर्नाटक में तथा 2,58,998 रोगी महाराष्ट्र में थे। जबकि डेंगू 1996 में पहली बार गंभीर रूप में भारत की राजधानी दिल्ली में आया था। इस महामारी के कुल मिलाकर दस हजार मामले उस समय प्रकाश में आये थे और उनमें से चार सौ की मौतें हो गयीं थीं। दिल्ली आज भी ऐसी महामारियों के लिए सबसे अधिक संवेदनशील क्षेत्रों में से एक है। 1996 में ही इस बीमारी की उपस्थिति लुधियाना में भी दर्ज की गयी थी, जबकि 1974 में इसे जम्मू क्षेत्र में भी देखा और महसूस किया गया था।
वैश्विक तापवृद्घि के कारण लू के थपेड़ों से मरने वालों की संख्या भी प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है। 1990 में जहां लू केवल छह दिन चली थी वहीं 1995 में 29 दिन और 1998 में 27 दिन चली। 1990 में राजस्थान में ही लू देखी गयी थी, और उससे भी कोई मौत नही हुई। लेकिन 1998 में पंजाब राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, दक्षिण तमिलनाडु में लू का प्रकोप रहा और इससे 1300 मौतें हुईं। ऐसा नही कि लू 1990 से पहले चलती नही थी लू तो चलती थी, लेकिन उस समय मौसम में अचानक उतार चढ़ाव नही आता था। वैश्विक तापवृद्घि ने मौसम में अप्रत्याशित उतार चढ़ाव की समस्या को उत्पन्न किया है। जिससे लू के थपेड़ों में और चक्रवातों से होने वाली भारी वर्षा में वृद्घि हुई है। जिस प्रकार धरती गरमाती जा रही है, उससे विश्व के हिम क्षेत्रों के पिघलने और समुद्रों के जल स्तर में भारी वृद्घि होने की आशंका व्यक्त की जा रही है। इससे बहुत से समुद्री द्वीपों और समुद्र के पास रहने वाले देशों के जलमग्न हो जाने की भी आशंका है। प्रचण्ड मौसम के कारण मानव स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है और दस्त, हैजा व पानी में जैविक एवं रासायनिक प्रदूषकों द्वारा होने वाली विषाक्तता बढ़ती जा रही है। चक्रवात/बाढ़ के कारण जनस्वास्थ्य संबंधी मूलभूत ढांचे की क्षति हो रही है। वैश्विक तापवृद्घि के कारण हिमालय में मौजूद ग्लेशियर 15 मीटर प्रतिवर्ष की दर से पीछे हट रहे हैं। 1970 से यह स्थिति निरंतर बनी हुई है, याद रहे 1970 में ही पहली बार वैश्विक तापवृद्घि की समस्या की ओर लोगों का ध्यान गया था। गंगोत्री ग्लेशियर 30 मीटर प्रतिवर्ष पीछे हट रहा है। वैज्ञानिकों का मत है कि इस दर से पिघलने पर समस्त मध्य और पूर्वी हिमालयी ग्लेशियर 2035 तक समाप्त हो जाएंगे।

पेंटागन की रिपोर्ट है कि भविष्य के युद्घ धर्म, विचार या राष्ट्रीय गौरव के स्थान पर जीवित रहने के मुद्दे पर लड़े जाएंगे। अमेरिका में फैलिफोर्निया में सैक्रामेंन्टो नदी क्षेत्र में, डेल्टा द्वीप का तटबंध टूट सकता है, जिससे उत्तर से दक्षिण को पानी पहुंचाने वाली कृत्रिम जल प्रणाली भंग हो जाएगी। अगले बीस वर्षों में धरती द्वारा अपनी वर्तमान जनसंख्या को कायम रखने की क्षमता में महत्वपूर्ण कमी साफ नजर आने लगेगी। बढ़ते समुद्री जलस्तर के कारण बांग्लादेश लगभग पूरी तरह से वीरान हो जाएगा, क्योंकि समुद्री पानी आंतरिक जलापूर्ति को दूषित कर देगा। अप्रैल 2007 में आयी एक रिपोर्ट में चेताया गया है कि बढ़ते तापमान के परिणाम स्वरूप कुछ संक्रामक रोगवाहकों के स्थानिक विस्तार में परिवर्तन हो सकता है, और इनका प्रभाव मिश्रित होगा, जैसे कि अफ्रीका में मलेरिया के क्षेत्र और संचरण क्षमता में कमी या वृद्घि। आई.सी.सी.सी. वैज्ञानिक जो तथ्य पेश करना चाहते थे उसका विश्लेषण है कि जैसे जैसे गर्म तापमान उष्ण कटिबंध से उत्तर दक्षिण की ओर विस्तारित होगा और अधिक ऊंचाईयों की ओर बढ़ेगा, रोगवाहक मच्छर उसके साथ साथ फैलेंगे। इसलिए ग्लोबल वार्मिंग की बदौलत दुनिया भर में लाखों और लोग मलेरिया से संक्रमित हो जाएंगे। मस्तिष्कशोथ की महामारियों में वृद्घि होने की आशंका है, क्योंकि यह भी एक मच्छर जनित रोग है और गर्म तापमान से सीधे संबंधित है, कीटों और चिचड़ी आदि रोगवाहक परजीवियों द्वारा फैलाए जाने वाले रोगों के पर्यावरणीय परिवर्तनों से प्रभावित होने की संभावना है। क्योंकि ये जीव स्वयं ही वनस्पति के प्रकार तापमान आर्द्रता आदि के लिए अति संवेदनशील हैं। आज के पर्यावरण असुंलन के लिए या वैश्विक तापमान में वृद्घि के लिए पश्चिमी देशों का दर्शन और उनकी भौतिक उन्नति सबसे अधिक उत्तरदायी है। इन क्षेत्रों ने विश्व को विकास के नाम पर विनाश भेंट में दिया है। अब जैसे जैसे विश्व की आंखेें खुल रही हैं तो ज्ञात हो रहा है कि सोच और दर्शन तो भारत के ही ठीक है। परंतु अब लगता है कि देर काफी हो चुकी है। भारत में जब पहली बार मौहम्मद बिन कासिम आया तो इतिहासकार लिखता है कि वह यहां के सामाजिक ताने बाने को देखकर दंग रह गया था। हर व्यक्ति अपने आप में एक कुशल शिल्पकार था, कारीगर था, हाथ का दस्तकार था। बड़ी ईमानदारी से सब अपने अपने काम में लगे हुए थे। इसलिए देश के पर्यावरण को कोई खतरा नही था। पूरा देश समृद्घ था, हर शिल्पकार को, हर कारीगर को और हर दस्तकार को अपने शिल्प का या कारीगरी का पूरा पारिश्रमिक मिलता था। बीच में कोई बिचौलिया नही था। जुलाहे से आप सीधे कपड़ा लें-बीच में कोई मुनाफा खाने वाली कंपनी नही थी। इसलिए हर जुलाहा समृद्घ था। कहीं शिल्प विद्या को सिखाने के लिए विद्यालयों की व्यवस्था नही थी, कहीं से किसी डिग्री के लेने की आवश्यकता नही थी। परंपरागत रूप से हर व्यक्ति अभ्यास से अपनी जीविकापार्जन की कला को सीख लेता था। इसलिए कहीं भारी उद्योगों के लगाने की आवश्यकता नही थी, क्योंकि उद्योग पति पूंजीपति होता है और उसकी पूंजी श्रम पर शासन करती है। भारतीय सामाजिक तानेबाने के निर्माताओं ने युगों पूर्व इस बात को समझ लिया था। इसलिए उन्होंने हर व्यक्ति को ही चलती फिरती एक कंपनी या फैक्टरी बनाने का अदभुत और प्रशंसनीय कार्य किया। भारतीय सामाजिक संरचना की इस अदभुत और प्रशंसनीय व्यवस्था को भारी उद्योगों की वर्तमान व्यवस्था ने जर्जरित किया। इसे नष्ट किया और हमेशा हमेशा के लिए दफन कर दिया। भारी उद्योगों ने और पश्चिम की वर्तमान आर्थिक आपाधापी ने विश्व में और विशेषत: भारत में गरीबी फैलाई। परंपरागत शिल्पविद्या को बंद कर दिया और शिल्पविद्या में पारंगत होने के लिए डिग्री लेने की व्यवस्था कायम की, जो कि बड़ी धनराशि खर्च करके मिलती है, फिर भरती करने के लिए एक कठोर प्रक्रिया से गुजरना आवश्यक बनाया गया और अंत में उचित पारिश्रमिक न देकर उल्टे पारिश्रमिक में कंपनी का शेयर नियत किया गया। इससे समाज में गरीबी की बीमारी भयंकर रूप में फैली। मुस्लिम काल में भारत की परंपरागत व्यवस्था जैसे तैसे कायम रही परंतु अंग्रेजों के काल में इसे क्षतिग्रस्त किया गया और अब काले अंग्रेजोंने अपने कमीशन के लिए इसे कतई ही नष्ट कर दिया है। इसमें सुधार की आवश्यकता थी ना कि इसे नष्ट करने की आवश्यकता थी। अब अपनी व्यवस्था को छिन्न भिन्न कर दिया है तो भारी उद्योग स्थापित कर दिये हैं। फलस्वरूप देश में बेरोजगारी तो बढ़ी ही है, साथ ही महंगाई और भ्रष्टाचार भी बढ़ा है। इसके अतिरिक्त पर्यावरण असंतुलन भी बढ़ा है। अभी उद्योग धुंआ फेंक रहे हैं। विद्युत संयंत्रों से निकलने वाली गैसें हमारा जीवन गटक रही है और हम शांत बैठे हैं। ऐसे में आवश्यक है भारत की प्राचीन सामाजिक व्यवस्था की पुनर्स्थापना की। यज्ञ, हवन से निकलने वाली सुगंध और उसमें प्रयुक्त होने वाली विशेष सामग्री से यदि आज भी बड़े-2 सामूहिक यज्ञों को करने की परंपरा का शुभारंभ किया जाए तो अब भी विश्व की डूबती नैया को बचाया जा सकता है। लेकिन यह विश्व गरीबों के लिए नही जीता और ना ही सदपरंपराओं के लिए जीता हुआ लगता है, यह तो अमीरों के लिए जीता है और अमीर सदपरंपराओं के खिलाफ लामबंद होकर एक ऐसा घेरा बनाते हैं जिसे तोड़ना अति कठिन होता है। अब ऐसे स्वार्थी लोग अपने अपने औद्योगिक संस्थानों और पर्यावरण असंतुलन में सहायक फैक्ट्रियों को बंद करने के लिए सामने नही आएंगे-यानि स्वयं तो डूबेंगे ही औरों को भी लेकर डूबेंगे। क्या विश्व भारत की इदन्नमम् परंपरा का अर्थ समझ सकता है? यदि हां तो समझ ले कि वर्तमान वैश्विक तापवृद्घि का समाधान इसी व्यवस्था में है।

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