सोमवार, 10 अगस्त 2015

'स्मार्ट सिटी'

इन दिनों केंद्र सरकार द्वारा प्रवर्तित ''स्मार्ट सिटी" योजना काफी चर्चा में है। कोई ऐसा राज्य नहीं जो इस योजना का लाभ न उठाना चाहता हो और कोई ऐसा बड़ा शहर नहीं जो इस दौड़ में शामिल न हो। इसके लिए राज्य सरकारों के शहरी विकास विभाग व नगर निगम अपना दावा पुख्ता करने के लिए आकाश-पाताल एक किए दे रहे हैं। लेकिन यह योजना आखिरकार है क्या? सरकार की ओर से जो सूचनाएं प्रसारित हुई हैं उनके अनुसार देश में एक सौ स्मार्ट सिटी स्थापित की जाएंगी तथा इसके अलावा हर बड़े शहर के आसपास सैटेलाइट टाउनशिप या उपनगर का निर्माण किया जाएगा। देश के उनतीस राज्यों में से हरेक को न्यूनतम दो स्मार्ट सिटी मिलेंगी व इनके अतिरिक्त मुंबई-दिल्ली औद्योगिक कॉरीडोर इत्यादि में इनका निर्माण किया जाएगा। सरकार का मानना है कि देश के तेजी से हो रहे शहरीकरण को व्यवस्थित करने में यह योजना कारगर होगी तथा इससे बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर भी सृजित होंगे। भारत सरकार ने इस योजना को स्वीकार करने में विश्व के कुछेक देशों में इसी नाम से लागू योजनाओं का अनुकरण किया है, जिनमें इंग्लैंड, इजराइल व जर्मनी आदि शामिल हैं। इन सभी में योजना के लाभ तो अनेक गिनाए गए हैं, लेकिन मुझे जो बिंदु सर्वोपरि प्रतीत होता है वह यह कि इन नए नगरों के संचालन में सूचना प्रौद्योगिकी का अधिकतम इस्तेमाल किया जाएगा।

यह मानी हुई बात है कि सभ्यता के विकास के साथ नए नगरों की स्थापना होती है और उनमें विद्यमान प्रौद्योगिकी का उपयोग किया ही जाता है। हम चाहे सिंधु घाटी सभ्यता के हड़प्पा व मोहनजोदड़ो जैसे नगरों की बात करें, चाहे उज्जैन या उज्जयिनी से उत्खनन में प्राप्त प्राचीन बसाहट की, या फिर आधुनिक समय में तीन सौ वर्ष पूर्व बसाए गए जयपुर अथवा स्वतंत्रता के बाद स्थापित चंडीगढ़, भुवनेश्वर, गांधीनगर की, इन सबमें जो भी आधुनिकतम तकनीकी प्रचलित थी, नगर निर्माण में उनका उपयोग किया गया। इसलिए इक्कीसवीं सदी के पूर्वाद्र्ध में स्थापित, विकसित की जाने वाली स्मार्ट सिटी में अद्यतन कला-कौशल का उपयोग होना स्वाभाविक माना जाएगा। यहां प्रश्न यह उठता है कि देशव्यापी योजना को अंगीकृत करने के पूर्व इस हेतु किस स्तर पर विचार-विमर्श किया जाना चाहिए था? क्या यह कार्य पूरी तरह से नीति आयोग तथा शहरी विकास मंत्रालय आदि में बैठे विशेषज्ञों व अधिकारियों पर छोड़ देना चाहिए या इस पर पूरी पारदर्शिता के साथ नागरिक समुदायों के साथ चर्चा की जाना चाहिए थी? अपनी ओर से सरकार ने कुछ अंग्रेजी अखबारों में तथा वेबसाइट पर जनता के सुझाव आमंत्रित अवश्य किए हैं, लेकिन क्या यह बेमन से उठाया गया आधा-अधूरा कदम नहीं है? जब तक जनता के पास अपनी भाषा में इस विषय की पर्याप्त जानकारी एवं उस पर बहस करने के लिए पर्याप्त समय नहीं होगा, तब तक एक आम आदमी कोई राय दे भी तो क्या दे?

इधर कुछ दिनों से छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश के कुछ बड़े शहरों में अपने नगर को स्मार्ट सिटी का दर्जा दिलाने के लिए प्रशासनिक तंत्र के भीतर चर्चाएं चल रही हैं। तब क्या एक सामान्य नागरिक को यह सवाल पूछने का हक नहीं है कि अपने नगर के विकास के लिए आप एक नई अवधारणा लेकर आ रहे हैं तो इसमें उसकी सुनवाई कहां है? इस सिलसिले में यह बात भी अटपटी लगती है कि स्मार्ट सिटी के नाम पर बिल्कुल नए नगर बसाएं जाएंगे तो मौजूदा शहरों के मालिक उस पर इतनी माथापच्ची क्यों कर रहे हैं! अगर इस योजना के अन्तर्गत उपनगर बसेंगे तो वे भी तो वर्तमान नगर प्रशासन के बाहर ही रहेंगे। इससे तो यही प्रतीत होता है कि हमारे निर्वाचित प्रतिनिधियों को समय बिताने के लिए एक नया खिलौना मिल गया है। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि अगर इनकी मेहनत वाकई रंग लाती है और मौजूदा शहर को स्मार्ट सिटी का दर्जा मिल जाता है तो क्या फिर वे वाकई स्मार्ट सिटी कहलाने के अधिकारी होंगे?


इस लेख में अब तक मैंने शायद आधा दर्जन बार 'स्मार्ट सिटी,  संज्ञा का प्रयोग किया है। मैं जानना चाहता हूं कि हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में इसकी समानार्थी संज्ञा क्या होगी? ट्विटर पर एक सज्जन ने मेरे प्रश्न के उत्तर में चतुरनगरी संज्ञा प्रस्तावित की। फिर मुझे कुछ और शब्द सूझे यथा-कुशलपुरी, कुशाग्रपुरी, चपलनगरी, दक्षनगरी आदि। फिर भी स्मार्ट का ठीक-ठीक भाव शायद इनमें से किसी में नहीं आ पाता। क्या इसकी वजह यह है कि स्मार्ट संज्ञा हमारे लिए पराई या विदेशी है? पारंपरिक रूप से धोती-कुर्ता या कुर्ता-पाजामा पहनने वालों के सामने सूट-बूट वाले लोग ही स्मार्ट कहलाते हैं। याद कीजिए सगीना महतो में दिलीपकुमार पर फिल्माया गया गीत- साला मैं तो साहब बन गया, ये सूट मेरा देखो, ये बूट मेरा देखो, जैसे गोरा कोई लंदन का; और मान लीजिए कि स्मार्ट सिटी का समानार्थी ढूंढने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन फिर एक दूसरा दुष्ट विचार मन में उठता है कि क्या स्मार्ट सिटी में रहने वाले लोग अंग्रेजी ही बोलेंगे, लिखेंगे, उसी में सोएंगे और उसी में जागेंगे? तब फिर सरकार की उस घोषणा का क्या होगा कि बढ़ते हुए शहरीकरण को सुचारु रूप देने के लिए इनका निर्माण किया जाएगा?


एक आधुनिक नगर, कुछ-कुछ अपने समय के इंद्रप्रस्थ जैसा, जिसमें सड़कें चकाचक होंगी और इमारतें भव्य, जहां स्मार्टफोन या अन्य उपकरणों की क्लिक के साथ आदेश दिए जा सकेंगे, जहां सब कुछ करीने से होगा, उस बस्ती में क्या गांव से शहर का रुख करने वाले मुसीबतादा भूमिपुत्र के लिए कोई जगह होगी? किसान का बेटा शहर आकर मजदूर बनता है, लेकिन यदि इस मायानगरी में मजदूर का काम यंत्रमानव (रोबो) करेगा तो ये जमीन से उखड़े लोग फिर कहां जाएंगे? लेकिन इतना निराश क्यों हुआ जाए? शायद हो कि यहां भी इनकी सेवाओं की आवश्यकता आन पड़े! लेकिन ये कहां रहेंगे? इनके बच्चे कहां पढ़ेंगे? इनका इलाा कहां होगा? क्या ये किसी पुराने शहर के सीमांत पर बसे स्मार्ट जे.जे. क्लस्टर (झुग्गी-झोपड़ी बस्ती) में रहेंगे, जहां से कोई स्मार्ट बस इन्हें अपनी ड्यूटी पर लाएगी और स्कूल-अस्पताल आदि के लिए इन्हें पुराने शहर का रुख करना होगा? या फिर स्मार्ट सिटी में इस तरह का भेदभाव नहीं होगा? जैसे लंदन, न्यूयॉर्क, बर्लिन में अमीर-गरीब, साहब-चपरासी उसी मैट्रो में सफर करते हैं, अक्सर उसी कैंटीन में एक लाइन में खड़े होकर अपनी प्लेट उठाते हैं, क्या भारत की स्मार्ट सिटी में इस समदर्शी व्यवहार का परिचय मिलेगा?



स्मार्ट सिटी की चर्चा करते हुए एक भय भी मन में उपजता है। अनेक वर्ष पूर्व इरविंग वालेस का उपन्यास आया था- द आर डाक्यूमेंट। इसमें बताया गया था कि एक औद्योगिक नगरी में किस तरह हर रहवासी पर कड़ी नर रखी जाती थी। इसके बाद बांग्ला के लोकप्रिय लेखक शंकर का उपन्यास- 'सीमाबद्ध पढऩे मिला। इसमें जिक्र था कि कंपनी के बड़े साहब ने एक अधिकारी को बुलाकर आदेश दिया कि तुम्हारे बूढ़े माँ-बाप को आए तीन दिन हो गए, तुम्हारा ध्यान उनकी तरफ लगा रहेगा तो यहां काम कौन करेगा, उन्हें वापिस भेज दो और इला के लिए पैसा भेज दिया करो। क्या हमारी 'स्मार्ट सिटी में भी कुछ ऐसा ही वातावरण बनेगा? यह डर इसलिए बढ़ जाता है कि स्मार्ट सिटी के साथ-साथ अब देश में प्राइवेट सिटी याने निजी नगरों की अवधारणा भी प्रचलित होने जा रही है। महाराष्ट्र के लवासा को भारत की पहिली प्राइवेट सिटी निरूपित करते हुए उम्मीद की जा रही है कि शीघ्र ही ऐसे कोई तीस निजी नगर खड़े हो जाएंगे। इनके अलावा औद्योगिक नगरों का भी बखान हो रहा है। मुझे एक औद्योगिक नगर के बारे में पता है कि वहां कोई चालीस साल तक महात्मा गांधी की प्रतिमा स्थापित नहीं होने दी गई थी। अगर स्मार्ट सिटी, प्राइवेट सिटी, इंडस्ट्रियल सिटी- सब का रवैय्या यही रहा तो भारत के मजदूर वर्ग को व्यक्तिगत स्वतंत्रता, जनतांत्रिक अधिकार, मानवीय गरिमा आदि के बारे में भूल जाना पड़ेगा। हम उम्मीद करते हैं कि इस पर खुली बहस होगी।

मैं अपनी बात का समापन बीती रात देखे सपने के उल्लेख से करना चाहता हूं। मैंने देखा कि मेरा नगर याने रायपुर स्मार्ट सिटी बन गया है। जनता मुदित है। सारी सड़कें फोरलेन हो गई हैं। बरसात का पानी सड़कों पर जमा नहीं हो रहा है। सारे तालाब पाट दिए गए हैं क्योंकि हर घर में रेनवाटर हार्वेस्टिंग हो रही है। हर घर में फ्री वाई-फाई पहुंच गया है। सारे स्कूल-कॉलेज बंद कर दिए गए हैं- बच्चे घर से ही ई-क्लास रूम में उपस्थिति दे रहे हैं। सारे बागीचों में प्लास्टिक केपेड़ रोप दिए गए हैं, ताकि नागरिक पेड़-पौधों से होने वाली एलर्जी से बच सकें। राजधानी के तमाम नेता सांस्कृतिक -सामाजिक कार्यक्रमों में बिल्कुल घड़ी का कांटा देखकर पहुंच रहे हैं लेकिन आयोजक क्षमायाचना कर रहे हैं कि एक भी दर्शक-श्रोता नहीं आया, सब अपने घर में बिग स्क्रीन पर कार्यक्रम देखने के लिए बैठे हुए हैं। कोई बाहर नहीं निकलना चाहता, सिवाय फास्ट फुड की डिलीवरी करने वाले बाइक-सवारों के अलावा। कहिए, क्या ख्याल है?

ललित सुरजन
साभार देशबन्धु 

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