बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

क्षेत्रीय पहचान का उभार

भारत भले ही विफल नहीं हुआ हो, लेकिन इसकी राजकीय व्यवस्था उसी हालत में गई है। केन्द्रीय मंत्री आपस में ही लड़ रहे हैं। प्रशासनिक अधिकारियों के आपसी झगड़े सबके सामने रहे हैं। यहां तक कि खुफिया एजेंसियां, इंटेलिजेंस ब्यूरो और सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इंवेस्टिगेशन के बीच भी अनबन है। नौकरशाही और शासन चलाने वालों के बीच समझ भी काफी कम रह गई है। हालत यहां तक पहुंच गई है कि वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम एक शीर्ष अधिकारी से अंग्रेजी सुधारने के लिए कहते हैं और अधिकारी जवाब में अपने विभाग के मंत्री से शिकायत कर देता है।

इसमें सबसे ऊपर आता है आंध्र प्रदेश के विभाजन के विधेयक का इस तरीके से पास होना। लोकसभा की कार्रवाई प्रसारित कर रहे लोकसभा टीवी को बंद कर दिया गया। यह पारदर्शिता को निरर्थक बना देता है। संयुक्त आंध्र प्रदेश का समर्थन करने वाले सदस्यों को बहस में भाग नहीं लेने दिया गया। ऐसे 17 सांसदों, जिनमें कांग्रेस के मंत्री भी शामिल थे, को संसद से एक-दो दिन पहले ही बाहर किया जा चुका था क्योंकि उन्होंने बिल का पास होना असंभव बना दिया था। मेरी चिंता कांग्रेस ने जो परपंरा बनाई है उसे और लोकसभा अध्यक्ष के कार्रवाई चलाने के तरीके को लेकर है। कल को अगर भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आती है और अल्पसंख्यकों पर बंदिशें लगाने वाला कोई विधेयक लाती है तो उसे सिर्फ यह बताना पड़ेगा कि उस समय की सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस ने संसदीय लोकतंत्र के बुनियादी नियमों को स्थगित कर दिया था।

करीब 50 दिनों तक आम आदमी पार्टी सत्ता में रही और उसने यथास्थिति में पड़े उस शासन की कलई खोल दी जिसे मुख्य पार्टियां, भाजपा और कंाग्रेस पिछले तीन दशकों से चलाती रही थीं। एक तरह से, आप पार्टी भी उसी तरह से दिल्ली की सबसे शक्तिशाली पार्टी बन गई है जैसी ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस बंगाल में और नवीन पटनायक का बीजू जनता दल ओडिशा में है। वास्तव में पहचान की राजनीति लोकतांत्रिक शासन के लिए सबसे बड़ा खतरा है। और यह उस नुकसान को भी कम नहीं कर रही है जो भाजपा स्वतंत्रता आंदोलन से विरासत में मिली अनेकतावाद की संस्कृति को पहुंचा रही है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी हिंदुओं को हिंदू राष्ट्रवाद अपनाने की अपील कर रहे और भारी भीड़ जुटा रहे हैं।

मुसलमान उचित ही असुरक्षित महसूस कर रहे हैं क्योंकि नरम हिंदुत्व यादा से यादा लोगों को दूषित कर रहा है। इस खतरनाक प्रवृत्ति को रोकने में कांग्रेस बहुत कमजोर है और उसे यह पता भी नहीं कि वह राष्ट्र को किस तरफ आईना दिखाए। क्षेत्रीय पार्टियों को महसूस हो रहा है कि कंाग्रेस जो जगह छोड़ रही है वह उसे भर सकती हैं। शायद वे ऐसा कर भी लें, लेकिन यह देश की एकता की कीमत पर होगा। कुछ क्षेत्रीय पार्टियां अक्षरश: उस संविधान का उल्लंघन कर रही हैं जो देश के सभी हिस्सों को जोड़ती है।

संघीय ढांचा का कोई विकल्प नहीं है जिसे संविधान सभा ने अच्छा मानकर और पवित्र बना कर संविधान में रख दिया। ओडिशा इसका उदाहरण है कि भारतीय शासन व्यवस्था किस तरह काम कर रही है। राय अपनी ढांचे में संघीय है लेकिन शासन के लिहाज से वंशीय है। भले ही, कई बार अपनी मर्जी से चलने वाला और घमंडी होने का रुख दिखाए, वह शायद ही कभी केंद्र सरकार के खिलाफ जाता है।  लेकिन नवीन पटनायक का शासन व्यक्ति केंद्रित है और वह अपने पिता बीजू जनता दल के पदचिन्हों पर चलते हैं। बीजू ने सनकी और भ्रष्ट तरीके से शासन किया। वे अभी भी याद किए जाते हैं क्योंकि उन्होंने उड़िया लोगों को पहचान दी जो आसमान के नीचे अपनी जगह बनाने के लिए अभी भी संघर्ष कर रहे हैं। नवीन लोगों को अपने पिता की विरासत याद दिलाते रहते हैं। भुवनेश्वर की अपनी यात्रा के दौरान मैंने पाया कि पूरे शहर में होर्डिंग्स लगे हैं जिसमें बीजू पटनायक नवीन की ओर उंगली दिखा रहे हैं मानो वे ध्यान दिला रहे हैं कि उनका उत्तराधिकारी उनका बेटा है। वैसे पोस्टर भी थे जिसमें राहुल गांधी अकेले दिखाई देते हैं, लेकिन नवीन के अगल-बगल में सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हैं। जिस तरह पंजाब में सुखबीर सिंह बादल, अखिलेश यादव, यूपी में और फारुख अब्दुला जम्मू-काश्मीर में हैं, नवीन पटनायक का वंश ही उनकी पूंजी है।

लोकतंत्र में चुनाव सिर्फ निर्वाचित होने के लिए है। इसके बाद राय विधानसभा के पांच साल के कार्यकाल के दौरान लोगों की कोई गिनती नहीं रहती है। नवीन कुछ चुनिंदा नौकरशाहों के सहारे राय का शासन चलाते हैं और लोग लाचारी और तकलीफ  में हैं। वह बदतर हैं क्योंकि उन्होंने अपनी पार्टी के सभी नेताओं का सुनियोजित ढंग से सफाया कर दिया है। इस तरह वह ऐसा बन गए हैं जिसके बिना काम नहीं चल सकता है। उनकी ताकत यही है कि उनकी पार्टी में और उनके विरोध में खड़ी पार्टी, कांग्रेस में कोई नेता नहीं है। पूर्व मुख्यमंत्री जेबी पटनायक ने  कंाग्रेस के अन्दर बढ़ते झगड़े के मुकाबले आसाम का रायपाल बनना पसंद किया। 

मुझे सबसे यादा अचरज हुआ कि राय में आम आदमी पार्टी की कोई फुंफकार सुनाई नहीं दे रही है। मैंने सोचा था कि ओडिशा, जहां कोई विरोधी पक्ष नहीं है, आप पार्टी के लिए आदर्श जगह होगी। ऐसा लगता नहीं है कि पार्टी दिल्ली, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, हरियाणा और राजस्थान के कुछ हिस्सों से आगे जा पाई है। बेशक, इसके जन्म और दिल्ली में सफलता से आदर्शवाद की झलक जरूर दिखाई दी है। लेकिन, अरविंद केजरीवाल पार्टी के पर्याय बन गए। उन्होंने किसी को उभरने का मौका नहीं दिया है। वास्तव में उनके कारनामों ने उन बुध्दिजीवियों की उम्मीदों को बुझा दिया है जिन्होंने उनमें एक विकल्प देखा था। भगवान का शुक्र है, कुछ दूसरे नाम जाहिर हुए हैं जो लोकसभा का चुनाव लड़ेंगे। उन्हें एक सामूहिक नेतृत्व की जरूरत को रेखांकित करना चाहिए। दर्जनों स्वयंसेवी संस्थाएं जिनका रिकार्ड केजरीवाल से भी बेहतर है आप पार्टी से दूर हैं। उन्हें भी पार्टी में शामिल करने के लिए राजी करना चाहिए क्योंकि यह देश में चल रहे हजारों विद्रोह के लिए एक मंच है। हालांकि आप पार्टी को अपना आर्थिक एजेंडा सामने लाना चाहिए क्योंकि लोगों ने उसे अनिवार्य तौर पर भाजपा और कांग्रेस के खिलाफ मत दिया है।


आप पार्टी ने प्राकृतिक गैस की कीमत के मामले में केंद्र सरकार का चेहरा उजागर कर बहुत अच्छा किया। जब निजी कंपनी ने भी गैस खरीदने के ठेके पर 1917 तक के लिए 2.5 डालर प्रति बीटीयू की दर पर हस्ताक्षर किया, फिर भी उसे बढ़ाकर आठ डालर प्रति यूनिट दर कर दिया गया। यह स्पष्ट है कि पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोहली, जिन्होंने कीमत में बढ़ोतरी का बचाव किया है, इस घोटाले में अवश्य गुंथे हुए हैं जो मनमोहन सिंह के कार्यकाल का एक और घोटाला है, बावजूद इसके कि कार्यकाल के सिर्फ दो महीने बचे हैं। विभिन्न घोटालों के लिए कंाग्रेस निशाने पर होगी। लेकिन पार्टी ने सांप्रदायिकता को मुख्य मुद्दा बनाया है। भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता, दोनों का सामना शुचिता और विविधता वाली सोच के मुद्दे से करना चाहिए। आप पार्टी इन तारों को जोड़ सकती है बशर्ते यह इकट्ठा रहे।

लंबित मुकदमे व न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति आयु

लोक सभा के विस्तारित शीतकालीन सत्र के दौरान आंध्र प्रदेश के विभाजन और अलग तेलंगाना राज्य बनाने को लेकर सदन में हुए गतिरोध के कारण भ्रष्टाचार से निपटने के लिए प्रस्तावित अनेक विधेयकों के साथ ही उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु सीमा बढ़ाकर उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के बराबर करने का विधेयक भी पारित नहीं हो सका। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु 1963 में 60 साल से बढ़ाकर 62 साल की गयी थी।
कार्मिक एवं लोक शिकायत तथा विधि एवं न्याय विभाग से संबंधित संसद की स्थाई समिति ने 29 अप्रैल 2010 को संसद को सौंपी अपनी 39वीं रिपोर्ट में उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की आयु 62 साल से बढ़ाकर 65 साल करने की सिफारिश की थी।
इस रिपोर्ट के बाद अगस्त 2010 में तत्कालीन विधि एवं न्याय मंत्री श्री वीरप्पा मोइली ने न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु सीमा बढ़ाने संबंधी 114वें संविधान संशोधन विधेयक लोक सभा में पेश किया था। इस संविधान संशोधन विधेयक पर 28 दिसंबर, 2011 को लोकसभा में चर्चा शुरू हुयी थी जो पूरी नहीं हो सकी थी।
विधि एवं न्याय मंत्री श्री कपिल सिब्बल चाहते थे कि 15वीं लोकसभा के विस्तारित शीतकालीन सत्र संसद के शेष कार्य दिवसों में कम से कम यह काम तो पूरा कर लिया जाए। लेकिन ऐसा हो नहीं सका।
अब चूंकि 15वीं लोक सभा के अंतिम सत्र के समापन के बाद सदन को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया गया है, इसलिए लोकसभा भंग होने के साथ ही यह विधेयक विलोपित हो जाएगा। ऐसी स्थिति में 16वीं लोक सभा के गठन के बाद ही नए सिरे से इसे अमली जाना पहनाना संभव होगा।
देश के उच्च न्यायालयों में 40 लाख से अधिक मुकदमें लंबित होने के तथ्य के मद्देनजर जहां न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु 60 साल से बढ़ाकर 62 की गयी थी। तो उस समय उच्च न्यायालयों में लंबित मुकदमों की संख्या इतनी अधिक नहीं थी। लेकिन पिछले 50 साल में देश की बढ़ती आबादी और नए-नए कानून बनने के कारण विवादों में भी वृद्धि हुई है। इसकी वजह से लंबित मुकदमों की संख्या में भी तेजी से वृद्धि हुई है।
संविधान के कामकाज की समीक्षा के लिए पूर्व प्रधान न्यायाधीश एम एन वेंकटचलैया की अध्यक्षता में गठित आयोग ने भी मार्च 2002 में अपनी रिपोर्ट में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की आयु सीमा 65 साल से बढ़ाकर 68 साल और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की आयु सीमा 62 साल से बढ़ाकर 65 साल करने की सिफारिश की थी।
न्यायालयों में लंबित मुकदमों की संख्या कम करने और इनके तेजी से निबटारा करने की कवायद के दौरान 2008 में तत्कालीन विधि एवं न्याय मंत्री श्री हंसराज भारद्वाज ने उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति आयु 62 साल से बढ़ाकर 65 साल करने की दिशा में प्रयास किया था। लेकिन अपहिरार्य कारणों के उस समय यह मामला आगे नहीं बढ़ सका था।
इस समय उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति आयु 65 साल और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के मामले में यह 62 साल है।
न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु सीमा बढ़ाने का मसला कई बार उच्चतम न्यायालय पहुंचा। लेकिन हर बार न्यायालय ने इसे कार्यपालिका के विवेक पर छोड़ते हुए इस संबंध में दायर याचिकाओं पर विचार करने से इंकार किया।
इन याचिकाओं में दलील दी गई थी कि कनाडा, आयरलैंड, इस्राइल, न्यूजीलैंड और ब्रिटेन जैसे देशों में उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायलय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु 68 से 75 साल के बीच है जबकि अमेरिका में न्यायाधीश जीवनपर्यंत इस पद के पर आसीन रह सकते हैं तो फिर भारत में ही न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु 62 साल या 65 साल क्यों है।
इस समय उच्चतम न्यायालय में प्रधान न्यायाधीश सहित न्यायाधीशों के 31 और 24 उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 906 स्वीकृत पद हैं। उच्च न्यायालयों में अभी भी न्यायाधीशों के 250 से अधिक पद रिक्त हैं।
न्यायालयों में लंबित मुकदमों की बढ़ती संख्या से उत्पन्न स्थिति की गंभीरता को देखते हुए प्रधान न्यायाधीश पी सदाशिवम ने न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने के बारे में प्रधानमंत्री को पत्र भी लिखा था। प्रधान न्यायाधीश ने अप्रैल 2013 में मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के संयुक्त सम्मेलन की ओर ध्यान आकर्षित किया था जिसमें न्यायाधीशों की संख्या में 25 फीसदी वृद्धि करने पर सिद्धांत रूप में वह सहमत हो गए थे।
इस संबंधों में विधि एवं न्याय मंत्री कपिल सिब्बल ने प्रधान न्यायाधीश को सूचित किया था कि उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को पत्र लिखकर उनसे राज्य सरकारों के साथ विचार परामर्श की प्रक्रिया तत्काल शुरू करने का आग्रह किया गया है।
इस मसले पर हाल के समय में उच्चतम न्यायालय ने दो बार जनहित याचिकाओं पर विचार से इंकार किया है। प्रधान न्यायाधीश ने पिछले महीने ही ऐसी एक याचिका पर विचार से इंकार करते हुए कहा था कि न्यायालय सरकार को इस तरह का निर्देश देने के लिए सरकार को बाध्य नहीं कर सकता है। सरकार को ही इस संबंध में कोई नीतिगत निर्णय करना होगा।
न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु सीमा बढ़ाने संबंधी संविधान विधेयक पर 28 दिसंबर, 2011  को लोकसभा में चर्चा हुई थी जो अभी तक पूरी नहीं हो सकी है। कानून मंत्रि कपिल सिब्बल चाहते हैं कि संसद के विशेष कार्य दिवसों में कम से कम यह काम तो पूरा ही कर लिया जाए।
संसद का विस्तारित सत्र शुरू होने से पहले विधि एवं न्याय मंत्री कपिल सिब्बल ने लोक सभा के महासचिव को इस विधेयक के बारे में पत्र भी लिखा था। कानून मंत्री का मानना था कि न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाने से न्यायपालिका को उनके अनुभवों का लाभ मिलेगा और न्यायाधीशों के सेवानिवृत्त होने की वजह से उच्च न्यायालयों में रिक्त पदों में भी कमी आएगी।
कानून मंत्री का यह भी विचार उत्तम था लेकिन संसद की कार्यवाही में निरंतर हो रहे व्यावधान के कारण यह विधेयक पारित नहीं हो सका।
न्यायाधीशों की आयु सीमा बढ़ाने के पक्ष में वैसे तो भारतीय जनता पार्टी भी है लेकिन उसका कहना है कि इसके बाद सेवानिवृत्त होने पर न्यायाधीशों की कोई नयी नियुक्ति नहीं मिलनी चाहिए। सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों की विभिन्न न्यायाधिकरणों और आयोगों में नियुक्ति का मसला भी लंबे समय से विवाद का विषय रहा है।
भारतीय जनता पार्टी ने एक अवसर पर यहां तक कहा था कि  न्यायाधीश के सेवानिवृत्त होते ही उन्हें कुछ साल तक कोई नयी जिम्मेदारी नहीं सौंपी जानी चाहिए।

न्यायालयों में लंबे समय तक मुकदमें लंबित रहने से भले ही देश की जनता को परेशानी होती हो लेकिन राजनीतिक दलों में आम सहमति नहीं होने के कारण कई बार महत्वपूर्ण विषय, विशेषकर न्यायिक सुधार से जुड़े मसले, भी अधर में लटके रह जाते हैं।

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