शुक्रवार, 22 अगस्त 2014

मानव विकास सूचकांक से उभरती तस्वीर


नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर अमर्त्य सेन ने कुछ समय पहले सामाजिक न्याय के विचार को किस तरह देखा जाना चाहिए इस पर रौशनी डाली थी। उन्होंने न्याय की प्रणाली केन्द्रित अवधारणा और कार्यान्वयन केन्द्रित समझदारी के बीच फर्क करने की बात कही थी। इस प्रक्रिया पर निगाह डालते हुए जहां न्याय को चन्द सांगठनिक प्रणालियां - कुछ संस्थाएं, कुछ नियमन, कुछ आचार सम्बन्धी नियम - जिनकी सक्रिय उपस्थिति यह दर्शाती है कि न्याय को अंजाम दिया जा रहा है, उन्होंने कहा कि यहां सवाल यह पूछे जाने का है कि क्या न्याय का तकाज़ा महज इसी बात तक सीमित है कि संस्थाएं और नियम दोनों सही हों?

मानवविकास सूचकांक के ताजे आंकड़े प्रणाली एवं कार्यान्वयन के बीच मौजूद अन्तराल पर नए सिरे से निगाह डालने के लिए प्रेरित करते हैं। योजना आयोग के अन्तर्गत कार्यरत इंस्टीटयूट आफ एप्लाइड मैनपॉवर रिसर्च की तरफ से पिछले दिनों इन आंकड़ों को जारी किया गया है। इन आंकड़ों के मुताबिक ऐसे गरीब कहलाने वाले राय जहां हाशिये पर पड़े तबकों की तादाद अधिक है, वहां मानवविकास सूचकांक अब तेजी से राष्ट्रीय औसत के करीब पहुंच रहे हैं। एक तथ्य यह भी है कि अगर अनुसूचित जाति और जनजाति तथा मुस्लिम समुदाय के सूचकांकों की तुलना की जाए तो यह दिखता है कि अन्य हाशियाकृत समुदायों की तुलना में उनकी स्थिति बेहतर हो रही है।

मालूम हो कि आठ गरीब रायों - बिहार, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, मध्यप्रदेश, ओड़िशा राजस्थान, उत्तरप्रदेश और उत्तराखण्ड - में भारत की कुल अनुसूचित जातियों का 48 फीसदी, अनुसूचित जनजातियों का 52 फीसदी और मुसलमानों की 44 फीसदी आबादी रहती है। रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली, केरल, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और पंजाब को मानव विकास सूचकांकों के मामले में सर्वोत्तम परफार्मर कहा जा सकता है तो छत्तीसगढ़, बिहार, मध्यप्रदेश, झारखण्ड और ओड़िशा को सबसे खराब परफार्मर कहा जा सकता है।

रिपोर्ट बेहतर प्रशासन और रायों द्वारा व्यापक सामाजिक लामबन्दी की अहमियत को भी रेखांकित करती है, जो एक तरह से सभी सामाजिक समूहों के परफार्मन्स में प्रतिबिम्बित होती है। उदाहरण के लिए, विभिन्न स्वास्थ्य सूचकांकों के मामले में दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु और केरल के अनुसूचित जाति समूह और अन्य पिछड़ी जातियों की स्थिति बिहार, छत्तीसगढ़ और उत्तरप्रदेश से बेहतर दिखती है। एक तरह से देखें तो यह रिपोर्ट एक तरह से इसके पहले प्रकाशित इंडिया हयूमन डेवलपमेण्ट रिपोर्ट 2011 - टूवर्डस सोशल एक्स्लुजन के विस्तार के तौर पर देखी जा सकती है जिसने इस हक़ीकत को उजागर किया था कि विगत एक दशक के दरम्यिान भारत के मानव विकास सूचकांक में सुधार हुआ है लेकिन कुपोषण का स्तर, कुछ रायों में आज भी अधिक बना हुआ है। यह समीचीन होगा कि हम इस पर निगाह डालें।

2011 की उपरोक्त रिपोर्ट के मुताबिक अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ी जाति जैसे सामाजिक समूहों के हिसाब से सोचें तो भारत का जनसंख्यात्मक नक्शाप्रोफाइल एक दिलचस्प चित्र पेश करता है। आंकड़ों के मुताबिक आबादी का 71 फीसदी हिस्सा इन्हीं श्रेणियों में शुमार है। मानवविकास के आधार पर रायों का बंटवारा परिस्थिति में अन्तर्निहित सामाजिक आयाम को सामने लाता है। गरीब राय, जो मानवविकास सूचकांकों के हिसाब से भी सबसे नीचे स्थित हैं, वहां अनुसूचित जातियों और अन्य जैसे हाशियाकृत समूहों का बड़ा हिस्सा रहता है। सेवा अवरचना (सर्विस इन्फ्रास्ट्रक्चर) तथा संसाधनों तक पहुंच में सुगमता की कमी, एक तरह से इन समुदायों की वंचना को बढ़ाता है, जो विकास प्रक्रिया से बहिष्कृत ही रहते हैं। तमिलनाडु और केरल का उदाहरण, जहां सामाजिक समूहों का वितरण बिहार और यूपी की तरह है, एक विपरीत स्थिति को दर्शाता है। वे मानवविकास सूचकांक और उसके घटक सूचकांक में बेहतर दिखते हैं।

इस फर्क को कैसे समझा जा सकता है? वे बेहतर शासन और निम्न जातियों की जबरदस्त लामबन्दी का उदाहरण हैं। इन दक्षिणी रायों के सामाजिक आन्दोलनों ने वहां के समाज को इतने व्यापक स्तर पर प्रभावित किया है कि हम पाते हैं कि उत्तरप्रदेश और बिहार की उंची जातियां भी तमिलनाडु के अनुसूचित जातियों और अन्य पिछड़ी जातियों से बदतर दिखती हैं। इस राय में अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़ी जाति के बच्चों की उच्च दाखिला दर भी सामाजिक आन्दोलन के इतिहास से जुड़ी है। स्वास्थ्य, शिक्षा और पोषण की स्थिति के मामले में औसत से बेहतर स्थिति दरअसल सामाजिक आन्दोलनों और राय सरकार के हस्तक्षेप का संमिश्र नतीजा है। दिल्ली जैसा राय जहां की अनुसूचित जातियां और अन्य पिछड़ी जातियां उत्तर प्रदेश और बिहार की उंची जातियों से बेहतर करती दिखती हैं, वह दरअसल बेहतर शासन की ही भूमिका को रेखांकित करता है। दरअसल, बेहतर शासित रायों में सभी के सूचकांक बेहतर होते हैं जिसका लाभ पिछड़ी जातियों को भी मिलता है।

2011 की उपरोक्त रिपोर्ट ने उत्तरप्रदेश में सामने रही सच्ची दलित क्रांति से जुड़े तथ्य भी उजागर किए थे। कपूर आदि के अध्ययन को उध्दृत करते हुए उसमें बताया गया था कि अत्यधिक गरीबी के बावजूद वहां आर्थिक और सामाजिक सूचकांकों में जैसे पालन पोषण या समारोह के अवसर पर खाने पीने में जबरदस्त सुधार देखने को मिलता है। वह दलितों की बेहतर सामाजिक स्थिति तथा इसी से जुड़ी बेहतर उपभोग पैटर्न को भी दिखाता है। उच्च सकल घरेलू उत्पाद और प्रति व्यक्ति वृध्दि दर की उच्च दर ने इस नयी समृध्दि में दलितों को साझेदार बनने का मौका दिया है। जहां बेहतर शासन एवं निम्न तबकों की गोलबन्दी वंचित तबकों या क्षेत्रों के विकास के द्वार खोलती दिखती है, वहीं हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि समग्रता में देखें तो भारत आज भी भूख सूचकांकों के मामले में सबसहारन अफ्रीका - जो इलाका दुनिया भर में अपने लोगों की निरन्तर भूख के लिए जाना जाता है - को मात देता है।


अगर सबसहारन अफ्रीका के 26 देशों में पांच साल से छोटे कुपोषित बच्चों का औसत प्रतिशत पचीस फीसदी है, जबकि भारत में यही आंकड़ा 46 फीसदी है। केरल, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, सिक्किम, मणिपुर और मिजोरम के अलावा, भारत के बाकी सभी राय सबसहारन अफ्रीकी देशों की औसत के समकक्ष हैं या उससे खराब स्थिति में हैं। ( नेशनल फेमिली एण्ड हेल्थ सर्वे 3 की वर्ष 2009 की न्यूट्रिशन रिपोर्ट) नेशनल सैम्पल सर्वे द्वारा संग्रहित आंकड़ों के मुताबिक प्रति व्यक्ति कैलोरी के उपभोग में कमी आयी है जो लगभग पचीस साल पहले ही ग्रामीण इलाकों की न्यूनतम पोषण स्तर (2,400 कैलोरी) और शहरी इलाकों में न्यूनतम पोषण स्तर (2,100 कैलोरी) से कम था। आज़ादी के साठ साल बाद भारत के तीन साल के  बच्चों का लगभग आधा कुपोषित है। भारत की वयस्क आबादी का एक तिहाई का बाडी मास इण्डेक्स 18.5 से कम हैं ( अगर यह सूचकांक इससे नीचे जाता है तो लोगों को कुपोषित घोषित किया जाता है।) बाल मृत्यु दर की संख्या में हाल के वर्षों में नज़र आयी कमी के बावजूद, पांच साल के अन्दर के बच्चों की मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर वहीं बनी हुई है। कहने का तात्पर्य कि अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है ताकि एक समृध्द एवं समतामूलक समाज निर्माण की दिशा में आगे बढ़ा जा सके।

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

योजना आयोग की समस्या

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्र के नाम दिये सम्बोधन में योजना आयोग का आकार बदलने की बात कही है। आपने कहा कि योजना आयोग के वर्तमान रूप को समाप्त करके इसे थिंक टैंक में बदला जायेगा। पिछली सरकार ने योजना आयोग के मूल्यांकन को कमेटी बनाई थी। कमेटी ने सुझाव दिया था कि आयोग को समाप्त कर दिया जाए और इसके स्थान पर थिंक टैंक की स्थापना की जाए। विचार अच्छा है। परन्तु उपचार करने के पहले रोग के कारणों को समझना अच्छा जरूरी है।

आयोग का मुख्य उद्देश्य देश के विकास का रोड मैप बनाना था। विभिन्न मंत्रालयों की नीतियों में सामंजस्य बैठाना कमीशन की जिम्मेदारी थी। जैसे ऊर्जा मंत्रालय जंगल काटना चाहता है जबकि पर्यावरण मंत्रालय उनकी रक्षा करना चाहता है। ऐसे में योजना आयोग का काम है कि दोनों पहलुओं के बीच रास्ता निकाले जैसा कि कमीशन द्वारा बनाई गई इंटेग्रेटेड इनर्जी पालिसी में प्रयास किया गया है। इस रपट में दिये गये सुझावों से में सहमत नहीं हूं परन्तु इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है कि योजना आयोग ने सामंजस्य बनाने का प्रयास किया है। अत: यह कहना अनुचित है कि योजना आयोग पूर्णतया फेल है।

योजना आयोग सहित पूरी सरकार की समस्या दूसरे स्तर पर है। 1750 के पहले इंग्लैण्ड और नीदरलैण्ड को छोड़ शेष विश्व पर राजाओं का एकाधिकार था। उस समय इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रान्ति शुरू हुई थी। जनता के जीवन स्तर में सुधार आया। शिक्षा का प्रसार हुआ और जनता ने शासन में अपनी भागीदारी की मांग की। सत्रहवीं शताब्दी में विचारक जान लाक ने यह क्रान्तिकारी विचार दिया था कि शासक को जनता द्वारा ही अधिकार दिया जाता है और वह जनता की सहमति से ही शासन करता है। इन बदलाव का परिणाम लोकतंत्र के रूप में प्रस्फुटित हुआ।

वर्तमान समय एक और सीढ़ी चढऩे का है। सूचना क्रान्ति ने हर व्यक्ति के लिए सरकारी नीतियों की जानकारी प्राप्त करना आसान बना दिया है। लोगों के पास शिक्षा और समय है। चाय की दुकान पर लोग तमाम विषयों पर चर्चा करते हैं। केवल 5 साल में वोट देकर और सत्ता परिवर्तन करके अब जनता संतुष्ट नहीं है। वे चाहते हैं कि सरकार उनकी सुने और उन्हें बताए कि उनके द्वारा दिए जाने वाले सुझावों को लागू करने में समस्या क्या है। जनता के मन में बैठ गया है कि सरकार वास्तव में नेताओं और नौकरशाहों का हित साधने का काम कर रही है। यही कारण है कि जनता के द्वारा जनता के हित में दिए गए सुझावों की अनदेखी कर दी जाती है।

आज तमाम देशों में सरकार द्वारा इस दिशा में पहल की जा रही है। चीन में राष्ट्रपति जी जिंग ने चीनी ढंग की थिंक टैंक बनाने को प्रोत्साहन दिया है। चीन के कम्युनिस्ट पार्टी के नवम्बर 2013 के सम्मेलन में अधिकारियों द्वारा जनता से वार्ता करने की नई व्यवस्था स्थापित करने का निर्णय लिया गया। दक्षिण अफ्रीका की योजना आयोग ने राष्ट्र के विकास के प्लान को अपनी वेबसाइट पर डालने के बाद जनता से अपना सुझाव देने का आमंत्रण दिया। कमीशन ने 72 घंटे तक केवल जनता से इंटरनेट के माध्यम से वार्ता की। कमीशन के अध्यक्ष स्वयं लैपटाप पर लोगों के प्रश्नों के जवाब दे रहे थे। इसी प्रकार के सुधार न्यूजीलैण्ड, कनाडा और इंग्लैण्ड में लागू किए गए हैं।

योजना आयोग की मूल कमी है कि वह जनता से कट चुकी है। पूर्व प्रमुख मोंटेक अहलूवालिया प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नजदीकी माने जाते थे। इनके दरवाजे पीएमओ के लिए खुले और जनता के लिए बन्द थे। योजना आयोग अदृश्य शक्तियों और तथा कार्पोरेट घरानों द्वारा चलाया जा रहा था। मेरा अनुभव इस बात को प्रमाणित करता है। मंैने पुस्तक लिखी थी जिसमें हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट के लाभ हानि का आकलन किया था। मैंने पाया कि हाइड्रोपावर के नकारात्मक पर्यावरणीय प्रभावों का आर्थिक मूल्य ज्यादा था और बिजली से मिलने वाला लाभ कम। मैं योजना आयोग के सदस्य किरीट पारीख से मिला। उन्होंने आश्वासन दिया कि वे हाइड्रोपावर का समग्र अध्ययन करायेंगे। दुर्भाग्यवश उन्होंने ही अध्ययन कराया ही मुझे दुबारा मिलने का समय दिया। इसके बाद मैं नये सदस्य बीके चतुर्वेदी से मिला। आपके साथ भी वही कहानी घटी। तात्पर्य यह कि योजना आयोग अपने आकाओं के इशारे पर और आकाओं के स्वार्थ साधने के लिए कार्य कर रहा था कि जनता के लिए। ऐसे में योजना आयोग को समाप्त करके थिंक टैंक बनाने से कोई अंतर नहीं पड़ेगा। थिंक टैंक भी आकाओं की मनमर्जी का सुझाव देगा। जनविरोधी योजना आयोग के बदले जनविरोधी थिंक टैंक स्थापित करने में क्या लाभ है?

जरूरत है कि योजना आयोग का जुड़ाव जनता से स्थापित किया जाए विशेषकर सरकार के आलोचकों से। कबीर ने कहा है कि ''निन्दक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाय। बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।“ यह बात योजना आयोग पर भी लागू होती है। यदि योजना आयोग देश को दिशा देने में असफल रहा है तो इसका कारण आलोचकों से दूरी रखना है। योजना आयोग में नये विचारों का प्रवेश नहीं है। इस रोग का उपचार योजना आयोग को नया नाम देने से नहीं निकलेगा। कमीशन में कार्यरत कर्मचारी अदृश्य शक्तियों एवं कार्पोरेट घरानों द्वारा चलाये जाने के आदी हो चुके हैं। थिंक टैंक की भूमिका में भी ये इन्हीं शक्तियों द्वारा चलाये जायेंगे।  प्रधानमंत्री को चाहिए कि योजना आयोग अथवा थिंक टैंक में उस विषय से जुड़े सरकार के आलोचकों को स्थान दें। ऐसा करने से सरकार का जनता से जुड़ाव होगा और वास्तव में थिंक टैंक की स्थापना होगी।

इसके अतिरिक्त सरकार के वर्तमान चरित्र में बदलाव हासिल करने को प्रधानमंत्री को मेरे दो और सुझाव हैं। पहला कि सीएजी की तर्ज पर सरकार के हर विभाग का सामाजिक आडिट कराने की स्वतंत्र संस्था स्थापित की जाए। देखा जाए कि विभाग ने अपनी जिम्मेदारी का कितना निर्वाह किया है जैसे बिजली विभाग के एक्जीक्यूटिव इंजीनियर से पूछा जाए कि लाइन के फाल्ट को रोकने के लिए उन्होंने क्या कदम उठाये हैं। लेकिन सीएजी की तरह यह संस्था स्वयं आडिट करे। संस्था द्वारा आडिट कमेटी बनाई जाए जिसमें जनप्रतिनिधि, शिक्षक, एनजीओ, वकील, पत्रकार और उस विभाग के उपभोक्ताओं को रखा जाए।  बिजली विभाग की सामाजिक आडिट की कमेटी में उद्यमी और किसानों को रखा जाये। इस कमेटी के लिए जनसुनवाई करना अनिवार्य होना चाहिये। इस प्रकार के आडिट से अधिकारियों में जनता के प्रति नरमी आयेगी।


दूसरा सुझाव है कि सूचना के अधिकार की तर्ज पर ''जवाब का अधिकार'' कानून बनाया जाए। आज यदि एक उपभोक्ता बिजली विभाग को ट्रान्सफार्मर बड़ा करने को लिखता है तो कोई जवाब नहीं मिलता है। अधिकारी के लिए अनिवार्य बना देना चाहिये कि वह जनता को बताए कि बड़ा ट्रान्सफार्मर क्यों नहीं लगाया जा सकता है। ऐसी अनिवार्यता के चलते अधिकारी बाध्यतावश स्वयं ही जनता की बात सुनने लगेंगे। विषय मात्र योजना आयोग का नहीं, बल्कि सरकार के हर विभाग का है। जनभागीदारी सुनिश्चित करनी चाहिए तब ही राष्ट्र में एकमत बनेगा और देश आगे बढ़ेगा।

कुल पेज दृश्य