सोमवार, 31 मार्च 2014

मुद्दा सामाजिक - लैंगिक विविधता का

सोलहवीं लोकसभा का चुनाव एक ऐसे समय में होने जा रहा है जब देश में व्याप्त भीषणतम विषमता के कारण हमारे लोकतंत्र पर गहरा संकट मंडरा रहा है। विषमता का आलम यह है कि परम्परागत रूप से सुविधासंपन्न और विशेषाधिकारयुक्त अत्यन्त अल्पसंख्यक तबके का जहां शासन-प्रशासन,उद्योग-व्यापार, सांस्कृतिक-शैक्षणिक प्रत्येक क्षेत्र में 80-85 प्रतिशत कब्जा है, वहीं परम्परागत रूप से तमाम क्षेत्रों से ही वंचित बहुसंख्यक तबका, जिसकी आबादी 85 प्रतिशत है, 15-20 प्रतिशत अवसरों पर आज भी जीवन निर्वाह करने के लिए विवश हैं। किसी भी डेमोक्रेटिक कंट्री में परम्परागत रूप से सुविधासंपन्न तथा वंचित तबकों के मध्य आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक इत्यादि क्षेत्रों में अवसरों के बंटवारे में भारत जैसी असमानता नहीं है। इस असमानता ने देश को 'अतुल्य' और 'बहुजन'-भारत में बांटकर रख दिया है। चमकते अतुल्य भारत में जहां तेजी से लखपतियों-करोड़पतियों की संख्या बढ़ती जा रही है, वहीं जो 84 करोड़ लोग 12-20 रुपये रोजाना पर गुजर-बसर करने के लिए मजबूर हैं, वे मुख्यत: बहुजन भारत के लोग हैं।

अवसरों के असमान बंटवारे से उपजी आर्थिक और सामाजिक विषमता का जो स्वाभाविक परिणाम आना चाहिए, वह सामने रहा है। देश के लगभग 200 जिले माओवाद की चपेट में चुके हैं। लाल गलियारा बढ़ता जा रहा है और दंतेवाड़ा जैसे कांड राष्ट्र को डराने लगे हैं। इस बीच माओवादियों ने एलान का दिया है कि वे 2050 तक बन्दूक के बल पर लोकतंत्र के मंदिर पर कब्जा जमा लेंगे। इसमें कोई शक नहीं कि विषमता की  खाई यदि इसी तरह बढ़ती रही तो कल आदिवासियों की भांति ही अवसरों से वंचित दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक जैसे दूसरे तबके भी माओवाद की धारा से जुड़ जायेंगे, फिर तो माओवादी अपने मंसूबों को पूरा करने में जरूर सफल हो जायेंगे और यदि यह अप्रिय सत्य सामने आता है तो हमारे लोकतंत्र का जनाजा ही निकल जायेगा। ऐसी स्थिति सामने आए, इसके लिए डॉ. आंबेडकर ने संविधान सौंपने के पूर्व 25 नवम्बर,1949 को राष्ट्र को सतर्क करते हुए एक अतिमूल्यवान सुझाव दिया था।

  उन्होंने कहा था- ''26 जनवरी 1950 को हम लोग एक विपरीत जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति के क्षेत्र में हम लोग समानता का भोग करेंगे किन्तु सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में मिलेगी भारी असमानता। राजनीति के क्षेत्र में हम लोग एक नागरिक को एक वोट एवं प्रत्येक वोट के लिए एक ही मूल्य की नीति को स्वीकृति देने जा रहे हैं। हम लोगों को निकटतम समय के मध्य इस विपरीतता को दूर कर लेना होगा अन्यथा यह असंगति कायम रही तो विषमता से पीड़ित जनता इस राजनैतिक गणतंत्र की व्यवस्था को विस्फोटित कर सकती है।''

ऐसी चेतावनी देने वाले बाबा साहेब ने भी शायद कल्पना नहीं किया होगा कि भारतीय लोकतंत्र की उम्र छह दशक पूरी होते-होते विषमता से पीड़ित लोगों का एक तबका उसे विस्फोटित करने पर आमादा हो जायेगा। लेकिन यह स्थिति सामने रही है तो इसलिए कि आजाद भारत के हमारे शासकों ने संविधान निर्माता की सावधानवाणी की पूरी तरह अनदेखी कर दिया। वे स्वभावत: लोकतंत्र विरोधी थे। अगर लोकतंत्रप्रेमी होते तो केंद्र से लेकर रायों तक में काबिज हर सरकारों की कर्मसूचियां मुख्यत: आर्थिक और सामाजिक विषमता के  खात्मे पर केन्द्रित होतीं। तब विषमता का वह भयावह मंजर कतई हमारे सामने नहीं होता जिसके कारण हमारा लोकतंत्र विस्फोटित होने की ओर अग्रसर है। इस लिहाज से पंडित नेहरु, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी,नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी, जय प्रकाश नारायण, योति बसु जैसे महानायकों की भूमिका भी प्रशंसनीय नहीं रही। अगर इन्होंने डॉ. आंबेडकर की चेतावनी को ध्यान में रखकर आर्थिक और सामाजिक विषमता के त्वरित गति से खत्म होने लायक नीतियां अख्तियार की होतीं, क्या मुट्ठी भर सुविधाभोगी वर्ग का शासन-प्रशासन, उद्योग-व्यापार, शैक्षणिक-सांस्कृतिक क्षेत्रों पर 80-85 प्रतिशत वर्चस्व स्थापित होता और क्या देश अतुल्य और बहुजन भारत में विभाजित होता? मजे की बात यह है कि आजाद भारत की  राजनीति के  महानायक आज भी लोगों के हृदय सिंहासन पर विराजमान हैं ; आज भी उनके अनुसरणकारी उनके नाम पर वोटरों को रिझाने का प्रयास करते हैं। बहरहाल, हमारे राष्ट्र नायकों से कहां चूक हो गई जिससे विश्व में सर्वाधिक विषमता का साम्राय भारत में कायम हुआ और जिसके कारण ही विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र आज विस्फोटित होने की ओर अग्रसर है?
   
दरअसल, उन्होंने ठीक से उपलब्धि ही नहीं किया कि सदियों से ही सारी दुनिया में आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी, जो कि मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या है, की सृष्टि शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक और धार्मिक) में सामाजिक और लैंगिक विविधता के असमान प्रतिबिम्बन के कारण होती रही है। अर्थात लोगों के विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक गतिविधियों का असमान बंटवारा कराकर ही सारी दुनिया के शासक विषमता की स्थित पैदा करते रहे हैं। इसकी सत्योपलब्धि कर ही अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड इत्यादि जैसे लोकतांत्रिक रूप से परिपक्व देश ने अपने-अपने देशों में शासन-प्रशासन, उद्योग-व्यापार, फिल्म-टीवी-मीडिया इत्यादि हर क्षेत्र ही सामाजिक और लैंगिक विविधता के प्रतिबिम्बन की नीति पर काम किया और मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या से पार पाया। किन्तु उपरोक्त देशों से लोकतंत्र का प्राइमरी पाठ पढ़ने सहित कला-संस्कृति-फैशन-टेक्नोलॉजी इत्यादि सब कुछ ही उधार लेनेवाले हमारे शासकों ने उनकी विविधता (डाइवर्सिटी) नीति से पूरी तरह परहेज किया।

हमारे स्वाधीन भारत के शासक स्व-वर्णीय हित के हाथों विवश होकर या आर्थिक सामाजिक विषमता की सृष्टि के कारणों से अनभिज्ञ रहने के कारण आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे के भागीदारीमूलक योजनाओं की जगह राहत और भीखनुमा योजनाओं को प्राथमिकता देते हुए प्रकारांतर में गैर-बराबरी ही बढ़ाते रहे। उन्हीं का अनुसरण करते हुए वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व भी मुफ्त का अनाज, रेडियो-टीवी-कंप्यूटर, कुकिंग गैस, साइकल, नकद राशि इत्यादि तरह-तरह का प्रलोभन देकर चुनाव जीतने का उपक्रम चला रहा है। अत: लक्षण यही दिख रहा है कि शासक दलों की राहत और भीखनुमा घोषणाओं के चलते लोकसभा चुनाव-2014 भी लोकतंत्र को विस्फोटित करने लायक कुछ और समान स्तूपीकृत करने जा रहा है। ऐसे में तमाम लोकतंत्रप्रेमी ताकतों का यह अत्याय कर्तव्य बनता है कि वे चुनाव लड़ रहे दलों को यह घोषणा करने के लिए मजबूर कर दें कि वे सत्ता में आने पर शक्ति के समस्त स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करेंगे। चूंकि गणतांत्रिक-व्यवस्था में विषमता के खात्मे का डाइवर्सिटी से बेहतर अन्य कोई उपाय नहीं है इसलिए मौजूदा चुनाव को डाइवर्सिटी पर खड़ा करने से श्रेयस्कर कोई विकल्प नहीं है।
         

शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू होने पर सवर्ण, ओबीसी,एससीएसटी और धार्मिक-अल्पसंख्यकों के मध्य व्याप्त विषमता का धीरे-धीरे विलोप हो जायेगा। यह महिला सशक्तिकरण के मोर्चे पर बंगलादेश-नेपाल जैसे पिछड़े राष्ट्रों से भी पिछड़े भारत को विश्व की अग्रिम पंक्ति में खड़ा कर देगा। इससे  सच्चर रिपोर्ट में उभरी मुस्लिम समुदाय की बदहाली की तस्वीर खुशहाली में बदल जायेगी। पौरोहित्य में डाइवर्सिटी ब्राह्मणशाही का खात्मा कर देगी। इससे इस क्षेत्र में ब्राह्मण समाज की हिस्सेदारी सौ की जगह महज तीन-चार प्रतिशत पर सिमट जायेगी और बाकी  क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रातिशूद्रों में बंट जायेगी। इसका परोक्ष लाभ यह भी होगा कि इससे दलित और महिला उत्पीड़न में भारी कमी; लोकतंत्र के सुदृढ़ीकरण; विविधता में शत्रुता की जगह सच्ची एकता; विभिन्न जातियों में आरक्षण की होड़ भ्रष्टाचार के खात्मे के साथ आर्थिक और सामाजिक-विषमताजनित अन्य कई उन समस्याओं के खात्मे का मार्ग प्रशस्त होगा, जिनसे हमारा राष्ट्र जूझ रहा है।          

शनिवार, 29 मार्च 2014

लोकतंत्र में अपराधीकरण की विवशता

लोकसभा चुनाव को लेकर जोर-शोर से चल रहा प्रचार इस बार भिन्न नजर रहा है। राजनीति के अपराधीकरण की पृष्ठभूमि में लोकसभा चुनाव हो रहे हैं। चुनाव से स्पष्ट हो जाएगा कि संसदीय लोकतंत्र के जनप्रतिनिधि तथा सांसद अपराधमुक्त नहीं रह पाएंगे, क्योंकि प्रचलित संसदीय प्रणाली द्वारा अपराधमुक्त सांसद का चुना जाना शायद संभव नहीं हो पाता है। राजनैतिक दलों की भी विवशता है कि सत्ता पाने की प्रतिस्पर्धा के द्वारा ही राजनीति की जा सकती है और अन्य साफ सुथरे उपाय उपलब्ध नहीं किए जा सके हैं। इसलिए राजनीति के द्वारा अपराधों में वृध्दि ही होती रहेगी। लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली भी इसी में से अपना अस्तित्व बनाने के लिए विवश हो गई है। ऐसे में राजनीति का अपराधीकरण भारत के लोकजीवन को स्वाधीनता से जीने नहीं देगा। इस प्रश्न का समाधान उन सभी को खोजना है जो स्वाधीनता में विश्वास रखते हैं और उसके प्रति प्रतिबध्द हैं। इस श्रृंखला में सर्वोदयी-गांधीजनों का विशेष स्थान माना जा सकता है। क्योंकि समाज में उनकी विशेष पहचान बनी हुई है।

राजनैतिक स्वाधीनता प्राप्त कर लिए जाने के तुरंत बाद लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली की स्वीकृति महज एक संयोग ही थी। पर इसका यह अर्थ नहीं कि स्वाधीनता के अनुरूप एक नई राजनैतिक व्यवस्था निर्माण के प्रयास समाप्त कर दिए जाएं। आजादी के तुरंत बाद गांधीवादी मानते थे कि लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली का भारतीय स्वाधीनता के संकल्प के अनुरूप रह पाना या उसे रख पाना संभव नहीं होगा। परंतु इसके विकल्प की तलाशने का महत्व तथा उसके प्रयास एक किनारे कर दिए गए। लेकिन विकल्प की खोज आज भी महत्वपूर्ण है। इसे जानने तथा समझने में हुई भूल से भारत की स्वाधीनता के लिए खतरा पैदा होना स्वाभाविक है।

इसी वजह से अज्ञानवश लोग कहते हैं कि महात्मा गांधी के नेतृत्व में किया गया स्वाधीनता का जनआंदोलन निरर्थक हो गया। विकल्प के रूप में नक्सली-माओवादियों ने अपनी उग्रवादी गतिविधियां चलाई हैं, जिसमें भारत के संविधान को ही चुनौती देने के संकेत साफ नजर रहे हैं। माओवादी आम लोगों के दिमाग पर असर डालकर कह रहे हैं कि खूनी क्रांति अपेक्षित है और वह लोगों के लिए शोषण मुक्ति का रास्ता खोलती है। इसलिए उन्होंने मुक्त क्षेत्रों के गठन का रास्ता अपना लिया है। ऐसे में हमें स्वाधीन भारत के लिए अहिंसात्मक स्वाधीनतामूलक विकल्प तलाशना होगा।

राजनैतिक स्वाधीनता प्राप्त कर लेने के बाद के प्रयासों की लंबी फेहरिस्त है। महात्मा गांधी की अनुपस्थिति में विनोबा तथा जेपी के प्रयासों पर अवश्य गौर करना होगा। विनोबा-जेपी ने भारतीय संविधान को चुनौती देते हुए माना था कि संविधान स्वाधीन भारत की रचना करने की दृष्टि से प्रयोजनकारी, उपयोगी तथा प्रेरक नहीं था। दोनों ने इस विषय पर स्पष्ट शब्दों में अपना मत प्रकट किया था।

इस समय जो राजनैतिक परिस्थिति बनी हुई हैं, उसकी प्रतियिास्वरूप राजनैतिक दलों के पक्ष में सोचने वालों का एक तबका गांधीजन-सर्वोदयजनों में देखा जा रहा है। इस संदर्भ में उनके द्वारा प्रस्तुत तर्क केवल बेबुनियाद हैं, बल्कि गुमराह करने वाले और निरर्थक भी हैं। यह महात्मा गांधी-विनोबा-जेपी के स्वाधीनता के लिए किए गए अथक प्रयासों एवं प्रयोगों के प्रति अकारण गलत धारणाएं बनाने वाले सिध्द हो सकते हैं। यह कहा जा सकता है कि दलगत राजनीति के पक्ष में अनावश्यक समर्थन देने की भूलें कुछ गांधीजनों-सर्वोदयजनों द्वारा की गई हैं। यह तर्क भी दिया जाता है कि जेपी ने बिहार आंदोलन चलाकर दलगत राजनीति को प्रोत्साहित किया था। अर्थात 1977 में चुनाव में भागीदारी की स्वीकृति भी दी गई थी।

इस संदर्भ में यह जान लेना आवश्यक है की जेपी को विवश होकर ही चुनाव के लिए स्वीकृति देनी पड़ी थी। बिहार के छात्रों ने भ्रष्टाचार के विरोध में आंदोलन छेड़ा था। इसे सही दिशा देने के लिए छार्त नेताओं ने जेपी से अनुरोध किया था। छात्रआंदोलन का नेतृत्व करने के लिए भी जेपी को बाध्य किया गया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री (स्व.) इंदिरा गांधी ने जेपी को चुनौती दी थी कि चुनाव के द्वारा ही समस्याओं निपटारा किया जाना चाहिए। जेपी अहिंसा एवं शांति में विश्वास रखते थे। जेपी स्वमेव चुनाव में शामिल होना नहीं चाहते थे। इसे सही परिप्रेक्ष्य में ही समझा जाना चाहिए। पर हमारे कुछ गांधीजन-सर्वोदयी साथी इसे बिना समझे चुनाव को स्वीकृति देने की अपनी मानसिकता को तथा किसी दल के प्रति अनावश्यक आकृष्ट हो जाने को सही ठहराने की कोशिश करते हैं यह सर्वथा अनुचित है। गांधीवादी-सर्वोदयी अपनी गतिविधियों की सफ लता-विफ लता को लेकर कई तरह के प्रश्न उपस्थित करते हैं। वैसे भी बिना समीक्षा किए वास्तविक स्थिति को जानना संभव नहीं होता। फिर भी जो विफल हो गए होंगे, उन्हें भी सफलता के मापदंड को जांच लेना चाहिए। वैसे भी सफलता-विफलता की व्याख्याएं एक जैसी नहीं हो सकतीं। अर्थात, महात्मा गांधी-विनोबा-जेपी के मार्गदर्शन या उनके द्वारा सुझाई गई दिशा को अमल में लाने की दृष्टि से जो भी कथित  भूलें  हुई  हैं, उनकी भी जांच पड़ताल कर लेनी होगी। पर जो गांधीजन-सर्वोदयी स्वयं को संस्था संगठनों में ही व्यस्त कर बैठे हैं और जिन्होंने विचार, सिध्दांत तथा लक्ष्य के प्रति उदासीन होकर यदि स्वयं को संस्था संगठनों को संकीर्ण कार्यप्रणाली में ही सीमित कर लिया हो तो उन्हें उससे मुक्त होने की चेष्टा करने को कहा जाना चाहिए। इसी दृष्टि से संस्था एवं संगठनात्मक कार्यविधि की समीक्षा कर लेनी चाहिए। इस हेतु आपसी संवाद की प्रयिा चलानी होगी जो इस समय हर तरह से उपेक्षित हो गई है।


इस त्रिमूर्ति के द्वारा स्वाधीन भारत के स्वाधीनतामूलक नवरचना के लिए जो भी आंदोलन चलाए गए हैं, उनकी उपेक्षा करके या उन्हें भुलाकर अन्य प्रवृत्तियों को स्वीकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि कई अन्य प्रवृत्तियां स्वाधीनता के लक्ष्य एवं उसकी प्रामाणिक गतिविधियों के प्रति प्रतिबध्द नहीं हैं। इसलिए संसदीय शासन प्रणाली का भविष्य में भी राजनैतिक अपराधीकरण होता रहेगा। इसी वजह से अब इसका विकल्प खोज लेने की आवश्यकता महसूस होने लगी है। इसके प्रति गांधीजन-सर्वोदयजनों का अपना एक दायित्व है जो अन्यों से अपेक्षित नहीं है। दूसरी ओर नक्सली-माओवादी अपना हिंसक विकल्प प्रस्तुत करना चाहते हैं। ऐसे में इस दलगत राजनीति के द्वारा भ्रष्ट हो गई परिस्थिति के लिए कोई विकल्प प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। गांधीजनों को गांधी, विनोबा और जेपी द्वारा निर्देशित विकल्पों को जनमानस के समक्ष लाना ही होगा। राजनीति से प्रभावित होकर अप्रिय घटनाएं घटती हैं और उनका तात्कालिक असर भी अवश्य होता है। लेकिन मात्र प्रतिक्रिया से दुष्परिणामों से बच पाने का उपाय कर पाना संभव नहीं है। अतएव हम सबके लिए वैचारिक, सैध्दांतिक तथा मानसिक संतुलन बनाए रखना निहायत जरूरी हो गया है।

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