शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

ऐसे मिल सकती है सस्ती बिजली

चुनावों के बाद दिल्ली सरकार ने बिजली की दरें घटा दीं और इस होड़ में हरियाणा व महाराष्ट्र  की सरकारें भी शामिल हो गई हैं। सबकी नजरें अगले चुनावों पर हैं। अत: अन्य सरकारें भी इसी दबाव में आएंगी। वास्तव में कोई भी सरकार बिजली की दर नहीं घटा रही है। केवल आपके ही टैक्स से आपको अनुदान दे रही है। ऐसा करने पर उन्हें सड़क, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि के बजट में कटौती करनी होगी और आम आदमी पर ही उसका प्रभाव होगा। इस समस्या का वास्तविक समाधान तो तब होगा जब बिजली की कीमत  घटे। मूल प्रश्न यह है कि बिजली इतनी महंगी क्यों हो गई है?

सत्य तो यह है कि बिजली उद्योग एवं भ्रष्टाचार का हमारे देश में चोली-दामन का साथ रहा है। बिजली की चोरी आम बात है। दिल्ली में निजीकरण से पूर्व लगभग आधी बिजली चोरी व भ्रष्टाचार के कारण गायब हो जाती थी और सरकार इसे टी एंड डी लॉस (वितरण के दौरान हानि) के नाम से नजरअंदाज कर देती थी। पिछले वर्षों में टी एंड डी लॉस तो घटा है, लेकिन अब दूसरे प्रकार की चोरी का संदेह है। अत: सीएजी से लेखा परीक्षण कराया जा रहा है। अन्य  राज्यों में भी भारी चोरी है, हालांकि पिछले कुछ वर्षों में तकनीकी सुधारों से इसमें कमी अवश्य हुई है। वस्तुत: भ्रष्टाचार, चोरी एवं दूषित पूंजीवाद ही महंगी बिजली के मुख्य: कारण हैं ।

इस शोषण की व्यवस्था के कई उदाहरण हैं। कोयला खानों के आवंटन में मची आपाधापी केवल इसलिए थी कि मुफ्त में इन खदानों को हथियाकर भारी मुनाफे पर बिजली बेची जा सके। 2008 से 2012 तक 1,32,000 करोड़ रुपए की बिजली औसतन पांच रुपए प्रति यूनिट के थोक भाव पर वितरण कंपनियों को बेची गई। यानी इसका खुदरा भाव लगभग आठ रुपए प्रति यूनिट पड़ेगा। इतने महंगे भाव की बिजली किसी बड़े देश में नहीं बिकती। यह बिजली तो एनरॉन के दाभोल पावर स्टेशन से भी काफी महंगी थी। विदेशी एनरॉन को तो सरकार ने निकाल फेंका, लेकिन घरेलू पूंजीवादियों पर अकुंश लगाने में सर्वथा असहाय रही। महंगी बिजली खरीदने से सभी राज्यों की वितरण कंपनियों का घाटा तेजी से बढ़ा और अब सरकार द्वारा उन्हें 1,00,000 करोड़ रुपए की सहायता दी जा रही है। यानी आम आदमी से टैक्स लेकर इस घाटे की भरपाई होगी ।

पिछले कुछ वर्षों में बहुत से बिजलीघरों पर निजी निवेश का प्रारंभ हुआ। इनमें से कुछ तो कोयला नहीं जुटा पाए और तो कुछ के पास गैस नहीं है। केवल परियोजनाएं हथियाने की होड़ में पूंजीवादियों ने यह निवेश बैंकों से भारी ऋण लेकर प्रारंभ किया। अब ऐसी स्थिति बन गई है कि बिजली उद्योग तो मझधार में है और बैंकों का हजारों करोड़  रुपया डूबने के कगार पर है।

दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार ने हाल ही में भ्रष्टाचार के विरुद्ध जो बीड़ा उठाया है, उसकी परीक्षा सबसे पहले बिजली उद्योग में होगी क्योंकि देशभर में तीन लाख करोड़ रुपए की बिजली एक वर्ष में बिकती है और इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार से आम आदमी ग्रसित है। इसका मुख्य कारण सरकारी नियंत्रण एवं मोनोपॉली (एकाधिकार) है । हर उपभोक्ता को एक ही कंपनी से बिजली खरीदनी पड़ती है, कोई विकल्प नहीं है। मोनोपॉली के चलते चोरी, भ्रष्टाचार, दूषित पूंजीवाद एवं अकुशलता पर अकुंश नहीं रहता और नेता, इंजीनियर व ठेकेदार (बिजली उद्योग के त्रिदेव!) इसका लाभ उठाते हैं ।

हमारे देश ने टेलीफोन व सॉफ्टवेयर से लेकर अंतरिक्ष तक अपनी पहचान बनाई है। बिजली के मामले में हम पिछड़े देशों की श्रेणी में खड़े हैं । आज भी कुछ शहरों को छोड़ पूरे देश में बिजली की कटौती होती है जबकि आम आदमी की यह मूलभूत आवश्यकता है। याद कीजिए लाइसेंस-परमि‍ट राज के रहते टेलीफोन, कार, स्कूटर, हवाई यात्रा इत्यादि में स्पद्र्धा का वातावरण नहीं था और आम आदमी को महंगी एवं अकुशल सेवाएं मिलीं तथा सरकारी तंत्र का बोलबाला रहा । जैसे ही इन्हें स्पद्र्धा का सामना करना पड़ा, दाम गिरे, कुशलता बढ़ी एवं कटौती भी समाप्त हुई। यदि बिजली उद्योग को भी इसी प्रकार खोल दिया जाता तो दरें घट जातीं और कटौती भी नहीं होती ।

दिल्ली में वितरण कंपनियां पांच रुपए प्रति यूनिट पर थोक बिजली 24 घंटे खरीद रही हैं जबकि रात की थोक दर लगभग दो रुपए है। इससे उपभोक्ता पर अनुचित भार पड़ रहा है । सरकारी अनुदान से दरों को तो घटाया जा सकता है, किंतु भ्रष्टाचार, चोरी एवं मुनाफाखोरी में कमी न हो पाएगी। इसके लिए संस्थागत सुधार करने होंगे एवं  विद्युत अधिनियम  द्वारा निर्देशित प्रतियोगिता को लागू करना होगा ।

1973 में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने ऑटर टेल पावर कंपनी के केस में आदेश दिया था कि ट्रांसमिशन (प्रसारण) कंपनियों को अन्य लोगों की बिजली भी ढोनी होगी ताकि मोनोपॉली नहीं हो। 1989 में इंग्लैंड ने कानून बनाया कि सभी वितरण कंपनियों को अन्य लोगों की बिजली भी ढोनी होगी। इस कानून के तहत 1990 में सभी बड़े ग्राहकों को एवं पांच वर्षों में अन्य  सभी ग्राहकों को विभिन्न कंपनियों से बिजली खरीदने की छूट दी गई। इससे कुशलता बढ़ी एवं दरों में कटौती हुई। इसी व्यवस्था को यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि में भी अपनाया गया।
आपके घर में सरकारी फोन एवं तार है किंतु सब निजी टेलीफोन कंपनियां अपने फोन की आवाज आप तक इन्हीं  तारों के माध्यम से पहुंचा सकती हैं। इसी प्रकार हर वितरण कंपनी के तारों के माध्यम से अन्य कंपनियों की बिजली आप तक पहुंच सकती है। विकसित देशों में यह व्यवस्था दशकों से चल रही है।

हमारे यहां भी यदि स्पद्र्धा होगी तो दरें अवश्य घटेंगी और बिजली कटौती भी नहीं होगी। इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। दिल्ली सरकार यदि दो रुपए प्रति यूनिट पर मिलने वाली थोक बिजली आम आदमी के लिए आरक्षित कर दे तो दरें भी घटेंगी और अनुदान भी बचेगा। उद्योग एवं व्यवसाय या तो वितरण कंपनियों से महंगी बिजली खरीदें अन्यथा प्रतियोगिता का लाभ उठाकर बाजार से बिजली खरीदें। ऐसी व्यवस्था पूर्णतया संभव है।


शायद अब भ्रष्टाचार विरोधी वातावरण में इस समस्या का निवारण हो। यह तो निश्चित है कि स्थायी सुधार केवल ऐसी व्यवस्था से होंगे, जिसमें चोरी व भ्रष्टाचार के अवसर बहुत कम रह जाएं एवं प्रतियोगिता से कुशलता बढ़े और दरें स्वत: ही घटें।

भ्रष्टाचार निवारण की जिम्मेदारी

हमारी व्यवस्था में भ्रष्टाचार एक ऐसे घुन की तरह है जो भीतर ही भीतर सब कुछ खोखला कर रहा है। हमारी सरकारें यदि भ्रष्टाचामुक्त प्रशासन दे पाने में सफल हुई होती तो आज की तस्वीर कुछ और होती। गरीबी और अव्यवस्था पर हम शायद पार पा गए होते। पिछले कुछ वर्षों में इस घुन को खत्म करने की इच्छाशक्ति सरकारों ने दिखाई है। प्रशासन में पारदर्शिता और भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए नए कानून लाए गए हैं। लोकपाल जैसी संवैधानिक संस्था का गठन किया जा चुका है। सरकारों पर जनमानस का दबाव बढ़ा है कि वे भ्रष्टाचारमुक्त प्रशासन देने के लिए काम करें। छत्तीसगढ़ में शिकायतें सुनने सरकार हेल्पलाइन नम्बर जारी कर चुकी है। भ्रष्टाचार के खिलाफ 'जीरो टालरेन्स' पर जोर दिया जा रहा है। मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने कलेक्टरों से कहा है कि पूरी सख्ती से काम लें ताकि भ्रष्टाचार को रोका जा सके। काम आसान नहीं है फिर भी जिला स्तर पर कलेक्टर ऐसे वातावरण का निर्माण कर सकते हैं, जिसमें भ्रष्टाचार करने वाले पकड़े जाएं और उन्हें कड़ा से कड़ा दंड दिलाया जाए। जिस व्यवस्था में स्वच्छ प्रशासन की कल्पना की जा रही है उसमें, प्रशासनिक अधिकारियों के हाथ भी बंधे होते हैं। भ्रष्टाचारियों को राजनीतिक संरक्षण मिलता है और चाहकर भी अधिकारी कार्रवाई नहीं कर पाते। कई बार अधिकारी को ईमानदारी की सजा भुगतनी पड़ जाती है। मुख्यमंत्री ने अपने गणतंत्र दिवस संदेश में कामकाज में पारदर्शिता और शुचिता पर जोर देकर यह रेखांकित करने की कोशिश की थी कि सरकार इस मामले में पूरी संवेदनशीलता के साथ आगे बढ़ना चाहती है। कलेक्टर कांफ्रेन्स में भी उन्होंने इसे दोहराया, जिसका संकेत साफ है कि सरकार भ्रष्टाचार के मामलों में कड़े फैसले लेने से नहीं हिचकेगी। भ्रष्टाचारियों को राजनैतिक संरक्षण देने वालों को इसके निहितार्थों को समझ लेना चाहिए। स्वच्छ प्रशासन के लिए राजनैतिक स्वच्छता पहली शर्त है और इसके बिना भ्रष्टाचार उन्मूलन की बातें फिजूल हैं। मुख्यमंत्री ने कहा भी है 'जीरो टालरेंस' कोई नरा नही है, यह प्रशासन के कामकाज में दिखाई देना चाहिए। आने वाले समय में देखा जा सकेगा कि राज्य में स्वच्छ प्रशासन की मजबूत नींव रखने में कैसी सफलता मिल पाती है।

गुरुवार, 30 जनवरी 2014

सर्वोच्च न्यायालय ने जारी किये दया याचिकायों से संबंध 12 दिशा निर्देश

सर्वोच्च न्यायालय ने मौत की सजा पाये कैदियों के दया याचिकायों से संबंध दिशा निर्देश 22 जनवरी 2014 को जारी किये. ये दिशा निर्देश सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पी. सथाशिवम की अध्यक्षता में तीन जजों की बेंच ने जारी किये. सर्वोच्च न्यायालय ने कैदियों के एकान्त कारावास को असंवैधानिक कहा है. वर्तमान में राज्य एवं केंद्रीय जेल प्रशासन की नियम पुस्तिका के बीच कोई समरूपता नहीं है.

सर्वोच्च न्यायालय ने दया याचिकायों से संबंध नयें दिशा निर्देश

राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका देते हुए प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए.
सभी आवश्यक दस्तावेजों एवं अभिलेखों को गृह मंत्रालय (एमएचए) भेजा जाना चाहिए.
गृह मंत्रालय को सभी विवरण प्राप्त होने के बाद उचित एवं तर्कसंगत अवधि के भीतर राष्ट्रपति को अपनी सिफारिशें भेज देनी चाहिए.
यदि राष्ट्रपति के कार्यालय से कोई जवाब नहीं है, तो गृह मंत्रालय को समय -समय पर अनुस्मारक भेजने चाहिए.
राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा कैदियों के दया याचिका को अस्वीकार किये जाने पर उनके परिवार को लिखित में सूचित किया जाना चाहिए.
मौत की सजा पाये कैदी राष्ट्रपति एवं राज्यपाल द्वारा दया याचिका की अस्वीकृति की एक प्रति प्राप्त करने के हक़दार है.
दया याचिका की अस्वीकृति का संचार प्राप्त होने एवं फांसी की तारीख के बीच 14 दिनों का अंतराल होना चाहिए. इस प्रकार से कैदी को फांसी के लिए मानसिक रूप से खुद को तैयार करने की अनुमति होगी.
फांसी की निर्धारित तिथि के पर्याप्त सूचना के बिना न्यायिक उपचार का लाभ उठाने से कैदियों को रोका जायेगा.
एक ऐसी प्रक्रिया जिसमे कैदियों एवं उनके परिवार के बीच मानवता और न्याय हेतु अंतिम बैठक का प्रावधान होना चाहिए.
मौत की सजा पाये कैदियों की उचित चिकित्सा देखभाल के साथ नियमित रूप से मानसिक स्वास्थ्य मूल्यांकन किया जाना चाहिए. 
जेल अधीक्षक कैदी के फांसी का वारंट जारी होने के बाद सरकारी डॉक्टरों और मनोचिकित्सकों द्वारा मेडिकल रिपोर्ट के आधार पर कैदी की शारीरिक एवं मानसिक हालत को जांच कर संतुष्ट होने के बाद ही उसे फांसी दी जाएगी.
यह आवश्यक है, कि प्रासंगिक दस्तावेजों की प्रतियां दया याचिका बनाने में सहायता करने के लिए जेल अधिकारियों द्वारा एक सप्ताह के भीतर कैदी को प्रस्तुत किया जाना चाहिए.
सर्वोच्च न्यायालय ने फांसी के बाद कैदी का पोस्टमार्टम अनिवार्य कर दिया.

 दया याचिकायों से संबंधित संवैधानिक प्रावधान

भारत के संविधान के अनुसार, अनुच्छेद -72 में प्रावधान है- किसी भी अपराध के दोषी व्यक्ति को माफ़ी देने की शक्ति भारत के राष्ट्रपति के पास है.

राष्ट्रपति को गृह मंत्री एवं मंत्रिपरिषद द्वारा सलाह दी जाती है. राष्ट्रपति को अपने निर्णय देने के लिए कोई समय सीमा तय नहीं है क्योंकि वह न्यायिक समीक्षा के अधीन है.  

आईडब्ल्यूएमपी-घटते प्राकृतिक संसाधनों का संभरण सरंक्षण और विकास

व्यापक स्तर पर भूक्षरण और जल संसाधनों पर बढ़ता दबाव देश के लिए गंभीर चुनौती बनता जा रहा है। हालांकि इन प्राकृतिक संसाधनों को पहुंच रहे नुकसान के अनुमान अलग अलग हो सकते है, लेकिन यह पूरे यकीन के साथ कहा जा सकता है कि देश का आधे से अधिक भूभाग मृदा क्षरण और घटते जल संसाधनो के कारण भारी संकट में है।

देश के वर्षा जल पर निर्भरता वाले क्षेत्रों में यह समस्या ज्यादा गंभीर है। सिंचाई की निश्चित व्यवस्था वाले क्षेत्रों में कृषि उत्पादन व्यवस्थित होने के साथ ही वर्षा जल पर निर्भरता वाले क्षेत्रो का महत्व बढता जा रहा है कि यहा वर्षा जल संरक्षण से जुड़े विकास कार्यक्रमों के जरिए इन क्षेत्रों की उत्पादन क्षमता बढ़ाए जाने की संभावनाएं  हैं।

देश के वर्षा जल निर्भरता और भूक्षरण वाले क्षेत्रों के विकास के लिए एकीकृत जलसंभरण प्रबंधन कार्यक्रम (आईडब्ल्यूएमपी) ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से शुरू किया गया प्रमुख कार्यक्रम है। इसे भूसंसाधन विभाग की ओर से वर्ष 2009-10 से लागू किया गया है। इसमें तीन क्षेत्रीय विकास कार्यक्रमों को समाहित किया गया है, जिसमें मरूस्थल विकास कार्यक्रम (डी डी पी) सूखा क्षेत्र विकास कार्यक्रम (डी एम ए पी) और एकीकृत बंजर भूमि विकास कार्यक्रम (आई डब्ल्यू डी पी) शामिल है।

आईडब्ल्यूएमपी का मुख्य लक्ष्य मृदा जैसे घटते प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और विकास, वनस्पति आच्छादित क्षेत्र और जल स्रोतो का संरक्षण, भूक्षरण की रोकथाम, वर्षा जल संरक्षण, भूजल के घटते स्तर को सुधारना, फसलों का उत्पादन बढ़ाना, ब्हुचक्रीय फसल और विभिन्न कृषि गतिविधियां और सतत जीविकोपार्जन गतिविधियों को बढावा देकर घरेलू आय बढाने के उपाय करना शामिल है। आईडब्ल्यूएमपी के तहत शामिल गतिविधियों में हरित क्षेत्र और निकासी क्षेत्र का निरूपण मृदा और आद्रता संरक्षण, वर्षा जल संरक्षण, नर्सरियों का विकास, वनक्षेत्र बसाहट, बागवानी, हरित क्षेत्र विकास और संपत्ति विहीन लोगों के लिए जीविका चलाने के उपाय करना शामिल है। आईडब्ल्यूएमपी के तहत भूसंसाधन विभाग की ओर से केन्द्रीय मदद के तहत 3 करोड 12 लाख 90 हजार हेक्टेयर भू क्षेत्र में 6622 परियोजनाओं को मंजूरी दी गयी है। आईडब्ल्यूएमपी कार्यक्रम के तहत विभाग विभिन्न राज्यों को केन्द्रीय मदद के तहत वर्ष 2009 से लेकर नवंबर 2013 तक 8240.61 करोड़ रूपए की राशि जारी कर चुका है।

आईडब्ल्यूएमपी के तहत परियोजनाओ की अवधि 4 से 7 वर्ष के बीच होती है। हालांकि इन परियोजनाओं का पूरा होना अभी बाकी है लेकिन इनका असर देश के विभिन्न हिस्सों में अभी से दिखाई देने लगा है। आईडब्ल्यूएमपी के तहत जल संरक्षण के लिए बनायी गयी आधारभूत सुविधाओं के कारण परियोजना क्षे़त्र में रहने वाले किसानो के लिए जल उपलब्धता और अतिरिक्त आय अर्जित करने में मदद मिल रही है। कार्यक्रम के तहत ग्रामीण क्षे़त्र के गरीब परिवारों की आजीविका को बेहतर बनाने तथा उनकी आय बढाने में मददगार साबित हुयी परियोजनाओं में निम्नलिखित प्रमुख है।

आईडब्ल्यूएमपी-I के तहत मध्यप्रद्रेश के दतिया तहसील में वर्ष 2009-10 में 5,527 हेक्टेयर भू क्षेत्र के लिए जलसंभरण प्रबंधन कार्यक्रम मंजूर किया गया। यह कार्यक्रम राजीव गांधी मिशन फॉर वॉटरशेड मैनेजमेंट की ओर से डेवलपमेंट अल्टरनेटिव एजेंसी के जरिए क्रियान्वित किया जा रहा है। परियोजना क्षे़त्र के तहत आने वाले एक गांव सलयापमार का 1515 हेक्टेयर भौगोलिक क्षेत्र में से 86 प्रतिशत खेती वाली जमीन है। गांव की कुल आबादी 1500 है। गांव में प्रत्येक किसान के पास 2.5 प्रतिशत खेत है और 1.2 प्रतिशत पशुधन है। वर्ष 2012 में गांव में 2.22 लाख रूपए की लागत से एक जलाशय का निमार्ण किया गया था जिसकी कुल क्षमता 350 घन मीटर है। इसकी मदद से गांव की 70 एकड़ भूमि में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हुयी है और कृषि क्षेत्र की उत्पादन क्षमता में 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो चुकी है। जलाशय के निचले इलाकों में पहली बार धान की खेती की जा रही है। जलाशय का असर आसपास के 27 कुओं के जलस्तर में हुयी बढ़ोतरी के रूप में भी दिखाई दे रहा है। इन कुओं का जलस्तर 7 से 8 फुट बढा है। उत्पादन क्षमता वृद्धि और आर्थिक सशक्तिकरण के लिहाज से गांव के 17 कृषक परिवारों की आजीविका की स्थिति सुधरी है। कार्यक्रम लागू होने के पहले कभी स्थितियां इतनी बेहतर नहीं हुयी थीं।

छत्तीसगढ के बालोद जिले में डोंडी लोहरा ब्लॉक में आईडब्ल्यूएमपी-I परियोजना वर्ष 2009-10 में 5261 हेक्टेयर क्षेत्र में लागू की गयी। इसके तहत 5 हजार हेक्टेयर ऐसी भूमि भी है जिसका क्षरण उपचार किया जाना है। वर्ष 2012-13 के दौरान परियोजना के तहत कसई गांव में 2.92 लाख रूपए की लागत से एक रोक बांध का निर्माण किया गया। इसके पहले तक यह क्षेत्र सूखा संभावित इलाका था और बारिश के मौसम में यहां मिट्टी के क्षरण का सबसे ज्यादा खतरा रहता था। लेकिन बांध बनने के बाद न सिर्फ यहां मिट्टी का क्षरण कम हुआ है बल्कि 25 हेक्टेयर सूखा प्रभावित क्षेत्र मे सिंचाई शुरू हो चुकी है। सिचांई की व्यवस्था सुनिश्चित हो जाने से यहां धान की बुआई की उत्पादकता 12 क्यू एकड़ से बढ़कर 17 क्यू एकड़ हो गई है।

पश्चिमी ओडिशा में नुआपाडा जिले के कोमना ब्लॉक के लिए आईडब्ल्यूएमपी-II परियोजना को वर्ष 2009-10 में मंजूरी दी गयी। नुआपाडा का इलाका पूरी तरह वर्षा जल पर निर्भर है। यहां पर्यावरण क्षरण, कम कृषि उपज, बड़े पैमाने पर विस्थापन, कर्ज बोझ की समस्या, बचत आधार का नहीं होना, कृषि ऋण और विपणन तथा अन्य सेवाओं की अपर्याप्त उपलब्धता जैसी समस्याएं हैं। ज्यादा वर्षा वाला क्षेत्र होने के साथ ही वनस्पतियों की कमी के कारण यहां भूक्षरण का स्तर काफी ज्यादा है जिसके कारण कृषि उपज भी कम है। यहां के ज्यादातर किसानों को इसी कारण मानसून की एक फसल उपज पर ही गुजारा करना पडता है । आईडब्ल्यूएमी के तहत यहां प्याज की खेती को बढावा दिए जाने के सामूहिक प्रयासों का परिणाम यह रहा कि इससे सहकारी कृषक संगठनों के जरिए कृषि क्षेत्र के लिए मुनाफा कमायी की एक सुनिश्चित व्यवस्था की जा सकी । सहकारी संगठनों के जरिए मूल्य संवर्धन भंडारण और विपणन जैसी सेवाएं उपलब्ध कराकर प्याज की खेती के व्यावसायीकरण को बढ़ावा देना किसानों की आजीविका बेहतर बनाने का एक अनुसरणीय मॉडल साबित हुआ।

अभी तक यहां महज कुछ किसानों द्वारा एक सीमित क्षेत्र में प्याज की खेती की जाती रही । हालांकि उपज औसत दर्जे की रही लेकिन जलवायु और अन्य कारक फसल के लिए अनुकूल रहे । किसान उपज होते ही बाजार में कम कीमत के बावजूद इसे बेचते रहे जबकि दूसरी ओर छत्तीसगढ़ में कारोबारी बड़े भंडारगृहों मे इनका भंडारण कर अगस्त में ऊंची कीमत होने पर इसे बेचकर अच्छी कमायी करते रहे। ओडिशा में प्याज की स्थानीय किस्म और एन-53 किस्म भंडारण गुणवत्ता के लिहाज से भी औसत दर्जे की रहती थी जिसके कारण दो महीने से ज्यादासमय तक उपज का भंडारण संभव नहीं था। दूसरा इस छोटी सी अवधि के लिए भी किसानों के पास इसके भंडारण की समुचित व्यवस्था नहीं थी। तीसरा किसानों के पास इतने समय तक इंतजार कर पाना आर्थिक कारणों से भी संभव नहीं था। ऐसा पाया गया कि हल्के गुलाबी रंग वाली प्याज की ए.एफ.एल.आर किस्म का बिना ज्यादा नुकसान के छह महीनों तक भंडारण किया जा सकता है। इस खोज ने किसानों के लिए इस किस्म की उपज से अच्छी कमायी हासिल करने मे मदद की।

आईडब्ल्यूएमपी के तहत उत्पादक सहकारी संगठनों के जरिए आजीविका को प्रोत्साहित करने के उपायों से किसानों को उत्पाद बढ़ाने तथा उपज का लंबे समय तक समुचित भंडारण करने की सुविधा मिलने से वर्ष के आखिर में अच्छी कमायी करने में मदद मिली। यह सब आईडब्ल्यूएमपी के तहत कम लागत वाली भंडारण सुविधा, अच्छे किस्म के बीजों की उपलब्धता और खेती की बेहतर तकनीक के इस्तेमाल से संभव हो पाया।

आईडब्ल्यूएमपी-II के पहले चरण में नुआपाडा के कोमना ब्लॉक में 50 एकड़ भूमि में 70 किसानों को ए.एफ.एल.आर किस्म की प्याज की बुआयी में मदद दी गयी । प्रत्येक समूह से कुछ किसानों और प्रतिनिधियों को चुना गया और नासिक ले जाया गया जहां उन्हें परियोजना के तहत काम करने वाले सहकारी संगठनों और उनसे होने वाले लाभों को देखने का मौका मिला। कोमना के किसान नासिक के इन संगठनों और उनके काम-काज के तरीकों को देखकर काफी उत्साहित हुए। उन्होंने नासिक के किसानों से खेती, भंडारण और विपणन के बेहतर तरीके सीखे । इन सब में सबसे महत्वपूर्ण रहा नासिक के किसानों के साथ प्याज के बीज की आपूर्ति के लिए संपर्क।

ओडिशा में प्याज की खेती को प्रोत्साहित करने के लिए शुरू की गयी पहल से इसके तहत आने वाला भूक्षेत्र वर्ष 2009 के 92 एकड़ से बढ़कर वर्ष 2012 तक 298 एकड़ हो गया। नासिक के किसानों से सीखे गए तरीकों और मिले प्रशिक्षण तथा गुणवत्ता युक्त बीजों के कारण किसानों को अपनी उपज 50 क्विंटल प्रति एकड़ से बढ़कर करीब 70 क्विंटल प्रति एकड़ करने में मदद मिली। किसान समूहों के विकास का लक्ष्य 272 प्याज उत्पादक किसानों के पंजीकरण के साथ हासिल कर लिया गया। कोमा ब्लॉक में शुरू की गयी आईडब्ल्यएमपी-II 2009-10 परियोजना का अब नुआपाडा और खरियार ब्लॉकों तक विस्तार हो चुका है। कम लागत में भंडारण सुविधा उपलब्ध हो जाने से किसानों को अपनी फसल से ज्यादा कमायी हो रही है। किसानों को 10 फुट लंबाई और 10 फुट चौड़ाई तथा 13 फुट लंबाई वाले भंडारगृह उपलब्ध कराए गए हैं, जहां प्याज रखने के लिए 3 रैक बनाए गए हैं। ऐसे हर भंडारगृह का निर्माण 16 हजार रुपए की लागत से किया गया है। लाभार्थियों को सुझाव और तकनीकी सलाह के लिए बागवानी विभाग के साथ जोड़ा गया है। प्याज के लिए बनाए गए भंडारगृहों को बांस से बनाया गया है और इसके फर्श भूसे से ढके गए हैं। हर भंडारगृह में 20 क्विंटल प्याज रखने की क्षमता है। पहले एक किसान 20 क्विंटल प्याज 04 रुपए प्रति किलोग्राम के हिसाब से बेच कर करीब 8 हजार रुपए ही कमा पाता था, लेकिन बेहतर भंडारण सुविधा मिलने से वह अब प्याज की उपज को 04 महीनों तक सुरक्षित रखकर 13 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बेचकर 19200 रुपए तक कमा लेता है, जबकि इसमें फसल कटाई और छंटायी के दौरान होने वाला 20 प्रतिशत नुकसान भी शामिल होता है। लागत के लिहाज से प्रति प्याज भंडारण क्षमता और मुनाफे औसत अनुपात 1:2:4 है और भंडारण ढांचों की आयु 8 वर्ष अनुमानित है।

परियोजना के तहत की गयी मध्यस्थता से किसानों को अपनी आय को कई गुना बढ़ाने में मदद मिली। मुनाफा बढ़ने के साथ ही बुआई क्षेत्र में तीन गुना से ज्यादा बढ़ोतरी हुई। प्याज उत्पादन से होने वाली आय कई किसानों के कुल परिवार द्वारा अर्जित आय का करीब 50 प्रतिशत हो चुकी है। सफल रहे किसानों ने अपने गांव में दूसरे लोगों को भी प्याज की ए.एफ.एल.आर. किस्म की बड़े पैमाने पर खेती करने और उपज को ऊंची कीमत के समय बेचने के लिए भंडारगृहों के इस्तेमाल के लिए भी प्रोत्साहित किया है। सहकारिता ने व्यक्तिगत स्तर पर किसानों में आत्मविश्वास बढ़ाया है जिससे वह बाजार में अपनी मजबूत स्थिति के प्रति ज्यादा जागरूक हो चुके हैं।

बुधवार, 29 जनवरी 2014

राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम में किशोरों की सेहत पर विशेष ध्यान

भारत को युवाओं का देश कहा जाता रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत की लगभग 80 फीसदी आबादी युवा हैं और ऐसे युवा देश को तंदरूस्‍त बनाने और इसे विकास की ओर ले जाने के लिए किशोरों की सेहत पर ज्‍यादा ध्‍यान दिया जाए। आजादी से लेकर अब तक नीति निर्धारण में किशोरों के स्‍वास्‍थ्‍य पर कभी ज्‍यादा ध्यान नहीं दिया गया। इसके पीछे एक बड़ा कारण यह भी रहा है कि इन्‍हें हमेशा सेहतमंद ही समझा गया, लेकिन असल में ऐसा कदापि नहीं है। 2014 की शुरूआत में भारत सरकार की ओर से किया गया राष्‍ट्रीय किशोर स्‍वास्‍थ्‍य कार्यक्रम (आरकेएसके) असल में मील का पत्‍थर साबित होगा।

इसके पीछे कुछ अहम तथ्‍यों पर पहले गौर किया जाना जरूरी है। मसलन, 10 से 19 वर्ष आयुवर्ग के लड़के/लड़कियों की आबादी देश की कुल जनसंख्‍या की 1/5 है। इसी तरह, अगर 10 से 24 वर्ष के लोगों की बात की जाए तो इनकी कुल संख्‍या देश के आबादी की एक तिहाई है। इसे हम साधारण रूप से यह भी कह सकते हैं कि बिना किशोरों के बेहतर सेहत पर ध्‍यान दिए एक युवा देश की परिकल्‍पना भी नहीं की जा सकती।

पिछले कई दशकों से संयुक्‍त राष्‍ट्र की एजेंसियां 'यूनिसेफ' और 'यूनिफेम' लगातार युवाओं की बेहतर सेहत की वकालत करतीं रही हैं। लेकिन भारत की विशाल आबादी और बीमारियों की चुनौतियों की वजह से युवा वर्ग पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया है। आरकेएसके योजना इस खास वर्ग की बीमारियों, अच्‍छी सेहत और भविष्‍य के चुनौतियों पर खास ध्‍यान देने वाली हैं।

केन्‍द्रीय स्‍वास्‍थ्‍य मंत्रालय ने नये कार्यक्रम को राष्‍ट्रीय स्‍वास्‍थ्‍य मिशन के तहत शुरू करने का फैसला किया है। राष्‍ट्रीय ग्रामीण स्‍वास्‍थ्‍य मिशन और राष्‍ट्रीय शहरी स्‍वास्‍थ्‍य मिशन के तहत सभी उप-स्‍वास्थ्‍य केन्‍द्रों, सामुदायिक स्‍वास्‍थ्‍य केन्‍द्रों और जन-स्‍वास्‍थ्‍य केन्‍द्रों में किशोरों के लिए अलग से सेवाएं शुरू करने का फैसला किया है। इन केन्‍द्रों में 10 से 19 वर्ष के किशोर और किशोरियां अपनी बीमारियों और उपचारों के अलावा सेहत से जुड़े परामर्श के लिए भी संपर्क कर सकेंगे। राष्‍ट्रीय ग्रामीण स्‍वास्‍थ्‍य मिशन को चलाने में जैसे आशा कार्यकर्ता सबसे अहम भूमिका निभाती हैं, उसी तरह हर स्‍वास्‍थ्‍य केन्‍द्र के तहत किशोर  कार्यकर्ताओं की भी मदद ली जाएगी। स्‍कूलों में किशोरों को अपने सेहत के प्रति  जागरूक करने के लिए अलग से अभियान चलाया जाएगा। स्‍कूली किशोरों को प्रोत्‍साहित करने के लिए कई तरह के अवार्ड और प्रमाण-पत्र देने जैसी योजनाओं पर भी विचार किया जा रहा है।

इस वर्ग विशेष में खान-पान और सेहत को लेकर कई तरह की भ्रातियां भी रहती हैं। इसको ऐसे भी समझा जा सकता है कि देश में युवाओं में 33 प्रतिशत बीमारियां गलत तथा अनियमित जीवन शैली की वजह से है, वहीं 60 फीसदी असामयिक मौत भी इसी वर्ग में होता है। शोध बताते हैं कि इन दोनों समस्‍याओं का कारण किशोरों के बीच तम्‍बाकू व शराब का सेवन, खराब खानपान शैली, शारीरिक प्रताड़ना और जोखिम वाले काम करना है। नए कार्यक्रम में किशोरों के लिए बेहतर जीवन-शैली से जुड़े परामर्श केन्‍द्रों का भी प्रावधान किया गया है। स्‍कूलों में स्‍वास्‍थ्‍य मिशन के तहत डॉक्‍टर व स्‍वास्‍थ्‍य कर्मी जागरूक करेंगे, जबकि स्‍कूल छोड़ चुके किशोरों तक ऐसी सेवाओं को पहुंचाने के लिए आशा कार्यकर्ता व नए युवा कार्यकर्ताओं की मदद ली जाएगी।

देश में किशोरियों से जुड़ी सेहत को नकारा नहीं जा सकता है। नेशनल फैमिली हेल्‍थ सर्वे-3 के अनुसार 56 प्रतिशत किशोरियां एनीमिया से ग्रसित हैं। इसी तरह 15-19 साल की पचास फीसदी लड़कियां कुपोषण या अतिपोषण की शिकार हैं। भारत में लगभग 2.4 प्रतिशत किशोरियां मोटापे की भी शिकार हैं। राष्‍ट्रीय किशोर स्‍वास्‍थ्‍य कार्यक्रम इस खास तबके की लड़कियों के लिए वरदान साबित हो सकता है। ज्‍यादातर लड़कियों को अपनी सेहत को लेकर जानकारियां नहीं के बराबर होती हैं। बढ़ती उम्र में शरीर में बीमारियों के प्रतिरोधियों के ज्‍यादा मौजूद होने के कारण ज्‍यादातर लड़कियां गंभीर बीमारियों के प्रति सुस्‍त रवैया अपनाए रहती हैं। इन लड़कियों को अपने शरीर की विभिन्‍न बीमारियों की जांच के लिए सुविधाएं उपलब्‍ध होंगी। घर से बाहर नहीं निकलने वाली किशोरियों तक स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाएं पहुंचाने और जानकारियां देने के लिए आशा कार्यकर्ताओं की मदद ली जाएगी।

भारत में सेहत सूचकांक को बेहतर करने के लिए मातृ मृत्‍यु दर को कम करना एक बहुत बड़ी चुनौती है। रजिस्‍ट्रार जनरल ऑफ इंडिया के ताजा आंकड़ों के अनुसार देश में अभी भी प्रति एक लाख पैदा होने वाले शिशुओं के दौरान 212 प्रसूताओं की मौत हो जाती है। इसमें किशोरियों की आबादी सबसे ज्‍यादा मानी जाती है। 'यूनिसेफ' के एक ताजा शोध में भी बताया गया है कि 19 वर्ष से कम उम्र की लगभग 40 प्रतिशत लड़कियां शादीशुदा हैं। इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि बाल विवाह और मातृ मृत्‍यु दर में सीधा संबंध है। किशोरों के इस खास कार्यक्रम में केन्‍द्रीय स्‍वास्‍थ्‍य मंत्रालय राज्‍यों की मदद से बाल विवाह और जल्‍दी विवाह जैसी प्रथा पर रोक लगाने की कोशिश करेगा। इसके लिए महिला व बाल विकास मंत्रालय और राज्‍यों में इन विभागों के साथ तालमेल बिठाने की भी योजना है।


हालांकि, अभी तक देश में ऐसी कोई स्‍वास्‍थ्‍य योजना नहीं बनी थी जिसमें किशोरों के खास वर्ग पर गौर किया गया हो, लेकिन उम्‍मीद की जा सकती है कि मौजूदा कार्यक्रम से इनका भला होगा। आगामी दशक में एक सशक्‍त देश बनने के लिए एक सेहतमंद युवा समाज के लिए यह कार्यक्रम मील का पत्‍थर साबित हो सकता है।

मंगलवार, 28 जनवरी 2014

ई-कचरे से निपटने की जिम्मेदारी किसकी

संयुक्त राष्ट्र ने एक बार फिर इलेक्ट्रानिक कचरे (ई-कचरे) की बढ़ती मात्रा पर दुनिया भर के देशों को सचेत किया है। ई-कचरे की बढ़ती हुई मात्रा से निपटने के लिए शुरू किए गए अपने स्टेप इनीशिएटिवमें संयुक्त राष्ट्र ने कहा है- आने वाले चार सालों में ई-कचरा अपनी वर्तमान मात्रा का 33 प्रतिशत बढ़ जाएगा। क्रिसमस पर इलेक्ट्रानिक सामानों की भारी खरीददारी के चलते ई-कचरे की मात्रा में उछाल आने का अनुमान है। इस दिन विकासशील देशों में अवैध रूप से निस्तारित किए जाने वाले ई-कचरे से सावधान रहने के जरुरत है। वैसे संयुक्त राष्ट्र की इस चिंता को इंटरपोल की एक जांच से भी बल मिला है। कुछ ही दिनों पहले इंटरपोल ने यूरोप में विकासशील देशों को रवाना होने वाले कुछ जहाज़ों में अवैध ई-कचरे पाया, लगभग चालीस कंपनियों के खिलाफ जांच के आदेश भी जारी किए।

हालांकि इंटरपोल के अधिकारियों ने साफ किया कि किन्हीं वजहों से खारिज किए गए सामान का निर्यात किया जाना अवैध नहीं है, लेकिन ऐसा तभी किया जा सकता है जब रिसाइकलिंग कर उनका उपयोग दोबारा संभव हो। अगर इसकी कोई संभावना नहीं बची है तो ऐसे सामानों को निर्यात किया जाना अवैध है। ऐसे सामानों की बिक्री सामान्यतः चोरी-छिपे होती है और जिसके पर्यावरण पर घातक प्रभाव पड़ते हैं। जाहिर है कि इन सभी चेतावनियों और पहलकदमियों में जो मुख्य मुद्दा है- वह ई-कचरे के सुरक्षित निस्तारण से जुड़ा है। बीते सालों में संयुक्त राष्ट्र के सभी प्रयास इसी दिशा में केंद्रित रहे हैं। हालांकि आरंभ से ही विकासशील देशों में ई-कचरे के निस्तारण को लेकर संयुक्त राष्ट्र ज्यादा गंभीर रहा है।

इस समय चीन ई-कचरे का उत्पादन करने का मामले में पहले स्थान पर आता है जबकि इसके बाद अमेरिका का नंबर है। यूरोप में जर्मनी सबसे ज्यादा ई-कचरा पैदा करता है तो ब्रिटेन इस मामले में पूरी दुनिया में सातवें पायदान पर है। दिलचस्प बात ये है कि यूरोप और अमेरिका से अफ्रीका और एशिया को निर्यात किए जाने वाले ई-कचरे की मात्रा के आंकड़ें अब तक उपलब्ध नहीं हैं। यूरोपीय पर्यावरण एजेंसी (ईईए) ये अनुमान जरूर व्यक्त करती है कि यूरोप से कुल 2,50,000 से लेकर 13  लाख टन के बीच  इस्तेमाल किया हुआ ई-कचरा पश्चिमी अफ्रीका और एशिया के देशों को निर्यात किया जाता है, लेकिन अलग-अलग देशों से संबंधित आंकड़ें उसके पास भी उपलब्ध नहीं हैं। इस बात को प्रमाणित करने वाले तमाम आंकड़ें मौजूद हैं, जिनसे पता चलता है कि विकसित देशों की ओर से बगैर रिसाइकल किया गया ई-कचरा चीन और भारत जैसे विकासशील देशों के कई हिस्सों में निर्यात कर दिया गया।


ऐसे में सवाल यही है कि क्या ई-कचरे के सुरक्षित निस्तारण की पूरी जिम्मेदारी विकासशील देशों पर डाली जा सकती है, जबकि विकसित देशों के पास इनके निपटारे की क्षमता और तकनीकें ज्यादा हैं। अवैध रूप से निर्यात किए जाने वाले ई-कचरे के पूरे तंत्र से निपटने की संयुक्त राष्ट्र के पास क्या व्यवहारिक योजना है? निश्चित तौर पर विकासशील देशों में इसके निस्तारण की सुरक्षित तकनीकें विकसित करना आवश्यक है, लेकिन ई-कचरे के अवैध स्त्रोतों पर नियंत्रण स्थापित करना भी जरूरी है।

भारत में न केवल कामगार, मालिक भी गरीब

इंडियन इंस्टीटयूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट तथा इंडियन सोसाइटी ऑफ लेबर इकानोमिक्स नई दिल्ली द्वारा हाल में ही प्रकाशित श्रम एवं रोजगार रिपोर्ट 2014 में भारत में वैश्विीकरण की प्रक्रिया के प्रारम्भ होने के बाद बीस साल में हुए श्रम एवं रोजगार बाजार की स्थिति में हुए बदलाव पर विस्तार से प्रकाश डाला गया हैं। इस श्रम एवं रोजगार रिपोर्ट 2014 के प्रधान लेखक एवं सम्पादक डॉ. अलख एन. शर्मा हैं, जो वर्तमान में इंडियन इंस्टीटयूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट के निदेशक एवं इंडियन जर्नल ऑफ लेबर इकोनॉमिक्स के सम्पादक हैं। नेशनल सेम्पल सर्वे के बीस साल के आंकडों को विश्लेषण करके रिपोर्ट बनाई गई है। रिपोर्ट में आर्थिक विकास एवं रोजगार कार्य निष्पादन, उभरती हुई चुनौतियां, मजदूरी, आमदनी एवं असमानता, कामगारों की सामाजिक सुरक्षा से संबंधित मुद्दे, रोजगार की रणनीति, नीतियां एवं कार्यक्रम तथा श्रम एवं रोजगार का आज का एजेंडा आदि के शीर्ष के अंतर्गत श्रम एवं रोजगार की स्थिति पर प्रकाश डाला गया है।

श्रम एवं रोजगार रिपोर्ट 2014 के अनुसार भारत में तेन्दुलकर फार्मूले पर आधारित गरीबी रेखा से नीचे रहनेवाले व्यक्तियों में बेरोजगारों की तुलना में रोजगारप्राप्त व्यक्तियों की संख्या एवं प्रतिशत दोनों ही अधिक हैं। 2011-12 मे लगभग एक चौथाई परिवार गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे थे, इनमें से 90 प्रतिशत परिवारों के व्यक्ति किसी न किसी प्रकार के रोजगार प्राप्त थे। 1993-94 में गरीबी रेखा से नीचे रहनेवाले रोजगार प्राप्त व्यक्तियों की संख्या 49 प्रतिशत थी, 2011-12 में घटकर 25 प्रतिशत रह गई। इस प्रकार भूमंडलीकरण के 20 साल के इस अवधि में रोजगार प्राप्त गरीबों की संख्या में कमी आई है। गरीबी में रहनेवाले अधिकांश लोग गैर-संगठित गैर-अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत थे। इस क्षेत्र के रोजगार प्राप्त श्रमिकों की आमदनी इतनी कम थी कि वे गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने को मजबूर थे। गरीबी रेखा से नीचे कुल परिवारों में 24.6 प्रतिशत स्वरोजगारी थे। इनमें से उन लोगों की भी बड़ी संख्या थी, जिन्होंने सरकारी योजनाओं के तहत बैंक कर्ज से स्वरोजगार प्रारम्भ किया था।

तेन्दुलकर गरीबी रेखा को सवा डॉलर पीपीपी दैनिक आमदनी की अंतरराष्ट्रीय अत्याधिक गरीबी रेखा के समकक्ष माना जा सकता है। इस गरीबी रेखा को अंत्योदय गरीबी रेखा भी कहा जा सकता है। 2 डालर पीपीपी दैनिक आमदनी की सामान्य अंतरराष्ट्रीय गरीबी रेखा के आधार पर 2011-12 में भारत में गरीबी रेखा से नीचे रहनेवाले रोजगार प्राप्त व्यक्तियों की संख्या 27.6 करोड़ हो जाती है, अर्थात 58 प्रतिशत परिवार गरीबी में गुजर-बसर कर रहे थे। इसको अर्ध्द-बेरोजगारी की स्थिति कहा जा सकता है। चूंकि बेरोजगारी को गरीबी का प्रमुख कारण माना जाता रहा है, यही कारण है कि सरकार का पूरा जोर रोजगार के अवसर सृजन करने पर केन्द्रित था एवं इसीलिए समय-समय पर अनेक रोजगार एवं स्वरोजगार योजनाएं प्रारम्भ की गईं। यहां यह बात स्पष्ट हो गई है कि मात्र रोजगार उपलब्ध करवा देने से गरीबी दूर नहीं हो जाती।

भारत में तेन्दुलकर गरीबी से नीचे रहनेवाले लोगों में दो करोड़ ऐसे लोग थे, जो नियोक्ता की श्रेणी में आते हैं, जो कुल बेरोजगारों के 4.4 प्रतिशत थे। इस नियोक्ता वर्ग परम्परागत ग्रामीण कारीगरों की बड़ी संख्या है। इनके अलावा उद्यम व्यवसाय से जुडे अन्य लोग भी अपने व्यवसाय धंधे में मदद के लिए आकस्मिक एवं नियमित कामगारों की सेवाएं लेते हैं किन्तु इनकी आमदनी इतनी कम होती है कि ये परिवार की न्यूनतम आवश्यकताएं भी पूरी नहीं कर पाते। इस प्रकार कामगार ही नहीं, बल्कि मालिक भी बड़ी तादाद में गरीबी रेखा से नीचे हैं। दो डॉलर दैनिक आमदनी की अंतरराष्ट्रीय सामान्य गरीबी रेखा के आधार पर गरीब नियोक्ताओं की संख्या बढ़कर लगभग 4.25 करोड़ हो जाती है। अब जिस देश में मालिक ही गरीब हो तो उस मालिक पर आश्रित रहने वाले नौकर कैसे सम्पन्न हो सकते हैं। नौकर तो महागरीब की श्रेणी में आएगा। कहने का मतलब है कि भारत में केवल आय एवं सम्पत्ति में ही विषमता नहीं है, बल्कि गरीबी की गहनता में भी काफी विषमता है। न्यूनतम मजदूरी की दरें दुगुनी करके मजदूरों की आमदनी बढ़ाई जा सकती है। खाद्यान्न का समर्थन क्रम मूल्य बढ़ा कर छोटे किसान की आमदनी बढाई जा सकती है। किन्तु सबसे बडा सवाल दर्जनों विविध प्रकार उद्यम एवं व्यवसाय करनेवाले गरीब नियोक्ताओं की गरीबी दूर करने का है उनकी आमदनी में किस प्रकार वृध्दि की जाय कि वह गरीबी से उबर सके इस पर विचार की आवश्यकता है।

इस रिपोर्ट से यह भी खुलासा हुआ है कि बेरोजगारों में अशिक्षित व्यक्तियों की तुलना में शिक्षित व्यक्तियों की संख्या अधिक है। अशिक्षित बेरोजगारों की संख्या एक प्रतिशत से भी कम है, जबकि डिप्लोमा व प्रमाणपत्रधारी बेरोजगारों की संख्या कुल बेरोजगारों का 10 प्रतिशत तथा स्नातक व स्नाकोत्तर डिग्रीधारकों की संख्या 8 प्रतिशत है। अशिक्षित बेरोजगारों की संख्या कम होने का एक बड़ा कारण यह है कि उन्हें जो भी काम मिलता है व जिस पारिश्रमिक पर का मिलता है वे कर लेते हैं जबकि उच्च शिक्षित बेरोजगार व्यक्ति पहले अपनी योग्यता के अनुसार अच्छे वेतन का काम ढूंढता है एवं उसके इंतजार में कुछ सालों तक बेराजगार बना रहता है।


श्रम रोजगार रिपोर्ट में पहली बार रोजगार स्थिति सूचकांक विकसित करके 2011-12 के लिए भारत के 21 बडे रायों का रोजगार स्थिति सूचकांक बनाया गया है। रोजगार व आमदनी की स्थिति के विभिन्न मानदंडों के आधार पर हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब व कर्नाटक को उत्तर राय की श्रेणी में रखा गया है, जबकि बिहार, ओडीशा, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ को निकृष्ट राय की श्रेणी में रखा गया है। कहने का आशय है कि पिछड़े प्रान्त न केवल जीडीपी व मानव विकास सूचकांक बल्कि रोजगार व कर्मी को भुगतान किए जानेवाले पारिश्रमिक के आधार पर भी पिछडे हुए हैं। इन पिछडे रायों में लाभप्रद रोजगार के अवसर विकसित करने पर ही राय विकास की ओर अग्रसर हो सकेंगे।

सोमवार, 27 जनवरी 2014

भारतीय गणतंत्र का विकास : कुछ प्रश्न, कुछ चुनौतियां

भारतीय गणतंत्र का विकास संदेश जहां विश्व के आर्थिक तंत्र को एक नया रूप देने का है वहीं उसका संकल्प विश्व शांति, सहयोग और युध्दहीन विश्व समाज का है। इसके लिए भारतीय मानस अपनी आजादी की लड़ाई के दौरान ही तैयार हो चुका था और आज वह परिपक्वता की स्थिति में आ गया है। इस परिपक्वता की स्थिति में अब उसे कुछ नई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इनमें सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक साम्रायवाद के कुचक्र से बचने की है। समाजवादी अर्थतंत्र की व्यवस्थाएं सोवियत संघ के विघटन के साथ ही खोटी साबित घोषित की जा चुकी है। उनकी खोट का प्रचार पूंजीवादी व्यवस्था की ओर से चकाचौंध कर देने वाला है। इस क्षण में भारत के सामने चुनौती है कि क्या वह स्वीकार कर ले कि समाजवादी अर्थतंत्र एकदम मिथ्या है और उसको दफन किया जाना चाहिए अथवा उसके भीतर जो श्रेयस्कर हैं उसको अंगीकार किया जाना चाहिये और पूंजीवादी गुलामी की व्यवस्था को सीमित किया जाना चाहिये।

भारतीय गणतंत्र का नाम लेते ही एक ऐसे देश का चित्र सामने आता है जिसका इतिहास कितने ही युगों की स्मितों को तोड़ता हुआ मनुष्य की आदिम सभ्यता तक पहुंचता है और जिसका आकार और विस्तार ऐसा है जिसे दुनिया का कोई देश नकार कर नहीं चल सकता है। यहां की धरती और आसमान के बीच मौसम की वे छबियां उभरती हैं जो धरती को अपनी अलग पहिचान सौर मंडल में स्थापित करती है। जलवायु और प्रकृति की विविधता का जो आलम है वही आलम है यहां की वनस्पति और खनिज संपदा का जिसमें नागफनी और दुर्वादल से लेकर चीड़ और बरगद के विशालकाय वृक्षों के समूह उपस्थित हैं और इसी प्रकार उपस्थित है इस गणतंत्र की धरती में हीरा जवाहरात से लेकर कोयला और अनमोल मिट्टी तक। पर्वतों और सरिताओं की छटा तो ऐसी हैं कि क्षण भर में ही जड़ और चेतन की बोधगम्यता को एक सहज दर्शन की संज्ञा दे देती है। ज्ञान और उसकी मीमांसा की जो उड़ानें अब तक मानव की मेधा ने भरी हैं उन सबका आदि अंत यहीं देखने को मिलता है। इस विचित्र और विविध रूपधारी गणतंत्र का समाज भी उसके अनुरूप ही है। यहां का समाज बहुभाषी, बहुधर्मी, बहुकर्मी और बहु आयामी है। पं. नेहरू ने ''भारत की खोज'' नामक पुस्तक में इस भारत का जो वर्णन किया है वह अविस्मरणीय है। उन्होंने इसके विभिन्न रूपों और उसके विभिन्न ''मूडो'' को जो भाषा दी है उसको आत्मसात तो अवश्य ही किया जाना चाहिये। उन्होंने इस महान देश के उत्थान-पतन, आशा-निराशा, आक्रोश और उन्मेष के क्षणों की तस्वीर खींचते हुए उसमें एक स्थायी रंग की उस आभा को भी प्रगट किया है जो आभा उसके शांत और स्थिर मानव की अतल गहराई से उठती हुई आज उसकी विस्तृत सतह पर वैसे ही थिर है जैसे हिमालय की श्रृंखलाओं पर धवल हिमखंड और फेनिल सागर में लहरों की थिरकन।

शांत और स्थिर मानसिकता इस गणराय की अपनी धरोहर और निजी पहिचान है। इस कारण इसके भीतर होने वाली उथल-पुथल अथवा विवाद बहुलता इसके छंद को विद्रुप नहीं करती है और इसकी समरसता को भी रसहीन नहीं बना पाती है। विविधता में एकता का स्वर इसमें सर्वोपरि है। यही कारण है कि इकबाल जैसे महाकवि के मुख से एकाएक निकल पड़ता है- ''कि कुछ बात है ऐसी कि हस्ती मिटती नहीं हमारी'' यह हस्ती तब भी नहीं मिटती है जब सदियों से दुश्मन इसे मिटाने पर तुले हैं। यह है इस देश की धरती की ताकत- तो क्या आश्चर्य है कि इस देश का राजनैतिक तंत्र जो गणतंत्र के रूप में आजादी के बाद उभरा उसमें भी वही ताकत हो जो इस देश के इतिहास और उसकी परंपरा में है, जो इस देश की मिट्टी और जलवायु में है। हमारे इस गणतंत्र की शक्ति का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि द्वितीय विश्वयुध्द के बाद जितने देशों को औपनिवेशिक गुलामी के बाद आजादी मिली उनमें भारत एकमात्र देश है जिसकी राजनैतिक व्यवस्था में कभी भी कोई व्यतिक्रम नहीं आया। भारत के समान ही स्वाधीनता पाने वाले लगभग सौ देश आज हैं जिन्हें द्वितीय विश्व युध्द के बाद आजाद होने का अवसर मिला पर उनमें से कितने ही राष्ट्र तो आज तक यह फैसला नहीं कर सके हैं कि उनकी आजाद सत्ता का स्वरूप क्या होगा? कितने ही देशों ने आजाद संविधान अंगीकार करने का प्रयास भी किया तो वह प्रयास ही असफल हो गया। स्वयं हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान, बंगलादेश, म्यामार और श्रीलंका अभी तक अपने लिये स्थायी या दीर्घायु संविधान नहीं दे सके। और कितने ही देश लहु-लुहान क्षेत्रों में भटकते हुए आज भी आशंकाओं के घेरे में चल रहे हैं।

यह सब क्यों हुआ? हमारे गणतंत्र से कई गुने छोटे ये देश अपने बीच वह शांत और स्थिर मानसिकता क्यों नहीं पैदा कर सके? क्यों कभी हमारे ही भूभाग के भावात्मक अंग होते हुए भी आज बिखराव के मार्ग पर भटक रहे हैं? क्यों इनकी राजनीति में मौसमी तूफान जब तब आकर इनके तंत्र को उजाड़ देते हैं? निस्संदेह ही ये अपने भीतर के बहुयामी व्यक्तित्व को पहिचानने में असफल हुए हैं। निस्संदेह ही ये अपने इतिहास की धरोहर को भूल बैठे हैं। और भूल बैठे हैं परंपरा और परिवर्तन की उस समरसता को जो भारतीय गणतंत्र की अपनी विशेषता है, उसकी अपनी पहिचान है। इस पहिचान और विशेषता को यदि इन देशों ने स्वीकारा होता तो संभवत: इनकी यह गति आज न होती। हमारे इस गणराय की विशेषता को हमारे ही समान बहुभाषी और बहुजातीय एक राष्ट्र जिसका सोवियत संघ था उसने जब पहिचाना तब बहुत देर हो चुकी थी। उसने हमारे गणतंत्र के आदर्शों को अंगीकार करने की बात की तब तक सोवियत संघ में बिखराव आ चुका था और वह टूट गया। पर, उसे देश के अंतिम राष्ट्रपति गोर्बाच्योव को भुलाया नहीं जा सकता है जिसने विश्व के सम्मुख इस बात को स्वीकार किया था कि सोवियत संघ की एकता और विकास के लिये भारतीय गणतंत्र एकमात्र उदाहरण है जिसका अनुकरण किया जाना चाहिए। आज भी गोर्बाच्योव के विचारों में भारत एकमात्र गणतंत्र है जो उन तमाम देशों के लिये एक अनुकरणीय उदाहरण है जिन देशों में धर्म, भाषा और जातियों की विविधता है। और ऐसी विविधता कहां नहीं है? कहां नहीं है भाषा और क्षेत्रीयता की अपनी विविधताएं? कहां नहीं धर्म और उसकी परंपराओं और रूढ़ियों की विविधताएं और कहां नहीें मानवी स्वार्थों और संकल्पों की सीमाओं के विभाजन? ऐसी सभी स्थितियों का हल यदि कहीं है तो वह है भारतीय गणतंत्र में।

भारतीय गणतंत्र का सबसे बड़ा आग्रह है ''विविधता में एकता'' - विविधता को मिटाने की जिन देशों ने चेष्टा की उनकी एकता भंग हो गई और जिन्होंने एकत्व की स्थापना के लिये विविधता को गौण स्थान दिया, ये भी मिट गए। विविधता और एकता दोनों ही अपनी सार्वभौम सत्ता के स्वामी बनकर जब चलते हैं और समान अधिकार संपन्न होकर मिलते हैं तो उनके बीच टूटने की स्थिति नहीं आती है। यह स्थिति है केवल हमारे गणतंत्र में, उसके संविधान में और उनमें जिन्होंने इस संविधान को निर्मित कर अपने आपको अर्पित किया है। भारतीय गणतंत्र के नागरिक अपने संविधान को एक धर्म पुस्तक की तरह लेकर चलते हैं और उसके अधीन अपने को रखकर समानता, स्वाधीनता, सहअस्तित्व और शांति का अनुभव करते हैं। उनकी आकांक्षाओं और व्याख्याओं में युध्दहीन विश्व, शोषणहीन समाज और जीवन व्यापार में सहयोग- यह सहयोग आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर बिना किसी भेदभाव के स्वीकारा जाना चाहिये।

जिस गणतंत्र के निवासियों की ऐसी धारणाएं उनकी आत्मा और भौतिक अस्तित्व के अंग बन गई हों उसे गणतंत्र की ओर से यदि पहिली विश्व घोषणा विश्व शांति और गुट निरपेक्षता, धर्म निरपेक्षता और समान आर्थिक अवसरों के संबंध में की जाती है तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। भारतीय गणतंत्र की पहिली धारणा थी कि जब तक विश्व में स्थायी शांति नहीं कायम होती है तब तक विकास की कोई संभावनाएं नहीं हैं इस कारण भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत अपनी विदेश नीति में उसे गुटीय नीति से दूर रहेगा तो दुनिया को दो खेमों में बांटकर शीत युध्द को बढ़ावा दे रहे हैं। हमारी नीति तटस्थता की है पर युध्द और शांति के बीच हम तटस्थ नहीं हैं। हम निस्संदेह ही शांति के पक्षधर और युध्द के विरोधी हैं। इसी प्रकार से आर्थिक और सामाजिक विकास की प्रक्रिया में हम उनके सहयोगी हैं जो अपनी आर्थिक अवस्था  को सुधारने के लिये प्रयत्नशील हैं और जो किसी का शोषण कर अपना घर नहीं भरना चाहते हैं। भारत ने जब  तीसरी दुनियां की अर्थव्यवस्था को विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था की संज्ञा दी और विकसित राष्ट्रों से सहयोग मांगा तो विकसित राष्ट्रों की अर्थव्यवस्था दो प्रकार की थी एक पूंजीवादी और दूसरी समाजवादी। पं. नेहरू ने तब इन दोनों ही अर्थव्यवस्थाओं से सहयोग पाने के लिये निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की अर्थव्यवस्थाओं को संगठित करने की बात की और जहां इन दोनों से ही सहयोग प्राप्त हो तो वहां पर मिश्रित अर्थव्यवस्था को भी स्थान देने की बात कही। स्वाधीनता के आदर्शों को कायम रखते हुए विकास का यही मार्ग संभव था। इससे इतर जिन्होंने मार्ग अपनाया वे राष्ट्र या तो अमरीकी पूंजीवाद के समर्थक बनने को बाध्य हुए अथवा फिर वे सोवियत रूस के समर्थक बन गए। भारत किसी का पिछलग्गू नहीं बना यह भारतीय गणतंत्र की सूझ-बूझ और उसकी भक्ति का परिचायक है।

भारतीय गणतंत्र का विकास संदेश जहां विश्व के आर्थिक तंत्र को एक नया रूप देने का है वहीं उसका संकल्प विश्व शांति, सहयोग और युध्दहीन विश्व समाज का है। इसके लिए भारतीय मानस अपनी आजादी की लड़ाई के दौरान ही तैयार हो चुका था और आज वह परिपक्वता की स्थिति में आ गया है। इस परिपक्वता की स्थिति में अब उसे कुछ नई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इनमें सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक साम्रायवाद के कुचक्र से बचने की है। समाजवादी अर्थतंत्र की व्यवस्थाएं सोवियत संघ के विघटन के साथ ही खोटी साबित घोषित की जा चुकी है। उनकी खोट का प्रचार पूंजीवादी व्यवस्था की ओर से चकाचौंध कर देने वाला है। इस क्षण में भारत के सामने चुनौती है कि क्या वह स्वीकार कर ले कि समाजवादी अर्थतंत्र एकदम मिथ्या है और उसको दफन किया जाना चाहिए अथवा उसके भीतर जो श्रेयस्कर हैं उसको अंगीकार किया जाना चाहिये और पूंजीवादी गुलामी की व्यवस्था को सीमित किया जाना चाहिये।

दूसरी चुनौती देश की प्रजातांत्रिक व्यवस्था को बनाये रखने की है। यों हमारे संविधान में लोकतंत्र सुरक्षित है किंतु समय-समय पर धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर उठने वाले विवाद देश की स्वस्थ मानसिकता को प्रदूषित करने में सहायक होते हैं। इस प्रकार के प्रदूषण का देश के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव न हो, यह हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। सामाजिक सद्भाव तथा सर्वधर्म सम्भाव हर नागरिक की प्राथमिकता होनी चाहिये।

एक और चुनौती है देश की अखंडता के लिये। यह खतरा न केवल देश के भीतर से उभरता है वरन पड़ोसी राष्ट्रों द्वारा भी प्रोत्साहित किया जाता है। इस ओर भी सावधान रहना आवश्यक है।

विकासशील दुनिया के बीच भारत का संदेश सबसे महत्वपूर्ण है और इस दिशा में हमारे गणतंत्र को अपना दायित्व समझना चाहिए।

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