मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

2014 की चुनौतियां और अवसर

वर्ष 2014 में भारत के समक्ष जो सबसे बड़ी संभावना और चुनौती होगी, वह आर्थिक विकास की उच्च दर को वापस लौटाने की होगी, जैसा कि कुछ वर्ष पहले था। यह केवल उच्च विकास ही है जो हमारे देश की सतत समृद्धि को सुनिश्चित करेगी। 2014 के आम चुनावों में हमें अवश्य ही एक ऐसे उम्मीदवार और पार्टी के पक्ष में मतदान करना चाहिए जो विकास को वापस पटरी पर लौटा सके।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि अर्थव्यवस्था में एक फीसद की बढ़ोतरी से प्रत्यक्ष तौर पर 15 लाख नौकरियों का सृजन होता है। हर एक नौकरी से अप्रत्यक्ष तौर पर तीन और नौकरियों का सृजन होता है और प्रत्येक नौकरी से पांच लोगों के परिवार का पालन-पोषण होता है। इस प्रकार अर्थव्यवस्था में एक फीसद के विकास से देश के तीन करोड़ लोग समृद्ध अथवा लाभान्वित होते हैं। आर्थिक सुधार और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर खर्च बढ़ाने से विकास में मदद मिलती है, जबकि कल्याणकारी कार्यों और लोकलुभावन योजनाओं पर खर्च से विकास दर में गिरावट आती है। 2014 में बनने वाली नई सरकार को विकास के पहलू पर अनिवार्य रूप से ध्यान देना होगा।

ढाई साल पहले पूरी दुनिया भारत से ईष्र्या कर रही थी। यह वैश्विक वित्तीय संकट से बच निकला था और इसकी अर्थव्यवस्था नौ प्रतिशत की दर से बढ़ रही थी। रोजगार के अवसर पैदा हो रहे थे और लाखों लोग गरीबी के चंगुल से बाहर निकल रहे थे। यह स्थिति 1991 में शुरू हुए मुक्त बाजार सुधारों का इनाम थी। जैसे ही सरकार ने व्यापार से नियंत्रण कम किया, अनेक कंपनियों ने देश में शानदार प्रदर्शन कर विदेश में भी सफलता के झंडे गाड़ने शुरू कर दिए। 1991 के बाद से भारत की तमाम सरकारों ने सुधार की प्रक्रिया जारी रखी, किंतु धीमी रफ्तार से। और इस धीमी रफ्तार के बावजूद भारत विश्व की दूसरी सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था बन गया। किंतु कांग्रेस के नेतृत्व में वर्तमान संप्रग-2 सरकार ने भारी गलती कर दी। सोनिया गांधी और उनकी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के प्रभाव में आकर सरकार ने निष्कर्ष निकाला कि भारत के मुक्त बाजार सुधारों और उच्च विकास दर का गरीबों को कोई लाभ नहीं मिल रहा है। इसने गरीबों के कल्याण पर धन खर्च करने पर ध्यान केंद्रित किया। सड़कें, बिजली घर और अन्य ढांचागत निर्माण के बजाय यह सस्ता खाद्यान्न, सस्ती ऊर्जा और किसानों की ऋण माफी आदि योजनाओं पर काम करने लगी। इसका मुख्य कार्यक्रम था ग्रामीण क्षेत्रों में कम से कम सौ दिनों के रोजगार की गारंटी देना। नई परियोजनाओं को हरी झंडी देना करीब-करीब थम सा गया। इसमें सबसे बड़ी बाधा बना पर्यावरण विभाग। परिणामस्वरूप, निवेशकों का विश्वास डिग गया, महंगाई आसमान छूने लगी और आर्थिक विकास दर 4.5 पर आ गई। यह विनाशकारी गलती थी, जिसकी वजह से 12 करोड़ लोगों को मुसीबतों का सामना करना पड़ा।

इस गलती का एक कारण यह है कि सुधारवादी देश के इन सुधारों को लोगों को नहीं बेच पाए। अधिकांश लोगों की यह धारणा बन गई कि मुक्त बाजार से केवल अमीरों को फायदा हुआ, आम लोगों को नहीं। इसलिए सरकार ने अचानक इन सुधारों को तिलांजलि दे दी।?किसी भी पार्टी ने बाजारवादी और व्यापार समर्थित सुधारों के बीच के अंतर को जनता को समझाने की कोशिश नहीं की। बाजारवादी नीतियों से तात्पर्य ऐसी नीतियों से है जो प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देती हैं, जिस कारण कीमतें नहीं बढ़तीं। उत्पादों की गुणवत्ता बढ़ाती हैं और नियम आधारित पूंजीवाद और आर्थिक विकास को प्रोत्साहन देती हैं। इससे केवल अमीरों को नहीं बल्कि देश के सभी लोगों को लाभ होता है। इसके विपरीत व्यापारवाद में राजनेता और अधिकारी आर्थिक फैसले लेते हैं। इस व्यवस्था में सत्ता के करीबी पूंजीपतियों को लाभ होता है।

अब इस सरकार को अपनी गलती का एहसास हुआ है और इस वर्ष में वित्त मंत्री ने कुछ सुधारों को लागू करने का प्रयास किया है। किंतु अब बहुत देर हो चुकी है। और इस बीच भी सरकार गलतियां कर रही है। 1991 के बाद के सबसे भीषण आर्थिक संकट के बीच मेें सरकार ने खाद्य सुरक्षा कानून बना डाला। इसके तहत दो-तिहाई भारतीयों को बाजार भाव के दस प्रतिशत मूल्य पर खाद्यान्न दिया जाएगा। इस नीति से बहुत से लोगों को झटका लगा है क्योंकि आधिकारिक सर्वे के अनुसार देश में महज दो प्रतिशत लोग ही भुखमरी का शिकार हैं। वैसे भी अतीत का उदाहरण बताता है कि इस प्रकार की योजनाओं में आधे से भी कम खाद्यान्न सही लोगों तक पहुंच पाता है। शेष कुप्रबंधन और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है।

विकास और सुधार पर जोर देने के बजाय नई सरकार को शासन में सुधार लाना होगा। अंत में, भारत की कहानी निजी क्षेत्र की सफलता और सार्वजनिक क्षेत्र की विफलता को दर्शाती है। कुशासन के बावजूद देश में संपन्नता बढ़ रही है। जहां सरकार की सबसे अधिक जरूरत होती है यानी कानून और व्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य और पेयजल की आपूर्ति सुनिश्चित करने में, वहीं इसका बुरा प्रदर्शन है। जहां इसकी जरूरत नहीं है, वहां यह अति सक्रियता दिखा रही है जैसे शासन में लालफीताशाही को बढ़ावा देना। इस प्रकार की स्थिति में या तो आप देश की क्षमता बढ़ाइए और या फिर अपनी आकांक्षाओं को सीमित रखिए। खाद्य सुरक्षा कानून या फिर मनरेगा जैसी योजनाओं के बजाय गरीबों को सीधे नकद भुगताने से श्रम या खाद्य बाजार पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा। मनरेगा जैसी योजनाओं के बजाय नियमन और अन्य बाधाओं को दूर कर रोजगार के टिकाऊ अवसरों को पैदा करने की कोशिश क्यों नहीं की जा रही है?

भारत में आर्थिक सुधारों से भी कहीं जरूरी प्रशासनिक, न्यायिक और पुलिस सुधार हैं। त्वरित फैसले लेने, उन्हें क्रियान्वित करने, कानून का शासन लागू करने, भ्रष्टाचारियों को दंडित करने और सरकार को लोगों के प्रति जवाबदेह बनाने के लिए एक मजबूत उदारवादी राष्ट्र की जरूरत है। भारत की उम्मीदें इसकी युवा शक्ति पर टिकी हैं, जो मध्यम वर्ग में प्रवेश कर चुके हैं या फिर इसकी दहलीज पर हैं। अभी इनकी संख्या कुल आबादी की एक-तिहाई है और आने वाले दशक में ये बढ़कर आधे हो जाएंगे। वे हैरान-परेशान हैं कि जो देश उन्हें धार्मिक और राजनीतिक स्वतंत्रता देता है, वह आर्थिक स्वतंत्रता प्रदान करने में विफल क्यों है?

एक ऐसे देश में जहां पांच में से दो व्यक्ति स्वरोजगार में लगे हैं, नया व्यवसाय शुरू करने में औसतन 42 दिन लग जाते हैं। उद्योगपति लालफीताशाही और भ्रष्ट इंस्पेक्टरों के उत्पीड़न के शिकार हैं। 1991 में सुधारों की शुरुआत के दो दशक बाद भी भारत चीन जैसा विनिर्माता नहीं बन सका है। भारत में दक्षिणपंथी रुझान वाली पंथनिरपेक्ष राजनीतिक स्थान खाली है। भारत की राजनीतिक पार्टियों में से कोई भी इसे नहीं भर सकती। नई आम आदमी पार्टी कुछ ज्यादा ही समाजवादी है और इसका विकास, उदारीकरण और सुधार में कोई विश्वास नहीं है। इसलिए देश में एक नई उदार पार्टी की जरूरत है, जिसका आर्थिक विकास के लिए राजनेताओं और नौकरशाहों के बजाय बाजार पर विश्वास हो।


  

सोमवार, 30 दिसंबर 2013

वंचित रिहाइश

शहरों, औद्योगिक क्षेत्रों, बाजारों के विस्तार के बीच झुग्गी बस्तियों का फैलाव भी एक हकीकत है। तमाम अध्ययनों से जाहिर हो चुका है कि खेती से गुजारे लायक आमदनी न हो पाने की वजह से हर साल लाखों लोग रोजी-रोजगार की तलाश में शहरों का रुख करते हैं और फिर वे वहीं के होकर रह जाते हैं। इनमें से ज्यादातर लोग निर्माण-मजदूरी, रिक्शा-रेहड़ी वगैरह के काम में लगते हैं और चमकते-दमकते मॉलों, अट्टालिकाओं के लिए खटते हुए खाली पड़े सार्वजनिक भूखंडों पर अपने सिर छिपाने का बंदोबस्त करते हैं। ऐसी बस्तियों में न तो पीने का साफ पानी उपलब्ध होता है, न शौच आदि के लिए कोई माकूल व्यवस्था होती है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की ताजा रपट के मुताबिक भारत के शहरों में कुल करीब चौंतीस हजार झुग्गी बस्तियां हैं। इनमें लगभग इकतालीस फीसद अधिसूचित हैं, जबकि उनसठ फीसद गैर-अधिसूचित। अधिसूचित झुग्गी बस्तियों में सरकारें पीने के पानी, बिजली आदि से संबंधित सुविधाएं किसी हद तक मुहैया कराने की कोशिश करती हैं, जबकि गैर-अधिसूचित झुग्गी बस्तियों में रहने वालों को अपने स्तर पर इनका इंतजाम करना पड़ता है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस तरह उन्हें कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता होगा। सबसे अधिक झुग्गी बस्तियां महाराष्ट्र के शहरी क्षेत्रों में हैं। उसके बाद कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल के शहरों में। देश भर की ऐसी बस्तियों में करीब अट्ठासी लाख घर हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की ओर से इस तरह का यह उनहत्तरवां सर्वेक्षण है।


इंदिरा आवास योजना और जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीकरण योजना आदि कार्यक्रमों के तहत गरीबों को सस्ते आवास मुहैया कराने के सरकारी दावों के बरक्स हर साल झुग्गी बस्तियों और फिर इन बस्तियों में घरों की संख्या कुछ बढ़ जाती है। इन बस्तियों के फैलाव को रोकना क्यों संभव नहीं हो पाता? इसके पीछे कुछ हद तक लोगों की यह मानसिकता भी काम करती है कि सार्वजनिक भूखंडों पर झुग्गियां डाल लेना रिहाइश का सबसे सस्ता तरीका है। फिर कुछ राजनीतिक इन बस्तियों में रहने वालों को अपने वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करते हैं, इसलिए वे उन्हें वहीं बसे रहने की वकालत करते देखे जाते हैं। जबकि ज्यादातर झुग्गी बस्तियां गंदे नालों के किनारे, कचरा निपटारे के लिए निर्धारित ढलाव आदि के गिर्द बनी होती हैं। ऐसे में वहां रहने वालों की सेहत पर क्या असर पड़ता होगा, अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। इन बस्तियों में रहने वालों का जीवन हर वक्त जोखिम से भरा रहता है। एक चिनगारी भी हर साल हजारों घरों को खाक कर जाती है। तपेदिक, दमा, कैंसर जैसी बीमारियां इन लोगों में आम हैं। समझना मुश्किल है कि जब ग्रामीण इलाकों में निर्धन परिवारों के लिए घर बनाने को सरकारें अनुदान दे सकती हैं तो शहरी क्षेत्रों में ऐसी बस्तियों का निर्माण क्यों नहीं कर सकतीं, जहां पीने के साफ पानी, बिजली, स्कूल, स्वास्थ्य सेवा आदि का मुकम्मल इंतजाम हो। यह भी सुनिश्चित हो कि जिस परिवार के नाम पर भवन आबंटित हो, उसमें वही रहे, कारोबारी निगाहें न पड़ने पाएं, जैसा कि दिल्ली के अनेक इलाकों में देखा जाता है। जो लोग उचित रिहाइश से वंचित हैं, वे भी अपने श्रम से शहरों की आर्थिक गतिविधि में अहम भूमिका निभाते हैं, पर ढांचागत विस्तार में उनकी आवासीय समस्या नजरअंदाज कर दी जाती है, बल्कि कई बार विस्थापन के रूप में उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। उनके प्रति संवेदनशील रुख अपनाकर शहरी नियोजन पर नए सिरे से सोचने की जरूरत है।

भोजन की मिली गारंटी

किसी भी कल्याणकारी सरकार की पहली जिम्मेदारी यह होती है कि वह अपने नागरिकों को रोटी,कपड़ा और मकान मुहैया करवाये। पिछले नौ सालों से यह सरकार लगातार इस दिशा में काम कर रही है। हमारे देश की एक बहुत बड़ी आबादी अपनी रोजी रोटी के लिए खेती पर निर्भर है। इसके लिए कृषि के क्षेत्र को मजबूत करने की कोशिशें लगातार चलती रही हैं। 11वीं पांच साला योजना में सरकार को इसमें कामयाबी हासिल हुई है। 10वीं पांच साला योजना में हमारी कृषि विकास दर 2.4 फीसदी थी जो अब बढ़ कर 3.6 फीसदी हो गई है। क्योंकि सरकार ने किसानों को उनकी उपज के अच्छे दाम दिये इसलिए उन्होंने अपनी फसलों की ओर अधिक ध्यान देना शुरू किया। अनाज की पैदावार में लगातार होने वाली बढ़ोतरी से सरकार को हौंसला बढ़ा और उसने कानूनन लोगों को सस्ता अनाज मुहैया करवाने का काम हाथ में लिया। इसके लिए सरकार ने पिछले दिनों संसद में खाद्य सुरक्षा अधिनियम पारित करवाया। वर्त्तमान सरकार ने इस योजना को अपने एक सपने के रूप में देखा था। जिसे पूरा करने के लिए उसने पहले ही, जुलाई में, एक अध्यादेश के द्वारा जनता को खाद्य सुरक्षा प्रदान कर दी थी। वर्तमान अधिनियम उसी अध्यादेश का स्थान लेने के लिए संसद द्वारा पारित किया गया है। राष्ट्रपति की अनुमति के बाद यह अधिनियम विधेयक का रूप् ग्रहण कर लेगा। 

भोजन गांरटी का मतलब है कि घरेलू जरूरतों के लिए सबको पूरा अनाज उस कीमत पर मिले जिसे हमारे देश के अधिकतर लोग आसानी से वहन कर सकें। इसलिए पूरी योजना की रूप रेखा देश की तीन चौथाई आबादी को ध्यान में रख कर तैयार की गई है। यह आबादी लगभग 82 करोड़ है। भोजन की गारंटी देने वाले कानून को बनाने में विपक्ष ने भी सरकार का साथ दिया है। इसे किसी भी सरकार की बहुत बड़ी उपलब्धि माना जाना चाहिए।  

इस अधिनियम के माध्यम से सरकार ने किसानों को इस बात का भी भरोसा दिलाया है कि यह कानून लागू होने के बाद भी उनकी उपज पर मिलने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य में कोई कटौती नहीं की जायेगी। इस कानून से शहरों की पचास प्रतिशत और गांवों की 75 फीसदी आबादी फायदा उठा सकेगी। 

इस कानून के लागू होते ही प्रत्येक गरीब को हर महीने पांच किलो सस्ता अनाज मिलेगा। इसमें चावल तीन रुपये किलो,गेहूं दो रुपये प्रति किलो और ज्वार इत्यादि मोटा अनाज एक रुपया किलो के हिसाब से उपलब्ध करवाया जायेगा। इस बात का इंतजाम किया गया है कि अंत्योदय कार्ड वाले परिवार को 35 किलो अनाज मिलेगा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अब गरीब लोगों को अनाज उनके हक के तौर पर मिलेगा। इस विधेयक के माध्यम से लोगों की कुपोषण की समस्या का समाधान करने की कोशिश भी की जायेगी। इस योजना को लागू करने के लिए सरकार को 612.3 लाख टन अनाज की जरूरत होगी। 

केन्द्र सरकार की यह योजना राज्य सरकारों के माध्यम से लागू होगी। किसी कारण से अगर राज्य सरकार सस्ते दर पर अनाज मुहैया नहीं करवा पायेगी तो उसे गरीबों को खाद्य सुरक्षा भत्ता  देना पड़ेगा। यह भत्ता कितना होगा इसका फैसला राज्य सरकारें अपनी स्थानीय परिस्थितियों को ध्यान में रख कर करेंगी। 

 वर्तमान सरकार ने शुरू से ही महिला सशक्तिकरण को बहुत महत्व दिया है। महिलाओं को परिवार में अधिक आदर सम्मान मिले इसके लिए सरकार ने यह प्रावधान किया है कि परिवार की सबसे अधिक आयु वाली महिला को ही परिवार का मुखिया माना जायेगा। यह कार्ड उसी के नाम पर जारी होगा। यदि किसी पीिवार में 18वर्ष से अधिक आयु की महिला नहीं होगी तभी सबसे बड़ी आयु वाले पुरुष के नाम पर कार्ड बनवाया जा सकेगा। इस योजना के तहत प्रत्येक गर्भवती महिला को 6000 रुपये सहायता के तौर पर मिलेंगे। संबधित राज्य सरकारें इस बात का फैसला भी करेंगी कि यह धनराशि उन्हें एकमुश्त दी जाये अथवा किस्तों। गर्भवती महिलाओं को आंगनवाड़ियों और ग्रामीण स्वास्थ्य केन्द्रों से गर्भावस्था के दौरान और बच्चे के जन्म के छह महीने बाद तक अच्छा पौष्टिक खाना बिना किसी मूल्य के मिलेगा। इसमें गांवों में चल रहे आशा केन्द्र उनकी मदद करेंगे। छह महीने से 14 साल तक के बच्चों को राशन अथवा खाना मुहैया करवाया जायेगा। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के तीन साल से लेकर छह साल तक के सभी बच्चों को सुबह का नाश्ता और पकाया हुआ गर्म भोजन निशुल्क मिलेगा। जो बच्चे कुपोषण के शिकार होंगे उनका खास ख्याल रखा जायेगा। इसी प्रकार पर्वतीय और दूर दराज के इलाकों में और जनजातीय क्षेत्रों में कमजोर वर्ग के लोगों का भी खास ख्याल रखा जायेगा। गरीबों की पहचान आधार कार्ड के आधार पर की जायेगी। इसके लिए राज्य सरकारें भी अपने मानदंड़ तय करेंगी। 

इस बात का भी प्रबंध किया गया है कि इस योजना का राज्य सरकारों पर कोई अतिरिक्त भार न पड़े। इसके लिए अनाज की ढुलाई के लिए राज्यों को केन्द्र सरकार से सहायता मिलेगी। राशन का वितरण करने वालों को भी आर्थिक सहायता दी जायेगी।  खाद्यान्न सुरक्षा के मद में सरकार को लगभग 1.25 लाख करोड़ रुपये का अनुदान देना होगा जो 2015-16 में बढ़ कर 1.50 लाख करोड़ हो जायेगा। इसके लिए सरकार को हर साल अपनी आमदनी में 10 से 15 फी सदी का इजाफा करना पड़ेगा। यह सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है जिसे उसने स्वीकार किया है। 
सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि अनाज के वितरण में किसी प्रकार की धांधली न हो। काला बाजारी को रोकने के सभी उपाय किये जायेंगे। सार्वजनिक वितरण प्रणाली में फैले भ्रष्टाचार को रोकने के लिए हर जिले में प्रबंध किये जायेंगे। इस बात का प्रयास किया जायेगा कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुकानें चलाने का जिम्मा प्राथमिकता के आधार पर पंचायतों, स्वयं सहायता समूहों और सहकारी समितियों को दिया जाये। लोगों को होने वाली असुविधाओं को रोकने के लिए कॉल सेन्टर और हेल्प लाइन का प्रावधान किया जायेगा। सार्वजनिक वितरण प्रणाली से जुड़े सभी दस्तावेज आम लोग देखना चाहेंगे तो देख सकेंगे। यदि कोई अधिकारी विधेयक के नियमों का पालन नहीं करता तो उसे इसके लिए सजा दी जायेगी। उन पर 5000 रुपये तक जुर्माना किया जा सकेगा।
इस विधेयक के माध्यम से वत्तमान सरकार ने पूरी दुनिया को भी यह सन्देश दिया है कि भारत अपने सभी देश्वासियों की अनाज गारंटी की जिम्मेदारी लेता है। किसी भी कल्याणकारी राज्य के लिए यह एक बहुत ही बड़ा और महत्वपूर्ण कदम है। 


रविवार, 29 दिसंबर 2013

न्यायिक सुधार के लिए अहम फैसला

न्यायिक नियुक्ति आयोग (जेएसी) को संवैधानिक दर्जा देने पर राजी होकर केंद्र ने संबंधित विधेयक के पास होने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। अगर सरकार ने विपक्ष का सहयोग पाने के लिए उचित तत्परता दिखाई तो संभव है कि ऐसा वर्तमान लोकसभा के कार्यकाल में ही हो जाए। संसद के मानसून सत्र में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति की नई प्रक्रिया स्थापित करने के लिए संविधान संशोधन विधेयक पेश किया, जिसके मुताबिक भविष्य में ऐसी सभी नियुक्तियां जेएसी करेगी।

जेएसी के गठन के लिए अलग से बिल रखा गया। जेएसी के गठन संबंधी प्रावधान को संविधान संशोधन का हिस्सा न बनाने से भारतीय जनता पार्टी नाराज हो गई। तब बिल संसद की स्थायी समिति के पास भेजा गया। संसदीय समिति इस तर्क से सहमत हुई कि जेएसी के गठन की प्रक्रिया संवैधानिक प्रावधान के तहत होनी चाहिए ताकि सरकारें जब चाहें साधारण विधेयक पास कर इसके स्वरूप में हेरफेर न कर पाएं। स्वागतयोग्य है कि सरकार ने इस सिफारिश को स्वीकार कर लिया है।

राजनीतिक हलकों और यहां तक कि न्यायिक दायरे के भी एक बड़े हिस्से में इस बात पर सहमति है कि जजों की नियुक्ति का कॉलेजियम सिस्टम पारदर्शी एवं जवाबदेह व्यवस्था के रूप में स्थापित होने में विफल रहा है। किसी विकसित लोकतंत्र में ऐसी मिसाल नहीं है, जहां जजों को खुद जज ही नियुक्त करते हों। यानी उसमें विधायिका या कार्यपालिका की कोई भूमिका न रहती हो। अंकुश एवं संतुलन का सिद्धांत इस मामले में लागू हो, इसके लिए नई प्रक्रिया की मांग बीते वर्षों में जोर पकड़ती गई।


अंतत: ऐसे विधेयक का स्वरूप सामने है, जिस पर राजनीतिक दायरे में आम सहमति है। इसके तहत सात सदस्यीय जेएसी के गठन का इरादा है, जिसके अध्यक्ष भारत के प्रधान न्यायाधीश होंगे। हालांकि कई विशेषज्ञों ने यह सवाल जरूर उठाया है कि क्या जेएसी के पदेन सदस्य नियुक्ति संबंधी कार्यों पर पूरा ध्यान दे पाएंगे? क्या इसमें पूर्णकालिक सदस्य नहीं होने चाहिए? मुमकिन है, ऐसे कुछ और प्रश्न अनुत्तरित रह गए हों। आशा है, संसदीय बहस के दौरान इन पर ध्यान दिया जाएगा। फिलहाल, वांछित यह है कि यथाशीघ्र यह विधेयक पास करने के लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष उचित गंभीरता दिखाएं।

दक्षिण सूडान का संकट

दशकों के गृहयुध्द के बाद उत्तरी सूडान से अलग होकर 2011 में दक्षिण सूडान विश्व का नवीनतम देश बना था। तेल व अन्य प्राकृतिक संपदा के धनी इस देश की जनता ने यह उम्मीद पाली होगी कि अब कम से कम उसे शांति से रहने का अवसर मिलेगा, किंतु ऐसा लगता है कि जातीय नस्लीय हिंसा के नाम पर चलने वाले खूनी खेल को पूंजीवादी ताकतें यहां की नियति बना देना चाहती हैं। यही कारण है कि यह नवजात देश एक बार फिर भीषण हिंसा के दौर से गुजर रहा है और विश्व की तमाम बड़ी शक्तियों और संयुक्त राष्ट्र द्वारा चिंता जतलाए जाने के बाद भी यहां के संकट का समाधान नहींनिकल रहा है। देश में डिंका और नुएर इन दो प्रमुख समुदायों के बीच हिंसा के चलते गृहयुध्द जैसे हालात बन गए हैं। सैकड़ों लोग मारे गए हैं और हजारों विस्थापित हो गए हैं। संयुक्त राष्ट्र की ओर से यहां शांति सेना तैनात की गई है और अब सुरक्षा परिषद ने शांति रक्षकों की संख्या 7 हजार से बढ़ाकर 14 हजार करने का फैसला लिया है। पिछले हफ्ते भारी हथियारों से लैस करीब 2,000 विद्रोहियों ने दक्षिण सूडान में जोंगलेई राय के अकोबो स्थित संयुक्त राष्ट्र मिशन परिसर पर हमला किया था जिसमें दो भारतीय शांति सैनिकों सहित करीब 20 लोग मारे गए थे। संरा महासचिव बान की मून ने कहा कि, 'मैं लगातार राष्ट्रपति सल्वा कीर सूडान और विपक्षी नेताओं से बाचीत और संकट से निजात का रास्ता निकालने का आह्वान करता रहा हूं ।'

उन्होंने कहा, 'चाहे जो मतभेद हों, हिंसा को किसी भी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता है ।' दरअसल राष्ट्रपति सल्वा कीर जो कि डिंका समुदाय के हैं, ने नुएर समुदाय से आने वाले उपराषट्रपति रायक माचर को बर्खास्त कर दिया था, उसके बाद जातीय हिंसा की लपटें और भड़क गईं। कहा जा सकता है कि राजनीतिक कारणों से बड़ा विवाद जातीय हिंसा के रूप में प्रकट हुआ है। राष्ट्रपति सल्वा कीर के मुताबिक देश में तख्तापलट की कोशिश हुई और इसके लिए उन्होंने माचर को जिम्मेदार ठहराया है। माचर इन दिनों छिपकर रह रहे हैं, लेकिन उन्होंने आरोपों का खंडन किया है । ध्यान रहे कि पिछले दिनों उन्होंने भ्रष्टाचार के आरोपों से निपटने के मामले में नाकाम रहने के लिए राष्ट्रपति कीर की सार्वजनिक तौर पर आलोचना की थी। माचर ने जुलाई में कहा था कि वह पार्टी अध्यक्ष पद के लिए भी कीर को चुनौती देंगे।


माचर का समर्थन कर रही सेना ने देश के मुख्य शहर बोर और तेल उत्पादक प्रांत यूनिटी स्टेट की राजधानी बेंतू पर कब्ज़ा कर लिया है। राजधानी जुबा में दक्षिण सूडानी सुरक्षा बल नुएर समुदाय के लोगों को निशाना बना रहे हैं। उन्होंने कइयों को मार दिया गया है और बहुतों को हिरासत में ले लिया गया है। उनमें सैनिक, नीति-निर्माता, छात्र, मानवाधिकार कार्यकर्ता और शरणार्थी शामिल बताए जाते हैं। लेकिन राजधानी से बाहर जोंगलेई प्रांत में इसके उल्ट हो रहा है। नुएर समुदाय की सैन्य टुकड़ियां डिंका समुदाय के लोगों को निशाना बना रही हैं। वे संयुक्त राष्ट्र के परिसर पर धावा बोल रही हैं, जहां हजारों नागरिक शरण लिए हुए हैं। उन्होंने तेल संयंत्रों पर भी हमला किया है। सल्वा कीर पर एक ओर तानाशाही प्रवृत्ति से सरकार चलाने का आरोप लग रहा है, वहींमेचार को अवसरवादी कहा जा रहा है, जिन्होंने गृहयुध्द के वक्त अपने और नुएर समुदाय के फायदे के लिए पाला बदल लिया था। कहा जा सकता है कि देश के दोनों ही शीर्ष नेताओं की विश्वसनीयता दांव पर लगी है और उनके निजी स्वार्थ के कारण लाखों लोगों का भविष्य संकट में पड़ गया है। दक्षिण सूडान में गृहयुध्द के गंभीर स्थानीय एवं क्षेत्रीय परिणाम होने की आशंका जतलाई जा रही है। यहां की सुरक्षा व स्थिरता पर अनिश्चितता के साथ-साथ पड़ोसी देशों के लिए भी खतरा उत्पन्न हो गया है। यहां से शरणार्थी युगांडा, केन्या व इथोपिया का रुख करेंगे और वहां तनाव पैदा होगा। पहले से कमजोर अर्थव्यवस्था में और गिरावट होगी, जिसका खामियाजा गरीब जनता को भुगतना होगा।

दक्षिण सूडान में अकूत तेल संपदा है, राजस्व का 98 प्रतिशत हिस्सा तेल की बिक्री से आता है, फिर भी जनता के पास मूलभूत सुविधाओं की कमी है। 21वींसदी में भी इस देश में किसी की संपन्नता का पैमाना उसके मवेशियों की गिनती से होता है। उद्योग, परिवहन, संचार, शिक्षा, स्वास्थ्य तमाम क्षेत्रों में यह देश बेहद पिछड़ा है, इसका लाभ उठाकर अगर यहां की तेल संपदा का दोहन करने के लिए पूंजीवादी ताकतें करें तो क्या आश्चर्य। विश्व में समानता, स्वतंत्रता, लोकतंत्र जैसे मूल्यों के समर्थक देशों को चाहिए कि वे दक्षिण सूडान को वर्तमान संकट से उभारने के साथ-साथ उसके बेहतर भविष्य के लिए मिलकर कार्य करें।

शनिवार, 28 दिसंबर 2013

मुश्किल भरी रहेगी विदेश नीति

1990 के दशक में जो दो घटनाएं घटी थीं उन्होंने दुनिया की नीतियों को किस कदर प्रभावित किया था, इसका सटीक विवरण भले ही न उपलब्ध हो, लेकिन भारत पर उनका प्रभाव स्पष्ट दिखा। इनमें से एक थी, सोवियत संघ का पतन और चुनौतीविहीन अमेरिका का उदय और दूसरी थी, भूमण्डलीकरण के नाम पर विदेशी पूंजी एवं कमोडिटी के साथ-साथ अमेरिकी नेतृत्व में पश्चिमी दुनिया की नीतियों का राष्ट्रनीति पर प्रभाव। हालांकि इनका प्रभाव अटल बिहारी वाजपेयी के समय से ही इन दोनों ही घटनाओं का प्रभाव दिखने लगा था, लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह के आगमन के साथ ही स्थितियां एकदम स्पष्ट हो गईं और देश पुराने ढर्रे को छोड़कर पूरी तरह से अमेरिका की ओर चल पड़ा। इसका प्रभाव यह पड़ा कि भारत की सरकार अपनी नीतियों को अमेरिकी प्रकाश में तय होने लगीं और इसके साथ ही उनकी व्याख्या भी अमेरिकी शब्दकोश में शब्दों की तलाश कर की जाने लगी। उधर अमेरिका ने भी भारत को अपना स्वाभाविक एवं रणनीतिक मित्र या साझेदार बताना शुरू कर दिया। इसका सबसे बड़ा प्रभाव यह हुआ कि भारतीय विदेश नीति के जिन बुनियादी तत्वों का निर्माण बड़े ही प्रयासों के बाद नेहरू कर पाए थे, वे धीरे-धीरे गौण हो गए? इस दौरान हमारा परम्परागत मित्र रूस भी हमसे काफी दूर चला गया जबकि उसे हमारी जरूरत थी, आखिर क्यों? आखिर इसमें दोष किसका है और ये स्थितियां क्या आगे भी बनी रहेंगी?

जब 21वीं सदी आरम्भ हुई थी तब बड़े जोर-शोर से यह प्रचार किया जा रहा था कि भारत महाशक्ति बनने जा रहा है। चूंकि यह प्रचार पूंजीवादी शक्तियों या भी सरकार के प्रवक्ताओं द्वारा किया जा रहा था, इसलिए स्वीकार करने की वजह नहीं बन पा रही थी। लेकिन जब सत्ता कांग्रेस और विशेषकर मनमोहन सिंह के नेतृत्व में आई तो यह शंका कुछ यादा ही हुई थी कि कहीं भारत प्रोफेसनल्स या सेल्समैन्स का देश न बन जाए। यदि ऐसा हुआ तो देश कमजोर होगा और फिर महाशक्ति बनना शायद एक दिवास्वप्न ही रह जाए। कारण यह था कि मनमोहन सिंह जमीन के नेता नहीं थे (कमोबेश यह स्थिति कांग्रेस में अभी बनी भी रहेगी क्योंकि सम्भावित नेता भी जमीनी नेता नहीं है) बल्कि वे बहुत हद तक अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा गाइडेड थे, इसलिए उन्हें देश को वही दिशा देनी थी जैसा कि वे संस्थाएं चाहतीं। क्या ऐसा ही हुआ या फिर मनमोहन सिंह इन सब चुनौतियों से बचते हुए देश के लोगों को आगे ले जा पाए?

वास्तव में पिछले एक दशक में भारत की विदेश नीति को अंतरराष्ट्रीय परिवर्तनों साथ-साथ काफी बदलना था। इनमें कुछ नई चुनौतियों और जटिलताओं का समावेश होना था। भारतीय राजनय को न केवल इसे समझना था, बल्कि उन काउंटर फोर्सेज का निर्माण भी करना था जो भारत के सामरिक हितों के अनुकूल करतीं। लेकिन यह कार्य इतना आसान नहीं था, क्योंकि नेतृत्व अनुपयुक्त था। यही कारण है कि इस दौर में भारत रियल पॉलिटिक की ओर भी नहीं ले जा सकता था।  पिछले दिनों पाकिस्तान के एक समाचारपत्र में एक रिपोर्ट रिपोर्ट छपी थी जिसमें पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के उन शब्दों को व्यक्त किया गया था जिनके जरिए उन्होंने यह कहने की हिम्मत जुटा डाली थी कि 'कश्मीर एक फ्लैशप्वाइंट है और यह किसी भी वक्त दो परमाणु शक्तियों के बीच चौथी जंग छेड़ सकता है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के इस बयान में भारतीय विदेश नीति की पहली और प्रमुख चुनौती निहित है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के इस बयान को प्रमुख चुनौती के रूप में स्वीकारने की वजहें हैं। पहली वजह तो यह है कि भारत की सरकार किसी खास घरेलू दबाव या फिर विशेष बाहरी दबाव की वजह से पाकिस्तान के प्रति हमेशा सॉफ्ट कार्नर रखती है, यह जानते हुए कि पाकिस्तान के चरमपंथी भारत को 'सनातन शत्रु' मानते हैं और पाकिस्तानी सेना उसे दुश्मन 'नम्बर वन'। सभी जानते हैं कि पाकिस्तान के किसी भी राजनीतिक दल की सरकार भारत के हितों के अनुकूल काम नहीं कर सकती, लेकिन इसके बावजूद भूगोल न बदले जाने जैसे जुमलों के आधार पर पाकिस्तान से हाथ मिलाने के लिए बेताबी प्रकट की जाती है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह शायद यह भूल चुके हैं कि उन्होंने ही यह कहा था कि पाकिस्तान जब तक मुंबई हमले के गुनहगारों को सजा नहीं देगा तब तक उससे कोई बातचीत नहीं होगी। पाकिस्तान ने इन्हें कोई सजा तो नहीं दी, लेकिन इसके विपरीत कई बार सीज फायर का उल्लंघन किया गया, भारतीय सैनिकों को मार कर उनके सिर काटने जैसा जघन्य कृत्य किया... क्या ये पाकिस्तान की तरफ से भारत को दिए गये मित्रता के तोहफे थे जो मनमोहन सिंह न्यूयॉर्क में नवाज शरीफ से बात करने के लिए बेहद बेताब हुए थे? पाकिस्तान एक साथ तीन मोर्चों पर काम कर रहा है? एक- कश्मीर में, बंगलादेश के जरिए पूर्वोत्तर में और नेपाल के जरिए बिहार व उत्तर प्रदेश में आतंकी गतिविधियों को ऑपरेट करने का कार्य। द्वितीय- वह चीन और श्रीलंका के साथ एक ऐसा गठबंधन तैयार कर रहा है जो भारत को घेरने में निर्णायक भूमिका निभाए और तृतीय- वैश्विक शक्तियों के सामने काश्मीर तथा भारत की परमाणु कार्यक्रम का रोना जारी रखना। महत्वपूर्ण बात यह है कि वह इन सभी मोर्चों पर सफल है और भारत पूरी तरह से विफल।

पिछले महीने श्रीलंका में आयोजित राष्ट्रमंडल देशों के शासनाध्यक्षों के शिखर सम्मेलन (चोगम) में शामिल न होकर खुद को तमिल समर्थक बताने और अब तमिल बहुल जाफना के दौरे की तैयारी में जुटे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का श्रीलंका में विरोध शुरू हो गया है। भारतीय प्रधानमंत्री के दौरे की भनक लगते ही यूनाइटेड नेशनल पार्टी (यूएनपी) के वरिष्ठ नेता जॉन अमरतुंगा ने संसद में कहा है कि भारतीय प्रधानमंत्री के जाफना दौरे को इजाजत नहीं दी जा सकती क्योंकि पिछले महीने उन्होंने राष्ट्रमंडल सम्मेलन में भाग नहीं लिया था। अमरतुंगा ने सवाल किया, 'मनमोहन सिंह बिना हमारे राष्ट्रपति के बुलावे के कैसे जाफना के दौरे पर जा सकते हैं। हम आशंकित हैं कि कहीं यह देश के बंटवारे की कोशिश तो नहीं है। यहां पर भारत सरकार ने विवेकशून्य होने का परिचय दिया और क्षेत्रीय दलों के दबाव में चोगम बैठक में प्रधानमंत्री को न भेजने का निर्णय लिया। श्रीलंका अपने विवेक से काम नहीं कर रहा है, बल्कि उसके पीछे चीन और पाकिस्तान का दिमाग काम कर रहा है। चीन हम्बनटोटा में अपना सैन्य अड्डा बनाकर भारत की घेराबंदी करने में सफल हो रहा है और पाकिस्तान आईएसआई के जरिए भारतीय तमिलों की शक्ति को काउंटर करने के नाम पर कट्टरपंथ का पोषणा कर रहा है। यानि सम्भव है कि अभी तक जो आतंकवाद काश्मीर और नेपाल की तरफ से रिसकर आ रहा था अब श्रीलंका की तरफ से आ सकता है। हालांकि नेपाल में संविधान सभा के लिए हुए चुनावों में नेपाली कांग्रेस सबसे आगे रही है लेकिन इससे बहुत बेहतर माहौल बनने वाला नहीं है। चीन अपना नेपाली गेम बंद नहीं करेगा, बल्कि माओवादियों के जरिए वह कुछ ऐसा करने की कोशिश अवश्य करेगा जिससे भारतीय हितों को नुकसान पहुंचे। यही स्थिति बंगलादेश की है। यदि कहीं हसीना सत्ता से बाहर हो गईं उस स्थिति में पाकिस्तान की सेना और आईएसआई बंगाली संस्कृति को उर्दू संस्कृति द्वारा आच्छादित करने का प्रयास करेगी यानि चरमपंथ लौट आएगा और बंगलादेश उभरते हुए आतंकवाद के गढ़ से कुछ और आगे बढ़ जाएगा तथा इसके साथ ही वहां ग्रेटर बंगलादेश का स्वप्न प्रौढ़ होगा।


बहरहाल विदेश नीति के समक्ष आने वाली भावी चुनौतियां से निपटना भारत और भावी संघीय सरकार के लिए आसान तो नहीं ही होगा।

देशबन्धु

वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित राज्‍यों में सुरक्षा संबंधी मुद्दों पर चर्चा

वर्ष 2013 में भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने सुरक्षा, कानून और व्यवस्था, आपदा प्रबंधन, पुलिस आधुनिकीकरण, सीमा प्रबंधन और अन्य विषयों से संबंधित मुद्दों से निपटने की चुनौतियों का सामना कि‍या। इसके अलावा राज्य के मुख्यमंत्रियों के साथ और कानून और व्यवस्था के साथ-साथ नक्सली प्रबंधन से संबंधित विषयों पर राज्यों/केन्द्रशासित प्रदेशों के पुलिस महानिदेशकों- डीजीपी के साथ महत्वपूर्ण परामर्श बैठकों का भी आयोजन किया गया। आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम 2013, क्राइम एण्ड क्रीमिनल ट्रेकिंग नेटवर्क एण्ड सिस्टग्‍स- सीसीटीएनएस, गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम 1967, को सुदृढ़ करना भी इस साल के अन्य महत्वपूर्ण कार्य रहे।

नई दिल्ली के विज्ञान भवन में 15 अप्रैल 2013 को आयोजित मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में, दूसरे प्रसाशनिक सुधार आयोग की पाचवीं रिपोर्ट की सिफारिशों पर विचार-विमर्श किया गया। 05 जून 2013 को आयोजित मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन के दौरान, केन्द्रीय गृहमंत्री श्री सुशील कुमार शिंदे ने आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्‍तीसगढ़, ओडिशा, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्रियों, पश्चिम बंगाल के वित्त मंत्री और झारखण्ड के राज्यपाल के साथ अलग-अलग बैठकें कर वामपंथी उग्रवाद से ग्रस्‍त राज्यों में सुरक्षा से संबंधित मुद्दों पर बातचीत की।

2013 में जम्मू-कश्मीर में विशेष औद्योगिक पहल- 'उड़ान' कार्यक्रम की शुरूआत की गई। भारत और बंग्लादेश के बीच आपसी और बहुपक्षीय क्षेत्रों सहित संशोधित यात्रा प्रबंधनों के बारे में भी बातचीत की गई। नई दिल्ली में भारत और अमेरीका के आंतरि‍क सुरक्षा विभाग के बीच आपसी विचार-विमर्श और 33वां एशि‍या-प्रशांत सुधारात्‍मक प्रशासक सम्‍मेलन-एपीसीसीए इस वर्ष की अत्‍यंत महत्वपूर्ण घटननाएं रही।

गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 को सशक्त बनाने की पहल

संसद द्वारा पारि‍त गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) संशोधन अधिनियम, 2012 इस साल पहली फरवरी से अस्‍ति‍त्‍व में आ गया। इस कानून के दायरे में आतंकी गतिविधियां, देश के समक्ष आर्थिक सुरक्षा को उत्पन्न खतरे और जाली भारतीय करेंसी से नोटों का उत्पादन, तस्करी और इसका वितरण आते हैं। गैर-कानूनी गतिविधियों में शामिल कंपनियों, सोसाइटियों, ट्रस्टों को इसके दायरे में लाया गया। कि‍सी संगठन को प्रति‍बंधि‍त करने का समय 2 साल से बढ़ाकर 5 साल करने का प्रावधान कि‍या गया है।

आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम-2013

उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति जे.एस.वर्मा की अध्यक्षता में 23 दिसम्बर 2012 को एक समिति का गठन किया गया। इस समिति को शीध्र न्याय दिलाने के वास्ते कानूनों में संशोधन और दुष्कर्म से संबंधित मामलों में अपराधियों की सजा को बढ़ाने के लिए सिफारिशें देने को कहा गया था। 23 जनवरी 2013 को पेश अपनी रिपोर्ट में जस्टिस वर्मा कमेटी ने आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम 2012 के अधिकतर प्रावधानों पर अपनी सहमति व्यक्त की। सरकार, पीड़ित महिलाओं से संबंधित आपराधिक कानून में तत्काल संशोधन करने की इच्छुक थी। सरकार ने आपराधिक कानून (संशोधन) अध्यादेश-2013 को 03 फरवरी 2013 को लागू किया। बजट सत्र में, आपराधिक कानून (संशोधन) वि‍धेयक-2013 को लोकसभा ने 19 मार्च 2013 को, और राज्यसभा ने इसे 21 मार्च 2013 को पारित कर दिया। राष्ट्रपति ने 02 अप्रैल 2013 को इस पर अपनी सहमति दी।

महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराधों से सख्ती से निपटने के लिए भारतीय दण्ड संहिता-आईपीसी, अपराध प्रक्रिया संहिता-सीआरपीसी और भारतीय साक्ष्य कानून-(इंडियन एविडेंस एक्ट) में व्‍यापक संशोधन किये गये। दुष्कर्म पीड़िता की हालत चिंताजनक होने या उसकी मृत्यु होने की अवस्था में अपराधी को मृत्युदण्ड देने तक का प्रावधान किया गया है। किसी पर तेजाब से पहली बार हमला करने, मानव तस्करी, घूरने, पीछा करने जैसे गंभीर आपराधिक मामलों में कड़ी सजा देने का प्रावधान किया गया है। दुष्कर्म की शिकार और तेजाब के हमले से पीड़ित का इलाज न करने वाले अस्पतालों (सरकारी/निजी) के खिलाफ भी दण्ड का प्रावधान किया गया है। ऐसे मामलों में पुलिस को भी जवाबदेह बनाया गया है। पुलिस द्वारा किसी भी कानून का पालन न करने (जैसे एफआईआर दर्ज न करने) को भी दण्डनीय माना गया है। जांच प्रक्रिया और अदालती सुनवाई के दौरान, पीड़ित महिला को उत्पीड़न और शोषण से सुरक्षा उपलब्ध कराने के लिए पर्याप्त प्रावधान किये गये हैं।

आंतरिक सुरक्षा

देश को इस साल भी आतंकी गतिविधियों का भी सामना करना पड़ा है। इस साल तीन बम विस्फोटों की घटनाएं हुई। बम विस्फोट की पहली घटना हैदराबाद में हुई जिसमें 17 लोग मारे गये। बंगलौर में बम विस्फोट की दूसरी और बोध गया में तीसरी घटना में संयोग से कोई भी हताहत नहीं हुआ। बोध गया परिसर की सुरक्षा का जिम्मा केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल-सीआईएसएफ को सौंपे जाने के बिहार सरकार के अनुरोध पर गृह मंत्रालय ने अपनी सहमति व्यक्त की। इस साल की इस प्रकार की कुछ अन्य घटनाओं में, जांच एजेंसियों को अपराधी की पहचान सुनिश्चित करने, घटना को अंजाम देने वालों को गिरफ्तार करने में सफलता मि‍ली और अन्य मामलों में जांच जारी है। सरकार, नागरिकों की सुरक्षा और रक्षा के प्रति वचनबद्ध है। यासीन भटकल, टुंडा और हद्दी की गिरफ्तारी और हाल ही के बम विस्फोटों की गुत्थियों को सुलझाना, ऐसी घटनाओं से निपटने में सरकार की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।

जून 2013 की उत्तराखण्ड आपदा

उत्तराखण्ड को 16-17 जून 2013 को तेज बारिश, बादल फटने और भूस्खलन की भीषण प्राकृतिक आपदा का सामना करना पड़ा। इससे उत्तराखण्ड के सभी 13 जिले प्रभावित हुए। प्राकृति‍क-आपदा इतनी भीषण थी कि 580 लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी और 4473 लोग घायल हुए। इसके अलावा 5526 से ज्यादा लोग लापता हैं। व्यापक बचाव अभियान के दौरान, एक लाख 10 हजार लोगों को बचा लिया गया। 20 जून 2013 को राज्य आपदा सहायता कोष- एसडीआरएफ से राज्य सरकार को 145 करोड़ रुपये जारी किये गये। इसके साथ ही, 19 जुलाई 2013 को राष्ट्रीय आपदा सहायता कोष- एनडीआरएफ से अग्रिम तौर पर 250 करोड़ रुपये जारी किए गये। प्रधानमंत्री ने भी प्रधानमंत्री राहत कोष से मृतक के निकट संबंधी को 2 लाख रुपये और प्रत्येक घायल को 50 हजार रुपये की अनुग्रह राशि देने की घोषणा की।

राज्य पुलिस बलों का आधुनिकीकरण

राज्य पुलिस बलों की आधुनिकीकरण योजना को वित्तीय वर्ष 2012-13 से 2016-17 तक की पंचवर्षीय अवधि के लिए विस्तारि‍त किया गया है। इसमें गैर-योजना और योजना मद में खर्च के लि‍ए धन दि‍ए जाएंगे। गैर-योजना मद में पुलिस बलों को एक जगह से दूसरी जगह लाने और ले जाने के लिए (मोबिलीटी), हथि‍यार, उपकरणों, प्रशि‍क्षण के साजो-सामान, अपराध अनुसंधान उपकरण आदि‍ पर खर्च कि‍या जाएगा। जबकि‍ योजना बजट के अंतर्गत, पुलि‍स थानों/चौकि‍यों के नि‍र्माण/आधुनि‍कीकरण पुलि‍स लाईनों, पुलि‍स के लि‍ए आवासीय परि‍सरों, अपराध अनुसंधान प्रयोगशालाओं और प्रशि‍क्षण के लि‍ए बुनि‍यादी सुवि‍धाओं और भवन नि‍र्माण में कोष का इस्‍तेमाल कि‍‍या जाएगा।
योजना के तहत 12वीं योजना अवधि (2012-13 से 2016-17) के दौरान, गैर-योजनागत  खर्च के लि‍ए 8195.53 करोड़ रूपए जबकि‍ योजनागत खर्च के लि‍ए 3750.87 करोड़ रूपए आवंटि‍त कि‍ए गए हैं। मौजूदा वर्ष में पुलि‍स आधुनि‍कीकरण योजना के वास्‍ते गैर-योजनागत मद में 750 करोड़ रूपए जबकि‍ योजनागत मद में 1097 करोड़ रूपए व्‍यव का प्रावधान कि‍या गया। छ: शहरों- अहमदाबाद, मुम्‍बई, चैन्‍नई, हैदराबाद, कोलकाता और बंगलुरू में मेगा सि‍टी पुलि‍सिंग की स्‍वीकृति‍ दी गई है।

अपराध और आपराधी की पहचान और नि‍गाह रखने के लि‍ए‍ नेटवर्क और प्रणाली (सीसीटीएनएस)
अपराध और आपराधी की पहचान और उन पर नि‍गाह रखने के लि‍ए‍ नेटवर्क और प्रणाली-सीसीटीएनएस अभि‍यान प्रणाली योजना 2009 में मंजूर की गई थी। इसके लि‍ए 2009-12 के दौरान, शत-प्रति‍शत केंद्र प्रायोजि‍त योजना में 2000 करोड़ रूपए खर्च कि‍ए जाने का प्रावधान था। इस योजना का वि‍स्‍तार अब 31 मार्च 2015 तक के लि‍ए कि‍या गया है। सीसीटीएनएस की पायलट परि‍योजना की शुरूआत 04 जनवरी 2013 को की गई। यह 25 राज्‍यों/केंद्रशासि‍त प्रदेशों में लगभग 2000 सीसीटीएनएस केंद्रों को जोड़ेगी। इस योजना को लागू करने का काम तेजी पर है। वि‍भि‍न्‍न राज्‍यों/केंद्रशासि‍त प्रदेशों के सि‍स्‍टम इंटरग्रेटरों के साथ अनुबंध पर हस्‍ताक्षर कि‍ए गए हैं।

'उड़ान'- जम्‍मू-कश्‍मीर के लि‍ए वि‍शेष औद्योगि‍क पहल (एसआईआई)

गृह मंत्रालय ने जम्‍मू और कश्मीर के लि‍ए 'उड़ान' के नाम वाली विशेष औद्योगि‍क पहल की योजना शुरू की है। ये कॉरपोरेट ऑफ इंडि‍या (भारतीय उद्योग जगत) और गृह मंत्रालय के बीच भागीदारी पर आधारि‍त है। इसे राष्‍ट्रीय कौशल वि‍कास नि‍गम- एनएसडीसी के जरि‍ए क्रि‍यान्‍वि‍त कि‍या जा रहा है। इसमें अगली पंचवर्षीय योजना के दौरान, राज्‍य के 54 हजार से अधि‍क युवाओं को एनएसडीसी के सहयोग से लगभग 35 अग्रणी कॉरपोरेट प्रशि‍क्षि‍त करेंगे। 'उड़ान' के भागीदारों में सार्वजनि‍क क्षेत्र की अग्रणी इकाईयां जैसे एनटीपीसी, बीएचईएल, बीएसएनएल, ओएनजीसी, एचएएल, केनरा बैंक और नि‍जी संगठन जैसे वि‍प्रो, टीसीएस, एचसीएल टैक्‍नोलॉजीस्, इंफोसि‍स, बजाज एलाइंज्, सीएमसी, कोगनीजेंट, येस बैंक, फ्यूचर लर्निंग, आईएल एण्‍ड एफएस, सीआईआई, एडूस्‍पोर्टस, रेलीगेयर, एक्‍सेंचर, टाटा मोटर्स आदि‍ शामि‍ल हैं।

भारत और बंग्‍लादेश के बीच संशोधि‍त यात्रा प्रबंधन-आरटीए

भारत और बंग्‍लादेश के बीच मौजूदा वीजा नि‍यमों को उदार बनाने के उद्देश्‍य से दोनों देशों के बीच संशोधि‍त यात्रा प्रबंधनों-आरटीए पर ढ़ाका में 28 जनवरी 2013 को हस्‍ताक्षर कि‍ए गए। दोनों देशों में इस बात पर सहमति‍ बनी कि‍ राजनयि‍क और अधि‍कारि‍क पासपोर्ट धारक एक-दूसरे के मुल्‍कों में बि‍ना वीजा के 45 दि‍नों तक ठहर सकते हैं। कि‍सी तीसरे देश की यात्रा करने के लि‍ए वीजा का अनुरोध करने वाले बंग्‍लादेशी नागरि‍कों को दि‍ए जाने वाले डबल एंट्री वीजा की अधि‍कतम समय-सीमा तीन महीनें स्‍वीकार की गई है। ये सुवि‍धा ऐसे प्रतिनि‍धि‍ मि‍शनों के लि‍ए है जो भारत से बंग्‍लादेश के लि‍ए एक साथ प्रत्‍यायि‍त है। साथ ही उनको मेडि‍कल वीजा, दीर्घकालि‍क बहु-रोजगार वीजा और मल्‍टीपल एंट्री स्‍टूडेंट्स वीजा आदि‍ की सुवि‍धाएं भी उपलब्‍ध कराई गई हैं। इसके लि‍ए वीजा नि‍यमावली में आवश्‍यक परि‍पत्र संशोधन के प्रावधानों को शामि‍ल कि‍या गया है। नए संशोधि‍त यात्रा प्रबंधन प्रावधानों को 12 फरवरी 2013 को जारी कि‍या गया।

33वां एशि‍या-प्रशांत सुधारात्‍मक प्रशासक सम्‍मेलन-एपीसीसीए


33वां एशि‍या-प्रशांत सुधारात्‍मक प्रशासक सम्‍मेलन-एपीसीसीए 22-27 सि‍तंबर 2013 को नई दि‍ल्‍ली में आयोजि‍त कि‍या गया। सम्‍मेलन में 23 सदस्‍य देशों के शि‍ष्‍टमंडल और राज्‍यों/केंद्रशासि‍त प्रदेशों के प्रति‍नि‍धि‍यों ने भाग लि‍या। सम्‍मेलन में कारावास से संबंधि‍त प्रशासन, संगठनात्‍मक संस्‍कृति का समावेश‍, अपराधि‍यों द्वारा उत्‍पन्‍न उच्‍च जोखि‍मों से नि‍पटने और कारावास के वि‍कल्‍पों आदि‍ पर वि‍चार-वि‍मर्श कि‍या गया। प्रति‍नि‍धि‍मंडलों ने 23 सि‍तंबर 2013 को ति‍हार जेल का भी दौरा कि‍या। सम्‍मेलन में कि‍ए गए वि‍चार-वि‍मर्श के परि‍णामस्‍वरूप कई महत्‍वपूर्ण सुझाव और राय सामने आये। जिन्‍हें 2014 में कनाडा में अंति‍म रूप दि‍या जाएगा जाएगा।   

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