सोमवार, 19 अगस्त 2013

वस्त्र निर्यात : संभावनाएं

वस्त्र उद्योग भारत के विनिर्माण क्षेत्र का सबसे अधिक महत्वपूर्ण हिस्सा है, क्योंकि रोजगार की दृष्टि से इसका योगदान काफी ज्यादा है । भारतीय वस्त्र और कपड़ा क्षेत्र का औद्योगिक उत्पादन में लगभग 14 प्रतिशत और सकल घरेलू उत्पाद में 4 प्रतिशत का योगदान है । कुल निर्यात में इस समय इसका हिस्सा लगभग 11 प्रतिशत है । वस्त्र-निर्यात में सिले-सिलाये वस्त्र, सूती वस्त्र, मानव-निर्मित रेशे वाले वस्त्र, ऊन और ऊनी सामान, रेशम, हस्तशिल्प, कॉयर और पटसन शामिल हैं । 11वीं योजना के दौरान पहले 4 वर्षों में निर्यात का रुझान अलग-अलग रहा । मुख्य रूप से वैश्विक मंदी और आर्थिक संकट के कारण 2008-09 में निर्यात में गिरावट आई । मंदी के हालात में सुधार से वित्त वर्ष 2009-10 में निर्यात में 6.92 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई । 2010-11 और 2011-12 में भी सुधार जारी रहा और 2012-13 में स्थिरता बनी रही । वाणिज्य मंत्रालय ने निर्यात वृद्धि में तेजी लाने के लिए उपाय सुझाते हुए 2013-14 तक वस्त्र और कपड़ा क्षेत्र से 45.50 अरब अमरीकी डॉलर के निर्यात का लक्ष्य रखा है और इसके लिए 2011-12 से 2013-14 के तीन वर्षों के दौरान 27.72 प्रतिशत की वार्षिक यौगिक वृद्धि दर निर्धारित की है, ताकि व्यापार संतुलन घाटा और चालू खाता घाटा की जिम्मेदारियों से निपटा जा सके ।
11वीं पंचवर्षीय के रुझान से पता चलता है कि 11वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 55 अरब अमरीकी डॉलर के अनुमानित लक्ष्य के स्थान पर वस्त्र और कपड़ा क्षेत्र का निर्यात 32.35 अरब अमरीकी डॉलर रहने की संभावना है । वस्त्र क्षेत्र में बड़ी संख्या में लोग काम करते हैं इसलिए इस क्षेत्र में निर्यात को बढ़ावा देने तथा अधिक निवेश करने की आवश्यकता है । राष्ट्रीय रेशा-वस्त्र नीति के जरिए मानव-निर्मित रेशा-धागों और वस्त्रों के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए अलग से प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन सभी प्रकार के मूल्य संवर्धित रूपों में मानव निर्मित रेशा वस्त्रों के निर्यात को बढ़ावा देने की भी आवश्यकता है । दूसरी ओर भारत में कपास का उत्पादन भी काफी होता है और एक मजबूत कताई उद्योग भी है, इसलिए सूती धागों, वस्त्रों और कपड़ों के रूप में दुनिया भर में सूती वस्त्रों का निर्यात बढ़ाया जा सकता है ।
12वीं योजना के अंत तक 65 अरब अमरीकी डॉलर के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कपड़ा उद्योग में रेशे की मात्रा कम या ज्यादा रखना तथा उत्पादों में बहुत अधिक विविधता को देखते हुए विभिन्न उत्पादों के लिए अलग-अलग विकास नीतियां बनाने की आवश्यकता है । निर्धारित निर्यात लक्ष्यों को पूरा करने के लिए विभिन्न नीतियों के बारे में काफी चर्चा की गई है । समय की आवश्यकता है कि निर्यात में वृद्धि दर के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए निर्यातकों को पर्याप्त प्रोत्साहन दिया जाए, कि वे परंपरागत बाजारों में अपनी पैठ बढ़ाएं और जोरदार ढंग से नए बाजार भी तलाशें । इसी के साथ ही यह भी जरूरी है कि सीमा शुल्क को हटाने, करों में राहत देने और ब्याज में राहत देने की प्रोत्साहन योजनाओं को जारी रखा जाए । निर्यात से संबंधित बुनियादी ढांचे में सुधार, सौदों के लागत खर्च में कमी तथा सभी अप्रत्यक्ष करों और शुल्कों की राशि की पूरी वापसी इस क्षेत्र के नीतिगत सुधारों के 3 महत्वपूर्ण पहलू हैं ।
पर्यावरण हितैषी उत्पादों और हरित प्रौद्योगिकी पर विशेष जोर देते हुए प्रौद्योगिकी उन्नयन पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है । वस्त्र अनुसंधान संघों को भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए कि वे विदेशों की जांच प्रयोगशालाओं और अन्य उपयोगी संस्थाओं के साथ तालमेल रखें ।
विभिन्न उत्पाद निर्यात क्षेत्रों में वांछित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए विचार-विमर्श के दौरान विभिन्न क्षेत्रों की विस्तृत नीतियां बनाई गईं । यह बात उल्लेखनीय है कि कपड़ा क्षेत्र में सिले-सिलाए वस्त्रों का क्षेत्र निर्यात की दृष्टि से अकेला सबसे बड़ा क्षेत्र है । यह एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें विकास की सबसे अधिक संभावनाएं हैं । जहां एक ओर उत्पादन क्षमताओं को बढ़ाने की काफी जरूरत है, वहीं दूसरी ओर इस क्षेत्र में क्षमता निर्माण के जरिए निर्यात बढ़ाने की विशाल संभावनाएं भी मौजूद हैं ।
भारत के मानव निर्मित रेशा वस्‍त्र उद्योग का विशाल उत्‍पादन आधार है, जिसके साथ कच्‍चे माल के उत्‍पादन का भी का विशाल आधार है, जो आत्‍मनिर्भर है। उच्‍च विकास के लक्ष्‍यों को प्राप्‍त करने के लिए और भारत के मानव निर्मित रेशा-वस्‍त्रों की स्‍पर्धात्‍मकता बढ़ाने के लिए, यह आवश्‍यक है कि विश्‍व के महत्‍वपूर्ण क्षेत्रों जैसे लेटिन अमरीका के मर्कोसुर देशों, मिस्र और मोरक्‍को, रूस और उज्‍बेगिस्‍तान के साथ शुल्‍क दरों के ढांचे को कम करने के लिए बातचीत की जाए । पर्याप्त कच्चा माल उपलब्ध होने, बहुत पुराने समय से दस्तकारी और डिजाइन की परंपरा होने तथा वस्त्रों के उत्पादों की पूरी श्रृंखला होने के कारण भारत कपास के क्षेत्र में बुनियादी तौर पर लाभ की स्थिति में है । वस्त्र क्षेत्र की निर्यात स्पर्धा-क्षमता पर बिजली आपूर्ति की लागत और विश्वसनीयता, प्रचालन-तंत्र और लेन-देन की लागत का काफी असर पड़ता है । निर्यात को बढ़ावा के लिए यह जरूरी है कि राष्ट्रीय रेशा-वस्त्र नीति के अंतर्गत कपास के रेशे की स्पर्धा-क्षमता को बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए तथा कपास के सभी उपक्षेत्रों के सतत विकास के लिए देश की क्षमता के न्याय संगत और कुशल उपयोग को सुनिश्चित करना चाहिए ।
पटसन उद्योग को बढ़ावा देने के लिए बड़े पैमाने पर नई प्रौद्योगिकी वाली मशीनों के उपयोग के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए । आपूर्ति व्यवस्था में सुधार के लिए पटसन प्रौद्योगिकी मिशन की मौजूदा स्कीमों को सुचारु रूप से चलाकर भी उत्पादन को बढ़ावा दिया जा सकता है और कच्चे पटसन की गुणवत्ता में सुधार लाया जा सकता है । रेशम उद्योग को बढ़ावा देने के लिए रेशम के कीड़ों की ऐसी प्रजातियों को विकसित करने की आवश्यकता है, जो न केवल सूखा या जलवायु परिवर्तन की परिस्थितियों को झेल सकती हों, बल्कि रोगों का भी मुकाबला कर सकती हों और अधिक उत्पादन भी देती हों । इसके साथ ही अनुसंधान और विकास की गतिविधियों को बेहतर ढंग से चलाने के लिए समयबद्ध और निश्चित परिणाम देने वाली योजनाओं को चलाना होगा । रेशम के कृमिकोषों के उत्पादकों को बेहतर दाम उपलब्ध कराने के लिए इसके मूल्यन की प्रणाली को बेहतर बनाने की आवश्यकता है । ऊन क्षेत्र विश्व में स्पर्धा के योग्य बने, इसके लिए जरूरी है की ऊनी धागों और वस्त्रों पर आयात शुल्क को युक्ति-संगत बनाया जाए । गैर-वित्तीय प्रयासों के अंतर्गत देश के पहाड़ी इलाकों में ऊन उत्पादन पर ध्यान दिया जाना चाहिए । ऊन उद्योग को बड़े ऊन उत्पादक देशों के साथ संयुक्त अनुसंधान परियोजना चलानी चाहियें, और सरकार को इसमें आवश्यक सहायता देनी चाहिए । अनुसंधान में नस्ल सुधार तथा रोग-रहित नस्लों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए । विशिष्ट रेशों का देश में विकास, घरेलू बाजार यानि तकनीकी वस्त्र विनिर्माताओं की मांग पर निर्भर है । इसलिए विशिष्ट रेशा वस्त्रों की मांग बढ़ाने के साथ-साथ यह भी जरूरी है कि तकनीकी वस्त्र उत्पादों पर भी ध्यान दिया जाए, ताकि भारत में इसकी खपत और उत्पादन बढ़े । सरकार इसके लिए एक योजना बनाने पर विचार कर सकती है, जिससे कि भारतीय और विदेशी कंपनियां विशिष्ट रेशों के निर्माण की व्यवस्था कर सकें । इससे भारतीय तकनीकी वस्त्र उद्योग के लिए कच्चे माल का आधार मजबूत हो जाएगा । प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और उद्योग में नई प्रौद्योगिकियों के इस्तेमाल के लिए रेशम के कीड़े के अंडे सेने के केंद्र भी स्थापित किए जा सकते हैं । देश में तकनीकी वस्त्रों की खपत बढ़ाने के लिए सरकार को इनके इस्तेमाल और लाभों के बारे में जागरूकता पैदा करनी चाहिए ।
कपड़ा मंत्रालय से प्राप्त विवरण से पता चलता है कि कुल वस्त्र उत्पादन में बढ़ोतरी के बावजूद अप्रैल-मई 2013 के दौरान कपड़ा उद्योग के लगभग सभी उपक्षेत्रों में विकास हुआ । दूसरी ओर प्रौद्योगिकी उन्नयन कोष योजना, जिसकी शुरुआत 1 अप्रैल 1999 को हुई थी, से 2,43,721 करोड़ रुपये से अधिक का निवेश हुआ है । 2012-13 के दौरान इस योजना के अंतर्गत 2,323.03 करोड़ रुपये आवंटित और 2,151.35 करोड़ रुपये वितरित किए गए । योजना आयोग ने अब 12वीं पंचवर्षीय योजना में 11,952.80 करोड़ रुपये का आवंटन किया है । इस पुनर्निर्मित योजना से 12वीं योजना के दौरान लगभग डेढ़ लाख करोड़ रुपये का और निवेश होने की संभावना है । इस वर्ष के शुरू में अप्रैल में समन्वित वस्त्र पार्क योजना के अंतर्गत स्वीकृत 21 नए वस्त्र पार्कों की शुरुआत की गई । इनमें से 6 महाराष्ट्र में, 4 राजस्थान में, 2-2 आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में और 1-1 वस्त्र पार्क उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, कर्नाटक, गुजरात, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में है । वाणिज्य मंत्रालय के साथ तकनीकी वस्त्र निर्माण यूनिटों के रुप में 10 प्रतिशत पूंजी सब्सिडी का लाभ लेने के लिए अब तक 750 यूनिटों ने पंजीकरण कराया है, जिनका प्रस्तावित मशीनों में कुल निवेश लगभग 4289.9172 करोड़ रुपये है ।


PIB

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