बुधवार, 31 जुलाई 2013

भारत को एक फिल्‍म हब और स्‍थल बनाने को प्रोत्साहन देने के लिए एकल खिड़की को स्‍वीकृति

सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत और विदेशी फिल्‍म निर्माताओं के लिए भारत में फिल्‍मों की शूटिंग की स्‍वीकृति प्राप्‍त करने हेतु एक संकलित 'मानक संचालन प्रक्रिया' (एसओपी) को बनाने की दिशा में काम करेगा। इस प्रक्रिया में प्रत्‍येक महत्‍वपूर्ण हितधारक को शामिल करने के लिए संस्‍थागत और मानक मानदंडों का पालन किया जाएगा। एसओपी में चिह्नित मानदंडों में स्‍पष्‍ट रूप से फिल्‍म शूटिंग के लिए आवश्‍यक स्‍वीकृति, समय सीमा, अनुमति के संदर्भ में महत्‍वपूर्ण हितधारकों के उत्‍तरदायित्‍व की पहचान की जाएगी। सूचना और प्रसारण सचिव श्री बिमल जुल्‍का ने आज 'भारत में फिल्‍म शूटिंग के लिए एकल खिड़की स्‍वीकृति' पर राष्‍ट्रीय कार्यशाला के उद्घाटन समारोह को सम्‍बोधित कर रहे थे।

मंत्रालय की पहल के संदर्भ में सचिव महोदय ने उल्‍लेख किया कि एकल खिड़की स्‍वीकृति प्रणाली को संचालित करने के लिए मंत्रालय एक समर्पित ऑनलाइन पोर्टल बनाने की प्रक्रिया में है। इस वेबसाइट में शूटिंग के लिए विभिन्‍न आवश्‍यकताओं जैसे सीमा शुल्‍क स्‍वीकृति, वीजा, सांस्‍कृतिक संवेदनशीलता आदि विषयों पर आंकड़े भी उपलब्‍ध होंगे। वेबसाइट में आवेदकों के लिए राज्‍यवार सुविधाएं जैसे परिवहन, आतिथ्‍य, चिकित्‍सा और स्‍थानीय जानकारी भी उपलब्‍ध होंगी।

बदले हुए संचार परिप्रेक्ष्‍य में सामाजिक मीडिया की महत्‍ता का उल्‍लेख करते हुए श्री जुल्‍का ने कहा कि एकल खिड़की स्‍वीकृति तंत्र पर प्रमुख हितधारकों के साथ सक्रिय जुड़ाव और बातचीत की सही सूचना और सुविधा उपलब्‍ध कराने के लिए मीडिया के नए मंचों का सक्रिय रूप से उपयोग भी किया जाएगा। इससे ऑनलाइन आवेदन प्रक्रिया बिना किसी रुकावट के संचालित किया जा सकेगा।

इस अवसर पर संयुक्‍त सचिव (फिल्‍म) श्री राघवेन्‍द्र सिंह ने भारतीय फिल्‍म उद्योग के विकास का उल्‍लेख करते हुए भारत में फिल्‍म निर्माण की सुविधाओं पर एक प्रस्‍तुति भी दी। उन्‍होंने बताया कि घरेलू थियेटर राजस्‍व में 24 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और इसने 124 बिलियन रुपये अर्थात 76 प्रतिशत तक का योगदान दिया है।


दिनभर चलने वाली कार्यशाला के दौरान केन्‍द्र, राज्‍य सरकार के प्रतिनिधियों, वरिष्‍ठ अधिकारियों, फिल्‍म निर्माताओं, फिक्‍की जैसे संगठनों के प्रतिनिधियों और इस क्षेत्र से जुड़े प्रमुख विभागों एवं संगठनों के विभिन्‍न हितधारकों के बीच महत्‍वपूर्ण विषयों पर विचार-विमर्श किया गया। अपनी तरह की इस पहली कार्यशाला के आयोजन से फिल्‍म निर्माण के क्षेत्र में आने वाली बाधाओं और इसके लिए दी जाने वाली सुविधाओं के साथ-साथ अनुभवों की भी समीक्षा की गई।  

एलटीयू- बड़े करदाताओं को एक ही जगह कर भुगतान की व्‍यवस्‍था

केंद्रीय वित्‍त मंत्री ने 2005-06 में अपने बजट भाषण के दौरान देश में बड़े करदाताओं के लिए इकाइयां (एलटीयू) स्‍थापित करने के प्रस्‍ताव की घोषणा की थी। इसका उद्देश्‍य सभी बड़ी कंपनियों को उत्‍पाद शुल्‍क, कॉरपोरेट कर, आयकर और सेवा कर भुगतान के लिए  एक ही जगह व्‍यवस्‍था उपलब्‍ध कराना है।
पहली एलटीयू की स्‍थापना बंगलौर में की गई थी जिसने 3 अक्टूबर, 2006 को कामकाज शुरू किया था। उसके बाद 1 दिसंबर, 2007 को चेन्‍नई , 27 मार्च, 2008 को मुम्‍बई और 2 जून, 2008 को दिल्‍ली में एलटीयू का संचालन शुरू हुआ था।
एलटीयू क्‍या है?
एलटीयू  राजस्‍व विभाग के अंतर्गत स्‍वत: पूर्ण  कर प्रशासन कार्यालय है जो केंद्रीय उत्‍पाद शुल्‍क्‍, आयकर/कॉरपोरेट कर और सेवा कर से संबंधित सभी मामलों के लिए एक ही जगह स्‍वीकृति संबंधी व्‍यवस्‍था उपलब्‍ध कराना है। कंपनियां ऐसे एलटीयू में उत्‍पाद रिटर्न, प्रत्‍यक्ष कर रिटर्न और सेवा कर रिटर्न  दाखिल कर सकती है। इन इकाइयों में प्रत्‍यक्ष और अप्रत्‍यक्ष कर/ शुल्‍क भुगतान, दस्‍तावेज और रिटर्न दाखिल करने, रिबेट/ रिफंड का क्‍लेम करने, विवादों का निपटारा आदि से संबंधित सभी मामलों में कर दाताओं को सहयोग के लिए आधुनिक सुविधाएं तथा प्रशिक्षित लोग उपलब्‍ध हैं।इस योजना का उद्देश्‍य कर अनुपालन लागत तथा कर/शुल्‍क निर्धारण के मामलों में समानता लाना है। एक पात्र करदाता एलटीयू योजना की सुविधा प्राप्‍त कर सकता है।
एलटीयू की स्‍थापना और प्रशासन  
लार्ज ट्रांसफर यूनिट की अध्‍यक्षता मुख्‍य आयुक्‍त करते हैं। एलटीयू में आयुक्‍तों को तैनात किया जाता है जिनके पास कार्यकारी और अपीलीय प्रभार होते हैं। इनके अधिकार और कार्य अन्‍य फील्‍ड कमीशनरों के जैसे होते हैं।मुख्‍य आयुक्‍त, एलटीयू में तैनात अपर/संयुक्‍त/उप/सहायक आयुक्‍त में से किसी को प्रत्‍येक कर दाता के लिए क्‍लाइंट एक्‍जिक्‍यूटिव के रूप में नियुक्‍त करता है।
एलटीयू में तैनात अधिकारियों के पास बड़े करदाता के सभी पंजीकृत संपत्ति के संबंध में  अखिल भारतीय अधिकार क्षेत्र है। पूर्व केंद्रीय उत्‍पाद और सेवा कर आयुक्‍तालय अधिकाररियों के पास समवर्ती अधिकार-क्षेत्र है।
एलटीयू आयकर अधिनियम, 1961, धन कर अधिनियम और कानून (प्रत्‍यक्ष कर के संदर्भ में), केंद्रीय उत्‍पाद अधिनियम, 1944 और नियम (केंद्रीय उत्‍पाद मामलों के संदर्भ में), सीमा अधिनियम/नियम (उत्‍पाद अधिकारियों द्वारा किए जाने वाले कामकाज के संदर्भ में), वित्‍त अधिनियम, 1994 तथा सेवा कर अधिनियम (सेवा कर मामलों के संदर्भ) के तहत वर्तमान में अनिवार्य सभी कानूनी कामकाज करता है। एलटीयू के प्रशासन में एलटीयू के मुख्‍य आयुक्‍त और आयुक्‍त सक्रिय भूमिका अदा कर सकते हैं।
एलटीयू के तहत पंजीकरण की पात्रता बड़े कारदाता जो 30.09.2006 की अधिसूचना में उल्लिखित थ्रेशहोल्‍ड लिमिट से अधिक प्रत्‍यक्ष और अप्रत्‍यक्ष कर का भुगतान करते हैं वे निम्‍नलिखित नियमों के अनुसार एलटीयू कि तहत पंजीकरण के पात्र हैं:
कोई व्‍यक्ति जो विनिर्माण या वस्‍तुओं का उत्‍पादन करता है या कर योग्‍य सेवा देता है जिसने वित्‍तीय वर्ष 2004-05 या एलटीयू के तहत पंजीकरण के लिए आवेदन दाखिल करने वाले वर्ष के पूर्ववर्ती वित्‍तीय वर्ष के दौरान भुगतान किया है।

·         नकद या चालू खाते के जरिए पांच करोड़ रूपए से अधिक‍का उत्‍पाद शुल्‍क; या
·         नकद या चालू खाते के जरिए पांच करोड़ रूपए से अधिक का सेवा कर या
·         आयकर अधिनियम, 1961 के तहत 10 करोड रूपए से अधिक का अग्रिम कर।
एलटीयू के तहत पंजीकरण की पद्धति
एलटीयू के तहत पंजीकरण के लिए बड़े करदाता को एलटीयू प्रमुख के पास सहमति पत्र दाखिल करना होता है, उसके बाद उनकी फॉर्म संबंधी स्‍वीकृति की प्रक्रिया और अधिकार-क्षेत्र का स्‍थानांतरण होता है।
बड़े करदाता कम से कम 30 दिन पहले सूचित करके निम्‍नलिखित वित्‍तीय वर्ष के पहले दिन से बड़े करदाता में शामिल हो सकता है।
बड़े करदाता के लिए लागू विभिन्‍न प्रावधान  
जब बड़े करदाता एलटीयू के तहत पंजीकरण कराता है तो  सेवा कर, उत्‍पाद और सीईएनवीएटी क्रेडिट यथोचित परिवर्तन सहित इस पर लागू होंगे जैसे वह निम्‍नलिखित के विषयाधीन अन्‍य कर निर्धारिती पर लागू होते हैं :
1. केंद्रीय उत्‍पाद नियम, 2002 के नियम 12बीबी के तहत भुगतान किए गए अतिरिक्‍त शुल्‍क के सेल्‍फ-एडजस्‍टमेंट के संबंध में प्रावधान लागू होते हैं जिसमें बड़े करदाता की विनिर्माण उत्‍पाद शुल्‍क योग्‍य वस्‍तुओं को अनुवर्ती अवधि में उसके द्वारा भुगतान की जाने वाले अतिरिक्‍त शुल्‍क में जोड़ने की अनुमति होती है।
2. सीईएनवीएटी के नियम 12 ए (4)  के तहत क्रेडिट के स्‍थानांतरण के संबंध में प्रावधान उसके किसी भी अन्‍य विनिर्माण और सेवा देने वाली इकायों पर लागू होते हैं।
3. सेवा कर रिटर्न दाखिल करने के संबंध में प्रावधान
4. केंद्रीय उत्‍पाद नियम, 2002 के नियम 12 बीबी और सीईएनवीएटी क्रेडिट नियम, 2004 के नियम 12 ए के तहत मध्‍यवर्ती वस्‍तुओं/ पूंजी वस्‍तुओं के स्‍थानांतरण के संबंध में प्रावधान लागू होते हैं। यह छूट कुछ शर्तों के साथ लागू होती हैं।      
5. निर्यात किए जाने वाले माल को सील बंद करने संबंधी प्रक्रिया : सभी बड़े करदाताओं के लिए निर्यात किए जाने वाले माल को स्‍वयं सील बंद करने की सुविधा उपलब्‍ध है। निर्यात के सबूत को स्‍वीकार करने की प्रक्रिया केवल बड़े करदाता इकाइयों (एलटीयू) के कार्यालय में ही पूरी की जाएगी। तथापि, प्रक्रिया में किसी प्रकार की कमी के कारण निर्यात किए जाने वाले माल को किसी भी हालत में रोका नहीं जाएगा। सीमा शुल्‍क अथवा केंद्रीय उत्‍पाद शुल्‍क संबंधी क्षेत्रीय अधिकारी द्वारा सील बंद करने की सुविधा पहले की तरह जारी रहेगी।
लेखा-परीक्षा प्रक्रिया :  किसी बड़े करदाता की जिसे हर वर्ष लेखा-परीक्षा करानी होती है, सामान्‍यता हर वर्ष लेखा-परीक्षा नहीं की जाएगी। मुख्‍य कार्यालय और सभी इकाइयों की लेखा-परीक्षा यथासंभव साथ-साथ की जाएगी। जहां तक वित्‍तीय रिकॉर्ड के उत्‍पादन का संबंध है बड़े करदाता को मांगने पर वित्‍तीय भंडारों और सेनवेट ऋण रिकॉर्ड इलेक्‍ट्रॉनिक रूप में जैसे कम्‍पैक्‍ट डिस्‍क अथवा टेप के रूप में उपलब्‍ध कराई जा सकती है, ताकि आवश्‍यकतानुसार जांच की जा सके।

योजना की स्‍वीकार्यता : बड़े करदाता इकाई (एलटीयू) योजना अखिल भारतीय स्‍तर पर 28 बड़े करदाताओं के साथ आरंभ की गई थी। इस समय 4 एलटीयू में 174 इकाइयां पंजीकृत हैं, इनमें बहु-स्‍थानीय ग्राहक, केंद्रीय उत्‍पाद शुल्‍क पंजीयक और सेवा कर पंजीयक शामिल हैं। एलटीयू ने बंगलुरू में वर्ष 2012-13 के दौरान मात्र 12029 करोड़ रूपये का वार्षिक राजस्‍व एकत्र किया। इस योजना को शुरू किए जाने वाले वर्ष 2006-07 में 2369 करोड़ रूपये एकत्र हुए थे।

एलटीयू के अंतर्गत पंजीकरण के लाभ : एलटीयू के अधीन पंजीकृत करदाता को कई सुविधाएं प्राप्‍त होती है।

(क)  बड़े करदाता को (पेन आधारित इकाई) एक स्‍थान पर दस्‍तावेज जमा करने की सुविधा: वह अपने सभी प्रत्‍यक्ष कर, उत्‍पाद और सेवा शुल्‍क रिटर्न के साथ-साथ सभी दस्‍तावेज, पत्र-व्‍यवहार, सूचनाएं जैसे निर्यात/आयात संबंधी केंद्रीय उत्‍पाद शुल्‍क दस्‍तावेज, बॉन्‍ड, निर्यात के प्रमाण आदि से संबंधित सभी दस्‍तावेज एलटीयू के पास जमा कराएं जा सकते है।

(ख)  एलटीयू में शामिल होने पर एक स्‍थान पर वरिष्‍ठ स्‍तरीय वार्तालाप: सहायक/उप/संयुक्‍त/अपर आयुक्‍त के स्‍तर का एक अधिकारी किसी/सभी कर संबंधी मामलों में सहायता के लिए ग्राहक कार्यकारी के रूप में नियुक्‍त किया जाएगा। इस कारण करदाता को एलटीयू के विभिन्‍न विभाग/अधिकारियों के साथ बातचीत करने की आवश्‍यकता नहीं है।

(ग)   एक बार कोई करदाता एलटीयू योजना का चुनाव कर लेता है तो पहले का सीमा क्षेत्र अधिकारी अपनी ओर से उस इकाई का दौरा नहीं करेगा और न ही उससे उत्‍पन्‍न किसी मामले पर बातचीत करेगा। तथापि, केन्‍द्रीय उत्‍पाद शुल्‍क नि‍यमों के अधीन इकाई के कार्यालय अथवा दस्तावेजों के व्‍यावहारि‍क नि‍यंत्रण और सत्‍यापन का कार्य एलटीयू के स्‍पष्‍ट नि‍र्देशों के तहत कमिश्‍नर के स्‍थानीय कार्यालय द्वारा कि‍या जाएगा।

(घ)    करदाता को इस बात की छूट होगी कि वह एक विनिर्माण इकाई अथवा सेवा में जमा केनवेट की आवश्‍यकता से अधिक राशि (केंद्रीय उत्‍पाद शुल्‍क अथवा सेवा कर की) अधिक राशि को एक सरल तरीके से अपनी पसंद की किसी दूसरी पात्र इकाई को स्‍थानंतरित कर सके।

(ङ)   पूंजीगत माल का बिना कर-उलटाव के लदान : एलटीयू करदाता को इस बात की सुविधा होगी की वह पूंजीगत माल को एक इकाई से अपनी पसंद की दूसरी इकाई में एक साधारण तरीके के जरिए कर-उलटाव की अदायगी के बिना ले जा सकता है। इसी प्रकार, एक इकाई का तैयार माल बिना शुल्‍क अदा किए दूसरी इकाई में हस्तांतरित कर सकता है। पर उसमें शर्त यह होगी कि दूसरी इकाई उस वस्‍तु को उत्‍पाद के तौर पर प्रयोग में लाएगी और उससे तैयार माल पर उत्‍पाद शुल्‍क अदा करेगी।

(च)   करदाताओं को अनिवार्य रूप से लेखा-परीक्षा के लिए नहीं कहा जा सकता। लेखा- परीक्षा के लिए करदाता का चयन खतरे के आकलन पर आधारित होगा। विभाग यह सुनिश्चित करेगा कि लेखा-परीक्षा करने वालों का चयन करदाताओं की सलाह से किया जाए ताकि करदाता को कम से कम असुविधा हो।

(छ)  यह सुनिश्चित किया जाएगा कि करदाता की विभिन्‍न इकाइयों के लिए वर्गीकरण, मूल्‍यांकन, ऋण की उपलब्‍धता और इससे मिलते-जुलते अन्‍य मामलों के साथ व्‍यवहार में एकरूपता अपनाई जाएगी। एलटीयू द्वारा व्‍यापार नोटिस एक स्‍थान से जारी किए जाएंगे।

(ज)  छूट/रिफंड के दावे यदि सही है तो उनका समयबद्ध तौर पर 30 दिन के भीतर निपटान किया जाएगा।

(झ)  स्‍वचालन का प्रयोग : रिफंड इलेक्‍ट्रॉनिक तरीके से जमा किए जा सकते है और करों की अदायगी भी इलेक्‍ट्रॉनिक तरीके की जा सकती है। संचार या पत्र व्‍यवहार के लिए ई-मेल के अधिकाधिक प्रयोग को प्रोत्‍साहित किया जा रहा है।

(ञ)   विवादों के निपटान के लिए संवादमूलक दृष्टिकोण अपनाया जाता है। कारण बताओं का कोई नोटिस जारी करने से पहले यथासंभव विवाद को बातचीत के जरिए हल किया जाता है।

एलटीयू संबंधी संयुक्‍त समिति
एलटीयू के प्रशासनिक मुद्दों की जांच के लिए अगस्‍त, 2012 में एक संयुक्‍त समिति गठित की गई थी ताकि उन्‍हें अधिक कारगर और कुशल बनाया जा सके। समिति की प्रमुख सिफ़ारिशें इस प्रकार है:-
आईसीएआई, आईआईएमएस/एमडीआई जैसी सुप्रसिद्ध संस्‍थाओं के उच्‍च-अधिकारियों (अधीक्षक/निरीक्षक) को वित्‍तीय लेखांकन में प्रशिक्षण
आसूचना एंजेसियों में समन्‍वय स्‍थापित करने और गुप्‍त जानकारी एकत्र करने के लिये प्रत्‍येक एलटीयू में अनुसंधान और कारोबार आसूचना इकाइयां बनाई जाएंगी

50 बड़े करदाताओं के प्रशासन का काम देखने के लिए प्रत्‍येक एलटीयू में 12 लेखा-परीक्षा समूहों का गठन। बड़े शहरों में एलटीयू इकाइयों की लेखा-परीक्षा करने के लिए एलटीयू लेखा-परीक्षा समूह बनाएं जा सकते है। ये सीधे एलटीयू आयुक्‍त के निरीक्षण में काम करेगे। साथ ही कोलकाता, हैदराबाद, पुणे और अहमदाबाद में अतिरिक्‍त एलटीयू भी गठित किए जा सकते है क्‍योंकि इन क्षेत्रों में बड़े करदाताओं की संख्‍या अधिक है।      

मंगलवार, 30 जुलाई 2013

Pichwai Painting In India

Pichwai literally means ‘at the back’. These paintings are lyrical creations on cloth which hangs in form of a background to Srinathji’s idol in the sanctum sanctorum at Nathdwara as well as in other temples of Krishna. Pichwai paintings are forms of traditional artworks, having roots in Rajasthan. As compared to Phads that are another form of paintings of Rajasthan, Pichwais are known to have more detail and are refined more. As you scroll down, the account will present you with more information about these religiously beautiful paintings.

Origin and Development
Pichwai paintings came into light when the sect Vallabhaichari fashioned 24 iconographic for Krishna’s image backdrop at Nathdwara. Every image of this work has connection to a specific celebration or festival. Initially, the Pichwai art consisted of cloth which was starched and handspun. It was dipped in colors made from minerals and vegetables like indigo, orpiment, cochineal and lapis. The colors underwent changes with the course of time as the art received a dash of contemporary taste. Today, fabric colors are also used for these paintings.

Subjects
Chiefly, Shrinathji along with his exploits form the subject of the paintings. Rooted deeply in religion, these artworks are carried out with the greatest dedication of artists. Subjects or themes such as Holi, Govardhan Puja or Annakut and Raas Leela are also visible on relevant occasions. Themes or subjects vary as per the season and its dispositions. For instance, paintings of summers have pink lotuses; Sharad Purnima illustrates a night scene having a shining full moon.

Style
The painting style springs from the Nathdwara School. Big eyes, wide nose and heavy body characterize the works. The Pichwai format is static. Even the natural components seem frozen here. Elements such as moon, lighting, stars and sun also get prominent place in painting. Deceptive simplicity of these paintings, veils sheets of symbolism and significance.

Colors, Tools and Techniques
Pichwai works are printed, painted using hand blocks, embroidered or adorned, woven in appliqué. Created in rich dark colors, they are done on rough cloth which is hand spun. They employ flamboyant embroidery and silhouettes are usually dark colored. Stitching incorporates colors such as green, cream, yellow and black while red is the most used color for backdrop. Gold thread is also used by a number of painters when they design their creativity. Pure gold makes the paintings shine with enhanced charm and value. White color is employed for highlighting the outline.

The painter roughly sketches on a starched piece of cloth and fills it with colors then. A painting may take a few weeks to few months to be prepared. Conventionally, colors from natural sources and brushes made of goat, squirrel or horse hair were employed. But, today less pricey and quick materials are used. Scores of paintings are dipped in natural colors today even. The traditional fashion has not vanished.

Artists
A few artists among the prominent ones of Pichwai paintings include Shyam Sunderji Sharma, Shivji Ram Mali and Yug Deepak Soni.

Artworks
Out of many captivating Pichwais, some include artworks illustrating pageant of the life of Krishna. Several of them are purely poetry in paints whereas some are flamboyant Ras Leela vignettes. A small number of Pichwai artworks showcase moments of philosophy in story of Krishna like Vishvaroopam.


Rajasthan has great pride for its grand history and rich culture. Through its artworks, its esteem towards its heritage is easily reflected. Such legacy pride and delight can be seen in Pichwai paintings. They are now available in smaller versions also, so that you can take them home as souvenirs. 

आंतरिक सुरक्षा के बढ़ते खतरे

आज देश की आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था चरमराई और बाहरी सुरक्षा पर भी खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। इन हालात के लिए मुख्य रूप से राष्ट्र में अंदरुनी बढ़ती हिंसा, जेहादी उग्रवाद, माओवाद, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, आर्थिक असमानता, नेताओं की वोट की राजनीति उत्तरदायी है। पड़ोसी देशों से हो रही घुसपैठ, चीनी अतिक्रमण से भी राष्ट्र की सीमा को खतरा पैदा हो गया है।
बंगाल के एक गांव से शुरू हुआ नक्सलवाद का तांडव आज राष्ट्र के 22 राज्यों में फैल चुका है। किसी भी समस्या का निदान कभी बंदूक की नाल से नहीं निकलता। निदान के लिए जरूरी है कि समस्या की जड़ तक जाया जाए। भटके नवयुवा को राहे रास्ते लाने के लिए उसे रोजगार के अवसर, न्याय, विकास की सीढ़ी उपलब्ध करवाकर मानवता का रास्ता दिखाया जाए। लेकिन हमारे राजनैतिक दल स्वार्थवश ऐसा नहीं होने देते।
हाल ही में छत्तीसगढ़ में घटी घटना जिसमें प्रदेश के दरभा क्षेत्र में 26 कांग्रेस नेताओं की जघन्य हत्या हुई, इसका एक ज्वलंत उदाहरण है। यह हमला इस तथ्य को रेखांकित करता है कि आज राष्ट्रीय आतंक विरोधी केंद्र बेहद जरूरी है।
राष्ट्र में हो रही जातीय व सांप्रदायिक हिंसा में भी आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था प्रभावित हो रही है, जिसको पाकिस्तानी कट्टरपंथियों व दलगत राजनीति का पूर्ण सहयोग प्राप्त है। राजनीतिक हस्तक्षेप सुरक्षा बलों को अक्षम बना रहा है। वर्ष 1994 तक अकेले जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों के खिलाफ 988 शिकायतें दर्ज करवाई गईं, जिसमें से 965 शिकायतों की जांच के बाद 940 आरोप गलत साबित हुए। नेताओं द्वारा अपने स्वार्थ के लिए इस प्रकार की सुरक्षा बलों की कार्रवाई पर की जाने वाली बयानबाजी आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा उत्पन्न कर रही है।
राष्ट्र में निरंतर बढ़ रही बेरोजगारी युवा वर्ग में भविष्य के प्रति असुरक्षा व निराशा की भावना उत्पन्न कर रही है। नक्सलवाद से प्रभावित बिहार, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में बढ़ती हुई बेरोजगारी के साथ-साथ आर्थिक विकास का अभाव व भुखमरी भी माओवाद का मुख्य कारण है। आज भी इन क्षेत्रों में 70 प्रतिशत जवान अनपढ़ व बेरोजगार हैं। इनकी दयनीय आर्थिक स्थिति व अशिक्षा का लाभ उठाकर माओवादी इन्हें अपने गिरोह में शामिल कर रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार आज अधिकतर राज्यों में माओवादी संगठनों ने लगभग 40 हजार स्थायी सदस्य व 1 लाख अतिरिक्त सदस्य बना रखे हैं। अब महिलाएं भी आंतकवादी सगंठनों में शामिल हो रही हैं।
आंतरिक सुरक्षा के अन्य पहलू आर्थिक अव्यवस्था व आर्थिक असमानता में भी सुधार किया जाना बहुत जरूरी है। देश में बढ़ता हुआ भ्रष्टाचार भी राष्ट्रीय सुरक्षा, अमन व स्वतंत्रता के लिए खतरे का संदेश है। भारतीय सैन्य व सुरक्षा बलों में आज युवा वर्ग का लगाव काफी कम हो गया है। देश की सुरक्षा में लगे सात केंद्रीय सुरक्षा बलों में तकरीबन 1 लाख सैनिकों तथा सैन्य सेवाओं में करीब 12 हजार अफसरों की कमी है। युवाओं का घटता रुझान भी आंतरिक सुरक्षा के लिए बेहद चिंता का विषय है।
राष्ट्र के खुफिया तंत्र के अनुसार नक्सलियों के लश्करे-तोएबा तथा अन्य इस्लामी आतंकवादी संगठनों से संबंध बढ़ते जा रहे हैं और इसे चीन का पूर्ण संरक्षण प्राप्त है। पशुपति से तिरुपति तक रैड-कारीडोर स्थापित करने की चीन की मंशा है। पाकिस्तान की आईएसआई इन्हें पूरा सहयोग दे रही है। गत 5 वर्षों में सुरक्षा बलों सहित 3836 निर्दोष व्यक्ति नक्सली हिंसा का शिकार हो चुके हैं। इससे पता चलता है कि इसमें हमारे खुफिया तंत्र की नाकामी और केंद्र व राज्यों के बीच तालमेल की कमी है।
नक्सलियों की आंतकी कार्रवाई के दौरान गत पांच वर्षों में 260 स्कूल ध्वस्त किए गये। माओवादियों द्वारा वर्ष 2011 में ही 124 सुरक्षा बलों के जवानों सहित 500 से अधिक आमजनों की हत्या की गई। इसी प्रकार वर्ष 2010 में 626 लोगों की हत्या माओवादियों ने की। इस खूनी संघर्ष में 277 जवान व 277 ही नक्सली भी मारे गए। सुरक्षा बलों की जवाबी कार्रवाई पर राजनैतिक छींटाकशी के अलावा मानवाधिकार जैसी संस्थाएं भी सक्रिय हो जाती हैं।
आज राष्ट्र की बाहरी सीमाओं को सबसे अधिक खतरा चीन की तरफ से लगातार हो रही घुसपैठ से है। आज़ाद कश्मीर में भी चीन की गतिविधियां लगातार बढ़ रही हैं। चीन अब भारत के अटूट हिस्से अरुणाचल प्रदेश पर भी हक जताने लगा है। पाकिस्तान और बंगलादेश से भी भारतीय सीमा में अवैध घुसपैठ जारी है। वर्ष 2001 की जनगणना के एक अनुमान के अनुसार केवल बंगलादेश से ही 30 लाख व्यक्ति गैर कानूनी ढंग से देश में प्रवेश कर चुके हैं, जिसमें से 20 लाख से अधिक देश के महानगरों में पूर्णतया स्थायी तौर से निर्वाह कर रहे हैं।
वर्ष 2005 में सर्वोच्च न्यायालय ने गैर कानूनी माइग्रेट अधिनियमको असंवैधानिक करार देते हुए कहा कि अवैध ढंग से प्रवेश करने वाले बंगलादेशियों ने असम व उत्तरी-पूर्वी राज्यों के नागरिकों में असुरक्षा व भय का माहौल उत्पन्न कर दिया है। इससे भारत की आंतरिक सुरक्षा को खतरा पैदा हो गया है। महिला व बाल अध्ययन केंद्र के एक अनुमान के अनुसार वर्ष 1998 में 27 हजार बंगलादेशी औरतों को देश के विभिन्न भागों में देह व्यापार के लिए धकेल दिया गया।
पाकिस्तान के प्रमुख जेहादी संगठन जम्मू-कश्मीर व राष्ट्र के अन्य हिस्सों में अपनी विध्वंसक कार्रवाइयों को अंजाम दे रहे हैं। आईएसआई राष्ट्र की आंतरिक व्यवस्था को नुकसान पहुंचाने के लिए तस्करी, नकली करंसी व ड्रग्स आदि भी पहुंचा रही है। वर्तमान नवाज शरीफ सरकार द्वारा वर्ष 2008 के नरसंहार के लिए उत्तरदायी जमात-उद-दावा को 6.1 करोड़ की राशि इनाम के तौर पर दी गई और इस आतंकी सगठन को आतंकवादियों की यादगार में नालेज पार्कबनाने तथा अन्य लाभ प्रदान करने हेतु 35 करोड़ रुपये दिए गए। आज भी जमात-उद-दावा पर कोई प्रतिबंध नहीं है और इसके मुख्य तथा 26/11 हमलों के मुख्य आतंकी हाफिज सैयद आज़ादी से घूम रहे हैं।

आज आर्थिक दृष्टि से पिछड़े आदिवासियों को मुख्यधारा से जोडऩे की जरूरत है। इसके साथ ही राष्ट्र की आंतरिक सुरक्षा, अखंडता व आन-बान को बनाए रखने के लिए संघर्षरत सुरक्षा बलों व सैन्य कर्मियों के कल्याण व विकास हेतु राष्ट्रीय नीति बनाई जानी चाहिए।

Social Media: Freedom Yes, License No

The recent expose about Rajasthan Chief Minister Ashok Gehlot allegedly buying ‘Likes’ for his official Facebook page in Istanbul, the ‘Twitter’ war between the ruling Congress and the main Opposition BJP and an outrageous tweet by Congress leader Shakeel Ahmed virtually defending the terrorist outfit ‘Indian Mujahideen’ have once again brought the spotlight back on the role of social media.
The events also saw the social media directly or indirectly setting the agenda for the mainstream media and thereby reviving the debate on the relationship between the two, particularly in a developing country like India.
According to a joint study by market research firm IMRB International and the Internet and Mobile Association of India, India currently has nearly 20 million Twitter users. Facebook has also reported that its Monthly Active Users in the country doubled to 78 million in Q1 2013.
With a burgeoning number of users joining the online community world wide, the importance of social media is significant - not only for the purpose of connecting with the people we know and befriending strangers but also for the purpose of disseminating information thereby informing, influencing, moulding and building mass opinions.
The Anna Movement against corruption in India exemplified the power of social media. While critics claim that the anti-graft crusade was a television generated movement, the fact remains that a large number of youth who joined the campaign across the country were deeply influenced by the social media, although aided and abetted by the visual media.
We have witnessed the use of social media technology during the widespread unrest in the Middle East – Libya, Syria, Egypt and Bahrain.
In fact, the experiences in Egypt and Tunisia have prompted the Syrian Government to maintain a strong surveillance on the use of new media technologies. The Chinese and Pakistanis have often restricted access to social media on political and cultural grounds.
In India too, the Central Government has made futile attempts to censor social media but have backtracked following huge hue and cry.
In neighbouring Nepal, the importance of these informal channels was recognised after the February 2005 takeover by the then King Gyanendra, when almost all the formal channels of information were blocked and only a few online media and blogs remained to share information with the public.
It is not only during unrest and rebellions that the social media has come handy. They have proved to be immensely invaluable during natural catastrophes and even emergency situations like the 26/11 terror attacks in Mumbai.
However, what’s more interesting is the emergence of social media not only as a crucial source of information for the mainstream media but also as a key competitor in the race for breaking news.
It is said that Twitter users posted the message about the death of singer Whitney Houston twenty-seven minutes before the mainstream media broke the news.
According to the Telegraph, tweets were posted at a rate of around 70 tweets every five seconds during the Mumbai terror attacks. Blogs and social networking sites were abuzz with news, photo, audio-visual and eyewitness accounts as the events unfolded.
Back home, in India, we have had former UN Under Secretary General and Minister of State for External Affairs, Shashi Tharoor, who lost his first job in the council of Ministers following a series of tweets revealing juicy information about the goings on in the highly lucrative Indian Premier League. The young, media savvy author and columnist was not the only loser in the episode. His friend and now wife Sunanda Pushkar lost her stakes (sweat equity) in the Kochi team, IPL wizard Lalit Modi lost his job and Kerala lost its only IPL team.
The episode provided lot of masala to the mainstream media. So did the tweets of actor director Farah Khan on the SRK-Sirish Kunder spat. The tweets of film stars and starlets often grab media headlines.
Instead of calling the media to air their enlightened views, on subjects ranging from tooth aches to child births, the celebrities, including the Big B and SRK, have taken to the social media to reach out to their fans, hit out at their rivals and remain in news.
The politicos have also joined the bandwagon, with the BJP leaders taking the lead. If Gujarat Chief Minister and Leader of BJP’s Poll Campaign Committee Narendra Modi is among the celebs with huge twitter following, Leader of Opposition Sushma Swaraj’s tweets keep the party beat correspondents updated with the latest in the party and parliament while veteran leader L K Advani has shocked and surprised many within and outside the party with his blogs on issues ranging from media to Modi and films to foreign policy. Digvijay Singh and ManishTiwari lead the Congress offensive on the social media.
Lauding the role of social media, particularly in cornering senior journalists Barkha Dutt and Vir Sanghvi in the wake of the Nira Radia tapes, even as mainstream media remained a mute spectator, columnist Sachin Kalbag wrote in the Mail Today, “ Online media in India rarely, if ever, gets its due. But it is social media, with its ability to become, as a senior journalist put it, a lynch mob that is something that media professionals would do well to remember. It is debatable whether a "lynch mob" or a "mass movement" would describe the phenomenon. It does not matter, really, because social media has well and truly arrived in India.
A series of projects funded by the Australian Research Council, UNESCO, UNDP and other international non-government organisations have been undertaken to enlist new media to help poverty alleviation in India, Nepal, Sri Lanka and Indonesia.
Although each initiative is adapted to local circumstances, the common objective is to give local communities the skills to set up their own independent and community-based media resources to address issues that are important to these communities. Such issues might include health, education or politics, and the media used range from local radio stations to new media forms such as websites.
Finding a Voice: Making technological change socially effective and culturally empowering is one of the leading projects in the programme.. Taking a participatory approach to research, aiming to empower people through finding their own voice, the project looks at using old and new media technologies to reduce poverty in poor communities in terms of people's participation. This is achieved by assessing people's capacity to participate in various activities such as self expression and freedom of speech.
Of late, Government departments in India too have taken to the social media to reach out to the new generations. One of the success stories in this regard has been Census 2011.
According to Zee Research Group (ZRG), Census 2011, a service from the Census Commission of India under the Union Home Ministry, has been one of the best offering of the Government on the social networking media. Census 2011 was logged on 24x7 on Facebook with live updates, comments and responses from the department.
The office of the Registrar General and Census Commissioner of India thought of the Facebook idea soon after it released the momentous Census 2011 findings. The result has been more than satisfying.
According to Registrar General and Commissioner of Census 2011, Dr C Chandramouli, “This initiative really helped to connect with the people. The responses of the people have been overwhelming. People have been very inquisitive and thoughtful throughout and have been actively participating and commenting on our regular updates.” He is not averse to criticism and looks forward to some constructive suggestions to engage the public better.
Several other Ministries and departments including the Ministry of External Affairs too have joined the bandwagon.
With India emerging as a leading Facebook market, the anxiety of the Government to reach out to GenX is understandable. A Tata Consultancy ‘GenY Survey 2011-2012’ of nearly 12,300 high school students across 12 Indian cities found that 85 percent of the students use Facebook.
Interestingly, Socialogue, a survey on social media trends and behaviour, revealed that 56 percent of Indians would prefer giving up television than giving up social networking sites. It revealed that nearly 37 per cent of people prefer a large network of friends as compared to close friends.
A study earlier this year by Mumbai's Iris Knowledge Foundation and the Internet and Mobile Association of India claimed that 78 million Facebook users will "wield a tremendous influence" over 160 Lok Sabha seats in the upcoming general elections. In these so-called "high impact" constituencies, Facebook users constitute either 10% of the total vote, or command greater numbers than the margin of victory in the 2009 election.
However, there are also equally significant statistics that do not support such findings and are also worrisome as far as social media is concerned. Although India ranked third this year in the number of active users next only to China and US, yet the overall Internet penetration in the country is a mere 11 per cent.
India on last count had 120 million active Internet users, up from 81 million users in 2010. Of the 10 top countries on active number of users, India is at the bottom in regard to levels of penetration achieved as against China with a penetration rate of 40 per cent and an active user base of 511 Million. China is followed by United States with 240 million users.
The social media has also become a platform for propagating separatism, communal hatred and vulgarity. Morphed photos of the Muslim-Buddhist violence in Myanmar were extensively used to force hundreds of people belonging to the North East to flee the southern metropolis of Bangalore.
Unsubstantiated reports and gossip are often passed on as genuine information and unlike mainstream media, which has stringent filtration mechanisms in place, many of these fly by the night websites post fiction as facts, throwing to winds journalistic norms such as accuracy and objectivity. Blackmailing has become a norm in the absence of any monitoring or regulatory system. Sensationalism is the only criterion and page hits the only yardstick.
Kashmiri and Sikh separatists are aggressively exploiting the platform to provoke and lure the youth to their ranks whereas the so-called Internet Hindus are hitting back with vengeance. The depth to which the discourse have fallen is appalling. Nicknames such as ‘feku’ and ‘pappu’ have been given to leaders of national political parties by their ideological opponents taking the political debate to an all time low.
The negative impact of the growing influence of social media is also causing concern to sociologists and educationists.
According to ‘Global Youth Online Behaviour Survey’ conducted by Microsoft, India ranked third in the list of 25 countries where 53 percent of the surveyed children aged between eight and 17 admitted that they were victims of cyber bullying.
Even as they are increasingly coming to terms with social media or citizen journalism as a major source of information, leading mainstream media journalists feel that the impact of social media has been overestimated.
Asserting that mere information is not journalism, Richard Sambrook, the former director of the BBC Global News Division, says one gets a lot of things, when one opens up Twitter in the morning, but not journalism.
“Journalism needs discipline, analysis, explanation and context. It is still a profession”, says Sambrook. According to him, the value that gets added with journalism is judgment, analysis and explanation - and that makes the difference.
While the impact of social media should not be underestimated and rather harnessed effectively for nation building, it is important to ensure that anti-social and anti-national elements don’t get away scot-free under the garb of freedom of speech and expression.

Social media will have to be made accountable to the society and the nation at large. It is too powerful a tool to be allowed to flourish and demolish societal and national interests in splendid isolation. 

सोमवार, 29 जुलाई 2013

Gond Painting In India

Gond art is a form of Contemporary art. It hails from the Gond tribal community which is amongst the biggest aboriginal communities of Central India. Their art is a medium to express their daily life’s quest. It holds the faith which says that seeing a good image, begets good fortune. So, the Gonds use customary motifs and tattoos to adorn their dwellings as well as their floors. The Gond paintings gel with works of a modern art gallery. The art bears an arresting resemblance to Northern Australia aborigines’ art. It is surprising that the psychedelic images echo community motivation which has never been exposed to advancement of modern art. The works can be flamboyant or sophisticated and simple when done with only black and white colors. Each artwork is individual in terms of interpretation and expression. Explore this write-up to gain more info about this creative excellence.

Origin and Development

The Gonds reside mostly in Madhya Pradesh and adjoining States. They traditionally painted their homes’ mud walls and floors during festivities and marriages using colored muds. Initially, they used to do it as a decorative and symbolic art which could fight off evil and invite optimism during festivals called Dighna. Dighna celebrated occasions of Gond tribals’ lives. Beginning in the early part of 80s of the last century, some artistic Pardhan Gonds who were traditionally and professionally bardic priests changed their ceremony performing arts to narrative and figurative visual art. For this, they employed various modern media and created exceptional representation of their traditional songs, oral histories and mythological and natural worlds. The media they used included drawings in ink on paper, animated film, painting on canvas with acrylic and silkscreen prints.
The first Gond artist to employ canvas and paper for his artworks was Jangarh Singh Shyam. Beginning with painting the traditional way, he switched to different creativity mediums. His life’s mission was to train the Patangarh (a Madhya Pradesh village) residents in this art form. He rose to fame which his exhibitions in Tokyo and Paris mark with great acclaim. With the course of time Gond art has switched onto canvas and paper by talented artists.

Style

Gond paintings materialize like a collage of dashes and dots. The collage combines into bright images of animals and plants, articulating folklores. The art is in black and white as well as colored variety. These pieces of creativity are affluent in color, humor, detail and mystery. They are brilliant in using modern means for evoking the psyche which is pre-modern. Gond artworks have not only gone through theme-experimentation but have also made medium go through innovations. The Gond paintings’ nuances don’t begin and end with patterning. Brilliant hues express souls’ language. Signature styles form essence. They are employed intrinsically for filling the ornamental motifs and patterns of the surface. Such signature styles define individualism and allusiveness of every Gond artist.

Subjects

Gond art echoes with culturally distinguished ethos. It is inspired by legends and myths to everyday life images. It also considers surreality of dreams, imagination and emotions. The dominant subjects include complex detailing of fauna and flora and mythological beasts. Nature, Symbols used represent Mother Nature along with her bounties.

Colors, Tools and Techniques

Colors are derived from natural sources. For instance, black from local soils, white from rock calcium and yellow from Narmada River banks. As mediums, charcoal and lime are used that form several ornamental paintings, when it comes to painting homes, particularly. An outline commences the art which is filled using block colors. When it dries, elaborate patterning is done. It imparts three-dimensional effect to the designs.

Artists

A prominent Gond artist is Suresh Kumar Dhurwe. His drawings are stuffed with small dash series. Bhajju Shyam (a globally famous artist) is credited with ‘The London Jungle Book’ (2005) which is critically acclaimed. Proteges of Jangarh Singh Shyam consist of mentioning his son Bhajju Shyam. The latter is inspired by folklores, nature as well as the Gond pantheon. A linked dancers’ chain mark his signature pattern. Rajendra and Venkat are other artists who have the credit to paint cells for animation film-‘The best of the best’ having a company based in Scotland as its producer. Both the artists have painted ‘Udta Hathi’ which is a fiberglass elephant weighing 70 Kgs. It commemorated London’s parade mela. Rajendra’s artworks have witnessed exhibition in London. More eminent artists include the names of Ram Singh Urveti, Japani Shyam , Narmada Prasad Tekam and Durga Bai.

Gond Artpieces

A number of Gond artpieces are widely laudable. ‘Tree of Life’ is one of them. It shows the tree rising from deer horns. It represents accord in existence and interdependence among living beings. As a harmonious symbol, it brings good luck and peace. Durga Bai’s creations illustrate a movement and vitality within. Her narratives are hued intensely and talk about deities and folk tales.
Gond art has enthralled the global art market. It has carved a niche for itself through its exceptional moods and tones of compelling and vibrant patterns. With such international exposure, lives of the tribal artists have transformed. They are encouraged to rise above cultural fences and dip the idiom of the universe in paints according to a special way of their own. Gond paintings have stepped in the contemporary scenario. You can easily spot them on mouse-pads, keychains, pen stands and mugs. So, when you visit a store next time, you may not resist the temptation to buy a cool tee embellished with Gond motifs to team up with your favorite jeans.

दक्षिण पूर्व एशियाई क्षेत्र के लिए विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन के तंबाकू नियंत्रण संरचना समझोता

दक्षिण पूर्व एशियाई क्षेत्र के लिए विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन के तंबाकू नियंत्रण संरचना समझौते (एफसीटीसी) को लागू करने संबंधी क्षेत्रीय बैठक सम्‍पन्‍न हो गई। यह बैठक 23 जुलाई से 26 जुलाई 2013 तक चार दिन चली।

स्‍वास्‍थ्‍य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा यह बैठक विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन के एफसीटीसी के सहयोग से आयोजित की गई। बैठक के लिए तकनीकी सहायता विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन के देशीय कार्यालय द्वारा उपलब्‍ध कराई गई। इस बैठक के मुख्‍य उद्देश्‍य इस प्रकार थे – 1. डब्‍ल्‍यूएचओ, एफसीटीसी और क्षेत्र तथा अन्‍य देशों में समझौते से संबंधित प्रमुख कार्यों के कार्यान्‍वयन की समीक्षा 2. उपलब्धियों और चुनौतियों के कार्यान्‍वयन संबंधी अंतरदेशीय आदान-प्रदान के लिए सुविधाएं जुटाना 3. समझौते, खासकर सम्‍बद्ध देशों के सम्‍मेलन द्वारा अपनाए गए मार्ग निर्देशों के कार्यान्‍वयन के लिए उपलब्‍ध दस्‍तावेजों की समीक्षा 4. डब्‍ल्‍यूएचओ एफसीटीसी को लागू करने के लिए अंतर्राष्‍ट्रीय सहयोग, स्रोत और तौर-तरीके पर विचार करना 5. तंबाकू उत्‍पादों के अवैध व्‍यापार पर रोक लगाने और उसके अनुमोदन को बढ़ावा देने के लिए स्‍वीकृत नए समझौते के प्रति जागरूकता पैदा करना।

बैठक में भाग लेने वालों में दक्षिण पूर्व एशिया के 10 देशों यथा भारत, नेपाल, भूटान, बांगलादेश, म्‍यांमा, मालदीव, इंडोनेशिया, थाईलैंड, तिमौर लेस्‍ते और श्रीलंका, विश्‍व बैंक, विश्‍व सीमाशुल्‍क संगठन (डब्‍ल्‍यू सी ओ), यूएनडीपी, संरचना सम्‍मेलन संधि (एफसीए), 21 राज्‍यों के राष्‍ट्रीय तंबाकू नियंत्रण कार्यक्रम के राज्‍य नोडल अधिकारी, परामर्शदाता, एनटीसीपी और तंबाकू नियंत्रण संबंधी सिविल सोसायटी के चुनिंदा संगठन शामिल हैं। एफसीटीसी सचिवालय का प्रतिनिधित्‍व सम्‍मेलन सचिवालय के प्रमुख डॉक्‍टर हैक नोकीगोसियन ने किया। इस बैठक में भाग लेने वाले भारतीय शिष्‍टमंडल का नेतृत्‍व स्‍वास्‍थ्‍य और परिवार कल्‍याण मंत्रालय के सचिव श्री केशव देसीराजू ने किया। बैठक के दौरान डब्‍ल्‍यूएचओ एफसीटीसी उपलब्धियां और चुनौतियों के कार्यान्‍वयन संबंधित मामलों और तंबाकू उत्‍पादों के अवैध व्‍यापार संबंधी समझौते और उसके अनुमोदन आदि मामलों पर विचारों का आदान-प्रदान किया गया।

बैठक के दौरान भारत सरकार के गुटके पर प्रतिबंध लगाने और तंबाकू-मुक्‍त फिल्‍मों संबंधी नियमों के कार्यान्‍वयन की दिशा में किए जा रहे प्रयासों के बारे में जानकारी दी गई। हुक्‍के के प्रचलन वाले क्षेत्र के देश इस बारे में एक मत थे कि हुक्‍का स्‍वास्‍थ्‍य के लिए हानिकारक है और वे इस बात पर सहमत हुए कि हुक्‍के के प्रयोग की रोकथाम के लिए उचित वैधानिक, प्रशासनिक और नियामक उपाय किए जाएं।

बैठक के अंतिम दिन वर्ष 2013 के लिए डब्‍ल्‍यूएचओ वर्ल्‍ड नो टोबेको डे (डब्‍ल्‍यूएनटीडी) संबंधी पुरस्‍कार भी दिए गए। विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन हर वर्ष तंबाकू की रोकथाम की दिशा में असाधारण काम करने वाले व्‍यक्तियों/संगठनों को सम्‍मानित करता है। वर्ष 2013 का पुरस्‍कार राजस्‍थान सरकार के चिकित्सा और स्‍वास्‍थ्‍य सेवा‍निदेशालय से संबद्ध डब्‍ल्‍यूएचओ इंडिया ऑफिस, हेल्‍थ ब्रिज की सुश्री शोभा जॉन और राजस्‍थान कैंसर फाउंडेशन के डॉक्‍टर राकेश गुप्‍ता को प्रदान किए गए। डब्‍ल्‍यूएचओ के दक्षिण पूर्व एशियाई क्षेत्र का डब्‍ल्‍यूएनटीडी 2013 क्षेत्रीय निदेशक सराहना पुरस्‍कार बिहार सरकार के स्‍वास्‍थ्‍य सचिव श्री संजय कुमार को, इंडिया कैंसर सोसायटी की सुश्री ज्‍योत्‍सना गोविल, उपभोक्‍ता ऑनलाइन फाउंडेशन के श्री बिजॉन मिश्रा, बर्निंग ब्रेन सोसायटी के श्री हेमंत गोस्‍वामी, केरल स्‍वयंसेवी स्‍वास्‍थ्‍य सेवाएं और परामर्शदाता हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ0 श्रीनिवास रमाका को दिए गए।  

आईएस 100

डब्‍लू आई एफ एस कार्यक्रम

भारत उन देशों में शामि‍ल है जहां एनि‍मि‍या के बहुत अधि‍क मामले पाए जाते हैं। तीसरे राष्‍ट्रीय परि‍वार स्‍वास्‍थ्‍य सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 10-19 वर्ष आयु समूह की 56 प्रति‍शत कि‍शोरि‍यों और 30 प्रति‍शत कि‍शोरों में एनि‍मि‍या है, यानी उनमें रक्‍त की कमी है।

हमारे देश में एनि‍मि‍यां से संबंधि‍त पोषण की लगभग 50 प्रति‍शत लौह की कमी है। इसका कारण प्रमुख रूप से अल्‍प पोषण और खान-पान में लौह की कम मात्रा होना है। यह कमी न केवल गर्भवती महि‍लाओं, शि‍शुओं और बच्‍चों में होती है, अपि‍तु कि‍शोरों में भी होती है। ऐसा अनुमान है कि‍ 15-19 वर्ष आयु समूहों में 5 करोड़ कि‍शोर एनि‍मि‍क हैं।

कि‍शोरावस्‍था में लौह की कमी से होने वाले एनि‍मि‍या से शारीरि‍क वि‍कास, शारीरि‍क चुस्‍ती और ऊर्जा के स्‍तर पर बुरा असर पड़ता है और इससे ध्‍यान केंद्रि‍त करने और कामकाज में भी दि‍क्‍कत आती है। लड़कि‍यों में लौह की कमी से स्‍वास्‍थ्‍य पर वि‍परी‍त गंभीर असर पड़ता है, इससे समूचे जीवन चक्र पर भी असर पड़ सकता है। एनि‍मि‍या वाली लड़कि‍यों में गर्भ काल से पहले लौह का कम भंडार होता है। एनि‍मि‍क कि‍शोर लड़कि‍यों में समय से पूर्व प्रसव होने का जोखि‍म बना रहता है और शि‍शु का वजन भी कम हो जाता है। कि‍शोर लड़कि‍यों में एनि‍मि‍यां होने से मातृत्‍व के दौरान मृत्‍यु का जोखि‍म भी होता है। मातृत्‍व के दौरान की मृत्‍यु के सभी मामलों में एक ति‍हाई 15-24 वर्ष आयु वर्ग की महि‍लाएं होती हैं।

इसलि‍ए आयरन फोलि‍क एसि‍ड को माईक्रो न्‍यूट्रेंट के समृद्ध भोजन के साथ पूरक के रूप में नि‍यमि‍त रूप से लेने से कि‍शोरि‍यों और कि‍शोरों में होने वाली लौह की कमी को रोका जा सकता है।

इसे देखते हुए इस वर्ष जनवरी में साप्‍ताहि‍क आयरन और फोलि‍क एसि‍ड पूरक कार्यक्रम शुरु कि‍या गया ताकि‍ स्‍वास्‍थ्‍य के महत्‍वपूर्ण मुद्दों को हल नि‍काला जा सके।

साप्‍ताहि‍क लौह और पूरक एसि‍ड कार्यक्रम वर्तमान में देशभर के सभी राज्‍यों में कक्षा 6-12 के स्‍कूल में पढ़ रही 13 करोड़ लड़कि‍यों और लड़कों और सरकारी/सहायता प्राप्‍त और नगरपालि‍का वि‍द्यालयों और आंगनवाड़ी केंद्रों की कि‍शोर लड़कि‍यों तक पहुंच रहा है।

हाल ही में पि‍छले कुछ दि‍नों में चक्‍कर आने और उल्‍टी आने के कुछ मामूली वि‍परीत प्रभाव की कुछ खबरें मि‍ली है, हालांकि ऐसे कुछ मामूली प्रभावों को रोकने के लि‍ए फोलि‍क एसि‍ड की गोलि‍यां देने से संबंधि‍त ‍दि‍शार्नि‍देश दि‍ए गए हैं।

हाल ही में आयोजि‍त प्रैस कांफ्रेंस में जन स्‍वास्‍थ्‍य और पोषण केंद्र, आखि‍ल भारतीय आयुर्वि‍ज्ञान संस्‍थान और युनि‍सेफ के जन स्‍वास्‍थ्‍य वि‍शेषज्ञों ने लौह फोलि‍क एसि‍ड की गोलि‍यों और डब्‍लू आईएफएस कार्यक्रम के बारे में वि‍चार रखते हुए कुछ मामूली वि‍परीत प्रभावों को रोकने की भी जानकारी दी।


जब पहली बार लौह की गोली ली जाती है, तो शरीर को इसे पचाने में कुछ परेशानी हो सकती है और पेट दर्द तथा चक्‍कर आने के लक्षण हो सकते हैं। अगर इस गोली को भोजन के बाद लि‍या जाए तो पेट दर्द और चक्‍कर आने की संभावना नहीं रहती। इस गोली को कुछ सप्‍ताह ले लेने के बाद ऐसे मामूली प्रभाव नहीं होते, क्‍योंकि‍ शरीर इसे पचाने का आदि‍ हो जाता है। लौह फोलि‍क एसि‍ड की गोली लेने के बाद ठोस मल आना नुकसानदायक नहीं होता । शरीर आवश्‍यकता के अनुसार लौह ग्रहण कर लेता है और अति‍रि‍क्‍त लौह मल के जरि‍ए नि‍कल आता है। इसके वि‍परी‍त प्रभाव से बचने के लि‍ए इस गोली को भोजन लेने के बाद लेना चाहि‍ए। कि‍सी बीमारी के दौरान भी कोई वि‍टामि‍न या पोषक लेने की कोई मनाही नहीं होती। दरअसल इससे शरीर की सहन शक्‍ति‍ बढ़ती है और बीमारी जल्‍द ठीक हो जाती है। लौह एसि‍ड फोलि‍क की गोली बीमारी और औरतों की महावारी के दौरान भी ली जा सकती है।

डब्‍लू आईएफएस कार्यक्रम के तहत काम करने वालों को प्रशि‍क्षण दि‍या गया है और कौशल वि‍कास के लि‍ए संसाधन सामग्री भी दी गई है, ताकि‍ इस अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण स्‍वास्‍थ्‍य कार्यक्रम को कुशलतापूर्वक लागू कि‍या जा सके और इस पर नि‍गरानी रखी जा सके। संसाधन सामग्री से पता चलता है कि‍ लौह की कमी और एनि‍मि‍या को दूर करना, लौह फोलि‍क एसि‍ड गोलि‍यों को देने के लि‍ए पूरी व्‍यवस्‍था करना, क्‍यों इतना महत्‍वपूर्ण है। राज्‍यों को सलाह दी गई है कि‍ वे डब्‍लू आईएफएस कार्यक्रम की र्नि‍धारि‍त मानदंड के अनुरूप गुणवता बनाए रखें और समय-समय पर नि‍रीक्षण करें तथा बाहरी गुणवत्‍ता नि‍गरानी प्रकोष्‍ठ स्‍थापि‍त करें। इसके अलावा राज्‍यों को दी जा रही आपूर्ति‍ में से समय-समय पर कुछ नमूने उठाकर जांच के लि‍ए भेजने का भी प्रावधान है। इसके लि‍ए स्‍वास्‍थ्‍य और परि‍वार कल्‍याण मंत्रालय ने कुछ प्रयोगशालाओं का चयन कि‍या है।

स्‍कूलों और आंगनवाड़ी केंद्रों के लि‍ए भी मासि‍क रि‍पोर्ट तैयार करने और लौह फोलि‍क एसि‍ड की गोलि‍यों की वि‍तरण पर नजर रखने, इसके समुचि‍त भंडारण तथा वर्ष में 2 बार बच्‍चों को कीड़ों से मुक्‍त करने की दवा देने के र्नि‍देश जारी कि‍ए गए हैं।

लौह फोलि‍क एसि‍ड गोलि‍यों को लेने की मात्रा के बारे में दि‍शार्नि‍देश दि‍ए गए हैं।

·         लौह फोलि‍क एसि‍ड की गोलि‍यां दि‍न के खाने के बाद लेनी चाहि‍ए ताकि‍ चक्‍कर आने जैसे वि‍परी‍त प्रभाव न हो।
·         जि‍न कि‍शोर और कि‍शोरि‍यों को इस गोली को लेने से वि‍परि‍त प्रभाव होता है, उन्‍हें सोने से पहले और रात में खाने के बाद गोली लेने की सलाह दी जाए।
·         भोजन में नीबू, आमला आदि‍ वि‍टामि‍न सी से समृद्ध वस्‍तुएं लेने से शाकाहारी भोजन लेने वालों के लि‍ए लौह को पचाना आसान हो सकता है।
·         खाना पकाने के लि‍ए लौहे के बर्तनों का इस्‍तेमाल कि‍या जाना चाहिए।
·         खाना खाने के एक घंटे के भीतर चाय या कॉफी पीने से बचना चाहि‍ए।
·         कि‍शोरों और कि‍शोरि‍यों को सही शारीरि‍क स्‍वच्‍छता के लि‍ए प्रेरि‍त कि‍या जाना चाहि‍ए और उन्‍हें जूते डालने के लि‍ए भी कहना चाहि‍ए।

हालांकि दि‍शार्नि‍देश जारी कि‍ए गए हैं, लेकि‍न इस महत्‍वपूर्ण कार्य में लगे कार्यकार्यताओं और शि‍क्षकों के प्रशि‍क्षण समेत इस कार्यक्रम को अमल में लाने के मुद्दों को हल करने की जरूरत है। लौह फोलि‍क एसि‍ड की गोलि‍यां की सही मात्रा सुनि‍श्‍चि‍त करने के लि‍ए प्रशि‍क्षण के साथ साथ नि‍रीक्षण का भी ज्ञान दि‍या जाना चाहि‍ए। इस कार्यक्रम पर बेहतर नजर रखने की भी जरूरत है।

वर्तमान आंकड़ों से पता चलता है कि‍ लौह सल्‍फेट के धीमी गति‍ से तैयार होने से लौह की कमी का मानक उपचार होता है। माहवारी वाली महि‍लाओं को हर सप्‍ताह वि‍भि‍न्‍न प्रकार से लौह और फोलि‍क एसि‍ड देना वि‍भि‍न्‍न देशों में (कंबोडि‍या, मि‍स्र, लाओस, फि‍लि‍पि‍न्‍स और वि‍यतना) कामयाब रहा है।

राष्‍ट्रीय ग्रामीण स्‍वास्‍थ्‍य की अति‍रि‍क्‍त सचि‍व और मि‍शन डायरेक्‍टर श्रीमती अनुराधा गुप्‍ता ने सही कहा है कि‍ लौह की कमी के एनि‍मि‍या के दूर करने के लि‍ए साप्‍ताहि‍क लौह फोलि‍क एसि‍ड सुरक्षि‍त और प्रभावी प्रमाण आधारि‍त कार्यक्रम है। उन्‍होंने कहा कि‍ बहुत कम मामलों में कुछ कि‍शोर और कि‍शोरि‍यों को इसके वि‍परि‍त प्रभाव हुए हैं। इस महत्‍वपूर्ण जन स्‍वास्‍थ्‍य पहल में बाधा नहीं आना चाहि‍ए।



डब्‍लू आईएफएस के बारे में दुष्‍प्रचार नहीं जागरूकता फैलाने की जरूरत है। महत्‍वपूर्ण कार्यक्रम का कुशल कार्यान्‍वयन और समुचि‍त नि‍गरानी की जानी चाहि‍ए, ताकि‍ कि‍शोरो और कि‍शोरि‍यों का स्‍वास्‍थ्‍य उन्‍नत हो और उनका वि‍कास हो।

शनिवार, 27 जुलाई 2013

Folk Painting In India

The farthest corners of India are stuffed with purest art expressions. Folk Paintings in India make you dazzle by their simplistic intensity. The color and the exuberance of these time-honored art forms give them the picturesque charm which very few other art forms can desire for. You can certainly say that ethnic Indian responsiveness is represented best through the Folk Paintings. Folk Paintings of India are the toast of the world fine art course. Indian folk paintings reflect the colors of Indian culture. As the Indian culture is vivid so is the Indian folk painting. The beautiful colors of Indian Folk painting are splashed in the account below.

Discovery of Indian Folk Paintings
Folk painting in India was discovered by Indian scholars towards the opening of 20th Century. They started noticing the effervescent motives that had festooned their walls and courtyard for long. The plainness which the proponents of Modern Art so aspired eagerly for was so naturally accomplished in Indian Folk Painting. So, Indian Folk Painting was known for its correct artistic value.

Themes of Folk Paintings
Folk paintings are illustrative expressions of village painters, marked by the subjects from epics like Ramayana and Mahabharata, Puranas and every day village life, animals, birds and natural objects. The color was mostly drawn from natural material, leaves, clothes, earthen pots, mud and stone walls are used as canvas. Folk paintings evolved in different region of India mainly depending upon mythological stories, rural cultures and everyday rituals.

Folk Painting of Maharashtra
Warli painting of Maharastra is gifted from a tribe. These paintings are created in white on rigorous mud. Impulsive expressions of folk life, beliefs and customs are painted in these paintings.

Folk Painting of Bengal
Probably, Bengal was aloof from court life. The strongest painting medium is ‘Pata painting’ of the Kalighat area of Calcutta. Simple bold lines and flat colors are used here to portray the Hindu gods and goddesses. Manasamangal is an all time favorite subject of this painting.

Folk Painting of Gujarat
The Jains occupy artists for creating enlightened versions of the Jain consecrated texts in the libraries.

Folk Painting of Orissa
Two types of folk paintings are famous here. First is `Patas`. Second is palm leaf etching, locally called `Talapatrachitra`, amongst the most ancient art forms. The artists of this painting reside in Puri and Cuttak.

Folk Painting of Rajasthan
The Pahari paintings evolved in sub-Himalayan areas (Punjab, Himachal Pradesh, Jammu and Kashmir) during Rajput kings. It illustrates beautiful scenes of Himalaya as background and describes mythological stories and epics in a gentle, powdery color.

In Rajasthan, folk paintings are generally done on some particular occasions (birth ceremony, marriage, and festivals). Folk paintings are practiced by several tribes. Bhill paintings involve Goddess of clan, dancing men and women, bridal chamber, Lord Siva, and various birds and animals. Vivid delight and excellent expression mirror in these pictures on the wall at house entrance. Sanjhya is another Rajasthani folk art form. Young girls, especially the newlywed in Malwa and Mewar areas paint the walls for 14-15 days during the `Pitrapaksha`, when ancestors of Hindus are remembered and presented ritual oblation.

Folk Painting of Mithila
Madhubani/ Mithila art is continual in some areas of Bihar. The village women create the pictures of Krishnalila, Ramayana, Mahabharata and other Hindu mythologies, birds, animals and other natural objects on their hut’s mud walls. Today it is done on clothes and paper.

Folk Painting of North-East India
Arunachal, Sikkim and other places in the Northeastern states of India are no less where folk painting in India is concerned. Monpa painting (Sikkim) holds traditional Buddhist influence. Another Buddhist art form is Thangka-paintings on flat surface and painted or embroidered Buddhist banners. When Thangkas are not displayed, they are rolled up. So, they are also called scroll painting.

Folk Painting of Deccan
Paithan in the Godavari plateau, Deccan houses unusual folk style. It is notable for its novelty, and brushwork boldness. Rest part of South India doesn’t come under the folk painting section. Paintings of gods and goddesses on the small shrines of Tamil Nadu and on temple floors in Kerala really painted with dyed powders have some liveliness of folk paintings.


Folk painting in India is graceful and gorgeous to a great extent. Their splendor and magnificence know no bounds. 

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